tag:blogger.com,1999:blog-42948766420438418382024-03-21T21:27:44.308-07:00सरोकारछत्तीसगढ़ की संस्कारधानी से देश-दुनिया माटी और मीडिया की बातें...राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-63733057487277410602012-10-16T12:50:00.002-07:002012-10-16T12:55:36.870-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<h2 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">बुझती उम्मीदों के बीच दमकता हुनर </span></h2>
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-4rPWfV1X_x4/UH20HK7z4HI/AAAAAAAAA1E/fgTDv-zD14E/s1600/DSCF4342.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-4rPWfV1X_x4/UH20HK7z4HI/AAAAAAAAA1E/fgTDv-zD14E/s320/DSCF4342.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">रतनपुर के लोक कलाकार काशीराम को 9 अक्टूबर 2012 को राष्ट्रपति ने फोक थियेटर में योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी अवार्ड दिया। काशीराम से बातचीत करना सुकून देता है। उन्होंने अपनी कविताओं पर किताबें भी प्रकाशित कराई है। दक्षिण -मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने उन्हें रहस गुरु का ख़िताब भी दिया और रहस पर एक किताब भी उनसे लिखाई है।</td></tr>
</tbody></table>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-Ali0fHciW-k/UH203vXXKPI/AAAAAAAAA1M/CKFHofXYRHA/s1600/DSCF4349.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="300" src="http://4.bp.blogspot.com/-Ali0fHciW-k/UH203vXXKPI/AAAAAAAAA1M/CKFHofXYRHA/s400/DSCF4349.JPG" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">पदकों से सजा काशीराम का बैठक-कक्ष।</td></tr>
</tbody></table>
<h4 style="text-align: left;">
<br /><span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">काशीराम ने पूरा जीवन लोक कला के लिए समर्पित कर
दिया। गम्मत उनके नस-नस में बह रहा है, लेकिन उन्हें यह साफ पता है कि इस हुनर को आगे बढ़ाने की रफ्तार थमने वाली है। राष्ट्रपति प्रणव मु<span style="font-variant: small-caps;">खर्जी के हाथों नौ अक्टूबर 2012 को वे संगीत नाटक
अकादमी अवार्ड से सम्मानित हुए। पुरस्कार को लेकर वे उल्सास से लबालब तो हैं, पर
यह पीड़ा छिपाए नहीं छिपती कि गम्मत, रहस और लीला की जगह फूहड़ नाच-गानों के लोक
मंच ने हड़प ली और रही सही कसर गांव-गांव में पहुंच गए टीवी केबल कनेक्शन ने पूरी
कर दी। लेखन, संगीत, नृत्य अभिनय की विधाओं में पारंगत इस बहुआयामी कलाकार को
उम्मीद है कि कोई पहल होगी और गम्मत की सिमटती लोक विधा को सहेजने के लिए
संवेदनशील और सरकार के संस्कृति विभाग से जुड़े लोग सामने आएंगे और छत्तीसगढ़ की
इस पहचान को खत्म होने से बचाएंगे।</span></span></h4>
<div style="text-align: left;">
</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-wI2RyTuoHLY/UH26QATBPHI/AAAAAAAAA1s/RbNuUcgo7-4/s1600/Kashiram-Pics.gif" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="296" src="http://4.bp.blogspot.com/-wI2RyTuoHLY/UH26QATBPHI/AAAAAAAAA1s/RbNuUcgo7-4/s320/Kashiram-Pics.gif" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">राष्ट्रपति के हाथों से सम्मानित होते हुए काशीराम। </td></tr>
</tbody></table>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">काशीराम साहू सचमुच माटी का बेटा है। उनके भीतर कोई अहंकार
नहीं और बाहर कोई आडंबर नहीं। पहनावा, गुरतुर गोठ, रहन-सहन, ठौर-ठिकाना, सब माटी
की सुगंध से सराबोर। जुलाई 1949 में रतनपुर से दस किमी दूर डोंगी गांव में किसानी
करने वाले परिवार में पैदा हुए। होश संभालने के बाद पाया कि घर ही नहीं पूरे कुल में
सब गाने-बजाने के लिए उतावले हैं। आठ साल की उम्र में बड़े भाई रामझूल ने कहा तू
तो गोरा है, सुंदर है-चल मंच पर परी का रोल कर। पहली बार में ही झूम कर नाचा।
वाहवाही करने वालों की कतार में सबसे आगे बड़े पिताजी रामझूल और पिता विशंभर बैठे
थे। काशी मंच पर करतब दिखाने के बाद नीचे उतरकर सबसे पहले पिता के ही पास पहुंचकर
मान मांगते थे। मान यानि नजराना...। वे ददा की दाढ़ी तब तक खींचते रहते थे जब तक
उन्हें मनचाहा उपहार नहीं मिल जाता था। ये कभी सिक्के होते थे तो कभी खाई.. यानि
चाकलेट ..और कभी पिपरमेंट वगैरह। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">खूबसूरत जोक्कड़ </span></h3>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">घर के सारे मरद गम्मत करने रतनपुर, बिलासपुर, कोरबा,
रायगढ़, सरगुजा, रायपुर, जांजगीर तमाम शहरों में जाते थे। पुरुषों के बीच से ही
कोई राधा बनता कोई सीता, कोई कृष्ण तो कोई राम.. कोई जोक्कड़ तो कोई नचकहर। उनकी
टोली, एक साथ- एक कुनबे के मानिंद हंसी ठिठोली करते हुए इसका आनंद उठाया करते थे।
जो मेहनताना मिल जाए उसे बराबर बांटा करते थे। इस मामले में न कोई धुरंधर कलाकार
होता था न कोई मामूली। सौ रूपया मिला तो सबको दस-दस बांट लिया। पचास मिला तो
पांच-पांच रूपए ही सही।</span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">सफर ऐसे शुरु हुआ </span></h3>
</div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">महज तीसरी कक्षा तक की तालीम हासिल कर पाने वाले काशी में
कोई अलग बात है यह जानना लोगों ने 16 बरस की उमर से महसूस किया जब उसकी ऊंगलियां
हारमोनियम पर थिरकने लगी, आवाज रस घोलने लगी, गम्मत की पटकथा खुद लिखने लगे और
लड़की बनकर स्टेज पर कमाल का डांस करने लगे। सबने महसूस किया कि गम्मत तो इसमें
रचने-बसने जा रहा है। महज मनोरंजन और शौक नहीं ये तो अपनी नस-नस में इसे दौड़ाने
के लिए निकल पड़ा है। बाहर की लीला मंडलियों ने भी काशी को बुलाना शुरू किया.. उन
मंचनों में वे अपने खुद के लिखे भजनों पर वाहवाही बटोरने लगे।</span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">सिलसिला चल पड़ा। काशीराम गांवों के हर जलसे में याद किए
जाने लगे। व्यस्तता बढ़ गई। बीस पचीस बरस तक खूब मांजा मंचों को। टर्निंग प्वाइंट
था.. नब्बे के दशक में चालू हुआ भारत ज्ञान विज्ञान समिति का साक्षरता अभियान।
लोककला प्रेमी अनूप रंजन पांडे इससे जुड़े थे। काशीराम से अक्सर मिला करते थे।
गांवों में नेटवर्क था। साक्षरता का संदेश पहुंचाने के लिए लोक कलाकारों को
प्रशिक्षित करने की जरुरत थी। काशीराम बिलासपुर बुलाए गए, फिर जगह-जगह टोलियों को
सिखाने लगे। काशीराम हो तो फिर किसी बात की कमी महसूस नहीं होती थी। न साजिंदे, न
गायक, न कवि, न नर्तक और न नाटककार। काशी हर विधा में माहिर जो थे। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">बात पहुंची छत्तीसगढ़ की लोक विधाओं को अंतर्राष्ट्रीय
मंचों पर चिन्हारी देने वाले पद्मश्री हबीब तनवीर तक। वे तो पारखी थे। काशीराम को
ले गए अपने साथ। मोर नांव दामाद, गांव के नांव ससुराल के लिए उनसे कुछ गीत लिखवाए,
स्टेज पर बड़ा रोल दिया। दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में मौका मिला। काशीराम को
यह मान भाया, पर जल्दी ऊब गए। ठेकला के बासी भात और सिगड़ी की रोटी वहां नसीब नहीं
हो रही थी। सब संगी साथी छूट गए थे। हबीब तनवीर मनाते रहे, नहीं माने। तकरीबन एक
महीने रहकर भाग खड़े हुए। फिर शुरू हो गया देवरी, लखराम, रतनपुर, डोंगी की अपनी
पुरानी टीम के साथ राम-कृष्ण लीला, गम्मत और रहस। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">इसी दौरान समझ में आ गया कि यह काम माथे पर तिलक तो लगाता
है पर गृहस्थी नहीं पालता। घरवाली और चार बच्चे तकलीफ में दिन बिता रहे थे। सब
सोचकर डोंगी छोड़ा, रतनपुर आ बसे। जहुरिया नाम का लोक मंच बनाया और कलाकारों की
टीम बनाकर घूमने लगे। दूसरी तरफ एक लकड़ी की गुमटी (ठेला) खरीदी और खोल ली पान की
दुकान। दुकान तो चल पड़ी पर खुद ही बेपरवाह। खड़े ग्राहकों से हाथ जोड़कर ताला मार
देते थे। कह देते कि गम्मत में जाना है।</span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">बहुआयामी काशी </span></h3>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">काशीराम ने जो कुछ भी अपने भीतर था उढ़ेल कर रख दिया। तीसरी
कक्षा तक की पढ़ाई को लेकर कोई मलाल नहीं। उसने शास्त्रीय संगीत सीखा, मुम्बई के
गंधर्व महाविद्यालय से संगीत विशारद की डिग्री ले ली। करीब दो सौ छत्तीसगढ़ी,
अवधी, ब्रज गीत लिखे। इन पर आधारित तीन किताबें, चुरकुट होगे रे, संगीत पुष्प
पुंज, भजनामृत प्रकाशित किया। रतनपुर के साहित्यिक क्षेत्र में मील का पत्थर बने
हुए बाबू रेवाराम के गुटके के यत्र-तत्र बिखरे दोहों को संकलित किया और उस पर एक
किताब निकाल दी। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने इन्हें रहस गुरु का
खिताब दिया। कई संस्थाओं में उन्होंने कार्यशाला रखी और कलाकारों को रहस, गम्मत
तथा लोक संगीत का प्रशिक्षण दिया। इस समय वे रत्नदेव साहित्य व सांस्कृतिक समिति
रतनपुर के अध्यक्ष हैं। लोककला से जुड़ा कोई भी आयोजन हो आगे रहते हैं। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">पत्नी ने की मजदूरी </span></h3>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">इन सबके बावजूद यह विडम्बना ही है कि गम्मत को खत्म होते
हुए काशीराम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। उन्होंने अपने दोनों बच्चों नंदकिशोर
व शैलेन्द्र को इस तमाशे से अलग रखा है। एक को पान की दुकान में दूसरे को जनरल
स्टोर में बिठा रहे हैं। वजह यही बताते हैं कि इसका कोई भविष्य नहीं है। दुकानदारी
तो घर में चार पैसे दे रही है, पर गम्मत नहीं देगा। मेरी घरवाली कमला ने तो मेरी
फकीरी बर्दाश्त कर ली, मेरी जेब को खाली देखा तो मजदूरी करने चली गई पर बहू-बेटे
ऐसा न करें। </span></div>
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">उम्मीद की रोशनी </span></h3>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-8GY0w5lcFQU/UH21jt4bEGI/AAAAAAAAA1U/AFPOhw82XhI/s1600/DSCF4379.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="http://1.bp.blogspot.com/-8GY0w5lcFQU/UH21jt4bEGI/AAAAAAAAA1U/AFPOhw82XhI/s320/DSCF4379.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">अपने पोते अमन के साथ काशीराम साहू।</td></tr>
</tbody></table>
<div>
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">अब काशीराम व्यस्त नहीं है। उम्र के चौथेपन में वे लगभग
सन्यास ले चुके हैं। बेटियों सुमन और सुशीला की शादी कर चुके हैं जो अपने-अपने
घरों में खुश हैं। नंदकिशोर व शैलेन्द्र के भी बच्चे हैं। कुल 11 लोगों का परिवार
घर पर है। इनमें से एक है पोता अमन.. केजी वन मे पढ़ने वाले इस बालक में उन्हें
कुछ संभावना दिखती है। सा रे गा मा.. उन्हें सिखा रहे हैं। किसी दिन शास्त्रीय
संगीत में पारंगत हो जाए यह लालसा रखते हैं। इसके अलावा प्रशिक्षण देने के लिए कोई
बुलावा आता है तो चले जाते हैं। कोई घर पर आकर सीखना चाहे तो उन्हें भी सिखा देते
हैं। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<h3 style="text-align: left;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">बचा लो गम्मत </span></h3>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;">काशीराम कहते हैं </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">–</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;"> गम्मत,
रहस जैसी लोककला को बचा लीजिए। टीवी और फूहड़ लोक मंच इसे निगलने में लगा है।
कलाकारों को कुछ नहीं चाहिए। मनरेगा की सौ दिन मजदूरी के बराबर ही इन्हें रकम दिला
दो वे इसे बचा लेंगे। भूख इन्हें कला से बिदकने के लिए मजबूर कर रहा है। आज हाथ
में काम है तो ठीक, नहीं है तो दाने-दाने की मोहताजी। </span><span style="font-variant: small-caps; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-variant: small-caps; mso-bidi-language: HI;"><i><b>(पत्रिका बिलासपुर में 9 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित)</b></i></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
</div>
राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-74764128934734012272012-10-04T22:27:00.000-07:002012-10-04T22:33:05.767-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPs4yae4TE-IVOsvPZZtgQU1s4my0hTFKtvufSf3DuSbt1hhET3oXWrzneibJThcqqqLyGWL-PjIr3lrR5U12qZ32QetDburnVi9hNLkMpBZriadrASPAstJKfIhh1_LmFW01tbKaDEVM/s1600/untitled.bmp" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPs4yae4TE-IVOsvPZZtgQU1s4my0hTFKtvufSf3DuSbt1hhET3oXWrzneibJThcqqqLyGWL-PjIr3lrR5U12qZ32QetDburnVi9hNLkMpBZriadrASPAstJKfIhh1_LmFW01tbKaDEVM/s400/untitled.bmp" width="330" /></a></div>
<a href="http://epaper.patrika.com/c/421706">http://epaper.patrika.com/c/421706</a><br />
बीते दो अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के गारे गांव के किसानों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया। किसानों की जमीन को पावर प्लांटों को दिए जाने के विरोध में उन्होंने गांधी जी के नमक कानून की तरह कोयला कानून तोड़ा और मांग की कि उन्हें खुद उनकी जमीन का कोयला निकालने की अनुमति दी जाए, बजाय किसी उद्योगपति के। उस पर एक टिप्पणी पत्रिका के छत्तीसगढ़ संस्करण में पांच अक्टूबर को प्रकाशित हुई है।</div>
राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-29181828900206561842012-09-29T12:31:00.004-07:002012-09-29T12:31:47.272-07:00गांधी और भगत सिंह <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-qo8sXQZp1OM/UGdLsOcGcsI/AAAAAAAAA0k/QpLnDodXTK4/s1600/gandhi-bhagat.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="213" src="http://4.bp.blogspot.com/-qo8sXQZp1OM/UGdLsOcGcsI/AAAAAAAAA0k/QpLnDodXTK4/s320/gandhi-bhagat.jpg" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><a href="http://modifiedpics.blogspot.in/">http://modifiedpics.blogspot.in</a></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: Mangal;">महात्मा गांधी और भगत सिंह के बीच वैचारिक मतभेद थे, यह सब जानते हैं। प्रायः
गांधी की आलोचना करने वाले लोग इस तथ्य को भी उभारते हैं कि सरदार भगत सिंह की
फांसी रुकवाने के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन राजस्थान पत्रिका के
पत्रिकायन पेज पर 29 सितंबर के अंक में प्रकाशित एक लेख यह जानकारी देता है कि महात्मा गांधी ने न केवल वाइसराय को पत्र लिखकर फांसी को रोकने की अपील की थी,
वरन् फांसी दिए जाने के बाद ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना भी की।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">अनुपम मिश्र के आलेख- <i><b>दोनों के सम्बंधों का सच</b> </i>में इस बात का खुलासा किया गया
है। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
“<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"> कुछ
लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि गांधी चाहते, तो भगत सिंह को बचा सकते थे, लेकिन इस
संदर्भ में इतिहास भी देख लेना चाहिए। गांधी जी ने वायसराय को एक पत्र लिखा था,
जिसमें भगत सिंह को फांसी न देने का जिक्र था। पत्र इस प्रकार था, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">आपको यह पत्र िलखना आपके प्रति
क्रूरता करने जैसा लगता है, पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है।
यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की
सज़ा में कोई रियायत नहीं किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के
निवेदन पर विचार करने को कहा था। डॉ. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया
कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि
इस पर पुनः विचार करने की कुछ गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर
दिलाना चाहता हूं। जनमत, वह सही हो या गलत, सज़ा में रियायत चाहता है। जब कोई
सिध्दांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत
मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सज़ा हल्क की जाती है, तो बहुत संभव है कि आंतरिक
शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सज़ा दी जाती गई, तो निःसंदेह शांति
खतरे में पड़ जाएगी। क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों
की जान बख्श दी जाए, तो यह दल अपनी कार्रवाईयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी
राय में मौत की सज़ा को, क्रांतिकािरयों द्वारा की जाने वाली हत्याएं जब तक बंद
रहती हैं, तब तक तो मुल्तवी कर देना एक लाज़मी फर्ज बन जाता है।</span>‘<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">गांधी ने वायसराय को यह भी लिखा था, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो
मैं आपसे प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। दया कभी निष्फल नहीं जाती।</span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">जब सरकार ने भगत सिंह को फांसी दे दी, तो गांधी जी ने अपने अख़बार में लिखा
था, </span>‘<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">सरकार ने भगत सिंह और
उसके साथियों को फांसी देकर अपना पशु स्वभाव प्रकट किया है। लोकमत का तिरस्कार कर
सत्ता के मद का ताजा प्रदर्शन किया है।...सरकार को फांसी देने का अधिकार जरूर है,
पर कई अधिकारों की शोभा इसी में है कि वे सिर्फ थैली में बंद पड़े रहें।... इस
वक्त अगर सरकार ने अपने अधिकार का उपयोग न किया होता, तो वह शोभा देता और
शांति-रक्षा में उससे बड़ी सहायता मिलती।...हमें आशा थी सरकार उनकी और उनके
साथियों की सज़ा माफ करने की शिष्टता दिखाएगी। इस आशा के पूरा न होने पर भी हम
अपनी प्रतिज्ञा न तोड़ें, बल्कि इस चोट को सहकर प्रतिज्ञा का पालन करें। ...
प्रतिज्ञा भंग करने से अर्थात् समझौते को तोड़ने से हमारा तेज कम होगा, शक्ति
घटेगी और ध्येय तक पहुंचने में जो कठिनाईयां हमारे मार्ग में है, उनमें वृध्दि
होगी। इसलिए गुस्से को पीकर समझौते पर डटे रहना और कर्तव्य का पालन करना ही हमारा
धर्म है। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI;">इसी आलेख में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि भगत सिंह से जब माफी की
अर्जी की बात कही गई तो उन्होंने अर्जी देने से इनकार कर दिया। </span><o:p></o:p></div>
<br /></div>
राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com0National Highway 200, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, भारत22.0796251 82.139141221.8443896 81.8232842 22.314860600000003 82.454998199999991tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-9890220995922065212010-12-02T23:00:00.001-08:002011-03-20T22:26:17.580-07:00सिकलसेल पर पत्रकार संजय दीक्षित की किताब का डा.कलाम ने किया विमोचन<span style="font-weight:bold;">कैंसर से भी ज्यादा खतरनाक है सिकलसेल<br /></span><br />दुनिया में पत्रकारिता की भूमिका कभी पायलट की रही है तो कभी फालोगार्ड की। अनेक अवसरों पर यह देखा गया है कि पत्रकारिता ने जिस अंधेरे रास्तों पर दीये का प्रकाश बिखेरा है, वह बाद में जाकर प्रकाश स्तंभ बन गया। रायपुर के पत्रकार संजय दीक्षित की कुछ पहल ऐसी ही है। उन्होंने सिकल सेल जैसी लाइलाज बीमारी पर शोध किया है। उक्त बातें संजय दीक्षित की सिकल सेल पर लिखी गई किताब के विमोचन पर वक्ताओं ने कही।<br />रायपुर मेडिकल कालेज में सिकल सेल पर आयोजित अंतराष्ट्रीय सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. कलाम ने दीक्षित की शोध पुस्तक का विमोचन किया। <a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TPiV-3NY-mI/AAAAAAAAAkA/Rf7bdnt_9JA/s1600/photo%2Bsanjay%2B%25281%2529.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 270px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TPiV-3NY-mI/AAAAAAAAAkA/Rf7bdnt_9JA/s400/photo%2Bsanjay%2B%25281%2529.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5546347848311306850" /></a> इस मौके पर मुख्यमंत्री रमन सिंह भी मौजूद थे. 2006 में राष्ट्रपति डॉ. कलाम के हाथों ही श्री दीक्षित को स्व.चंदूलाल चंद्राकर स्मृति पत्रकारिता फेलोशिप मिली थी। ओर इसी के तहत पत्रकारीय दृष्टिकोण से यह शोध पुस्तक लिखी गई है। सिकल सेल पर हिन्दी में लिखी गई संभवत: यह पहली पुस्तक होगी।<br /><br />पुस्तक में श्री दीक्षित ने बताया है कि सिकल सेल को केंसर से भी ज्यादा खतरनाक बताया है। शुरूआती स्टेज में अगर कैंसर पकड़ में आ गया तो उसका इलाज है। मगर सिकल सेल का अब तक कोई निदान नहीं ढूंढा जा सका है। छत्तीसगढ़ में 30 लाख से अधिक लोग इस बीमारी से ग्रस्त है, इस बीमारी से राज्य की ग्रामीण अर्थव्यक्स्था पर भी बुरा असर पड़ा है। दीक्षित का कहना है कि सिकल सेल पहली ऐसी बीमारी होगी, जिससे एक साथ कई अंग प्रभावित होते हैं।<br />उन्होंने बताया कि सिकल सेल ग्रस्त छह राज्यों से घिरे होने की वजह से छत्तीसगढ़ में यह बीमारी मौत का तांडव मचा रही है। आलम यह है कि सिकल प्रभावित 7 फीसदी बच्चे तो छह महीने के अंदर काल के ग्रास बन जाते है। सिकल रोगी अगर 50 वर्ष जी गए तो आश्चर्य माना जाता है। सूबे में पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी के करीब हैं और सबसे अधिक पिछड़े वर्ग के लोग ही सिकल सेल से प्रभावित हैं। इनमें से कुर्मी, साहू जैसी जातियों में तो 22 प्रतिशत तक लोग सिकल सेल की चपेट में हैं। सिकल सेल से सबसे अधिक वे ही प्रभावित हैं। बच्चों की थादी में बाधा आने की आशंका से लोग इस अनुवांशिक बीमारी के बारे में बताना नहीं चाहते और इस बीमारी के लगातार फैलने की वजह भी यही है।<br />शादी के बाद संतान उत्पति की प्रक्रिया में यह बीमारी फैलती जाती है। दो सिकल सेल रोगी की अगर शादी हो गई तो उनकी संतान भी सिकल रोगी होगी। इसलिए शादी के पहले अगर सिकल कुंडली मिला ली जाए तो 70 फीसदी तक बीमारी को कंट्रोल किया जा सकता है। मगर इसके लिए सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। क्योंकि जनजागृति ही सिकल सेल का एकमात्र उपाय है और सामाजिक संगठनों को साथ लिए बगैर जनजागृति संभव नही है।<br />गौतरलब है कि संजय दीक्षित 17 साल से पत्रकारिता में हैं और दैनिक भास्कर, देशबंधु, जनसत्ता, जैसे कई अखबारों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं; वर्तमान में वे दैनिक हिन्दुस्तान के संवाददाता के तौर पर काम कर रहे हैं।राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-125326250199202672010-08-17T09:55:00.000-07:002010-08-17T12:26:31.811-07:00लेह में दबी लाशों की चीत्कार, सुनो सरकार!<span style="font-weight:bold;"><br />राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को लेह में आई भीषण प्राकृतिक आपदा में मारे गए मजदूरों ने आईना दिखा दिया है. इस हादसे ने छत्तीसगढ़ के दर्जनों परिवारों को बेसहारा कर दिया. मरने वालों का सही आंकड़ा नहीं मिल रहा है. बच गए मजदूरों की मानें तो इनकी संख्या 200 से ज्यादा हो सकती है. लेह में करीब 600 मजदूर काम कर रहे थे. दो खेप में इनमें से 110 लोग लौट पाए हैं. जो आए हैं वे बता रहे हैं कि उनके साथ गए 60-70 साथी लापता हैं. हो सकता है ये बादल फटने के बाद वहीं मिट्टी में दब गए हों.</span><br />काम की तलाश में देशभर में भटकने वाले छत्तीसगढ़िया मजदूरों, जिनमें ज्यादातर दलित वर्ग से हैं- की संख्या सरकारी आंकड़ों के मुताबिक केवल 20 हजार है, लेकिन स्वतंत्र<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGq_954RexI/AAAAAAAAAjw/ci-dapEpmtc/s1600/leh+lebour.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 353px; height: 251px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGq_954RexI/AAAAAAAAAjw/ci-dapEpmtc/s400/leh+lebour.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5506424564643625746" /></a> सर्वेक्षणों के अनुसार इनकी वास्तविक संख्या 3 से 5 लाख है. इनमें से सैकड़ों मजदूर तो दुबारा लौटते ही नहीं और वहीं बस जाते हैं. ज्यादातर मजदूर खतरनाक उद्योगों में विषम परिस्थितियों के बीच काम करते हैं. श्रम विभाग के अधिकारी, कर्मचारी, जीआरपी और पुलिस की पलायन कराने वाले दलालों के साथ साठगांठ होती है. इनका आर्थिक शोषण तो होता ही है, शारीरिक उत्पीड़न भी होता है. इनके काम के घंटे तय नहीं होते, रहने के लिए कच्ची ईंट या मिट्टी की कुटिया ही होती हैं. शौचालय, स्नानघर नहीं मिलते न ही स्वास्थ्य की सुविधा होती. लौटने वाले मजदूर अपने साथ श्वास और दूसरी कई तरह की बीमारियां लेकर आते हैं, यहां तक कि यौन रोग भी. जो दलाल इन्हें झांसे में रखकर ले जाते हैं, वे मजदूरी यहां बहुत बढ़ाकर बताते हैं और वहां कम कर देते हैं. ऐसे मजदूर यदि भागना चाहते हैं तो उन्हें लठैतों के दम पर बंधक बना लिया जाता है. हर साल 10-12 बार ऐसे मजदूरों को छुड़ाने पुलिस व श्रम विभाग के प्रतिनिधि यूपी, गोवा, जम्मू, आदि जाते हैं. उन्हें बंधक बनाने वालों और ले जाने वालों के ख़िलाफ 19.02.1976 के बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन अधिनियम के तहत कार्रवाई होनी चाहिए, जिसमें 3 साल तक की सज़ा और 25 हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान है.पर बंधकों को छुड़ाकर लाने के बाद सरकार उन पर कोई कार्रवाई नहीं करती. आज तक किसी दलाल या ठेकेदार पर कानून का शिकंजा नहीं कसा गया. गरीबों का यह शर्मनाक पहलू है कि उन्हें धान का कटोरा कहा जाने वाला यह राज्य साल भर की रोजी मुहैया नहीं करा पाता. बीते चुनाव में अनेक लोक लुभावन वादों के बीच भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में यह भी कहा था कि राज्य को पूरी तरह पलायन मुक्त किया जाएगा. लेकिन लेह में दब चुकी लाशों ने सरकार के इस दावे की पोल खोलकर रख दी.<br />लेह हादसे के बाद प्रशासन के पास अजीबो-गरीब स्थिति थी. पता चला कि वहां बादल फटने से छत्तीसगढ़ के मजदूर हताहत हुए हैं. उसके नुमाइंदे गांव-गांव जाकर पलायन करने वालों और उनमें से लेह जाने वालों का नाम खोजने लगे. बड़ी तादात में पलायन होने की सच्चाई को नकारने वाली सरकार के पास इसका जवाब नहीं कि उसके पास पूरा आंकड़ा पहले से क्यों नहीं? दूसरी बार सरकार बनाने के बाद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा था कि पंचायत स्तर से ही मजदूरों के बाहर जाने का रिकार्ड रखेंगे, उनकी इस घोषणा पर अमल नहीं हुआ. ज्यादातर मजदूर जुलाई में पलायन करते हैं और अक्टूबर के आसपास लौट जाते हैं. कोई रिकार्ड अब तक बनना शुरू नहीं हुआ. सरकार की नीयत साफ होती तो इससे पता चलता कि वे किस दलाल के जरिये गए और यदि नहीं लौटे तो उन्हें क्या बंधक बना लिया? जिस जगह पर व जिन परिस्थितियों में वे काम कर रहे हैं वह उनके लिए सुरक्षित है भी या नहीं और सबसे बड़ी बात इन्हें पलायन से मुक्ति दिलाने के लिए स्थानीय स्तर पर उनके पास खेती से बच जाने वाले खाली दिनों में क्या उपाय किए गये कि उन्हें अपना गांव-घर छोड़ने से रोक लेते. पता लग जाता कि मनरेगा जैसे उपाय उन्हें रोकने में सफल क्यों नहीं हुए. <br />एक दशक पहले जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा होता था तब भी मजदूर कमाने खाने जाते थे. तब इसके पीछे इलाके का पिछड़ापन और गरीबी बड़ा कारण माना जाता रहा, लेकिन अब हमारी सरकार तो सीना फुला कर कहती है कि इन दस सालों में एक आदमी के पीछे आय 136 फीसदी तक बढ़ गई है. यह पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली जैसे राज्यों से भी ज्यादा है. सरकार दो रूपये और एक रूपये में राज्य की आधी आबादी, लगभग 37 लाख परिवारों को चावल बांटने का जश्न मना रही है. सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, 3 फीसदी ब्याज पर खेती व पशुपालन के लिए कर्ज़ जैसी अनेक योजनाएं चलाकर वह वाहवाही लूट रही है. अब तो सरकार को ही जवाब देना चाहिए कि उसकी नेक नीयत में सुराख कहां हैं. <br />कुछ कारण तो साफ दिख जाएंगे. राज्य बनने के बाद बजट के बढ़े आकार, (दस सालों में करीब 10 गुना इस साल का बजट 23 हजार करोड़ रूपया) का फायदा जिन्हें मिला, उनके होटल, मोटल, लाकर, शापिंग माल, काम्पलेक्स, टावर्स, एम्यूजमेन्ट पार्क और फार्म हाऊस भी देखे जा सकते हैं. इनकी बढ़ी आय को गरीबों की आय के साथ जोड़ देने के चलते सरकारी सर्वेक्षणों में राज्य के लोगों की आमदनी बढ़ी दिखाई दे रही है. जबकि हक़ीकत यह है कि इन धनिकों ने राज्य बनने के बाद हजारों एकड़ खेती की जमीन खरीद ली. फार्म हाऊस अब खेती के नहीं काली कमाई छिपाने और विलास के काम आते हैं. हाल में रायपुर के नवधनाड्यों के यहां पड़े छापों से साफ हो गया कि राज्य बनने के बाद कौन फला फूला. सेल्समेन बनकर कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में ठिकाना तलाशने वाले लोग अब अरबपति हैं व सत्ता की राजनीति कर रहे हैं. गरीबों का परिवार तो बढा़ लेकिन जमीन बढ़े हुए परिवार में बंट जाने तथा उद्योग व्यापार के लिए हड़प लेने के बाद सिमटती गई. मनरेगा के काम ठेकेदार और सरपंच मिल कर कर रहे हैं. मजदूर बस फर्जी मस्टर रोल में दिखते हैं. नौकरशाहों, ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों में ऐसी साठगांठ हो तो छत्तीसगढ़ को पलायन और गरीबी से छुटकारा आखिर कौन दिला पाएगा? <br />कुछ साल पहले पुंछ में छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन मजदूर आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गए थे. अब लेह में उन पर बादल फट पड़ा. वे ऐसे जोखिम भरे जगहों पर आगे भी मिलेंगे और हादसे का शिकार होते पाए जाएंगे. लेह के बाद तो थोथी बयानबाजी बंद हो जानी चाहिए. एक मंत्री जी जांजगीर गए, संवेदना के कुछ शब्द मजदूरों से कह भी गए, पर उससे क्या होना है. अब पलायन रोकने के लिए कोई ठोस और ईमानदार कोशिश होनी चाहिए.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-41807555476784785922010-08-14T03:14:00.000-07:002010-08-15T20:27:17.599-07:00चोला छत्तीसगढ़ के माटी के राम...<span style="font-weight:bold;">ससुराल गेंदा फूल के बाद अब चोला माटी के राम...छत्तीसगढ़ के लोक-गीत अब बालीवुड के रास्ते दुनिया भर में धूम मचा रहे हैं. दूरदर्शन में समृध्द लोक नाटकों, प्रहसनों का और आकाशवाणी में ऐसे मशहूर गीतों का खज़ाना भरा पड़ा है. वक्त आ गया है कि अब इन महान रचनाओं को लोगों को सामने लाने के लिए प्रसार-भारती अपना व्यावसायिक दायित्व निभाए, वरना भद्दे वीडियो एलबम और बेतुके छत्तीसगढ़ी फिल्म, यहां के महान कलाकारों का योगदान धूल-धुरसित करके रख देंगे. </span> <br />चोला माटी के राम के जरिये, साल भर के भीतर ही बालीवुड के धुरंधरों ने दूसरी बार छत्तीसगढ़ के कला व संगीत प्रेमियों को उनके घर में उन्हीं का सामान बेचकर चौंका दिया है. दिल्ली-6 में जब प्रसून जोशी ने ससुराल गेंदा फूल का इस्तेमाल किया तो छत्तीसगढ़ी साहित्य और<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZyxIz6uHI/AAAAAAAAAjY/eiOr7bY56S8/s1600/nageen+tanveer.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 150px; height: 222px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZyxIz6uHI/AAAAAAAAAjY/eiOr7bY56S8/s320/nageen+tanveer.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5505213783011407986" /></a> संस्कृति को लेकर चौकन्ना होने का दम भरने वाले बुध्दिजीवी वर्ग ने उनके इस प्रयास की सराहना कम और आलोचना ज्यादा की. ससुराल गोंदा फूल गाने की पृष्ठभूमि खोज निकाली गई और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि फिल्म के गीतकार व संगीतकार ने छत्तीसगढ़ के मूल गीतकार व गायकों का जिक्र नहीं करके उनके साथ धोखाधड़ी की, अन्याय किया. गीत के बोल व धुन के साथ छेड़छाड़ का आरोप भी लगा. हालांकि संगीत प्रेमियों का एक बड़ा वर्ग इस बात से कभी सहमत नहीं हुआ और उन्होंने दिल्ली-6 में पारम्परिक<a href="http://www.cgculture.in/english/Chhattisgarh_at_a_Glance/Chhattisgarh_ke_Geet/Shringar_Geet.htm"> ददरिया</a> लोकगीत पर किए गये प्रयोग के लिए प्रसून जोशी व एआर रहमान की भूरि-भूरि प्रशंसा की. पूरे देश के अलावा छत्तीसगढ़ के संगीत प्रेमी इस गीत पर अब भी झूम उठते हैं और उन्हें अपनी माटी की सुगंध देश-विदेश में फैलते देखकर खुशी होती है.<br />अब छत्तीसगढ़ के साथ-साथ पूरी दुनिया में पद्मभूषण हबीब तनवीर की बेटी नगीन तनवीर की आवाज में, इसी माटी के संगीत का एक बार फिर डंका बज रहा है. कल 13 अगस्त को रिलीज़ हुई आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म पीपली लाइव का<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZyVDPg6gI/AAAAAAAAAjQ/JdbtUC5EK0A/s1600/Peepli_Live+1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 214px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZyVDPg6gI/AAAAAAAAAjQ/JdbtUC5EK0A/s320/Peepli_Live+1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5505213300480207362" /></a> लोक-गीत चोला माटी के राम हर किसी की ज़ुबान पर है. मांदर की थाप में, <a href="http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/chgr0043.htm">करमा</a> के धुन पर तैयार इस तात्विक गीत को करीब 3 दशकों से छत्तीसगढ़ के लोग जानते हैं. हबीब के नाटक बहादुर कलारिन में भी इसे सुना जाता है. आमिर खान को इस साहस के लिए बधाई देनी होगी कि उन्होंने गीत को उसी मौलिक स्वरूप में मूल लोक वाद्य-यंत्रों के साथ परोसा. यूं तो सालों साल गाए जाने के बाद लोकगीत पारम्परिक मान लिए जाते हैं, लेकिन इस गीत के बोल लिखने वाले गंगाराम साकेत का नाम<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZzYUD4OmI/AAAAAAAAAjg/DrQT9vlCiK0/s1600/tribal+dance.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 240px; height: 183px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZzYUD4OmI/AAAAAAAAAjg/DrQT9vlCiK0/s320/tribal+dance.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5505214456046041698" /></a> भी ईमानदारी से डाल दिया गया है. ससुराल गेंदा फूल गीत के गीतकार <a href="http://sarokaar.blogspot.com/2009/02/blog-post_22.html">प्रसून जोशी</a> और संगीतकार एआर रहमान ने मूल गीत व धुन में कुछ फेरबदल कर दिए थे. गीत को तब भी खूब सराहना मिली, इतनी कि इस नाम का एक टीवी सीरियल भी चल रहा है. ससुराल गेंदा फूल के आने पर छत्तीसगढ़ और यहां के कलाकारों की उपेक्षा की जो बात की गई, चोला माटी के राम.. गीत में वह भी नहीं है. <br />अब तो झेंपने की बारी थोक के भाव में छत्तीसगढ़ी फिल्म और गीत बनाने वालों की है, जो आज तक ऐसा कोई प्रयोग दिखाने का साहस नहीं कर पाए. सिर उन नौकरशाहों, नेताओं भी पीटना चाहिए जो करोड़ों का बजट लेकर राज्य की कला और संस्कृति का उत्थान करने में लगे हैं.<br />एक तरफ आमिर और प्रसून जैसी प्रख्यात हस्तियां बेधड़क छत्तीसगढ़ के सालों पुराने गीतों को हाथों-हाथ ले रही हैं और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की फिल्मों और वीडियो एलबम में बालीवुड के ठुमके, लटके-झटके, पहनावे आदि की भौंडी नकल हो रही है. रायपुर में जिस दिन पीपली लाइव रिलीज़ हुई उसी दिन गोविन्दा की एक फिल्म के नकल पर रखे गए नाम वाली एक छत्तीसगढ़ी फिल्म भी प्रदर्शित हुई. एक तरफ देशभर के चैनलों में दर्शक मंहगाई डायन और चोला माटी के राम सुन रहे थे, तो रीज़नल चैनल में चल रहे इस छत्तीसगढ़ी फिल्म के प्रोमो में नहाती, साड़ी गिराती एक नायिका बालीवुड बालाओं से होड़ करने के चक्कर में नाच रही थी.<br />एक समय था जब पद्मभूषण हबीब तनवीर का चरणदास चोर नाटक दूरदर्शन पर आता था, तो आधी रात तक जागकर लोग उसे देखते थे. तीजन बाई की पंडवानी को भी दम साधकर सुनने वाले दर्शक मिलते थे. गली-गली में आकाशवाणी के लोकप्रिय गीत लोगों के ज़ुबान पर होते थे. शुक्रवार की शाम बांस गीत का बेसब्री से इंतजार होता था. <br />लेकिन अब न दूरदर्शन के वैसे दर्शक रह गये न आकाशवाणी के श्रोता. बालीवुड के गीतों को आज मोबाइल पर लोड किया जा सकता है, इंटरनेट पर सुन सकते हैं, फिल्मों व सीडी के अलावा दिन भर टीवी पर आने वाले प्रोमो के जरिये हमारे कानों में ये गीत बार-बार झनक रहे हैं. लेकिन उन पुराने गीतों व लोकनाट्यों का क्या हो, जो आकाशवाणी व दूरदर्शन की लाइब्रेरी में तो हैं, पर कला प्रेमी उसे देख-सुन नहीं पा रहे हैं. कई दशक पहले जब आकाशवाणी मनोरंजन का प्राथमिक व एकमात्र साधन होता था, राज्य के दबे-छिपे कलाकारों को उसने उभरने का मौका दिया, अब कलाकार इसके मोहताज नहीं रह गए. वे अपना वीडियो एलबम खुद निकाल रहे हैं. उन्हें लगता है कि आकाशवाणी ने उसे ले भी लिया तो उसे पहचान भी क्या मिलेगी. अब तो डीवीडी में गाने सुने व देखे जाते हैं. बिना किसी प्रशिक्षण के, छत्तीसगढ़ के लोक-धुनों के साथ वे प्रयोग करते हैं और बाजार में आ जाते हैं. इन गीतों में छत्तीसगढ़ की मिठास मिलेगी न अभिनय व नृत्यों में लोक तत्वों की मौजूदगी, लेकिन छत्तीसगढ़ को आज उनके इन्हीं उत्पादों के जरिए पहचाना जा रहा है. दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि छत्तीसगढ़ को असल पहचान देने वाले सैकड़ो गाने आकाशवाणी की लाइब्रेरी में मौजूद हैं. पर संगीत में रूचि रखने वाले आज के युवाओं को इनके बारे में कुछ पता ही नहीं. टीवी पर क्या आप<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZzokV68YI/AAAAAAAAAjo/0pD-2sywb6E/s1600/LaxmanMasturia.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/TGZzokV68YI/AAAAAAAAAjo/0pD-2sywb6E/s320/LaxmanMasturia.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5505214735294591362" /></a> लक्ष्मण मस्तूरिया या केदार यादव के मधुर गीत सुन या देख पाते हैं? मोर संग चलव रे.. का रिंगटोन कोई उपलब्ध करा देगा आपको. टूरा नई जानय रे का रिंग टोन तो मिल सकता है पर तपत गुरू भई तपत गुरू सुनने के लिए आप कहां जाएंगे? छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस उम्मीद को गहरा धक्का लगा है कि राज्य के लोक संस्कृति को नई ऊंचाई मिलेगी. तोर मन कइसे लागे राजा..जैसे एक दो गीतों व फिल्मांकनों को छोड़ दिया जाए तो छत्तीसगढ़ के हर पंडाल पर, हर उत्सव और त्यौहार में राज्य की लोक कला को लहूलुहान होते देखा जा सकता है. यदि आज वीडियो एलबमों व छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अश्लीलता, मार-धाड़, संवाद में बालीवुड से रेस लगाने की कोशिश दिखाई दे रही है तो इसकी बड़ी वजह आकाशवाणी की वह दकियानूसी नीति भी है, जिसके चलते वह अपने खजाने को आज के लोकप्रिय इलेक्ट्रानिक माध्यमों के जरिये लोगों तक पहुंचाने में परहेज कर रही है. इन गीतों के रि-रिकार्डिंग की जरूरत भी महसूस नहीं की गई, जबकि तब और आज की तकनीक और वाद्य-यंत्रों में काफी परिष्कार हो चुका है. आज तो छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के प्रेमी सालों से उन मधुर गीतों को सुनने के लिए तरस गए हैं, जो उन्हें आकाशवाणी से तब सुनाई देते थे जब वह मंनोरंजन का इकलौता साधन हुआ करता था. दिल्ली-6 और पीपली लाइव में छत्तीसगढ़ी की जय-जयकार के बाद अब तो आकाशवाणी को अपनी गठरी खोल ही देनी चाहिए. इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कि व्यापक श्रोता समुदाय तक अपनी दुर्लभ कृतियों को पहुंचाना अकेले उसके सामर्थ्य की बात नहीं है. इस तरह के फैसले में कोई दिक्कत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि प्रसार भारती बन जाने के बाद तो उस पर अपने स्तर से संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी है. आकाशवाणी व दूरदर्शन दोनों में ही विज्ञापन लिए जा रहे हैं, स्टूडियो किराये पर दिए जा रहे हैं और अनेक स्तरहीन कार्यक्रम भी प्रायोजित इसलिए किये जा रहे हैं क्योंकि उससे इन्हें पैसे मिलते हैं. छत्तीसगढ़ी गीतों को भी वे पैसे लेकर संगीत प्रेमियों को उपलब्ध कराएं तो क्या बुरा है. आकाशवाणी के सालाना जलसे में सीडी के स्टाल भी लगे देखे जा सकते हैं. इनमें वे भारतीय व अन्य क्षेत्रीय संगीत की सीडी बेचते हैं, लेकिन अफसोस कि इनमें छत्तीसगढ़ी गीत आपको नहीं मिलेंगे. प्रसार-भारती को न केवल छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए बल्कि अपने मुनाफे के लिए भी, इस विषय में जल्द फैसला लेना चाहिए..क्योंकि अभी छत्तीसगढ़ी संगीत का जादू न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि देश भर के संगीत प्रेमियों में सर चढ़ कर बोल रहा है. ससुराल गेंदा फूल और चोला माटी के राम के बीच करीब डेढ़ साल का अंतराल रहा है. उम्मीद करनी चाहिए कि ये अंतर अब कम हो जाएगा. ठीक समय पर आकाशवाणी भी अपने दायित्व के लिए सजग हो जाए तो फिर बात ही क्या है? ये प्रयास एक दिन छत्तीसगढ़ की गुम होती नैसर्गिक लोक विधाओं को बचा लेंगे वरना छत्तीसगढ़ के लोक-संगीत का कबाड़ा करने के फिल्मकारों व वीडियो एलबम के निर्माताओं के साथ उसे भी जिम्मेदार माना जाएगा.<br /><a href="http://akaltara.blogspot.com/">पढ़े-पिपली में छत्तीसगढ़</a> <br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=HIzJHtNFzqE">सुनें-यू-ट्यूब पर चोला माटी के राम</a>राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-52901495571426163872010-01-27T19:17:00.000-08:002010-01-28T02:18:43.002-08:00प्रेस क्लब का बैन का फैसला सहीछत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति को अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीक<a href="http://4.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S2EDFdMvowI/AAAAAAAAAiQ/ARW4DyC_qHU/s1600-h/Pusadkar+anil.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 313px; height: 186px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S2EDFdMvowI/AAAAAAAAAiQ/ARW4DyC_qHU/s320/Pusadkar+anil.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5431626017857839874" /></a><br /> ऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं.<br />बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी. इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजे की खेती करा रहे हैं.<br />पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया. <br />बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति-पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इससे निपटने का ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं सौंपा जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं? <br />बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है. दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी. <br />मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये, उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.<br />क्या हम पुलिस और सरकार को अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान, योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं? <br />दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों को खदेड़ने की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है. <br />छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें. <br />रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-46130823024503281352010-01-24T23:39:00.000-08:002010-01-25T07:29:50.564-08:00छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी मौसेरी बहनें<strong>बीते 23-24 जनवरी को बिलासपुर में भोजपुरी साहित्यकारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल भोजपुरी बल्कि छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई. दोनों ही भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए ठोस तर्क दिए गये. इस सम्मेलन में कई ख़ास मुद्दे उठाए गये. प्रस्तुत रिपोर्ट छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी ही नहीं बल्कि सभी स्थानीय बोलियों के जीवंत बने रहने की अपरिहार्यता क्यों है, इस पर भी प्रकाश डालती है. बोलियों का विकसित होना, फलना फूलना न सिर्फ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए जरूरी है, बल्कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास भी इसमें अन्तर्निहित है. </strong><br />भोजपुरी- छत्तीसगढ़ी के साहित्यसेवियों का मानना है कि दोनों बोलियों में अद् भुत समानताएं हैं. छत्तीसगढ़ी बोलने वाला भोजपुरी भी समझता है और भोजपुरी बोलने वाले को छत्तीसगढ़ी समझने में कोई कसरत नहीं करनी पड़ती. विन्ध्यांचल के दोनों छोर पर बसे इन लोगों का जीवन संघर्ष, रीति-रिवाज, परम्पराएं, संस्कृति और आचार-विचार इतने मिलते हैं कि इनकी ये दोनों बोलियां आपस में बहनें मानी जाती हैं. वक्ताओं का मानना था कि राजनैतिक उदासीनता व नौकरशाही के<a href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11OC8VcLcI/AAAAAAAAAhw/rKsuJh-tHto/s1600-h/untitled3.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 221px; height: 270px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11OC8VcLcI/AAAAAAAAAhw/rKsuJh-tHto/s320/untitled3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430582538141445570" /></a> चलते भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पाई है, जबकि इससे भी कम व्यापक बोलियां 8वीं अनुसूची में जगह बना चुकी हैं. इन दोनों भाषाओं के लगातार विकास की वजह राजाश्रय नहीं बल्कि लोकाश्रय है. <br />शहीद विनोद चौबे नगर, ई राघवेन्द्र राव सभा भवन में दूसरे दिन के पहले सत्र में भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर अनेक भाषा विशेषज्ञों व साहित्यकारों ने अपने सारगर्भित विचार रखे. विनोद चौबे बिलासपुर में पैदा हुए पुलिस अधिकारी थे, जो राजनांदगांव के एसपी रहते हुए बीते साल जुलाई में नक्सली हमले में शहीद हो गए. उनके पिता बिलासपुर प्रेस क्लब के प्रथम अध्यक्ष डीपी चौबे बिलासपुर भोजपुरी समाज के संस्थापक थे. <br />विषय प्रवर्तन करते हुए जयकांत सिहं 'जय' ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में सिर्फ क्रिया और भेद का अंतर है, जबकि संज्ञा और सर्वनाम एक ही तरह है. छत्तीसगढ़ी में मैं शब्द का इस्तेमाल होता है, भोजपुरी में इसकी जगह हम कहा जाता है. <a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11P7G5OeSI/AAAAAAAAAiA/JwLrewiUGDM/s1600-h/DSCN9443.JPG"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11P7G5OeSI/AAAAAAAAAiA/JwLrewiUGDM/s320/DSCN9443.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430584602560198946" /></a>प्रत्यय और जोड़ भी समानता लेकर चलते हैं. भोजपुरी में यदि कहा जाता है- लड़िक मन के, तो छत्तीसगढ़ी में यही बात कही जाती है- लइकन के. हमार, तोर, तुहार, कहत हौं, रहत हौं जैसे शब्द हू-ब-हू भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में इस्तेमाल किए जाते हैं. भोजपुरी में कहते हैं आसरा देहल, छत्तीसगढ़ी में कहते हैं आसरा देन. अनेक उदाहरणों के माध्यम से जय ने बताया कि कर्म, क्रिया, कारक इत्यादि छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में एक ही तरह से हैं. उन्होंने कई लोकोक्तियों, कहावतों इत्यादि से भी स्पष्ट किया कि इनका भी समान रूप से इस्तेमाल किया जाना स्थापित करता है कि दोनों इलाकों की भौगोलिक सामाजिक परिस्थितियां, विशेषताएं, विषमताएं और समस्याएं एक ही तरह की हैं. छत्तीसगढ़ी में यदि उड़ीसा व पश्चिम बंगाल का असर दिखाई देता है तो भोजपुरी में नेपाल, अवध इलाके का पर्याप्त मिश्रण मिलता है. दोनों ही भाषाएं संवाद, समझ, सहयोग करते हुए अपनी बोली और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम रहे हैं. संचार व्यवसाय व समझ के माध्यम से दोनों बोलियां एक दूसरे के और नजदीक आ रही हैं. <br />इस मौके पर कार्यक्रम के अध्यक्ष मंडल के सदस्य भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि क्रिया व पद को छोड़ दें तो दोनों बोलियों में कोई भिन्नता नहीं. शब्द व उनके तात्पर्य जीवटता, जीवंतता, जीवन स्तर, परिस्थितियों में समानता की ओर इंगित करते हैं. भले ही दोनों ही भाषाओं को सियासी वजहों से मान्यता मिलने में दिक्कत जा रही है लेकिन एक न एक दिन इनकी ताक़त पहचानी जाएगी और इसके प्रभावों को सरकार स्वीकार करेगी. भोजपुरी का अब विश्व स्तर पर सम्मान हो रहा है. नेपाल व मारीशस में इसे मान्यता मिल चुकी है. भोजपुरी विश्व सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है. लेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते 20 करोड़ लोगों की इस भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए लोगों को जनान्दोलन के लिए मजबूर किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दुर्भाग्य से अभी तक शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई हैं. द्विवेदी ने आव्हान किया कि अगले साल शुरू हो रही जनगणना में लोग छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी को अपनी मातृभाषा दर्ज कराएं. इससे दोनों भाषाओं को संविधान में दर्जा दिलाने में मदद मिलेगी. कुछ लोगों का यह भय व्यर्थ है कि स्थानीय बोलियों को संविधान में जगह देने से, इसे शिक्षा व कामकाज में इस्तेमाल किए जाने से हिन्दी का नुकसान होगा. हिन्दी का निर्माण लोकभाषाओं से ही हुआ है जिनमें भोजपुरी, अवधी व मध्यक्षेत्र की तमाम भाषाएं शामिल हैं. <br />सम्मेलन के महामंत्री जौहर साफियावादी ने कहा कि पानी, बानी और जिन्दगानी से ही कोई संस्कृति पनपती है. इसके संवर्धन के लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करना चाहिए. <br />डा. गुरूचरण सिंह ने कहा कि अवधी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषी अपनी बोलियों का आदान-प्रदान करते रहे हैं. उन्होंने कुछ उदाहरणों के जरिये बताया कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जिन <a href="http://4.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11QYyThH_I/AAAAAAAAAiI/jyKK6dzLGe0/s1600-h/untitled2.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 201px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11QYyThH_I/AAAAAAAAAiI/jyKK6dzLGe0/s320/untitled2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430585112429404146" /></a>दोहों में मैं शब्द लिए हैं वे छत्तीसगढ़ी से ही हैं, क्योंकि अवधी व भोजपुरी में मैं की जगह हम इस्तेमाल होता है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दोनों में कट्टरता, चेतना, आत्मविश्वास एक ही तरह है, जो बोलते समय दिखाई देता है. विन्ध्य पर्वत के इस पार छत्तीसगढ़ है तो उस पार भोजपुरी. भोजपुर में बिरसा मुण्डा हैं, तो छत्तीसगढ़ में गुण्डा धूर. दोनों ही इलाकों ने अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया है, यह दोनों साहित्यों के वीर गीतों में दिखाई देता है. श्रृंगार गीतों में यह समानता दिखाई देती है. आम जनता को चाहिए कि वे सरकार को बाध्य करे इन दोनों समृध्द भाषाओं मान्यता दे. भोजपुरी समाज के एक सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार खुलकर स्वीकार कर चुकी हैं, इसे 8वीं अनुसूची में जगह दी जानी चाहिए. क्षेत्र के सांसदों ने भी लोकसभा में यह मांग उठाई है, इसके बाद भी सरकार का रूख सकारात्मक नहीं है. हम भीख नहीं मांग रहे हैं बल्कि हमें अपनी संस्कृति की सुरक्षा का साधन चाहिए. सैकड़ों वर्षों के संघर्ष से शब्दों का निर्माण होता है. 1908 में जब दक्षिण अफ्रीका ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी तो उन्होंने हिन्दुस्तानी हिन्दी की बात की थी, जो सारी भारतीय बोलियों को लेकर बनी हैं. केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, नामवर सिंह इत्यादि को हटा दिया जाए तो हिन्दी साहित्य में क्या बचेगा? इन सबकी रचनाओँ में उनकी स्थानीय बोलियों और संस्कृति का प्रभाव दिखता है, जो एक समृध्द हिन्दी तैयार करती है. राष्ट्रभाषा से यदि सभ्यता मिलती है तो मातृभाषा से संस्कृति का पता चलता है. इसलिए इसे बचाया जाना जरूरी है.<br />वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय पाठक ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं राजाश्रय से नहीं लोकाश्रय से जीवंत बनी हैं. इन दोनों के साथ इतनी मजबूत संस्कृति है कि इनके अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं है. छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के रेलवे को रेलगाड़ी, रेफ्रिजरेटर को फ्रिज, बाइसिकल को साइकिल कहकर अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल में लाया जाता है. उन्होंने फटफटी व कनसुनिया (स्टेथोस्कोप) जैसे शब्दों का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भाषा, जिसे अंग्रेज गंवारू भाषा कहते हैं उन्हें अंग्रेजी या दूसरी विदेशी भाषाओं से घबराना नहीं चाहिए. हमारी लोक बोलियां इतनी समृध्द हैं कि अंग्रेजी के जिन शब्दों का हिन्दी में अर्थ नहीं मिलेगा, इन बोलियों में मिल जाएगा. उन्होंने उदाहणों के जरिए बताया कि मेढ़क की विभिन्न प्रजातियों के जर्मन व लेटिन नाम हिन्दी में जितने स्पष्ट नहीं है, उसके कहीं ज्यादा साफ-साफ छत्तीसगढ़ी में मिल जाते हैं. लोरिक चंदा व अनेक लोकगाथाएं थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, बुंदेलखंड इत्यादि में मिल जाएंगे. <br />आज सम्मेलन के समापन दिवस पर बोलियों की संघर्ष यात्रा व भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में अध्ययन की समस्या आदि पर विचार के लिए अलग से सत्र रखे गए. इसमें चितरंजन कर, प्रो. नंदकिशोर तिवारी, डा. अशोक द्विवेदी, डा. जीतेन्द्र वर्मा, डा. गदाधर सिंह, रघुबर दयाल सिंह, डा. रविन्द्र शाहावादी, विनोद सिंह सेंगर, कृष्णानंद कृष्ण आदि ने विचार व्यक्त किया. सायंकाल हिन्दी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी कवियों ने रसविभोर किया, जिसका उद् घाटन डा. अजय पाठक ने किया. <a href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11OrCwDIYI/AAAAAAAAAh4/s1mPaaT0OF0/s1600-h/DSCN9332.JPG"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/S11OrCwDIYI/AAAAAAAAAh4/s1mPaaT0OF0/s320/DSCN9332.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430583227058430338" /></a>अध्यक्ष मंडल में सूर्यदेव पाठक पराग, सनत कुमार तिवारी, बुधराम यादव थे. संचालन डा. गुरूचरण सिंह ने किया, जबकि बी.बी. सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन दिया.<br />सम्मेलन के पहले दिन राष्ट्रीय साप्ताहिक द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण के नये अंक का भी लोकार्पण किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के विशेष संवाददाता अनिल द्विवेदी भी पहुंचे. उन्होंने पूरे दो दिन सम्मेलन में शिरकत की, उम्मीद है अगले अंक में ही इसकी रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी, जिससे भोजपुरी के अलावा छत्तीसगढ़ी बोली की जरूरतों को भी देश-दुनिया तक पहुंचाया जा सकेगा.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-65024545782819651082009-12-12T07:31:00.000-08:002009-12-12T07:33:45.057-08:00खेत-बाड़ी रौंदने के लिए सिर फुटौव्वलसरगुजा जिले के मुड़गांव में तीर-धनुष से लैस आदिवासियों ने चमचमाती जीपों में सवार होकर पहुंचे दो दर्जन लठैतों को घेर लिया <a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SyO3xTtkOXI/AAAAAAAAAho/a15iGtTvcY8/s1600-h/iffco.gif"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 100px; height: 100px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SyO3xTtkOXI/AAAAAAAAAho/a15iGtTvcY8/s320/iffco.gif" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5414373234762332530" /></a><br />और उन्हें करीब 18 घंटे तक बंधक बना कर रखा. बाद में पुलिस के गांव वालों को समझाया और उनके चंगुल से उन्हें छुड़ाया. पर इसके बाद ग्रामीणों पर बलवा और मारपीट का मुकदमा दर्ज कर लिया गया. मुड़गांव के ग्रामीणों का आरोप है कि यहां के सरपंच के भाई नारायण सिंह की इफको वालों से मिलीभगत है. उसने एक फर्जी ग्राम-सभा करा ली और बिना गांव वालों की मंजूरी के ही तय किया कि इफको को जमीन देनी हैं. गांव के लोग अपनी खेत-बाड़ी छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि वह उनकी उपजाऊ जमीन है और पुरखों से वहां खेती करते हुए आ रहे हैं. दरअसल, इफको को सरगुजा इलाके में एक कोल ब्लाक आबंटित हुआ है और यहीं पर उसे पावर प्लांट भी लगाना है. हालांकि इफको के प्रोजेक्ट मैनेजर यूपी सिंह का कहना है कि अधिकांश ग्रामीणों ने जमीन छोड़ने की सहमति दी है और ज्यादातर ने मुआवजा भी ले लिया है. लेकिन सच्चाई यही है कि जिन ग्रामीणों के नाम चेक काट दिये गए हैं वे इससे वाकिफ ही नहीं.<br />घने जंगलों, प्राकृतिक और वन्य सम्पदा से भरपूर सरगुजा और कोरबा के बीच 5 कोल ब्लाक आबंटित किए गये हैं. प्रेमनगर में इफको तो सरगुजा व कोरबा के बीच राज्य सरकार का पावर प्लांट लगाया जाना है. उदयपुर में अदानी ग्रुप गुजरात का प्लांट लगने जा रहा है. इन प्लांटों से करीब 100 गांव बेदखल होने जा रहे हैं. अकेले इफको को 750 हेक्टेयर जमीन चाहिए. राज्य सरकार व दूसरी बिजली कम्पनियों को भी 3300 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है. एक एनजीओ ने सर्वेक्षण के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इन परियोजनाओं से कटने वाले पेड़ो की संख्या 1.5 करोड़ से ज्यादा होगी. इतने पेड़ों के कटने के बाद यहां कोयला खदानों व बिजली परियोजनाओं से जबरदस्त प्रदूषण भी फैलेगा. उदयपुर, प्रेमनगर के ग्रामीणों को अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई दे रहा है, गोन्डवाना गणतंत्र पार्टी ग्रामीणों के साथ खड़ी है. इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम कहते हैं कि इफको को यदि जमीन चाहिए तो पहले वास्तविक ग्राम-सभा बुलाकर ग्रामीणों की सहमति ले. वे क्या मुआवजा देंगे और पुनर्वास तथा राहत के लिए क्या करने वाले हैं. दरअसल, यही वह बिन्दु है जहां से उद्योगपतियों व ग्रामीणों के बीच सहमति नहीं बन पाती. <br />बीते 4-5 सालों से जमीन हथियाने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं करना, ग्राम के प्रमुखों का अपहरण कर उनसे बलात् सहमति लेना, पुलिस में झूठे मुकदमे दर्ज कर जेल भिजवा देना, लाठी चार्ज करा देना-यही सब चल रहा है. बस्तर में टाटा व एस्सार की बड़ी स्टील परियोजनाएं इतने सालों में आकार नहीं ले पाई है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह कहते हैं कि लोहड़ीगुड़ा व आसपास के प्रभावित गांवों के 80 फीसदी किसान अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन 20 फीसदी लोगों को तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों ने बरगला दिया है और परियोजना शुरू ही नहीं हो पा रही है. टाटा की परियोजना में 19 हजार करोड़ रूपये खर्च होने जा रहे हैं. एस्सार करीब 70 अरब रूपये खर्च करने जा रही है.<br />कोन्टा के पूर्व विधायक व आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम कहते हैं कि बस्तर में जनजातियों को नक्सलियों का समर्थन है, जिसके चलते वे लौह अयस्क के खदानों में काम बंद करा सकते हैं. टाटा-एस्सार जैसी कम्पनियों के लिए रास्ता खोलने के लिए आदिवासी अपने जंगल और जमीन से बेदखल किये जा रहे हैं. इसे रोकने में नक्सली मददगार साबित हो रहे हैं. इसलिए आसानी से आदिवासियों की सहानुभूति नक्सलियों के साथ हो गई है. टाटा को यहां करीब 5000 एकड़ जमीन चाहिए, जिसमें 1700 परिवारों को विस्थापित होना पड़ेगा. एस्सार को 1500 एकड़ भूमि की ज़रूरत है और इससे 500 परिवार बेदखल होंगे. दोनों ही परियोजनाओं में विरोध इतना जबरदस्त है और नक्सली उपद्रव की आशंका है कि 5 साल से दोनों ही कम्पनियां काम शुरू नहीं कर पा रही हैं. <br />नक्सल प्रभावित इलाकों में यदि यह मान भी लिया जाए कि नक्सलियों के प्रभाव के चलते अधिग्रहण खटाई में पड़ा है तो फिर प्रदेश के दूसरे इलाकों में हो रहे विरोध को क्या माना जाए. <br />राज्य के उद्योग विभाग के अधिकारियों का ही मानना है कि प्रदेश की लम्बित परियोजनाओं के लिए सरकार को करीब 30000 एकड़ जमीन की जरूरत है, लेकिन इनमें से केवल 5 फीसदी का ही अधिग्रहण किया जा सका है. अधिग्रहण की यह बाधा बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर, कोरबा जैसे इलाकों में हैं, जहां पर नक्सलियों का प्रभाव नहीं है बल्कि सरकारी नीति और उद्योगपतियों के रवैये के लिए ख़िलाफ ग्रामीण खुद सामने आकर संघर्ष कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में किसानों की जमीन को मिट्टी के मोल ही खरीदने का प्रावधान है और जो वादे पुनर्वास व राहत के लिए किये जाते हैं वे दशकों बीत जाने के बाद भी पूरे नहीं किए जाते. <br />भू-अर्जन अधिनियम के अनुसार बंजर जमीन के लिए केवल 50 हजार रूपये, एक फसली जमीन के लिए 75 हजार रूपये व दो फसल वाली भूमि के लिए 1 लाख रूपये का मुआवजा देना तय किया गया है. लेकिन बाजार दर वास्तव में इससे कई गुना ज्यादा है. फिर बेघर और भूमिहीन होने के बाद केवल खेती जानने वाले किसान कहां भटकेंगे, यह सवाल भी उनको खाया जाता है.<br />लोहड़ीगुड़ा में 3 साल पहले ग्राम सभा आयोजित कर ग्रामीणों की सहमति लेने की कोशिश की गई थी. ग्रामीण ठीक मुआवजे के अलावा टाटा व एस्सार की परियोजनाओं में अपना शेयर भी चाहते थे. जब ग्रामीणों को राजी करने में जिला प्रशासन नाकाम रहा तो पुलिस बल की मौजूदगी में 150 से ज्यादा लोगों के ख़िलाफ मुकदमा दर्ज कर और प्रभावित गांवों में धारा 144 लागू कर ग्राम सभा कराई गई और इस तरह से अधिग्रहण किया गया आसपास के 10 गावों में जमीन का. इसे साबित की गई ग्रामीणों की सहमति. श्री कुंजाम का तो कहना है कि 7 करोड़ रूपयों से ज्यादा का मुआवजा फर्जी लोगों को बांट दिया गया है, जिसकी सीबीआई जांच कराई जानी चाहिए. ग्रामीणों ने इसे धोखाधड़ी मानते हुए पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी है. जगदलपुर कलेक्टर एमएस परस्ते इसके उलट कहते हैं कि मुआवजा बांटने के लिए पंचायत स्तर पर ही समिति बनाई गई है और गांव के प्रतिनिधियों ने ही हितग्राहियों की पहचान की है.<br />रायपुर से 20 किलोमीटर दूर बन रही नई राजधानी में जमीन गंवाने वाले किसान आज अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं. उन्हें 5 लाख रूपये की दर पर मुआवजा दिया गया है. लेकिन अब इन रूपयों को लिए वे दूसरी जमीन तलाश कर रहे हैं तो उनके चेहरे से हवाईयां उड़ रही है. राजधानी की वृहद परियोजना के कारण 50 किलोमीटर के दायरे तक उन्हें खेती के लायक जमीन ही नहीं मिल रही है. अब एकड़ या डिसमिल में नहीं बल्कि वर्गफीट के दर से जमीन का सौदा हो रहा है. अब किसान आंदोलन कर रहे हैं कि उन्हें 50 लाख रूपये से लेकर एक करोड़ रूपये तक का मुआवजा मिले, लेकिन सरकार कहती है कि मुआवजा दिया जा चुका है अब कोई बात नहीं होगी. रायगढ़ शहर से बमुश्किल 7 किलोमीटर दूर वीसा स्टील को स्टील व पावर प्लांट लगाने के लिए 146 एकड़ जमीन ग्रामीणों की सहमति के बगैर ही हस्तांतरित कर दी गई और शहर की सीमा से जुड़ते जा रहे इस गांव के लोगों को मुआवजा केवल 80 हजार रूपये दिया गया. किसान बदकिस्मत रहे कि इस मामले को लेकर वे अदालतों तक भी चले गए लेकिन मुकदमा हार गए. सरकार ने उन्हें इस जगह पर करीब 1000 एकड़ जमीन उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है.<br />छत्तीसगढ़ का कोई जिला- ब्लाक अछूता नहीं है, जहां ग्रामीण सरकारी मदद से हथियाए जा रहे खेत व झोपड़ी के ख़िलाफ सड़क पर न उतर रहे हों. हालांकि अब राज्य सरकार ने नई उद्योग नीति बनाई है, जिसमें जमीन का मुआवजा 10 लाख रूपये तक देने का प्रावधान किया गया है. यह भी कहा गया है कि अब उद्योगपति किसानों से सीधे जमीन खरीदेंगे, सरकार इसमें कम से कम हस्तक्षेप करेगी. ग्रामीण अब भी उद्योगों, उद्योगपतियों व सरकार की नीयत पर संदेह से घिरे हुए हैं.कांग्रेस नेता भूपेश बघेल की मानें तो सरकार ने नई उद्योग नीति अदालतों में चल रहे मामलों से बचाव के लिए ही बनाई है.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-27352878036486182582009-12-08T19:55:00.000-08:002009-12-08T20:06:19.527-08:00किसानों के गुस्से से हिली छत्तीसगढ़ सरकारगन्ना किसानों ने जिन दिनों दिल्ली में प्रदर्शन कर संसद की कार्रवाई रूकवा दी थी, तकरीबन उसी समय देश के प्रमुख धान उत्पादक राज्य छत्तीसगढ़ के किसानों ने राज्य की भाजपा सरकार को धान पर बोनस देने के वादे से पीछे हटने पर अपनी ताकत दिखाई. गन्ना उत्पादकों की तरह छत्तीसगढ़ के धान उगाने वाले किसानों की लड़ाई अभी जारी है. <br />छत्तीसगढ़ के किसानों में ऐसा आक्रोश हाल के वर्षों में देखा नहीं गया. मीडिया में हाशिये पर रहने वाले व नौकरशाहों के बीच कोई हैसियत<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sx8h5bf6gpI/AAAAAAAAAhU/K6R78vChKB4/s1600-h/Kissan+Mahotsava.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 266px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sx8h5bf6gpI/AAAAAAAAAhU/K6R78vChKB4/s400/Kissan+Mahotsava.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5413082547640500882" /></a>नहीं रखने वाले इस असंगठित व गरीब तबके ने अपनी हुंकार से पुलिस प्रशासन और सरकार को झकझोरा और अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर दिया. 9 नवंबर को जगह-जगह राजमार्गों पर लाखों किसान इकट्ठा हुए और कम से कम 30 स्थानों पर उन्होंने चक्काजाम किया. गुस्से से फट पड़े किसान धमतरी में हिंसा पर उतारू हो गए और पुलिस वालों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. सरकार को चेतावनी दी कि धान पर बोनस व मुफ़्त बिजली के मामले में वह वादाख़िलाफी से बाज आए. सरकार ने आंदोलन तोड़ने की भरसक कोशिश की और कुछ नेताओं को अपनी तरफ मिला लिया, व्यापारियों ने भी शादी-ब्याह का हवाला देते हुए आंदोलन में साथ देने से मना कर दिया, बावजूद इसके किसान नाइंसाफी को लेकर दम-खम से मैदान पर उतार आए. <br />दरअसल, डा. रमन सिंह के नेतृत्व में पिछले साल भाजपा सरकार दुबारा बनी, उसकी वजह सस्ते चावल की योजना के अलावा किसानों के लिए किए गये लुभावने वादे भी हैं. घोषणा पत्र में धान पर 270 रूपये बोनस तथा 5 हार्सपावर तक के सिंचाई पम्पों को मुफ़्त बिजली देने की बात थी. भाजपा नेताओं के लिए यह चुनाव जीतने का जरिया रहा हो, लेकिन खेती की बढ़ती लागत और लगातार अवर्षा की मार झेलते किसानों के लिए तो ये आश्वासन वरदान सरीखे थे. विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव था, लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सरकार बनाने प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा भाजपा के सांसदों को भेजा जाना जरूरी था. लिहाजा, सरकार घोषणा पत्र पर डटी रही. उसने हाय-तौबा मचाकर ही सही दो किश्तों में धान पर 220 रूपये का बोनस दिया. 50 रूपये केन्द्र से मिले बोनस को जोड़कर क्विंटल पीछे कुल अतिरिक्त राशि 270 रूपये तक पहुंचा दी गई. लोकसभा चुनाव में आचार संहिता लगने से पहले राज्य भर में मुख्यमंत्री व बाकी नेताओं की अगुवाई में किसान महोत्सवों का आयोजन कर बोनस की आधी राशि बांटी गई. मंत्रियों का सरकारी खर्च पर जगह-जगह वंदन-अभिनंदन हुआ. लेकिन जैसे ही इस साल अक्टूबर में फिर नये फसल की खरीदी शुरू हुई, किसानों से छल हो गया. शायद किसान संतुष्ट भी रह जाते या उन्हें एकजुट करना कठिन हो सकता था, यदि सरकार 220 रूपये के ही बोनस को पिछले साल की तरह जारी रखती. लेकिन घोषणा पत्र के वादे से पीछा छुड़ाने के बाद तो उनके आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा. राज्य सरकार बिजली मुफ़्त देने के वादे से भी पीछे हट गई. पांच हार्सपावर तक के पम्पों को मुफ़्त बिजली देने के बजाय खपत की सीमा तय कर दी गई. इस विसंगति का नतीजा यह हुआ कि मुफ़्त सिंचाई के भरोसे बैठे किसानों को हजारों रूपयों का बिल थमा दिया गया. नये बिजली बिलों से तो जैसे आग ही लग गई. <br />इन सबने अरसे से बिखरे पड़े, अपने वाज़िब हक़ के लिए नेताओं के पीछे घूमते- उनका झंडा उठाते-जयकारा लगाते रहने वाले किसानों ने बग़ावत कर दी. किसानों के एक संयुक्त मोर्चे ने आकार ले लिया. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू व खुद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से इन्होंने मुलाकात कर अपनी मांग रखी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई. मोर्चे ने सड़क पर उतरने का फैसला लिया. कई धरना-प्रदर्शनों के बाद किसानों ने राज्य में जगह-जगह चक्काजाम कर दिया. राजमार्गों पर वाहनों का आवागमन घंटो ठप पड़ा रहा. धमतरी में तो आंदोलन हिंसक हो उठा. सड़क घेरकर बैठे किसान नेताओं से एक पुलिस अधिकारी ने कथित रूप से मारपीट कर दी. इसके बाद आंदोलनकारी पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गए. भीड़ ने पुलिस कर्मियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. कम से कम 5 सरकारी वाहन जला दिए गये. उन दुकानों में पथराव-लूटपाट की गई, जहां पुलिस जाकर छिपी. हालांकि किसान नेताओं व कांग्रेस का कहना है कि इन सबमें किसानों का हाथ नहीं है. इसमे वे असामाजिक तत्व शामिल हैं, जो भीड़ में शामिल हो गए थे. <br />इसके बाद पुलिस व प्रशासन की जो प्रतिक्रिया होनी थी उसका अनुमान लगाया जा सकता है. अगले ही दिन धमतरी में भारी फोर्स पहुंची, दो दर्जन से ज्यादा किसान नेता गिरफ़्तार कर लिये गए. प्रतिक्रिया तीखी हुई, किसान नेताओं की बैठक रायपुर में हुई, कहा गया कि जिन्हें गिरफ़्तार किया गया, उन्हें बिना शर्त रिहा किया जाए. किसान आंदोलन से घबराई सरकार ने 50 रूपये बोनस अपनी तरफ से भी देने की घोषणा कर दी और 3 मंत्रियों की एक समिति किसानों के हित में क्या निर्णय लिए जाए, यह तय करने के लिए बना दी. इसके अलावा बीते 3 माह के सिंचाई पम्पों के बिजली बिल भी रद्द कर दिए गये और कहा गया कि आगे से जो बिल आएगा व फ्लैट रेट 65 रूपया प्रति हार्सपावर के हिसाब से होगा. लेकिन किसानों ने सरकार का डाला हुआ चारा पसंद नहीं किया. उन्होंने इसे नाकाफी बताया और अपना आंदोलन जारी रखने की घोषणा की. इसके बाद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार से मिलने भी गया. उन्हें एक ज्ञापन सौंपा गया, किसानों को संदेश देने के लिए मांग की गई कि राज्य में सूखे के गंभीर हालात और धान के उत्पादन लागत में वृध्दि को देखते हुए समर्थन मूल्य कम से कम 1300 रूपये किया जाए. समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव न हो तो इसी के बराबर बोनस की<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sx8iIHkVGLI/AAAAAAAAAhc/Xl2cj-rh-JM/s1600-h/Palayan.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 281px; height: 320px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sx8iIHkVGLI/AAAAAAAAAhc/Xl2cj-rh-JM/s320/Palayan.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5413082799988349106" /></a>राशि दी जाए. मुख्यमंत्री डा. सिंह ने वक्तव्य दिया, राज्य सरकार केन्द्र के लिए धान खरीदती है अतः इसका मूल्य निर्धारण केन्द्र सरकार को ही करना होगा. वे सिर्फ केन्द्र से इसके लिए मांग कर सकते हैं. बोनस का बोझ उठाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है. लेकिन ऐसा कहते वक़्त सरकार यह साफ नहीं करती कि चुनावी साल में ही 270 रूपये बोनस का प्रलोभन किसानों को क्यों दिया गया और चुनावी घोषणा पत्र में क्यों नहीं बताया गया कि यह बोनस लोकसभा की वोटिंग के बाद नहीं मिलेगा.<br />बहरहाल, 25 नवंबर के बंद को मिलते समर्थन को देखकर सरकार चिन्ता में पड़ गई. डेमेज कंट्रोल के लिए भाजपा किसान मोर्चा को सामने किया गया. इससे जुड़े कुछ लोग संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल थे, उन्होंने मुख्यमंत्री से मुलाकात की और उनके आश्वासन पर आंदोलन वापस करने की एकतरफा घोषणा कर दी. किसान इससे टूटे नहीं, उस पदाधिकारी को ही मोर्चे से बाहर कर दिया गया और 25 नवंबर का महाबंद यथावत रखने का फैसला लिया गया. इधर बाज़ार का समर्थन जुटाने निकले किसानों को तब एक नया पैंतरा नजर आया- जब छत्तीसगढ़ चेम्बर आफ कामर्स ने उनके बंद को समर्थन देने से मना कर दिया. ऐसा फैसला चेम्बर ने खुद से लिया या सरकार के दबाव में आकर, ये वे ही बता सकते हैं. लेकिन यह सच है कि चेम्बर के बड़े पदाधिकारी भाजपा से जुड़े हैं और वे मुख्यमंत्री- मंत्रियों के करीबी भी हैं. किसान इससे भी नहीं हताश नहीं हुए. जब दिल्ली में गन्ना किसानों के मार्च के कारण संसद की कार्रवाई ठप पड़ गई थी, उसी के आसपास धान के लिए किसानों ने महाबंद कराया. <br />विपक्ष ने किसानों के असंतोष को हाथों-हाथ लिया है. कांग्रेस समेत प्रायः सभी दल किसानों के साथ हो लिए हैं. अब राज्य सरकार की तरफ से यह बताया जा रहा है कि मजदूरों किसानों के हित में सरकार ने जो फैसले लिए हैं, वे अनूठे हैं. उसे देश के दूसरे राज्य भी अपने यहां लागू करने जा रहे हैं. मसलन, खेती के लिए 3 प्रतिशत में ऋण उपलब्ध कराना. यहां पर भाजपा भूल गई कि उसने घोषणा-पत्र में ब्याज मुक्त ऋण देने की घोषणा कर रखी है.<br />बहरहाल, 25 नवंबर के आंदोलन के बाद किसानों ने अब असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है. वे अब गांधीगिरी करेंगे. तय किया गया है कि अब वे सरकार का कोई कर पटाएंगे और न ही बिजली का बिल.<br />छत्तीसगढ़ बनने का नेता, व्यापारी, ठेकेदार, अफसर सभी ने फायदा महसूस किया है और इसे जमकर भोगा भी है. लखपति-करोड़पति हो चुके हैं और करोड़पति-अरबपति. शायद किसानों को अपना वाजिब हिस्सा छीन-झपटकर ही लेना पड़ेगा.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-42491356034661554182009-11-27T18:03:00.000-08:002009-11-27T18:13:01.624-08:00कस्बाई पत्रकारों ने खूब सीखा प्रभाष जी सेअनेक मायनों में छत्तीसगढ़ आज भी पिछड़ा हुआ है, लेकिन अलग राज्य बनने के पहले तो इसकी बड़ी-बड़ी घटनाएं देश के टीवी व अख़बारों में सुर्खियां नहीं बन पाती थी. दिल्ली, मुम्बई के सम्पादकों-पत्रकारों के साथ राज्य के दूसरे सबसे बड़े शहर<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL72O4esj65-5j8s56UnAUmr_Sa2l-aVLpy9Tlp0y1PWXgKLhN4QL6qwY5OBsNkfi1vjFHVfu79cngFF0dzkXzpw63d7z7KwdItiUEb7YdMQuACqkhnkmJlJLwA1R7w8fxAki8aBsUzyA/s1600/prabhash.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL72O4esj65-5j8s56UnAUmr_Sa2l-aVLpy9Tlp0y1PWXgKLhN4QL6qwY5OBsNkfi1vjFHVfu79cngFF0dzkXzpw63d7z7KwdItiUEb7YdMQuACqkhnkmJlJLwA1R7w8fxAki8aBsUzyA/s400/prabhash.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5408971582435599250" /></a>बिलासपुर के पत्रकारों का रिश्ता बने यह तो कोशिश न तो आम तौर पर होती थी न ही इसे आसान माना जा सकता था. ऐसे दौर में जब पहली बार 1991 में प्रभाष जोशी से बिलासपुर के पत्रकार रू-ब-रू हुए तो न केवल कौतूहल से भर गए बल्कि धोती कुरते का लिबास लेकर चलने वाले इस विभूति के सहज और आत्मीय वार्तालाप से अनेक भ्रांतियां दूर हो गई.<br />दरअसल, कोरबा जिले के करतला में उस साल सूचना के अधिकार के पक्ष में बड़ी बात हुई. देश के अनेक बुध्दिजीवियों व सामाजिक संगठनों के साथ प्रभाष जी भी इस कार्यक्रम में पहुंचे. पता नहीं दिल्ली से करतला पहुंचने में उन्हें कितने साधनों का इस्तेमाल करना पड़ा होगा और वे कितने घंटे बाद वहां तक पहुंच पाए होंगे, लेकिन इस सम्मेलन का महत्व उन्होंने दिल्ली में, अपनी व्यस्तता के बीच भी समझ लिया.<br />सूचना के अधिकार के तहत पूरे देश में आयोजित की गई यह पहली जन सुनवाई थी, जिसमें तब के कमिश्नर हर्षमंदर की पहल पर कानून बनने के 15 साल पहले अफसरों ने ग्रामीणों को वह सब सूचना उपलब्ध कराई, जो आज आरटीआई के तहत मांगी जा सकती हैं. इसके बाद प्रभाष जी ने सूचना के अधिकार की मांग को दिल्ली के न केवल हिन्दी बल्कि अंग्रेजी अख़बारों की सुर्खियों में ला दिया. क्षेत्रीय दैनिक अख़बारों व छिट-पुट छपने वाले साप्ताहिक पत्रों के पत्रकारों के लिए प्रभाष जी का बिलासपुर आगमन प्रसन्नता, आश्चर्य और कौतूहल का मामला था. जिस पत्रकार ने अंग्रेजी मीडिया के आगे हिन्दी को सीना तान कर खड़ा करना सिखाया हो व जो देसी लिबास पहने, सहज तरीके से मिलने-जुलने वाला हो, ऐसा तो उनके बारे में सुनकर उनसे मिलने वाला सोच भी नहीं सकता था.<br />प्रभाष जी का आखिरी और प्रतिक्रियाओं के लिहाज से विवादास्पद भी- सबसे बड़ा <a href="http://raviwar.com/baatcheet/B25_interview-prabhash-joshi-alok-putul.shtml">इंटरव्यू</a> हाल ही में रविवार डाट काम पर प्रकाशित हुआ है. इसे कव्हर करने वाले बिलासपुर के पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की सुनें-<br />रायपुर के मयूरा होटल में ठहरे प्रभाष जी ने कमरे का दरवाजा काफी देर तक नहीं खोला. बाद में आधे कपड़ों में वे बाहर आए. उन्होंने इस बात के लिए खेद जताया कि वे बाथरूम में थे.<br />पुतुल ने झिझकते हुए कहा- थोड़ी देर में आता हूं. प्रभाष जी बोले नहीं-नहीं बैठो.<br />‘आप धोती वगैरह तो पहन लीजिए.’<br />प्रभाष जी बोले- अरे धोती पहनने में क्या रखा है, यह तो उनके लिए मुश्किल है जो पहनना नहीं जानते. हम तो चौक पर भी आराम से बांध लें.<br />इसके बाद दो घंटे तक उन्होंने इत्मीनान से बातें की.<br />पुतुल बताते हैं- मेरे साथ गए कैमरामैन ने उनके मिलकर नीचे उतरते हुए कहा- आप तो कह रहे थे कि दिल्ली के किसी बहुत बड़े पत्रकार से मिलाने जा रहे है. मुझे लगा कि वे कोट और टाई पहने मिलेंगे, लेकिन मुझे तो उनकी बनियाइन में छेद दर छेद देखकर समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस एंगल से शाट लूं. <br />करतला में हुई आरटीआई सुनवाई का मामला अकेला नहीं है, वे लगातार बिलासपुर रायपुर की विभिन्न गोष्ठियों में आते रहे और हर बार पत्रकार उनसे एक मीडिया कर्मी की प्रतिबध्दता व सामाजिक मुद्दों पर उनकी अवधारणा को समझते हुए अपने ज्ञान को समृध्द करते रहे.<br />वे तो थे शुध्द अहिंसक गांधी और विनोबा के दर्शन से प्रभावित और जेपी के आंदोलन में उनके सहयोगी, लेकिन नक्सलियों से तार जुड़े होने का आरोप झेलने वाले मानवाधिकार संगठन- पीयूसीएल के बुलावे पर वे उनके बिलासपुर सम्मेलन में भी पहुंचे, क्योंकि पीयूसीएल ने जिस मुद्दे को लेकर दिन भर का सम्मेलन रखा था, वह उन्हें जंच गया. वस्तुतः, यह आयोजन छत्तीसगढ़ सरकार के जनसुरक्षा कानून 2005 का विरोध करने के लिए था. प्रभाष जी सहमत थे कि इस कानून से अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार का हनन होगा. यह बताना ठीक होगा कि इस कानून के जरिये छत्तीसगढ़ सरकार उन सभी लोगों को 2 साल के लिए जेल भेज सकती है, जिनके बारे में संदेह है कि वे नक्सलियों से किसी न किसी तरीके से सम्पर्क में रहते हैं अथवा उनसे बातचीत कर लेते हैं. यह कानून सच को सामने लाने के लिए जुटी मीडिया के ख़िलाफ भी हो सकता है. <br />इसी सम्मेलन से जुड़ा एक मीठा संस्मरण रायपुर-बिलासपुर से छपने वाले सांध्य दैनिक इवनिंग टाइम्स के सम्पादक नथमल शर्मा के साथ हैं- सम्मेलन में कुछ देर बैठने के बाद प्रभाष जी बेचैन लगे. उन्होंने कहा कि मुझे होटल चलना है. नथमल उन्हें लेकर बाहर निकलने लगे तो आयोजकों ने प्रभाष जी को रोका. कहां जा रहे हैं, अभी तो आपको भाषण देना है.<br />प्रभाष जी ने कहा- मुझे पता है, मेरा भाषण शाम को होगा और मुझे क्या बोलना है यह भी पता है.<br />होटल के कमरे में घुसते ही उन्होंने पूछा- नथमल, क्या आप क्रिकेट में रूचि हैं?<br />नथमल ने कहा- क्रिकेट पसंद है, पर बहुत ज्यादा नहीं.<br />प्रभाष जी ने कहा- अरे तब तो आपका समय ख़राब होगा. आप अभी विदा लें और मुझे शाम 5 बजे आकर ले जाएं.<br />दरअसल, उस दिन कोई क्रिकेट मैच चल रहा था, प्रभाष जी के लिए सम्मेलन में भाग लेना जितना जरूरी था, उतना ही उस मैच को देखना भी.<br />नथमल बताते हैं कि शाम को जब वे उन्हें लेने पहुंचे तो वे फ्रेश लग रहे थे, मानो मन मांगी मुराद पूरी हो गई.<br />समय की पाबंदी और दैनिक अख़बार से जुड़े काम के महत्व को रेखांकित करने वाली एक और बात दिखी. होटल के कमरे में उन्होंने कागद कारे भी लिख डाला. इसे उन्होंने खुद जब तक फैक्स नहीं कर लिया, उन्हें तसल्ली नहीं हुई. पीयूसीएल के कार्यक्रम में भी समय पर भाषण देने लौट चुके थे.<br />देश के कई बड़े शहरों में काम कर चुके बिलासपुर के पत्रकार दिनेश ठक्कर ने जनसत्ता कोलकाता संस्करण में काम किया. उनके हाथों का लिखा नियुक्ति-पत्र उन्होंने आज तक संभाल कर रखा हैं. ठक्कर कहते हैं कि मेरी तरह उन्होंने सभी सम्पादकीय सहयोगियों को सादे कागज पर अपने हाथ का लिखा नियुक्ति- पत्र दिया और शायद मेरी तरह सभी ने इसे महत्व का दस्तावेज मान रखा है. ठक्कर बताते हैं कि जनसत्ता की कोलकाता में शुरूआत थी, ज्यादा मेहनत होनी थी. प्रभाष जी, आख़िरी संस्करण के निकलते तक दफ़्तर में ही काम देखते थे. सहयोगी कहते कि आप निकलिये- सब ठीक होगा, पर ऐसा करीब 3 माह तक नहीं हुआ. देर हो जाने पर रात में वे अखबार बिछाकर दफ़्तर में ही सो जाते थे, जबकि मालिकों ने उनके लिए किसी पांच सितारा होटल का कमरा बुक कर रखा था, वे सुबह फ्रेश होने वहां जाते थे. जिम्मेदारी के साथ काम करना उनके साथ काम करने वाले हर पत्रकार ने सीखी. <br />बिलासपुर और छत्तीसगढ़ के दूसरे शहरों में वे लगातार आते रहे हे. मेरी (लेखक) की अनेक मुलाकातें हैं. आखिरी भेंट दिल्ली में तब हुई जब 2007 में उदयन शर्मा पत्रकारिता सम्मान मिला. मंच पर बैठे प्रभाष जी से आशीर्वाद मिला. नीचे उतरने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों के बारे में जानकारी ली. यह बताते हुए प्रसन्नता महसूस करता हूं कि उनका एक वाक्य मुझे पत्रकारिता के अलावा छत्तीसगढ़ी रचनाएं लिखने के लिए भी लगातार प्रेरणा देता है. दरअसल, बिलासपुर में एक कार्यक्रम के बाद समय बचा. उसके बाद हम कुछ पत्रकार साथी उन्हें लेकर अचानकमार अभयारण्य घूमने के लिए निकले. वहां स्थानीय पत्रकार साथियों के अनुरोध पर मैंने अपनी छत्तीसगढ़ी रचना सुनाई. रचना लम्बी थी. प्रभाष जी ने ख़ामोशी के साथ पूरा सुना- फिर प्रतिक्रिया दी- राजेश, तुमने इसके अलावा क्या लिखा है, यह मुझे नहीं पता लेकिन एक इसी रचना को सुनकर मैं तुम्हें एक मंझा हुआ गीतकार कह सकता हूं.<br />सचमुच, गांव टोले तक चौथा पाये का कदर है, यह समझने वाला दिल्ली में कोई दूसरा पत्रकार पैदा नहीं होगा. प्रभाष जी बरसों जेहन में रहेंगे और नई पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-41352717658031915632009-11-14T02:20:00.000-08:002009-11-14T02:33:37.137-08:00दसवें साल में हाशिये पर जाते आदिवासी, ठगे जाते किसानलगभग 9 साल पहले जब मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग बांटा गया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि प्रचुर नैसर्गिंक संसाधनों से भरपूर इस आदिवासी बाहुल्य पिछड़े राज्य को विकास के मामले में किसी भेदभाव का शिकार होने से बचाया जाए. अब जबकि बीते एक नवंबर को यह राज्य अपने दसवें साल की ओर कदम बढ़ा चुका है तो साथ बने दो अन्य राज्यों झारखंड और उत्तराखंड के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई तो देता है लेकिन विकास का मतलब एक बड़ी आबादी को आज भी नहीं समझाया जा सका है.<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhodYfi8i_cgJyQoi__VdNfSlFJENgMs4Tgo8t6WGxLzyKvZl99HNMOvPL7ySMW2F4xrwXpQnIjB2HnUAAclGpDduQPwML6S0RpOWWcDOFFgHWZw7GJIKrCtUwR933qJaevZaCWhIbFRI0/s1600-h/rice.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 400px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhodYfi8i_cgJyQoi__VdNfSlFJENgMs4Tgo8t6WGxLzyKvZl99HNMOvPL7ySMW2F4xrwXpQnIjB2HnUAAclGpDduQPwML6S0RpOWWcDOFFgHWZw7GJIKrCtUwR933qJaevZaCWhIbFRI0/s400/rice.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403904321021580290" /></a> राज्य की तरक्की के लिए बड़े फैसले लिए जा रहे हैं, लेकिन राजनैतिक स्थिरता के बावजूद इच्छाशक्ति की कमी, लापरवाह विपक्ष और बेलगाम नौकरशाही ने इसके पहिए जाम कर रखे हैं. भारी भरकम बजट वाले इस राज्य में- राजमद में डूबे लोग ज़मीनी चुनौती का खुद सामना करने के बजाय फोर्स को आगे कर रहे हैं और नक्सलियों के हाथ शहरी इलाकों के गर्दन तक पहुंच रहे हैं.<br />झारखंड और उत्तराखंड के लिए जिस तरह हिंसक संघर्ष हुए, छत्तीसगढ़ में वह देखने को नहीं मिला. इसकी वजह यह नहीं थी कि छत्तीसगढ़ की जरूरत को यहां के लोगों ने कम करके आंका. कारण बस इतना था कि यहां के लोग शांतिप्रिय है. छत्तीसगढ़ियों की बोली बहुत मीठी है और रहन-सहन सादा. कई दशक पहले पं. सुन्दरलाल शर्मा व खूबचंद बघेल जैसों ने गांधीवादी तरीके से अलग राज्य की मांग शुरू कर दी थी. इसी का असर था कि सर्वदलीय पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच की अगुवाई में यहां के लोगों ने दो दशक के शांतिपूर्ण आंदोलनों के ही जरिये अपनी मांग मनवा ली. छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खूबी है यहां के 44 फीसदी हिस्से का जंगलों से ढ़का होना, जहां पर 32 प्रतिशत आदिवासियों का निवास है. विकास की धुरी में यही तबका केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था. न केवल इसलिए कि वे जनसंख्या के लिहाज से संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने का अधिकार रखते हैं बल्कि इसलिए भी कि वे ही राज्य के मूल निवासी माने जाते हैं. 18 वीं शताब्दी के हलबा आंदोलन से लेकर मुगल, मराठा व ब्रिटिश सरकारों के ख़िलाफ आदिवासियों ने जमकर लोहा लिया और यहां की प्रचुर खनिज, वन सम्पदा को बचाये रखने, अपनी मौलिक जीवन शैली, रहन-सहन व संस्कृति को संभाले रखने के लिए उन्होंने पूरे साहस के साथ खून बहाया.<br />सन् 2000 में राज्य बना तो छत्तीसगढ़ का बजट 5700 करोड़ रूपये था, जो आज 9 साल बाद बढ़कर 23 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है, लेकिन 66 लाख की आबादी वाले आदिवासी समुदाय का हाल जस का तस है. वे कुपोषण के शिकार हैं, शासकीय योजनाओं की रकम उन तक पहुंचने से पहले ही हड़प ली जाती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, रोजगार जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा है. इस असंतोष को भुनाया है हिंसा पर भरोसा रखने वाले माओवादियों ने. सरकार कहती है कि 44 हजार वर्गकिलोमीटर में फैले बस्तर इलाके का विकास इन्होंने रोक रखा है, जबकि माओवादी आदिवासियों को यह विश्वास दिलाने में एक हद तक सफल दिखाई देते हैं कि सरकार बेशकीमती खनिज और वन सम्पदा को लूटना चाहती है. पुलिस व केन्द्रीय बलों को लगातार नक्सली छका रहे हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इनकी समानान्तर सरकारें चल रही हैं. वे बस्तर के बहुमूल्य संसाधनों को अपने हाथों में लेकर अपनी शर्तों पर इस्तेमाल करने की हद तक प्रभाव रखते हैं. सरकार के पास रिपोर्ट है कि यहां प्रवेश करने वाले व्यापारियों और ठेकेदारों से नक्सली सालाना 300 करोड़ रूपये की फिरौती वसूल रहे हैं. अर्धसैनिक बलों-पुलिस के अलावा नक्सलियों से लोहा लेने के लिए बतौर एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) आदिवासी युवकों को भी झोंक दिया गया है. बीते 2 सालों में 700 से ज्यादा नागरिक व पुलिस कर्मी इन मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं. इनमें एक पुलिस अधीक्षक व करीब दर्जन भर अधिकारी स्तर के जवान शामिल हैं. कांग्रेस व भाजपा के कई नेता शामिल हैं. भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के एक बेटे की हत्या तो हाल ही में हुई. कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा के भतीजे की भी हत्या हो चुकी है. <br />नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए.<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sv6GtsBOjvI/AAAAAAAAAg0/CB5PRFNmHwI/s1600-h/Dantewada_lead.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 118px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sv6GtsBOjvI/AAAAAAAAAg0/CB5PRFNmHwI/s200/Dantewada_lead.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403904722359717618" /></a> सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे. बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए. इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है. इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई ख़बर नहीं. बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता है. इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया. <br />छत्तीसगढ़ राज्य जिन लोगों की खुशहाली की कामना करते हुए बनाया गया था, आज वे हताश और भयभीत हैं. इन दिनों बस्तर में बड़ी तादात में केन्द्रीय बलों के जवान तैनात किये जा रहे हैं. सरकार ने बस्तर में निर्णायक लड़ाई लड़ने का इरादा बना लिया है. सुरक्षा बलों व नक्सलियों के बीच संभावित बड़े संघर्ष की ख़बरों से भयभीत आदिवासी फिर पलायन करने जा रहे हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के इस आश्वासन के बावजूद भय का वातावरण गहराता जा रहा है कि आम लोगों को इस आपरेशन को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए.<br />रायपुर, बिलासपुर की सड़कों पर चलें और तेजी से बढ़ती नई कालोनियों और इंडस्ट्रीयल इलाकों को देखें तो राज्य की भाजपा सरकार के इस दावे में काफी दम दिखाई देता है कि प्रदेश तेजी से विकास कर रहा है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह यह बताते हुए नहीं अघाते हैं कि उनकी सरकार ने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपये का एमओयू किया है. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लोगों ने इनके जरिये अपना जीवन स्तर ऊपर उठते हुए नहीं देखा. रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसी जगहों पर तेजी से स्पंज आयरन और बिजली परियोजनाएं शुरू हुईं. लेकिन आम लोगों ने पाया तो केवल अपनी पुश्तैनी खेती से बेदखली की पीड़ा और बेशुमार प्रदूषण. राज्य के किसी न किसी छोर में विस्थापन और प्रदूषण के खिलाफ अक्सर आंदोलन चलते रहते हैं. समस्या इतनी गंभीर है कि रायपुर में प्रदूषण को लेकर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन खुद बार-बार दखल दे रहे हैं. सत्ता पक्ष के ही एक विधायक देवजी पटेल ने तो अपनी ही सरकार के ख़िलाफ मोर्चा खोल रखा है. <br />राज्य बनने के तत्काल बाद यहां चुनाव नहीं हुए. मध्यप्रदेश से टूटकर बनी 90 सीटों में से बहुमत कांग्रेस का था, लिहाजा अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. 3 साल बाद हुए चुनाव में वे अपने ख़िलाफ जातिवाद को बढ़ावा देने व सरकारी आतंक के आरोपों का जवाब नहीं दे पाये और इन्हीं को मुद्दा बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी. भाजपा ने पहले कार्यकाल में औद्योगिकीकरण व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ समझौतों को खूब प्रोत्साहन दिया. लेकिन जब पांच साल बाद 2008 में चुनाव हुए तो परिस्थितियां बदल चुकी थी. प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल करने की योजना से राज्य के राजस्व में तो इजाफा हुआ, लेकिन आम लोगों को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. अधिकांश योजनाएं उन इलाकों की हैं, जहां नक्सलियों के चलते काम शुरू नहीं किए जा सके. जमीनों के अधिग्रहण के ख़िलाफ न केवल बस्तर के आदिवासी बल्कि मैदानी इलाकों में भी किसान उठ खड़े हुए. इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा में सरकार ने पिछले साल एक ब्योरा पेश किया, जिसमें बताया गया कि तब तक किए गये 16 एमओयू में से केवल एक पर काम शुरू किया जा सका है. <br />भाजपा के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि 83 फीसद खेती पर निर्भर छत्तीसगढ़ियों के बीच धान और चावल की ही सबसे ज्यादा अहमियत है. राजनीति इसी पर शुरू हुई. इसके बाद आकार लिया 3 रूपये किलो चावल की योजना ने. नवम्बर 2008 के विधानसभा चुनाव के 8 माह पहले यह योजना लागू की गई और इसे इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिली कि विपक्ष हक्का-बक्का रह गया. कांग्रेस ने 101 घोटालों की फेहरिस्त जारी की. इनमें के कई मामलों को उन्होंने लोक आयोग को भी सौंपा लेकिन सारे मुद्दे बेअसर रहे. भाजपा ने केन्द्र सरकार की गरीबी रेखा सूची में शामिल 18 लाख लोगों की सूची से पृथक एक अलग सर्वेक्षण कराया और राज्य के 30 लाख परिवारों को गरीबों की सूची में जोड़ दिया. इसके अलावा 7 लाख परिवारों को अति-गरीब माना गया. चुनावी घोषणा पत्र में चावल योजना का विस्तार किया गया. अब यहां के 30 लाख परिवारों को चावल कुछ कम कर 7 किलो गेंहूं भी दिया जा रहा है. चावल का मूल्य गरीबों के लिए 2 रूपये किया गया, अति-गरीबों को तो यह एक ही रूपये में दिया जा रहा है. यह विडम्बना ही कही जाए कि दो करोड़ 8 लाख की आबादी वाले इस राज्य में सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार 66 लाख से ज्यादा गरीब निवास करते हैं.<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sv6HCRLRCwI/AAAAAAAAAg8/ksL5uxDAjAE/s1600-h/tribalmarket2.gif"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 140px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/Sv6HCRLRCwI/AAAAAAAAAg8/ksL5uxDAjAE/s200/tribalmarket2.gif" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403905075931319042" /></a> केन्द्र सरकार की योजना का खाका तैयार होने से पहले ही राज्य सरकार ने अपने बजट से ही राज्य में भोजन का अधिकार योजना लागू करने की घोषणा कर दी है. नमक का पैकेट मुफ़्त दिया जा रहा है. <br />किसानों को चुनावी साल में धान पर प्रति क्विंटल 270 रूपये का बोनस दिया गया. पर 2009 की खरीफ फसल आने पर किसान अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है क्योंकि इस साल यह बोनस देने से सरकार ने मना कर दिया है. न केवल विधानसभा चुनाव में बल्कि लोकसभा में धान चावल का असर रहा. विधानसभा में भाजपा ने अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखते हुए 50 सीटें हासिल की, जबकि लोकसभा की 11 में से 10 सीटें उसकी झोली में आ गिरीं. <br />राज्य की रमन सरकार को अपनी पार्टी की ओर से कोई चुनौती नहीं है. गाहे-बगाहे विरोध के स्वर उठते हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इनसे निपटने का पर्याप्त अनुभव हासिल हो चुका है. केन्द्रीय नेतृत्व विशेषकर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री के मधुर सम्बन्ध हैं. इसलिए जब दूसरी पारी में भी मुख्यमंत्री के तौर पर उनके अलावा कोई नाम नहीं उभरा. इस लिहाज से देखा जाए तो सन् 2000 में बने तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा राजनैतिक स्थिरता है. झारखंड में अब तक 9 बार मुख्यमंत्री तथा उत्तराखंड में 5 मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में दो ही मुख्यमंत्री हुए और दूसरी बार चुने जाने के बाद डा. सिंह अपना कार्यकाल सफलता पूर्वक लगभग एक साल पूरा करने जा रहे हैं. <br />यदि राजनैतिक अस्थिरता विकास में बाधा मानी जाती है, तो अधिक स्थिरता सरकार को निश्चिन्त भी कर देती है. छत्तीसगढ़ में यह दिखाई देता है. सबसे ज्यादा राहत नौकरशाहों में दिखाई देता है. धान खरीदी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, प्रधानमंत्री सड़क योजना, उर्जा विभाग, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आये दिन भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं. बड़े बजट वाला राज्य है, लिहाजा घोटाले की राशि भी करोड़ों में होती है. विधानसभा में जांच और कार्रवाईयों का भरोसा दिलाए जाने के बाद ऐसे दर्जनों मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करते हुए राज्य सरका ने यह संदेश दे दिया है कि वे इन्हें बचाने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती. <br />इन 9 सालों में राज्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि वह बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. राज्य बनने के बाद जहां केवल 1300 मेगावाट बिजली छत्तीसगढ़ में उपलब्ध थी वहीं अब 2100 मेगावाट है, जिसे अगले साल तक बढ़ाकर 2600 मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है. राज्य ने करीब 4000 करोड़ रूपये बिजली बेचकर कमाये. प्रदूषण और पानी की समस्या के बावजूद राज्य सरकार ने इस दिशा में काफी आगे जाने का विचार किया है. अगले एक दशक में निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों की मदद से इस दिशा में 44000 करोड़ रूपये के निवेश की योजना बनाई गई है. <br />प्रदेश में राज्य बनने के समय 100 वर्ग किमी के दायरे में 17 किलोमीटर ही सड़कें थी, जिसे अब 20 किलोमीटर तक पहुंचाया जा चुका है. खाद्य विभाग के बाद सबसे ज्यादा बजट 2100 करोड़ रूपये का पीडब्ल्यूडी के लिए ही रखा गया है. राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है. तेजी से नये औद्योगिक संयंत्र खुलने के बाद भी यहां के इंजीनियरों को रोजगार की तलाश में बाहर भटकना पड़ता है. 4 नये मेडिकल कालेज खुलने के बाद भी राज्य में करीब 3500 डाक्टरों की कमी है. इनमें से भी अधिकांश शहरों में जमे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है. यहां कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है. स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर हजारों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं. राज्य सरकार कहती है कि राज्य बनने के बाद अब 13 लाख हेक्टेयर के बजाय 17 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. लेकिन इन्हीं आंकड़ों एक सच यह भी है कि कुल खेती के रकबे का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा सिंचित है. खेती के जानकार तो कहते हैं कि वास्तविक सिंचित रकबा 16-17 फीसद ही है. सरगुजा-बस्तर जैसे इलाके में सिंचाई सुविधा केवल 3 और 6 प्रतिशत किसानों को उपलब्ध है. इस बार 20 फीसदी वर्षा कम होने के कारण राज्य की 146 में से 66 तहसीलों में भयंकर सूखा पड़ा हुआ है. कई तहसीलों को सूखाग्रस्त होने के बावजूद उसे सरकार ने अपनी राहत योजना में शामिल करने से मना कर दिया है. <br />छत्तीसगढ़ में वे सब साधन मौजूद हैं जिनकी बदौलत इसे एक विकसित राज्य बनाया जा सकता है. अकेले देवभोग की धरती पर ऊंचे दर्जे का इतना हीरा दबा है<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCkvFWyZ04NeixrUMU5yl4z5TlbCNW-mKQmqSdPvIfHEybbNX-Bk8nZSuMQjd5MjRyc-ALGcRMO5ydjLjnDljRa2JwPLD41O0azQvHBzYdV6tKlXxMb3H0ORIsTBQqJSaTqUOYG2V3BFE/s1600-h/tribalmarket3.gif.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 370px; height: 236px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCkvFWyZ04NeixrUMU5yl4z5TlbCNW-mKQmqSdPvIfHEybbNX-Bk8nZSuMQjd5MjRyc-ALGcRMO5ydjLjnDljRa2JwPLD41O0azQvHBzYdV6tKlXxMb3H0ORIsTBQqJSaTqUOYG2V3BFE/s400/tribalmarket3.gif.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5403905405304812290" /></a> कि इससे होने वाली अकेली आय ही इसे कर-मुक्त राज्य बना सकता है. मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद विकास के लिए आबंटन बढ़ा, राज्य का राजस्व बढ़ा लेकिन राज्य की आम जनता की आकांक्षाओं को सस्ता चावल देने तक ही सिमटाकर राज्य के प्रचुर संसाधनों के इस्तेमाल के मामले में नौकरशाह और राजनेता मनमाने फैसले ले रहे हैं. उन्हें विरोधों की परवाह इसलिए भी नहीं है कि ये विरोध उनके ख़िलाफ वोट में नहीं बदलेंगे. गरीबों के हिस्से में सस्ता चावल आया है और सम्पन्न राज्य के राजस्व की शक्ति को सत्ता से जुड़े लोग अपना हक समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं.<br />-राजेश अग्रवालराजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-8457825260022152242009-09-09T09:05:00.000-07:002009-09-09T09:27:02.117-07:00नक्सल से निपटने फिजूल की पंचायतआत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए केन्द्रीय गृह मंत्री पी.चिदम्बरम् के नये पुनर्वास पैकेज से उत्साहित होने की कोई वजह नहीं दिखती. यह छत्तीसगढ़ सरकार की पिछले 10 साल से चल रही पुनर्वास नीति का ही विस्तार है, जो बुरी तरह से असफल रही है. भरोसे व सुरक्षा के अभाव में छत्तीसगढ़ में केवल गिनती के नक्सलियों ने हथियार डाले, जबकि इससे कई गुना ज्यादा नये लोग बीते सालों में संघम और दलम् में शामिल हो चुके हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री से तो उम्मीद की जा रही थी कि राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे के मारे जाने के बाद बस्तर से नक्सलियों को खदेड़ने के लिए वे आर्थिक, राजनैतिक व रणनीतिक मोर्चे पर किसी ठोस रणनीति की घोषणा करते, लेकिन ताज़ा घोषणा किसी पुरानी फाइल पर चढ़ाई गई एक नई नोटशीट से ज्यादा कुछ नहीं है.<br />देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में सबसे खतरनाक स्थिति छत्तीसगढ़ की है. बस्तर संभाग के जगदलपुर, नारायणपुर, कांकेर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, बलरामपुर और इससे लगे जिलों राजनांदगांव, धमतरी<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SqfStxfANAI/AAAAAAAAAgc/RbedWUe055w/s1600-h/rally.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SqfStxfANAI/AAAAAAAAAgc/RbedWUe055w/s400/rally.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5379499963736667138" /></a> में नक्सली तमाम मुठभेड़ों के बाद अचानक आ धमकते हैं. ये बारूदी सुरंग बिछाकर हमला करते हैं और अपना बिना कोई नुकसान उठाए एक साथ दर्जनों जवानों को मार गिराते हैं. बीते जुलाई माह में जब राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे समेत 30 से ज्यादा जवानों को 3 किलोमीटर लम्बा एम्बुस लगाकर नक्सलियों ने मार डाला, तो उनकी बढ़ी हुई ताकत ने देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री तक को चिंता में डाल दिया. विपक्ष ने छत्तीसगढ़ सरकार की नाक में दम कर डाला. पूरे राज्य में शोक व सन्नाटा था. लग रहा था कि तीन दशक पुरानी इस समस्या से छुटकारा पाने जल्द ही कोई निर्णायक कार्रवाई शुरू होगी. लेकिन हुआ क्या? नक्सलियों ने अभी भी सुरक्षा बलों को चकमा देकर घेरना और पुलिस के मुख़बिरों तथा विशेष पुलिस अधिकारी बनाए गए आदिवासी युवकों को गोलियों से उड़ाना, उनका गला रेतना जारी रखा है. मदनवाड़ा मुठभेड़ में चौबे की मौत के बाद से केन्द्रीय बलों व राज्य पुलिस के बीच टकराव व मतभेद बढ़े हैं. इनके बीच सुलह कराने के लिए मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को भी पंचायत बुलानी पड़ी. विषम परिस्थितियों के चलते जवानों ने मोर्चे पर जाने से इंकार किया, इनमें से 13 जवानों की मनाही को उनकी कायरता समझी गई और उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. दो बड़ी जन-अदालतें लगाकर नक्सलियों ने पुलिस के 4 मुखबिरों की गला रेतकर हत्या कर दी. पुलिस फोर्स उन गांवों तक मामले की जांच करने के लिए नहीं पहुंचने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुद ग्रामीण उनकी लाशें लेकर थाने तक पहुंचे तब जांच की खानापूर्ति की गई. उस हर जगह पर नक्सली हमले कर रहे हैं जहां नये टावर लगाए जा रहे हैं, नई सड़कें बनाई जा रही है, नई चौकियों के लिए ईंट पत्थर भेजे जा रहे हैं और उन लोगों की हत्या की जा रही है जो इन कामों में मजदूरी कर रहे हैं. जवानों को बस में बिठाने वाले चालकों को मार डालने की धमकी दी जा रही है. नक्सलियों ने पुलिस को घेरने के लिए एक ही परिवार के 7 लोगों को जिंदा जलाने की घटना होने की एक फर्जी सूचना भी थाने तक भेजी, लेकिन पुलिस अपनी सतर्कता से उनके जाल में फंसने से बच गई. ये सब वे घटनाएं हैं जो 13 जुलाई 2009 को मदनवाड़ा हमले के बाद राजधानी तक पहुंची. बहुत सी ख़बरें तो दण्डकारण्य के बीहड़ों से बाहर निकल भी नहीं पातीं.<br /> अब सर्चिंग आपरेशनों में काफी सतर्कता बरती जा रही है. सीआरपीएफ जवान तलाशी मानदंडों का कड़ाई से पालन कर रहे हैं. उन्होंने गश्त के लिए 4 किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं जाने का फैसला किया है. मतलब यह कि हालिया दिनों में नक्सली बस्तर के अंदरूनी इलाकों में अपना तेजी से अपना पैर पसारने में लगे हुए हैं. धमतरी और राजनांदगांव में बड़ी वारदातें कर उन्होंने नये क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति का सबूत तो दे ही दिया है. यह वह दौर है जब नक्सलियों के सफाये के लिए ठोस काम बस्तर में होने चाहिए थे, क्योंकि एक आला अफसर को जान से हाथ धोना पड़ा, और मौके का फायदा उठाकर पूरे बस्तर में नक्सली अपनी दहशत कायम करने में सफल दिखाई दे रहे हैं.<br />दरअसल, जब-जब नक्सली हमला नहीं होता, सरकार और सुरक्षा बलों को यह भ्रम हो जाता है कि वे कमजोर पड़ गए हैं और ग्रामीण अब सरकार के पुनर्वास पैकेज की तरफ आकर्षित होकर सामने आएंगे. जबकि बड़ी वारदातें कर नक्सलियों का खामोश दिखना, दबाव बढ़ने पर वार्ता का प्रस्ताव रख देना, मुठभेड़ में मात खाने की आशंका होने पर पीछे हटना, यह सब उनकी रणनीति का हिस्सा है. बस्तर में हालात खराब है और जरूरत जमीनी कार्रवाई की है. साथ ही जरूरत है बस्तर के लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनके बीच<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEht-ZD3t0xTO7h5vVSWCERMNVJNMB4_wNyk_QHugh2rYu7SUKpFNsvTkFL9dwj0_5vU225J6IXHUwyGmyrSRgNs1qtCGpqch_SF-bLR7I0KGKq_NrCtD0uS6ZYE1MGvsTqXZ3yEbRUN1zQ/s1600-h/singur_farmers_protest.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 270px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEht-ZD3t0xTO7h5vVSWCERMNVJNMB4_wNyk_QHugh2rYu7SUKpFNsvTkFL9dwj0_5vU225J6IXHUwyGmyrSRgNs1qtCGpqch_SF-bLR7I0KGKq_NrCtD0uS6ZYE1MGvsTqXZ3yEbRUN1zQ/s400/singur_farmers_protest.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5379500159416590978" /></a> सरकार के पहुंचने का, उनका विश्वास जीतने का. इनके बगैर तो नक्सलियों के ख़िलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ी जा सकेगी. लेकिन उल्टे दूरी बनाई जा रही है और केन्द्र सरकार को सूझ गया कि वह पुनर्वास योजना घोषित करे, जो न केवल भ्रमित करने वाला है, ध्यान बंटाने वाला और वक्त बर्बाद करने वाला है बल्कि बस्तर में काम करने वाले चुनिंदा परिश्रमी अधिकारियों को इस धोखे में रखने वाला है कि नक्सलियों को अब पकड़ने की जरूरत नहीं वे खुद उनके पास आएंगे. राहत पैकेज लागू करना सरकार की उदारता का परिचय देता है, या फैसले को दिल्ली से ही बैठकर निपटाने का रास्ता दिखा रहा है? क्या पुनर्वास की गारंटी उन्हें मिल जाना मुख्य धारा में लौटने वाले लोगों को सुरक्षा की गारंटी भी दिलाएगा?<br />अब जरा ध्यान दिया जाए कि केन्द्र सरकार के राहत पैकेज में क्या है. आत्मसमर्पण करने वाले हर नक्सली को व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा तीन वर्ष तक प्रति माह दो हजार रूपये दिए जाएंगे. इसके अलावा नक्सली के आत्मसमर्पण करते ही डेढ लाख की राशि उसके नाम से बैंक में सावधि जमा खाते में रख दी जायेगी, जिसे वह तीन वर्ष बाद निकाल सकेगा. गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार यदि कोई नक्सली आत्मसमर्पण करते समय हथियार भी सौंपता है तो उसे अलग से प्रोत्साहन राशि दी जाएगी. जनरल परपज मशीनगन आरपीजीयूएमजी या स्निफर राइफल सौंपने पर 25 हजार रूपये तथा ए के श्रृंखला की किसी भी राइफल के लिए 15 हजार रू दिए जायेंगे. पिस्तौल या रिवाल्वर या बारूदी सुरंग के लिए 3 हजार रूपये दिये जायेंगे. जमीन से हवा पर मार करने वाली मिसाइलें सौंपने पर 20 हजार रू. तथा किसी भी तरह के कारतूस के लिए तीन रपये प्रति कारतूस दिये जायेंगे. एक सेटेलाइट फोन के लिए 10 हजार रू. तथा कम दूरी तक काम करने वाले वायरलेस सेट के लिए एक हजार रूपए और लंबी दूरी के सेट के लिए 5 हजार रू. दिये जायेंगे. कुछ अन्य हथियारों के लिए भी राशि तय की गई है.<br />केन्द्र सरकार की ओर से घोषित यह पैकेज छत्तीसगढ़ में सन् 2000 से लागू पुनर्वास पैकेज का ही विस्तारित स्वरूप है. छत्तीसगढ़ में भी समर्पण करने वाले नक्सलियों के प्रति कम उदारता नहीं रही है. पहले ही छत्तीसगढ़ में समर्पण करने वाले नक्सलियों के अपराधिक मामले समाप्त कर दिये जाते हैं. एमएलजी जैसे घातक हथियार के साथ समर्पण करने वालों को 3 लाख रूपये दिए जाते हैं, एके 47 के साथ समर्पण करने वालों को दो लाख, एसएलआर के साथ समर्पण करने वालों को एक लाख, थ्री नाट थ्री लाने वालों को 75 हजार तथा बंदूक के साथ समर्पण करने वालों को 50 हजार रूपये नगद दिए जाते हैं. राज्य सरकार ने कृषि भूमि देने तथा सरकारी नौकरी में प्राथमिकता देने की व्यवस्था भी कर रखी है. केन्द्र सरकार की नीति में अतिरिक्त आकर्षण यह है कि इसमें नक्सलियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाएगा और प्रतिमाह दो हजार रूपये भी दिए जाएंगे. इसके अलावा उनके नाम पर डेढ़ लाख रूपये की एफ डी कराई जाएगी, जिसे वे अच्छे चालचलन के बाद बाद 3 साल के बाद निकाल सकेंगे.<br />आशय यह है कि सरकार की ओर से आर्थिक प्रलोभन न तो अनोखा है, न ही ऐसा पहली बार किया गया है. यदि गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने चिदम्बरम् को अंधेरे में रखा होगा कि इसका दूरगामी असर पड़ने वाला है तो वे जरा छत्तीसगढ़ में लागू पिछले 10 साल के पुनर्वास पैकेज का ही आंकड़ा देख लें. अब तक 140 शातिर नक्सलियों ने ही आत्मसमर्पण किया है. और करीब 2400 ऐसे आदिवासियों ने समर्पण किया है, जिन्हें नक्सली अपने साथ बहला- फुसलाकर ले गए थे और संघम-दलम इत्यादि में उन्हें शामिल कर लिया था. बस्तर में ही छोटे बड़े दलों और उनके समर्थकों की मानें तो इनकी संख्या 35 हजार के आसपास है. यह चम्बल के डाकुओं से समर्पण कराने जैसा मामला नहीं है, जिनकी संख्या दो चार सौ हो. ढाई हजार से ज्यादा लोगों के हथियार सौंपने के बाद भी छत्तीसगढ़ में नक्सली देश के सबसे ज्यादा ताकतवर उग्रवादी समूह हैं. बस्तर में आदिवासियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनको सरकार की तरफ से कोई भी अनुदान, कृपा, राशि, अनाज, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधा ग्रहण करना मुश्किल है. ऐसा कर लेने पर वे नक्सलियों के निशाने पर आ जाते हैं. इन्हें किसी भी पुनर्वास पैकेज का लाभ दिलाने के पहले उन्हें नक्सलियों के प्रकोप से बचाना जरूरी है. सरकार बस्तर के युवकों को विशेष पुलिस अधिकारी बनाती है- लेकिन ये पुलिस अधिकारी गांव जाते हैं तो नक्सली इनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर लाश सड़क पर फेंक रहे हैं. यही हाल पुलिस के मुखबिरों का हो रहा है. जन-अदालतों में इनका गला रेता जा रहा है.ये सब किसी न किसी रूप में सरकारी मदद पाते रहे हैं पर ये सब नक्सलवाद खत्म करने में असफल रहे हैं. बस्तर में सबसे बड़ी समस्या सरकारी मशीनरी के पहुंचने और उसकी विश्वसनीयता कायम करने की है.<br />मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह स्वीकार करते हैं कि नक्सली ठेकेदार और अफसरों से 300 करोड़ रूपये सालाना वसूली कर रहे हैं. जाहिर है कि 300 करोड़ वे नक्सलियों को देते हैं तो 600 करोड़ खुद भी अंदर कर रहे होंगे. मान लेना चाहिए कि इतना सब कुछ वे अपना घर बेचकर नहीं करते होंगे. सरकारी खजाने से इतना गोलमाल. फिर क्या अफसर और ठेकेदार इतनी मनमानी करें और हमारे शरीफ राजनीतिज्ञ खामोश बैठे रहेंगे? इसका जवाब हमारे हारे हुए नेता जवाब दें और उनसे पहले वे नेता जवाब दें जो बार-बार नक्सलियों के गढ़ से चुनाव जीतकर आ जाते हैं. नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में काफी पेंच हैं. <br />इस ताजा पुनर्वास पैकेज से एक रास्ता और खुल गया है, कुछ नकली नक्सली तैयार होंगे. कुछ असली हथियार जमा होंगे और समस्या अपनी जगह पर बनी रहेगी. कुछ ईमानदार पुलिस अफसर जो नक्सलियों के ख़िलाफ मुहिम चला रहे होंगे इस पैकेज के बाद शायद अब जंगलों में भटकने के बजाय शांत होकर बैठ जाएं. इस उम्मीद के साथ कि अब कुछ बड़े-बड़े हथियार लेकर कुछ खूंखार नक्सली उनके थाने तक खुद ही पहुंच जाएंगे और उन्हें किसी दिन स्वतंत्रता दिवस समारोह में सम्मानित किया जाएगा.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-39065898215170024472009-08-13T03:59:00.000-07:002009-08-13T04:01:28.079-07:00फिर फांसी पर लटका बेकसूर चरणदास चोरछत्तीसगढ़ी रंगमंच की अनमोल धरोहर- पद्मविभूषण हबीब तनवीर का चरणदास चोर इन दिनों कटघरे में है. बीते 5 दशकों से दुनिया भर में हजारों मंचनों के जरिये राज्य की लोककला, सामाजिक<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SoPyYSsfcAI/AAAAAAAAAgU/VaqvHkbPrcU/s1600-h/Charandas+Chor.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 204px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SoPyYSsfcAI/AAAAAAAAAgU/VaqvHkbPrcU/s400/Charandas+Chor.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5369401679904993282" /></a><br />स्थिति व संस्कृति को पहचान दिलाने वाली इस कालजयी कृति को जिस तरह सरकार और रंगकर्म के झंडाबरदारों ने मिलकर विवादों के घेरे में ला दिया है, उससे निकट भविष्य में इस नाटक को हबीब की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ में निर्विध्न खेला जाना मुश्किल हो गया है.इस विवाद के बीच किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि न तो छत्तीसगढ़ सरकार ने चरणदास चोर किताब को प्रतिबंधित किया है और न ही नाटक को. विरोध-प्रदर्शन और उस पर सरकार की चुप्पी ने मामले को अनावश्यक रुप से उलझा दिया है.<br />बखेड़ा तब शुरू हुआ जब सतनामी समाज के एक धर्मगुरू बालदास ने मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से मुलाकात कर वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हबीब तनवीर की किताब चरणदास चोर पर प्रतिबंध लगाने की मांग की. स्कूली बच्चों में किताबों पर रूचि जगाने के लिए छत्तीसगढ़ में हर साल पुस्तक वाचन सप्ताह मनाया जाता है, इनमें सामूहिक रूप से किताबें पढ़ी जाती हैं. वाणी प्रकाशन की यह किताब भी उन पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की सूची में शामिल थी. गुरू बालदास ने शिकायत की थी कि इस किताब में बताया गया है कि सतनामी पंथ की स्थापना से पहले बाबा घासीदास डकैत थे. यह बात आधारहीन है और इससे गुरू घासीदास व समाज का अपमान हो रहा है. आनन-फानन में शिक्षा संचालनालय ने इस किताब को पुस्तक वाचन से हटाने का निर्देश दे दिया और यह भी चेतावनी दी कि यदि किसी स्कूल में किताब को पढ़ते हुए पाया गया तो जिम्मेदार शिक्षक पर कार्रवाई की जाएगी. <br />राज्य में सतनामी समाज अनुसूचित जाति में शामिल है. अरसे से यह तबका सामाजिक शोषण का शिकार रहा है, लेकिन प्रदेश की राजनीति में इनका काफी महत्व है. दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा इनके वोट अपने पास समेटने के लिए तमाम उपाय करते हैं. सतनामी समाज के नेताओं व गुरूओं को राजनेता साधने में लगे होते हैं. गुरू बालदास सतनामी का समाज में काफी प्रभाव है. वे तब खासे चर्चित हुए जब पिछले साल जुलाई माह में बिलासपुर जिले के बोड़सरा में एक निजी स्वामित्व की भूमि- बाजपेयी बाड़ा पर उन्होंने समाज का हक जताया और कहा कि यह उनके गुरू अघनदास की कर्मभूमि है. इसे हासिल करने के लिए सतनामी समाज के हजारों लोग एक मेले में इकट्ठे हुए. भीड़ के हिंसक हो जाने के बाद पुलिस ने गुरू बालदास समेत दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया. इसके बाद विधानसभा में इस मुद्दे पर लगातार हंगामा हुआ. कांग्रेस गुरू बालदास की रिहाई मांगती रही, जबकि सरकार अपने बचाव में लगी थी. कांग्रेस के सभी गुटों के नेता गुरू बालदास के पक्ष में हो गए. कुछ दिन बाद ही राज्य में चुनाव होने वाले थे. सतनामी समाज की नाराज़गी भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकती है. राज्य सरकार ने घोषणा कि बोड़सरा बाड़ा को अधिग्रहित किया जाएगा और वहां एक स्मारक बनाया जाएगा. राजनैतिक विश्लेषकों ने माना कि सरकार ने यह फैसला अपनी पार्टी के संभावित नुकसान को ध्यान में रखते हुए लिया. बाद में राज्य सरकार के इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई और अधिग्रहण की घोषणा पर अभी तक आगे की कार्रवाई नहीं की जा सकी है. लेकिन इस मामले ने मीडिया और समाज में गुरू बालदास को चर्चित तो कर ही दिया.<br />पुस्तक वाचन सप्ताह में किताब को पढ़ने से रोकने के लिए राज्य सरकार की तरफ से जारी आदेश में गुरू बालदास के इस प्रभाव का ही असर दिखाई दे रहा है. बोड़सरा आंदोलन में संयम का अभाव था, वहीं इस मुद्दे पर गुरू बालदास संयमित रहे. उन्होंने विरोध दर्ज कराने का शांतिपूर्ण व लोकतांत्रिक तरीका अपनाया, परन्तु राज्य सरकार ने फैसला घबराहट में ले लिया. सतनामी समाज में बाबा घासीदास पर आस्था व्यक्त करने के लिए पंथी नृत्य का चलन है. बाबा घासीदास सत्य के पुजारी थे. चरणदास चोर नाटक का नायक भी सत्य निष्ठा की शपथ लेता है. पंथी नृत्य तथा नर्तक दल के प्रमुख पद्मश्री स्व. देवदास बंजारे को चरणदास चोर में शामिल नृत्य से अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली. हबीब तनवीर का प्रत्येक सृजन छत्तीसगढ़ के शोषितों, दलितों व आदिवासियों की विषमताओं का आईना और समृध्द लोक व शिल्प कलाओं का प्रतिबिम्ब है. उनका अपना जीवन, उनके कलाकार और उनका रंगकर्म सामाजिक सौहार्द्र को बढ़ाने और गरीबों, पिछड़ों को महत्व दिलाने के लिए समर्पित रहा. <br />दरअसल, चरणदास चोर नाटक के किसी भी अंश में सतनामी समाज के ख़िलाफ कोई टिप्पणी ही नहीं है. विवाद वाणी प्रकाशन की किताब की भूमिका को लेकर है. भूमिका का एकाध वाक्य विवादास्पद कहा जा सकता हैं, जिस पर सतनामी समाज का विरोध भी जायज है. गुरू बालदास का दावा है कि उन्होंने सन् 2004 में ही वाणी प्रकाशन की किताब में शामिल भूमिका के उस अंश को लेकर आपत्ति दर्ज करा दी थी. संभवतः उस समय दर्ज कराए गये उनके विरोध को नौकरशाहों व सरकार ने महत्व इसलिए नहीं दिया कि वे गुरू बालदास के प्रभावों से परिचित नहीं थे, इसलिये उस समय उनका ज्ञापन किसी फाइल में धूल खाने के लिए छोड़ दिया गया होगा. वाणी प्रकाशन की भूमिका को या कम से कम उस अंश को हटा दिये जाने के बाद भी चरणदास चोर नाटक कहीं प्रभावित नहीं होता. इस बार जब पुस्तक वाचन सप्ताह के लिए उसी किताब को फिर छपवा कर मंगा लिए गये. 2004 में जो हिस्सा छपा था, 2009 में भी वह यथावत आ गया है. मतलब यह कि जो किताबें पढ़ने के लिए बच्चों को दी जा रही है, उस पर खुद अफसर नज़र नहीं डालते. यदि यहां पर गलती हो भी गई तो उसे पुस्तक वाचन में प्रतिबंधित करने के दौरान फिर दोहरा दिया गया. शिक्षा विभाग किताब पर प्रतिबंध लगाने के बजाय विवादित वाक्य को न पढ़ने का आदेश जारी कर सकती थी. बच्चों को किताबें देने से पहले इसको विलोपित भी किया जा सकता था. पर पूरी की पूरी किताब को प्रतिबंधित करने और यह स्पष्ट नहीं करने से कि नाटक को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, मामला उलझ गया. <br />नतीजा यह निकला है कि सरकारी आदेश के बाद चरणदास चोर नाटक ही कटघरे में दिखाई देने लगा है. स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने प्रतिबंध लगने वाले दिन ही बयान दिया था कि किताब से विवादित हिस्से को हटाया जाएगा उसके बाद पठन-पाठन के लिए भेजा जाएगा. लेकिन फोकस केवल यही बात हुई है कि सरकार ने चरणदास चोर पर पाबंदी लगा दी है. देशभर में बुध्दिजीवी, रंगकर्मी और साहित्यकार सरकार के फैसले की आलोचना इसी आधार पर कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में तो कुछ अति उत्साही कला प्रेमियों ने तख़्तियां लेकर संस्कृति विभाग के सामने प्रदर्शन भी कर डाला. <br />अफसोसजनक है कि इन सब गतिविधियों से सरकार अभी तक आंख मूंदे बैठी हुई है. हबीब तनवीर की प्रतिष्ठा और उनकी कृति को इससे कितनी क्षति पहुंच रही है इसका वह अनुमान भी नहीं लगाना चाहती. यह रवैया पुस्तक को वाचन से हटाए जाने से भी ज्यादा खतरनाक है. राज्य सरकार के पास ऐसे संवेदनशील मामलों से निपटने के लिए अनुभवी अफसरों की कमी दिखाई दे रही है. राज्य को तत्काल साफ करना चाहिए कि नाटक में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है और न ही उसने इसके प्रदर्शन पर कोई पाबंदी लगाई है. इस चुप्पी के चलते एक गुट नाटक के पक्ष में खडा़ हो रहा है जबकि दूसरे गुट में इस नाटक के ख़िलाफ भीतर ही भीतर आक्रोश पनपने का खतरा दिखाई दे रहा है.पूरे नाटक का कोई छोटा सा भी हिस्सा विवाद के घेरे में नहीं है फिर भी ताजा हालात यह है कि राजधानी से लेकर गांव-देहात तक जिस चरणदास चोर के मंचन ने कला के रसिकों को तृप्त किया है, उसका मंचन होने पर विरोध में झंडे-डंडे निकल सकते हैं और जिस सामाजिक मेल-मिलाप के लिए हबीब तनवीर और उनकी टीम ने अपना सर्वस्व होम किया, उसी को क्षति पहुंचेगी. नाटक के पात्र चरणदास चोर ने अपने वचन और सच की लड़ाई लड़ी और फांसी पर चढ़ना मंजूर किया था. एक बार फिर यह बेकसूर नाटक उसी फंदे पर चढ़ता नज़र आ रहा है.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-37647277812165537292009-06-27T23:45:00.000-07:002009-06-28T19:01:35.897-07:00आत्महत्याएं आईना नहीं किसानों की बदहाली का<span style="font-weight:bold;">तिल-तिल कर मरने वालों की सुध लेना ज़्यादा जरूरी</span><br />छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्याओं को केवल कर्ज़ नहीं चुका पाने का नतीजा मान लेना हमें एक ऐसे झूठ को आधार देना होगा, जो देर-सबेर धराशायी हो जाएगा और इसकी आड़ में वे नौकरशाह और राजनीतिज्ञ साफ बच निकलेंगे जो इनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं. <br />पिछले दो सालों से केन्द्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो का वह आंकड़ा काफी चर्चा में है, जिसमें किसानों की आत्महत्या की दर छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की ही तरह बताई गई है. रिपोर्ट कहती है कि साल में छत्तीसगढ़ के करीब 1500 किसान खुदकुशी कर रहे हैं. यानि <a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLD81bl2pVClUcyAHSMjxTQ3sLvp0Hoq596BH03OqDebt7bvk3S9bJ3wNGWTCtHFgEslEKcP00FUB3422j1coOy6jkf06X4BYGO3KkSg4sjQOSiTFv60YE18Oiidl_ZYkf6iya45ciyEs/s1600-h/Photo2+CG.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 270px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLD81bl2pVClUcyAHSMjxTQ3sLvp0Hoq596BH03OqDebt7bvk3S9bJ3wNGWTCtHFgEslEKcP00FUB3422j1coOy6jkf06X4BYGO3KkSg4sjQOSiTFv60YE18Oiidl_ZYkf6iya45ciyEs/s400/Photo2+CG.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5352269060801298722" /></a> औसतन हर दिन 4 से 5 किसान. ब्यूरो रिकार्ड के आधार पर कहा जा रहा है कि ये आत्महत्याएं किसान कर्ज नहीं चुका पाने के कारण करते हैं. कोई शक नहीं है कि ऐसे रिपोर्ट्स में छत्तीसगढ़ की विषमताओं पर चिंता है. लेकिन यदि हम यह स्थापित नहीं कर पाए कि किसानों की खुदकुशी कर्ज नहीं चुका पाने या खेती में जबरदस्त नुकसान होने के कारण हुई तो छत्तीसगढ़ की सरकार अपना पीठ थपथपाएगी कि देखो हमारे किसानों की हालत इतनी ख़राब नहीं है कि उन्हें मरना पड़े. छत्तीसगढ़ सरकार अपनी तारीफ में यह भी कहेगी कि हम देश भर में सबसे ज्यादा कीमत पर धान खरीदते हैं, किसानों को ब्याज मुक्त कर्ज़ दिलाते हैं, सिंचाई पम्पों को मुफ़्त बिजली देते हैं, एक-दो रूपये किलो में चावल देते हैं, किसान यहां आत्महत्या करेगा तो क्यों?<br />इन मौतों को राज्य के 33.5 लाख किसान परिवारों की बदहाली का आईना मान लेना भूल होगी. जिस पुलिस जांच के आधार पर हम इतने किसानों की आत्महत्या की बात कर रहे हैं, वही जांच यह भी कहती है कि ज्यादातर मौतें बीमारी से तंग आकर, पारिवारिक कलह, ख़राब दिमागी हालत, शराब की लत आदि से हुई. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में एक जनवरी 2008 से 31 जुलाई 2008 के बीच 400 ऐसे लोगों ने खुदकुशी की, जिनका पेशा कृषि था. गांव में इंजीनियर, प्रोफेसर, साइंटिस्ट होते नहीं, किसान ही होते हैं. राज्य में खेती पर निर्भर लोगों की तादात 83 फीसदी है. इसलिये कोई स्वाभाविक मौत मरे या दुर्घटना में उनमें से ज्यादातर का पेशा किसानी ही दर्ज है. हरेक अपराध में खानापूर्ति करते वक्त मरने वाले का पेशा भी पुलिस लिखती है. गांव की साधारण जरूरतों को पूरा करने के लिए इनमें से कई लोग बैलगाड़ी किराये पर देने, किराना सामान की बिक्री करने, पंचर की दुकान चलाने, साप्ताहिक बाजार में जाकर सब्जियां बेचने, कपड़े सिलने, बिजली सुधारने, रेडियो ट्रांजिस्टर सुधारने जैसा काम भी करते हैं लेकिन उन्हें कहते किसान ही हैं. <br />छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या को मजबूती से स्थापित करने के पक्ष में कहा जा सकता है कि पारिवारिक कलह, दिमागी हालत का बिगड़ना, शराब का आदी हो जाना भी खेती में नुकसान की वजह से और कर्ज़ लेने के कारण है. लेकिन कलह, दिमागी हालत और लत का केवल गरीबी से रिश्ता है नहीं. यह शहरों में और अमीर परिवारों में होने वाले हादसों की तरह है. अपवादस्वरूप एक या दो मामले ही अभी तक सामने आए हैं जिनमें किसान का बीज ख़राब हुआ और कर्ज़ से लद गया, तब उसने खुदकुशी कर ली. आत्महत्या की परिस्थितियां बेरोजगारी, प्रेम प्रसंगों, खेती से मिली आय को फिजूलखर्ची में उड़ा देने के चलते भी हैं. <br />दरअसल, छत्तीसगढ़ के किसान अलग मिजाज के हैं. उन्हें महाराष्ट्र, पंजाब की तरह कपास, दलहन आदि की व्यावसायिक खेती करनी नहीं आती. तीन चौथाई किसान- लघु व सीमान्त श्रेणी के हैं, जिनके पास 4 एकड़ से कम खेत हैं. वे साल में केवल एक बार धान की फसल लेते हैं. फसल-चक्र परिवर्तन के लिए राज्य बनने के बाद ही सरकारों ने कोशिशें की लेकिन किसान समझदार निकले. उन्होंने प्रयोग करने के बजाय पारम्परिक खेती पर ही भरोसा किया. सरकारी योजनाओं में उलझने के बजाय इन्हें खुद के सामर्थ्य पर भरोसा है. भले मुनाफा कम मिले लेकिन वे कर्ज उतना ही लेंगे, जितना फसल बर्बाद होने पर भी मजदूरी करके चुका सकें. सोसाइटियों में बहुत से कर्ज़ हैं पर वे डिफाल्टर हो जाने पर भी परवाह नहीं करते,देर-सबेर चुका देने या सरकार से माफी मिल जाने की उम्मीद लेकर खेती या मजदूरी करते रहते हैं. हो सकता है इसके लिए वे कुछ साल या कुछ महीनों के लिए दूसरे प्रदेशों में कमाने-खाने चले जाएं, हालांकि यह विवशता और कलंक ही है. किसान धान की जगह किसी दूसरी फसल पर हाथ आजमाने के बारे में नहीं सोचते. 3 फीसदी ब्याज दर सहकारी बैंकों में चल रहा है, फिर भी पिछले साल केवल 600 करोड़ रूपये बांटे जा सके. अब सरकार ने चुनावी घोषणा को पूरा करते हुए खेती के लिए बिना ब्याज कर्ज देने की योजना शुरू कर दी है, तब भी मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की मानें तो यह आंकड़ा केवल 800 करोड़ तक पहुंच पाएगा. राज्य में करीब 48 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि है, जिनमें से सब्जी की खेती को भी जोड़ लिया जाए जिनमें गन्ना,फल आदि शामिल हैं, कुल रकबा 3 फीसदी से भी कम लगभग 1.5 लाख हेक्टेयर में दूसरी फसलें ली जाती हैं. धान जोखिम से परे खेती है. इसे बोने के लिए ज्यादातर खुद का श्रम किसान इस्तेमाल करते हैं. सामर्थ्य के अनुसार खाद बीज का इंतजाम कर लेता है. धान मुनाफा नहीं देता तो खास नुकसान भी नहीं होता. इन किसानों के पास ऐसे व्यवस्थित खेत नहीं है कि उन्नत बीज, असरकारी मंहगे खाद व सिंचाई सुविधा के साथ खेती करें. पारम्परिक खेती से उन्हें थोड़ा मिलता है, पर वह उन्हें फांसी पर लटकने की नौबत तक नहीं पहुंचना पड़ता. वे <span style="font-style:italic;">न मरै न मौटावै<span style="font-weight:bold;"></span></span> की स्थिति में हैं. यानि वह समृध्द भी नहीं है लेकिन मरने के कगार पर भी नहीं पहुंचा है. समृध्द नहीं हुए तो सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं, उनके लिए सिंचाई, बीज, खेतों को सुधारने व मिट्टी के उपचार का प्रबंध नहीं किया गया और किसान मरने से बच रहे हैं तो अपने सीमित साधन से असीमित श्रम करते हुए. <br />दरअसल, छत्तीसगढ़ के किसानों की दुर्दशा पर आत्महत्या के आंकड़ों को किनारे रखकर बात होनी चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होगा उर्वरा व खनिज सम्पदा से भरपूर अमीर धरती के किसान गरीब क्यों हैं, इस सवाल का हल नहीं तलाशा जा सकेगा. देश में कृषि भूमि का औसत सिंचित रकबा 42 फीसदी है, लेकिन छत्तीसगढ़ के सरकारी आंकड़ों में यह 30 प्रतिशत है. हालांकि वास्तविक सिंचित रकबा इससे भी कम 17 से 19 फीसदी ही है. कुल मिलाकर यहां सिंचित भूमि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. राष्ट्रीय औसत 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के मुकाबले छत्तीसगढ़ में धान उत्पादन का औसत केवल 13 क्विंटल है. सरगुजा और बस्तर जैसे आदिवासी इलाकों में तो यह केवल 5-6 क्विंटल है. शायद यही वजह है कि राज्य के 42 फीसदी परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं. उन्हें सरकार सस्ता चावल मुहैया करा रही है. <br /><span style="font-weight:bold;">आत्महत्या, झगड़ों व दुर्घटनाओं की प्रमुख वजह शराब </span><br />आत्महत्याओं के मामले में समाज कल्याण मंत्री लता उसेंडी का वक्तव्य ज्यादा महत्वपूर्ण है. वे मानती हैं कि छत्तीसगढ़ के गांवों में अधिकांश कमाऊ परिवार के लोग नशे की आदत के कारण अपनी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा नशे पर खर्च कर देते हैं इससे वे अपने परिवार को पौष्टिक भोजन नहीं दे पाते, जिसके चलते बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं. सुश्री उसेंडी की चिंता गलत नहीं है, देश में सर्वाधिक 54 फीसदी कुपोषित बच्चे छत्तीसगढ़ में ही है, यह केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का आंकड़ा कहता है. छत्तीसगढ़ बेवरेज कार्पोरेशन की सालाना रिपोर्ट में पिछले साल मार्च में बताया गया है कि देश में शराब की खपत पंजाब और हरियाणा के बाद सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में है. इन परिवारों में मुखिया की आत्महत्या को किसान की आत्महत्या मानना तो ठीक नहीं होगा. छत्तीसगढ़ के अखबारों में हर रोज दो चार ख़बरे होती हैं, जिनमें लोग शराब के नशे में अपने ही सगे सम्बन्धियों पर हमले कर देते हैं. सड़क दुर्घटनाओं के ज्यादातर मामले छत्तीसगढ़ में शराब पीकर गाड़ी चलाने के कारण हो रहे हैं. यदि पारिवारिक कलह और बीमारी से भी कोई आत्महत्या हो रही है तो उसके जड़ में शराबखोरी मिल जाएगी.<br /><span style="font-weight:bold;">भविष्य में खेती के चलते फांसी पर चढ़ेंगे किसान</span><br />रायपुर जिले में इस बार पिछले साल के मुकाबले इस साल 20 हजार एकड़ कम जमीन पर खेती हो रही है. नई राजधानी की योजना, नये उद्योग व कालोनियों के कारण यह परिस्थिति बनी है. राज्य के किसानों ने अभी तक उन्नत खेती पर ध्यान न दिया हो, लेकिन अब खेती की जमीन घट रही है और अपनी जमीन छीने जाने पर सरकार के ख़िलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, उससे साफ है कि वे भविष्य में कम जमीन में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए उन्नत खेती की ओर बढ़ेंगे. फिर वे मजबूरन धान बोना छोड़ेगे और कम जमीन में पंजाब महाराष्ट्र की तरह ज्यादा मुनाफा पाने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बीज खरीदेंगे और फसल तैयार कर उन्हें बेचने के लिए बड़ा कर्ज लेंगे. छत्तीसगढ़ सरकार ने एक लाख करोड़ एमओयू कर रखा है. यहां जिन्दल, टाटा-एस्सार जैसी दर्जनों कम्पनियां मंडरा रही हैं जो किसानों को निगलने के लिए उतारू हैं. रायगढ़ से लेकर बस्तर तक किसानों की जमीन बलात् जन सुनवाई कर हड़पी जा रही है. उपजाऊ खेतों पर चिमनियां रोपी जा रही हैं. आसार दिखते हैं कि भविष्य में ये सब आत्महत्याओं, हत्याओं के कारण बनेंगे. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह हाल ही में वित्त आयोग के साथ हुई बैठक में छत्तीसगढ़ में ज्यादा जंगल होने को अभिशाप बता चुके हैं.<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY43UnuWQ-AQ7zZiv44PTpNLg_oL-_J_uZxkPJTLhFn1RQpH29ONXwuEeYI9h5JPairVkpqlbJyx1PfV-Y-ZuOLHTKRi7IHeiQRO-0mb7ZoZxZ1JUkSMukzngOAy4RSNhHgtnEmJQXVew/s1600-h/Photo3CG.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 256px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY43UnuWQ-AQ7zZiv44PTpNLg_oL-_J_uZxkPJTLhFn1RQpH29ONXwuEeYI9h5JPairVkpqlbJyx1PfV-Y-ZuOLHTKRi7IHeiQRO-0mb7ZoZxZ1JUkSMukzngOAy4RSNhHgtnEmJQXVew/s400/Photo3CG.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5352269429489772162" /></a> उनका कहना है कि यहां के संसाधनों का इस्तेमाल कर गरीबों को बांटने में पर्यावरण व वन मंत्रालय रोड़ा लगा देता है क्योंकि यहां का 44 फीसदी हिस्सा जंगलों से घिरा है. मुखिया के इस बयान से अनुमान लगा सकते है कि भविष्य का छत्तीसगढ़ कैसा होगा. सरकार अभी तक नहीं बता पाई कि दर्जनों पावर प्लांट, स्पंज आयरन फैक्ट्रियों व खदानों के आवंटन से आम आदमी और बेरोजगार युवकों को क्या फायदा हुआ. उन्हीं की पार्टी के विधायक देवजी भाई पटेल राजधानी से लगे सिलतरा में स्पंज आयरन फैक्ट्रियों के चलते बढ़े प्रदूषण के खिलाफ हज़ारों किसानों के साथ आंदोलन चलाकर जरूर बता रहे हैं कि यहां के खेतों की मिट्टी और नदी तालाब का पानी कितना बर्बाद हो गया.<br /><span style="font-weight:bold;">किसानों की भूमि से जुड़ी और समस्याएं</span><br />छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक हत्याएं राजस्व मामलों को लेकर होती है, यह पुलिस के एक आला अधिकारी का कहना है. लेकिन अब आत्महत्याओं का दौर भी शुरू हो गया है. बीते 21 मई को बैंकुंठपुर थाने के छेलिया ग्राम में 10 साल के एक बच्चे की हत्या पत्थर मार-मार कर कर दी गई. 22 मई को इसी थाने में एक और बुजुर्ग की उसके ही रिश्तेदारों ने हत्या कर दी. उसके पिता के साथ आरोपी का जमीन विवाद चल रहा था. रायपुर के पास सिमगा में पुलिस ने माता, पिता और सगे भाई की हत्या के आरोप में बेटे समेत 22 लोगों को पुलिस ने अप्रैल माह में गिरफ्तार किया. जांजगीर जिले में दो परिवारों के बीच हुए विवाद में 4 लोगों की हत्या इसी साल हो गई. छत्तीसगढ़ के किसान जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि अब उनके बीच पुरखों की जमीन का बंटवारा होता जा रहा है और खेती से उनकी आय सीमित होती जा रही है. जांजगीर जिले के सरहर ग्राम में एक बुजुर्ग किसान फूलसाय की जमीन सरकार ने सड़क बनाने के लिए अधिग्रहित की थी, उसे मुआवजा सालों नहीं मिला. जगह-जगह फरियाद कर निराश हो जाने के बाद वह बीते 13 मई को आत्महत्या करने के इरादे से कलेक्टोरेट पहुंच गया. अफसरों ने उन्हें मनाया, आश्वासन दिया कि एक हफ्ते में मुआवजा मिल जायेगा. लेकिन पखवाड़े भर के इंतजार के बाद भी मुआवजा नहीं मिला. 30 मई को उस बुजुर्ग किसान के प्राण पखेरू उड़ गए. मुआवजा तो नहीं मिला-मौत मिल गई. दरअसल वह अपनी सांस की बीमारी का इलाज कराने के लिए मुआवजे की राशि हर हालत पाना चाहता था. हाल ही में राज्य में सुरेश यादव के मामले ने भी तूल पकड़ा. राजधानी से केवल 20 किलोमीटर दूर सिंगारभाठा ग्राम के सुरेश की आत्महत्या ने किसानों को लेकर सरकार की संवेदनहीनता और भ्रष्ट राजस्व अमले की करतूत को उजागर कर दिया. कांग्रेस ने इसे लेकर पैदल मार्च किया और भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया. दबाव में आई सरकार ने उसके परिवार को मुआवजा दिया. सुरेश की 9 साल पहले खरीदी गई जमीन तहसीलदार और पटवारियों ने रिश्वत लेने के बाद भी उसके नाम नहीं चढ़ाई. पूरे प्रदेश में राजस्व अमले का यही हाल है. ई-गवर्नेंस के लिए अपनी पीठ थपथपा रही सरकार का यह हाल है. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू कहते हैं कि सरकार अब पूरे प्रदेश में राजस्व दस्तावेजों को सुधारने के लिए अभियान चलाएगी. आदिवासी इलाकों में स्थिति और बदतर है. रायपुर जिले में जहां सिंचाई का प्रतिशत 46 फीसदी है वहीं रायगढ़ जिले में केवल 7 फीसदी, सरगुजा और बस्तर के सारे जिले केवल 3 फीसदी सिंचित हैं. रायगढ़-जशपुर से टमाटर की खेती खत्म हो चुकी है, कभी यहां फूड प्रोसेसिंग प्लांट लगाने की बात की जाती थी लेकिन अब इसकी कोई गुंजाइश नहीं बची है. नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में माओवादी हिंसा व सलवा जुड़ूम अभियान से सबसे ज्यादा नुकसान खेती को हुआ. जिले के 738 गांवों के 28 हजार से ज्यादा किसान अपना घर बार खेत छोड़कर पलायन कर चुके हैं. वे या तो सरकारी कैम्पों में हैं अथवा सीमावर्ती राज्यों में चले गए हैं. नक्सली हिंसा के चलते 30 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि बंजर में तब्दील हो रही है. <br />छत्तीसगढ़ के किसानों की दुर्दशा आत्महत्या करने वाले किसानों के घर में झांकने से जितना नहीं मिलेगा, उससे ज्यादा कहीं गांवों, खेतों. जंगलों और सरकारी फाइलों में भटकने से मिलने वाला है. अलग-अलग कारणों से की गई आत्महत्याओं को अलग रखें और जिंदा रहकर तिल तिल मर रहे किसानों की सुध लेने सरकार को मजबूर किया जाए.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-18658073647228868052009-06-26T16:39:00.001-07:002009-06-26T17:27:28.904-07:00आदिवासी लड़कियों के साथ रोज एक शाइनीमुम्बई पुलिस जब पिछले हफ़्ते छत्तीसगढ़ के जशपुर पहुंची तो यह ख़बर फैल गई कि फिल्म स्टार शाइनी आहूजा ने जिससे बलात्कार किया है वह इसी इलाके की एक लड़की है. हालांकि हड़बड़ाई स्थानीय पुलिस ने बाद में साफ किया कि जिस लड़की के सिलसिले में पुलिस यहां पहुंची थी वह शाइनी का शिकार तो नहीं थी पर वह भी शोषण की ही शिकार थी. वह मुम्बई के किसी दूसरे पाश कालोनी की कोठी में बंधक बनाकर रखी गई थी. <br />छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों को महानगरों में घरेलू नौकरानी का काम देने के झांसे से ले जाने के बाद उन्हें अंधेरी कोठरी में<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZLNx_R5vOB6cmSK8dtpF24MzXhXH0UGnj1O1vs6G6O9g-B7AY2fsOEFaCSRc_RABZUfsKj9tnSnG1nx26xRgpuom0dVDf95Ibzk11LsaOTzDL78G8g1sZD6yrTuItOu7bKijVwitQ2PI/s1600-h/human-trafficking-shiny-ahuja.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 233px; height: 264px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZLNx_R5vOB6cmSK8dtpF24MzXhXH0UGnj1O1vs6G6O9g-B7AY2fsOEFaCSRc_RABZUfsKj9tnSnG1nx26xRgpuom0dVDf95Ibzk11LsaOTzDL78G8g1sZD6yrTuItOu7bKijVwitQ2PI/s400/human-trafficking-shiny-ahuja.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5351785925869482722" /></a> ढ़केल देने का खेल सालों से चल रहा है लेकिन शाइनी आहूजा प्रकरण के दौरान जशपुर में फैली दहशत से इस सवाल की ओर फिर सबका ध्यान चला गया है. अगर जशपुर, सरगुजा और कोरबा के गांवों में आप जाएं तो आपको इन इलाकों से गायब आदिवासी लड़कियों के साथ शाइनी के अनेक किस्से मिल जाएंगे. स्वयंसेवी संस्थाओं, पुलिस और सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी लड़कियों को बहला-फुसलाकर भगाए जाने का सिलसिला थम नहीं रहा है. इनमें से ज्यादातर नाबालिग हैं. इनको झांसे में लेने वाले कुछ तो पेशेवर दलाल हैं तो कुछ उनके अपने ही रिश्तेदार जो दिल्ली, मुम्बई की चंकाचौंध में रम गए हैं. <br />इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जिस समय शाइनी आहूजा प्रकरण चर्चा में था, उसी समय लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोड़ने के लिए आया हुआ था. कुछ उत्साही पत्रकारों ने अपनी कल्पना शक्ति का सहारा लिया और छत्तीसगढ़ के अख़बारों में 19 जून को सुर्खियां रही कि मुम्बई के फिल्म स्टार शाइनी आहूजा ने जिस लड़की से बलात्कार किया, वह छत्तीसगढ के जशपुर जिसे के अंतर्गत आने वाले डूमरटोली गांव की रहने वाली है. जैसा कि जशपुर के पुलिस अधीक्षक अक़बर राम कोर्राम बताते हैं- “ शाइनी आहूजा प्रकरण के बाद मुम्बई से पुलिस की एक टीम यहां आई थी, लेकिन इसका शाइनी प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है. वह एक लड़की को मुम्बई से यहां छोड़ने पहुंची थी, जो पिछले 9 मार्च से गायब थी. इस लड़की का नाम गायत्री है और वह अपनी एक सहेली अनीमा के बहकावे में आकर मुम्बई चली गई थी.” अनीमा के कुछ परिचितों के ज़रिये गायत्री का पता चला और उसे डूमरटोली लाकर उनके परिजनों को सौंप दिया गया.<br /><span style="font-weight:bold;">हज़ारों शिकार </span><br /> लड़कियों को ट्रैफेकिंग से बचाने और उन्हें सीमित साधनों के बीच दिल्ली, मुम्बई, गोवा जैसे महानगरों से छुड़ाकर लाने वाली जशपुर की सामाजिक कार्यकर्ता एस्थेर खेस का कहना है कि शाइनी प्रकरण के बीच मुम्बई की पुलिस का जशपुर पहुंचने से यह फिर साफ़ हो गया है कि वहां बड़ी तादात में घरेलू नौकरानियों के रूप में काम करने वाली लड़कियां छत्तीसगढ़ से गई हुई हैं. सुश्री खेस कहती हैं कि शाइनी ने जिस लड़की को शिकार बनाया वह गायत्री तो नहीं है, लेकिन हमारे पास दर्जनों ऐसे मामले हैं जिनमें जशपुर की लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से न केवल देश के भीतर बल्कि कुवैत और जापान तक ले जाए गए और लड़कियों का हर तरह से शोषण किया गया.दिल्ली और गोवा जा पहुंची कई लड़कियों का सालों से पता नहीं है और उनके मां-बाप दलालों के दिए फोन नम्बर और पतों पर सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर फर्ज़ी हैं. लड़कियों को ले जाने के बाद प्लेसमेंट एंजेंसियों के दफ्तरों में फिर कोठियों में इन लड़कियों को चौबिसों घंटे क़ैद रखा जाता है. जब घर में पुरूष सदस्य अकेले होते है तब उनके साथ बलात्कार होता है. <br />इनको ठीक से भोजन, कपड़ा तक नहीं मिलता, इन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती. इनका वेतन दलालों के पास जमा कराया जाता है. लड़कियों को अपने घर लौटने का रास्ता पता नहीं होता इसलिये वे सारा ज़ुल्म चुपचाप सहती हैं. सुश्री खेस का यह भी कहना है कि दिल्ली में 150 से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां काम कर रही हैं जो झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर छत्तीसगढ़ से लड़कियों को बुलाते हैं. इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं. <br /><span style="font-weight:bold;">नया ट्रैफेकिंग कानून</span></span><br />छत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के इस बयान से सहमत हैं कि गरीब नाबालिग लड़कियों को शोषण का शिकार होने से बचाया जाए. श्रीमती राव को उम्मीद है कि अब देशभर में घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा को लेकर नई बहस छिड़ेगी. उनका कहना है कि इस समस्या से छत्तीसगढ़ सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में से एक है, इसलिए वे चाहती हैं कि ट्रैफेकिंग को लेकर भी मौजूदा कानूनों की समीक्षा की जाए और इसे रोकने के लिए प्रावधान कड़े किए जाएं. श्रीमती राव ने शाइनी आहूजा प्रकरण में छ्त्तीसगढ़ की लड़की के शिकार होने की अफवाह के बाद जशपुर कलेक्टर और एस पी को पत्र लिखकर पूरे मामले का प्रतिवेदन देने के लिए भी कहा है. <br />घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा व ट्रैफेंकिंग रोकने के ख़िलाफ एक कानून पिछली सरकार में ही बन जाना था. तत्कालीन केन्द्रीय महिला बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने जून 2007 तक इस कानून का ख़ाका तैयार करने के लिए देशभर में सक्रिय महिला संगठनों से सुझाव मांगा था. लेकिन प्रस्ताव भेजने के बाद क्या हुआ यह किसी को नहीं मालूम. ट्रैफेंकिंग के ख़िलाफ ही काम कर रहीं कुनकुरी की अधिवक्ता सिस्टर सेवती पन्ना का कहना है कि नये कानून पर उनसे भी सुझाव मंगाए गए थे. प्रस्तावित कानून में महानगरों से छुड़ा कर लाई जाने वाली लड़कियों के पुनर्वास के लिए भी पुख़्ता उपाय सुझाए थे, क्योंकि देखा गया है कि महानगरों में रहकर लौटने वाली लड़कियां गांवों में व्यस्त न होने के चलते विचलित रहती हैं. वे यहां दुबारा घुल-मिल नहीं पाती और दुबारा महानगरों की तरफ भागने का रास्ता तलाश करती हैं.<br />बहरहाल, शाइनी आहूजा प्रकरण ने फिर छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल से तस्करी कर महानगरों में ले जाई जा रही लड़कियों की दुर्दशा पर सोचने के लिए विवश किया है. शायद, गरीब व आदिवासी परिवारों के माथे पर लगे कलंक को धोने <br />के लिए सरकार कोई ठोस प्रयास इसके बाद करे और उन लड़कियों की सुरक्षा तथा सम्मान के लिए कारगर पहल हो.<br /><a href="http://www.cgnet.in/E/Rajesh1">लड़कियों की मंडी बन गया पढ़ा लिखा कुनकुरी<br /></a><br /><a href="http://sarokaar.blogspot.com/2008/08/blog-post.html">इसी से जुड़ी एक ख़बर सरोकार पर </a><br /><a href="http://raviwar.com/news/31_chhattisgarh-human-trafficking-geetashree.shtml"> गीताश्री की एक रिपोर्ट</a><br /><a href="http://raviwar.com/news/170_mewat-women-trafficing-paro-geetashree.shtml">और जो हरियाणा में हो रहा है.</a>राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-26152291786356206532009-06-09T19:51:00.000-07:002009-06-10T17:20:24.485-07:00अबूझमाड़ को बूझना इतना आसान भी नहींनक्सलियों से सीधी लड़ाई के लिए सरकार ने तीन दशक से बंद अबूझमाड़ का मोर्चा खोल दिया है. वस्त्रविहीन व कंदमूल खाकर जीने वाले आदिम गोंड़ जाति के बीच अब आम लोगों का सीधा सम्पर्क हो सकेगा. इससे उनकी जीवन शैली और संस्कृति पर ख़तरे तो दिखाई दे रहे हैं, लेकिन सरकार को अपने इस फैसले के पीछे नक्सली हिंसा की आग से झुलस रहे बस्तर में शांति की नई बयार बहने की उम्मीद भी दिखाई दे रही है. <br />वैसे तो लोग<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXQ_jJgdsGqszMUqXneygCA2QdRzTyxaMjahEbvpiaJkNNGQ4cvwC6fJV5rrPVZxRjvNIiM73Up4igpeLNxZdOVlbVbhrU8EutWDODX_4LQTWjAbQPOiaONUhLV1rf8emhNnXwYx84uXs/s1600-h/TribalYouth1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 230px; height: 316px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXQ_jJgdsGqszMUqXneygCA2QdRzTyxaMjahEbvpiaJkNNGQ4cvwC6fJV5rrPVZxRjvNIiM73Up4igpeLNxZdOVlbVbhrU8EutWDODX_4LQTWjAbQPOiaONUhLV1rf8emhNnXwYx84uXs/s400/TribalYouth1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5345527234820250242" /></a>देश में कहीं भी आने-जाने के लिए आज़ाद हैं लेकिन बस्तर का अबूझमाड़ दुर्गम पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा एक ऐसा गलियारा है जहां पिछले 3 दशकों से आम लोगों को जाने की मनाही थी. अबूझमाड़ में आम लोगों के प्रवेश पर तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने रोक तब लगाई गई थी, जब 80 के दशक में बीबीसी के कुछ पत्रकारों ने यहां पहुंचकर गोंड़ महिलाओं की अर्धनग्न तस्वीरें खींचीं और उनके विदेशी अख़बारों में छप जाने से हंगामा मचा. बस्तर संभाग के तीन जिलों दंतेवाड़ा, नारायणपुर व बीजापुर के 4000 वर्गकिलोमीटर के दायरे में फैले 237 गांवों के 26 हज़ार आदिवासी अपनी ही विशिष्ट आदिम संस्कृति में जीते हैं. वे जानवरों का शिकार करते हैं, कंदमूल खाते हैं और पेड़ों की छाल पहनते हैं. हालांकि बीते दो दशकों से वे हाट-बाज़ारों में जाकर बिना सिले हुए कपड़े भी पहनने लग गए हैं. जिलाधीश से अनुमति लेकर नारायणपुर स्थित रामकृष्ण मिशन ने यहां शिक्षा व स्वास्थ्य की दिशा में भी कुछ काम किया है. लेकिन अबूझमाड़ का ज्यादातर हिस्सा बीते 3 दशकों से अबूझ पहेली है. यहां के आदिवासी जंगल, नदी, पहाड़ के बीच ही जीवन बिताते हैं. ज्यादातर हिस्सों में सरकार की कोई योजना नहीं पहुंच पाई है. न इन्हें सरकारी राशन मिलता है न पेंशन. न इन गांवों में सड़कें है और न ही बिजली. अबूझमाड़ के सघन वनों के शुरूआती कुछ गांवों में तो समय-समय पर सरकार के नुमाइंदो व सुरक्षा बलों ने प्रवेश किया है पर अधिकतर हिस्से अभी भी रहस्यमयी बने हुए हैं. सन् 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन होने के बाद अबूझमाड़ के सर्वेक्षण के लिए कई प्रयास हुए हैं. गांवों की संख्या तो सेटेलाइट के चित्रों से निर्धारित की गई है पर इन गांवों तक सरकार भी नहीं पहुंच पाई है. सन् 2005 में प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक निजी संस्था को इस क्षेत्र के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी दी थी लेकिन नक्सलियों ने उन्हें घुसने नहीं दिया. बस्तर के सांसद बलिराम कश्यप की अध्यक्षता में भी एक बार समिति बनाई गई लेकिन यह समिति भी अबूझमाड़ को बूझने में सफल नहीं हो पाई. परिणामस्वरूप यह अबूझ इलाका हिंसक नक्सलियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है. पीडब्ल्यूजी की रीजनल इकाई ने तो 1980 में बकायदा इसे अपना मुख्यालय घोषित कर दिया था. नक्सली इन इलाकों में छिपकर अपनी योजनाएं तैयार करते हैं और यहां से निकलकर पूरे बस्तर में तांडव मचाते हैं. बीते कुछ सालों में नक्सलियों ने सुरक्षा बलों व नेताओं पर हमले तेज किए हैं. नक्सलियों की बढ़ती ताक़त को वैसे तो सरकार उनकी हताशा का नाम देती है, लेकिन सच्चाई यही है कि उनसे मुकाबला करने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं. नक्सलियों के विरोध के लिए आदिवासियों के बीच चलाया जा रहा सलवा जुड़ूम आंदोलन भी कारगर साबित नहीं हो रहा है. भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती भी उनको रोक पाने में कारगर नहीं है. हाल के दिनों में नक्सलियों ने धमतरी और राजनांदगांव जिले के नये इलाकों में सुरक्षा बल के जवानों व मतदान कर्मियों की सामूहिक हत्याएं की है. कई सलवा जुड़ूमियों व कांग्रेस-भाजपा नेताओं को उन्होंने मार डाला है. इन घटनाओं से सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो रही है. छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ननकीराम कंवर को तो कहना पड़ा है कि यदि दो साल के भीतर नक्सली समस्या का अंत नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. विरोधी दल कांग्रेस ने इस बयान पर कहा है कि यह बात मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को कहनी चाहिए, क्योंकि प्रदेश के मुखिया होने के नाते पहली जवाबदारी उनकी ही बनती है. <br />राजनैतिक दलों के अतिरिक्त सरकार पर औद्योगिक घरानों की ओर से भी दबाव है. टाटा और एस्सार जैसी बड़ी कम्पनियों को बस्तर के बहुमूल्य खनिजों के उत्खनन और इस्पात संयंत्र लगाने के लिए हजारों एकड़ जमीन दी गई है, लेकिन नक्सलियों के हमले उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं. मुख्यमंत्री कहते हैं कि पूरी दुनिया जब 21वीं सदी में पहुंच गई है तो नक्सली बस्तर के आदिवासियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर उन्हें 19वीं सदी में रखना चाहते हैं. नक्सली कहते हैं कि जंगल, पानी, जमीन सब उन आदिवासियों का है जो यहां रहते हैं. चंद पूंजीपतियों के फायदे के लिए आदिवासियों को उजाड़ने की साजिश वे नहीं चलने देंगे. नक्सलियों ने बस्तर में हस्तक्षेप के ख़िलाफ मुख्यमंत्री सहित यहां के कई मंत्री, नेताओं के नाम मौत का फरमान जारी कर रखा है. <br />बस्तर विकास प्राधिकरण की इसी हफ़्ते मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में अबूझमाड़ को आम लोगों के लिए खोलने का निर्णय लिया गया. सरकार अब नक्सलियों को उनके सुरक्षित ठिकाने पर घुसकर घेरना चाहती है. अभी तक सरकार के नहीं पहुंचने के चलते शायद अबूझमाड़ के आदिवासी नक्सलियों को ही सरकार मानते रहे हों लेकिन अब उन्हें एक दूसरी सरकार का भी सामना करना पड़ेगा. अबूझमाड़ के दरवाजे खोल दिए जाने के बाद भी सरकारी अमले व सुरक्षा बलों को दुरूह भौगोलिक संरचना के चलते इसे भेद पाना आसान नहीं है. वैसे भी उनके लिए कभी इस इलाके में जाने के लिए मनाही तो रही नहीं है. कुछ सालों के बाद मालूम हो सकेगा कि अबूझमाड़िया जन-जीवन में बाकी दुनिया की दख़ल का क्या असर पड़ेगा, फिलहाल, सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए एक और दांव खेल दिया है.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-5399722565580033202009-06-09T00:01:00.000-07:002009-06-09T05:49:18.236-07:00अब हबीब के प्रयोगों का पीछा करेंहबीब तनवीर के चले जाने के बाद यह सवाल बेचैन करने वाला है कि उनकी प्रयोगधर्मिता और छत्तीसगढ़ की लोक विधाओं को परिष्कृत कर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित करने की गति में ठहराव तो नहीं आ जाएगा. <br />तीजनबाई की पंडवानी की अनोखी भाव-भंगिमाएं, तम्बूरे का अस्त्र-शस्त्रों की तरह इस्तेमाल<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEEqphMpXsr1VZXsoPiJ01gNihm5kuBLTzInlHXZguTsZafzdGuXzOSYrqaXbqaA24wCBGeiJcTBdXS3bSq7fevVkOtbR1OYC06UJ4dpMPBHfd6n-oDbdrlzm2GjinQx4jo6dU6SyUjJo/s1600-h/HabibTanvir.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 400px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEEqphMpXsr1VZXsoPiJ01gNihm5kuBLTzInlHXZguTsZafzdGuXzOSYrqaXbqaA24wCBGeiJcTBdXS3bSq7fevVkOtbR1OYC06UJ4dpMPBHfd6n-oDbdrlzm2GjinQx4jo6dU6SyUjJo/s400/HabibTanvir.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5345308966375247410" /></a>करना हबीब तनवीर से सीखा. देवदास बंजारे की टीम ने चरणदास चोर नाटक में पंथी नृत्य को अद्भुत शारीरिक कौशल के साथ प्रदर्शित किया तो यह भी हबीब का ही तराशा प्रयोग था. हबीब तनवीर ने रविन्द्रनाथ टैगोर, शेक्सपियर के नाटकों का मंचन किया तो उन्हें छत्तीसगढ़ के लोक धुनों, गीतों में पिरोकर सामने लाया. इसके लिए कलाकार भी उन्होंने वहीं चुने जो आम लोगों के बीच से छत्तीसगढ़ी परिवेश में जीते रहे हैं. हबीब तनवीर ने उन्हें तराशा और हीरा बना दिया. गोविन्दराम निर्मलकर, रामचरण निर्मलकर, दीपक तिवारी आदि कितने ही कलाकार आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हैं, जिन्हें हबीब तनवीर के सानिध्य में देश विदेश के मंचों पर छत्तीसगढ़ी कला, कथा, गीतों को प्रतिष्ठित करने का अवसर मिला. हबीब तनवीर पहले ऐसे समर्पित सम्पूर्ण नाटककार थे, जिन्होंने छत्तीसगढ़ की कला और कलाकारों की ताकत का परिचय न केवल छत्तीसगढ़ियों को कराया बल्कि दुनिया भर में इसका लोहा मनवाया. <br />शेक्सपियर के रूपान्तरित नाटक कामदेव का अपना-वसंत ऋतु का सपना में पूरी कथा बांस गीत के जरिये आगे बढ़ती है. बांस गीत न हो तो इस नाटक की आत्मा ही न रहे. ऐसा प्रयोग सिर्फ हबीब तनवीर से ही संभव था. उनके रहते उम्मीद सी बंधी रहती थी कि गम्मत, नाचा, पंडवानी, ददरिया, सुआगीत, देवारगीत, बांसगीत आदि पर प्रयोग होते रहेंगे और नये कलाकार गढ़े जाते रहेंगे लेकिन अब उनके जाने से एक खालीपन आ गया है. छत्तीसगढ़ी लोक कला और कलाकारों के लिए काम करने वालों का एक वर्ग सांस्कृतिक आयोजनों में इस समय बुरी तरह से हावी है. इनका काम जत्था निकालना, महोत्सव कराना और सरकारी अनुदान हड़पना रह गया है. कुछ बिचौलिये किस्म के लोगों के पास छत्तीसगढ़ी कला के संरक्षण का भार सौंप दिया गया है. दुर्भाग्य की बात है कि कुछ नेता और नौकरशाह ऐसे कार्यक्रमों में अपना अभिनंदन कराते हैं और इन्हें संरक्षण देते हैं. इन्हीं लोगों ने हबीब तनवीर की लोकप्रियता के शिखर को छूने के बाद उनके छत्तीसगढ़ के नये कलाकारों की तलाश करने और तराशने के काम में बाधा डाली. जब भी वे रायपुर या छत्तीसगढ़ में कोई प्रस्तुति देने आते थे यह आरोप उनके पीछे लग जाता था कि वे राज्य के कलाकारों की ग़रीबी का बेज़ा फायदा उठा रहे हैं और उनका शोषण कर रहे हैं. हबीब तनवीर के नया थियेटर में सारे कलाकार एक जैसे माहौल में रहते, खाते पीते सोते हैं और निरन्तर अभ्यास कर एक मंच पर चढ़ते हैं. हबीब ने तो दर्जनों कलाकारों की आजीविका चलाई और उन्हें प्रतिष्ठा भी दिलाई, लेकिन छत्तीसगढ़ में उनकी सक्रियता कम हो जाने के बाद भी आरोप लगाने वाले रत्ती भर भी उनकी खाली जगह नहीं भर पाए. इन दिनों छत्तीसगढ़ में गहरा सांस्कृतिक संकट छाया हुआ है. बाज़ार फूहड़ बोलों व धुनों से पटा हुआ है. छत्तीसगढ़ी नाटकों का मंचन बंद है. रहस लुप्तप्राय हो रहा है, इसके कलाकार आज भूखों मर रहे हैं. गम्मत की नई पीढ़ी तैयार नहीं हो रही है. <br />हबीब तनवीर के काम का दायरा व्यापक रहा है. नाटकों में, लोककथाओं में, गीतों में, नृत्यों में, अभिनय में. उनके कामकाज का पीछा कर हम छत्तीसगढ़ की समृध्द संस्कृति को बचा सकते हैं. राज्य के कला प्रेमियों की जिम्मेदारी है कि हबीब तनवीर का युग ख़त्म न होने दें, अभी उनके प्रयोगों को जारी रखने की ज़रूरत है.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-31031383934806979782009-05-26T07:53:00.000-07:002009-06-27T19:29:57.986-07:00हिंसा व क्रूरता के खेल में बेजु़बान खिलौने ये आदिवासी बच्चे<strong>बस्तर से लेकर सरगुजा तक छत्तीसगढ़ में आदिवासी बच्चों का बाज़ार लगा है. इस बाजार में लड़के भी हैं और लड़कियां भी. ये हथियार उठाकर मोर्चा लेने के लिए भी राज़ी हैं और भारी मशीनों में दबकर जान गंवाने के लिए भी. इन बच्चों की मांग नक्सलियों को भी है और पुलिस को भी. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा में है और कर्नाटक, गोवा, तमिलनाडु में भी. ये आदिवासी उनके बच्चे हैं जो पीढ़ियों से अपने महुआ-तेंदू का जंगल और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देता आ रहा है. उनकी लड़ाई मुगलों, मराठा शासकों से हुई, वे अंग्रेजों से भी लड़े, लेकिन अब शायद ये थक चुके हैं इनके बच्चे लड़ाई शुरू करने से पहले ही हार चुके हैं. दशकों से नहीं देखा गया आदिवासियों को अपना ठिकाना छोड़ते. जिस जंगल को वे स्वर्ग समझते रहे हैं, विकास की नई परिभाषा, उपद्रव व अतिक्रमण के नये तेवरों के चलते वह उन्हें डराने लगा है. बस थोड़ा बरगलाने, झांसा देने की जरूरत है फिर स्वभाव से साहसी और शरीर से मजबूत लेकिन मासूम और हताश इन आदिवासी लड़के-लड़कियों को कोई भी अपना शिकार बना लेता है. सभ्य समाज के खिलाड़ियों के लिए ये इतने खरे खिलौने हैं कि निर्ममता की सारी हदें पार करने के बाद भी वे चीखते-चिल्लाते नहीं. कभी इनकी पीड़ा में किसी कोने से आवाज उठती भी है तो वह अनसुनी कर दी जाती है.</strong><br />आंध्रप्रदेश में बीते 6 अप्रैल को 14 साल के मुकेश की मौत उसके सिर पर बोरिंग मशीन की एक राड गिरने से हो गई. वह उन दर्जन भर बच्चों में शामिल था जो धनतुलसी गांव के नरेन्द्र और गंगदेव नाम के दलालों के साथ कांकेर के पीढा़पाल छात्रावास से अपने मां-बाप को.<a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/ShwEal8FFRI/AAAAAAAAAfE/hYOptX76Kwg/s1600-h/Mukesh+Kanker-die+in+Tamilnadu+during+work+with+heavy+bore+machine.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 313px; height: 240px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/ShwEal8FFRI/AAAAAAAAAfE/hYOptX76Kwg/s400/Mukesh+Kanker-die+in+Tamilnadu+during+work+with+heavy+bore+machine.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5340148113061778706" /></a> बताए बगैर 6 माह पहले अचानक भाग निकले थे. उन्हें अच्छी नौकरी व नियमित तनख्वाह का झांसा दिया गया, लेकिन वहां उन्हें बोर खुदाई करने वाले काम में झोंका. वहां दिन रात ट्रकों के साथ रहना पड़ता और लगातार कई-कई दिनों तक भारी भरकर औजारों से काम करना होता था. मुकेश की मौत से घबराकर साथ गया सन्तू भागकर किसी तरह पीढ़ापाल लौटा. उसके आने पर पता चला तुलतुली, मर्रापी आदि गांवों से लापता सारे बच्चे इन्हीं दलालों के साथ गये थे और वहां बोरिंग चलाने वाले एक ठेकेदार के चंगुल में हैं. कांकेर कलेक्टर शहला निगार ने अब बाकी बच्चों को लाने के लिए एक टीम तैयार की है और दोनों दलालों के ख़िलाफ रिपोर्ट दर्ज कर उनकी तलाश की जा रही है. <br />सरगुजा जिले के प्रेमनगर के 5 नाबालिगों को लखनपुर का बशीर खान काम दिलाने नोएडा उत्तरप्रदेश ले गया और उन्हें एक गन्ना उत्पादक के पास बेचकर आ गया. इनमें से एक अशोक किसी तरह वहां से भागकर अपने गांव साल्ही पहुंचा. उसने बताया कि फार्म हाऊस का मालिक कहता था कि हमें बशीर ने एकमुश्त रकम लेकर उसके पास छोड़ा है. अशोक ने बताया कि उनसे दिन-रात काम कराया जा रहा था और भोजन भी समय पर नहीं मिलता था. मजदूरी की तो बात ही नहीं थी. प्रेमनगर पुलिस ने दलाल बशीर खान के ख़िलाफ अपराध कायम किया है. अशोक के साथ बाकी बच्चों को छुड़ाने के लिए एक टीम नोएडा रवाना की गई है. <br />छत्तीसगढ़ का छत कहे जाने वाले मैनपाट की पहाड़ियों में बसे गांवों से भी नाबालिग लड़के उठाकर ले जाए जा रहे हैं. नर्मदापुर, सतानादर, पैगर आदि गांवों के बीसियों बच्चों का बीते कई सालों से पता नहीं. इनमें से कुछ घरेलू नौकर बना गये तो कुछ को उत्तर प्रदेश के कालीन उद्योग में खपाया गया है. 6 माह पहले भी 9 बच्चों को दलालों ने फांसकर मिर्जापुर के एक ईंट भट्ठे में पहुंचा दिया. नर्मदापुर पुलिस इनमें से 7 को वहां से छुड़ाकर ला चुकी है, लेकिन दो बच्चे गुड़्डू और चीतम वहां नहीं मिले. 10-12 साल के इन बच्चों के बारे में अब तक कुछ पता नहीं चला. ईंट भट्ठा मालिक ने साफ इंकार कर दिया कि ये दोनों वहां काम करते थे.<br />23 सितम्बर 08 को रायपुर रेलवे स्टेशन पर दो दर्जन आदिवासी बच्चों को बहदवास हालत में देखकर वहीं मौजूद कुछ स्थानीय युवकों के कान खड़े हुए. मालूम हुआ कि सब अबूझमाड़ इलाके से यहां तक पहुंचे थे. सरकार और उसकी विकास योजनाएं तो वहां तक पहुंच नहीं पाई लेकिन दलाल पहुंच गये. दलाल सम्पतलाल स्टेशन पर ही दबोच लिया गया. इन बच्चों को चैन्नई के कपड़ा कारखाने में काम दिलाने झांसा दिया गया था. उन्हें सफर करते 12 घंटे बीत चुके थे और 24 घंटे का रास्ता बाकी था लेकिन दलाल ने उन्हें खाने-पीने को कुछ नहीं दिया. सम्पत के इस रवैये से भूखे-प्यासे कुछ बच्चों का माथा ठनका और वे धमतरी से ही दलाल का साथ छोड़कर वापस गांव भाग गये. दलाल वहां से 36 बच्चों को लेकर निकला था. एक दो को छोड़ बाकी सब की उम्र 16 साल से नीचे थी. बच्चों ने बताया कि उन्हें सम्पत ने एक कपड़ा फैक्ट्री में 2500 रूपये माह की नौकरी दिलाने का वादा किया है. बच्चे अगले दिन पुलिस व श्रम विभाग की मदद से गांव लौटा दिये गए. <br />बीते 17 मार्च को नक्सलियों ने एक 9वीं कक्षा के छात्र सूरज की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी. कांकेर जिले के कोयलीबेड़ा का यह बालक परीक्षा देने के लिए घर से निकला कि रास्ते में नक्सलियों ने उन्हें घेरा. बच्चों से दुश्मनी! तथ्य यह है कि कुछ माह पहले सूरज के पिता की हत्या भी नक्सलियों ने पुलिस की मुखबिरी करने के संदेह में कर दी थी. क्या बच्चे भी पुलिस के लिए मुखबिरी कर रहे हैं? <br />बीबीसी न्यूज चैनल के कुछ पत्रकार पिछले साल दिल्ली से बस्तर पहुंचे. दंतेवाड़ा के भांसी थाने में उन्हें जब 21 साल के दिलीप ने बताया कि वह पिछले 7 साल से नक्सलियों से लोहा ले रहा है, तो सुनकर वे दंग रह गये. 14 साल की उम्र में ही वह पुलिस में भर्ती कर लिया गया था. दिलीप कहता है कि जब वह 5वीं पढ़ता था तो नक्सली उसे उठाकर ले गए और वह उनके जन-जागरण जत्थे में नाचने गाने लगा. <a href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/ShwEz75_ezI/AAAAAAAAAfM/KOe8op8t20Y/s1600-h/class+in+progress+in+bastar.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/ShwEz75_ezI/AAAAAAAAAfM/KOe8op8t20Y/s400/class+in+progress+in+bastar.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5340148548455332658" /></a>बाद में उसने पाया कि नक्सली पैसे लेकर हत्याएं करते हैं और आदिवासी लड़कियों से बलात्कार करते हैं. उसे उनसे घृणा हो गई और खुद को पुलिस में सरेंडर कर दिया. पुलिस ने उसे बाल आरक्षक की नौकरी दे दी और 14 साल की उम्र से ही दिलीप देश के सबसे बड़े आंतरिक युध्द में एक सिपाही है. छत्तीसगढ़ पुलिस में बाल आरक्षक सिर्फ वे बनाए जाते हैं, जिनके अभिभावक की पुलिस विभाग में रहते हुए असमय मौत हो जाए, लेकिन पुलिस ने आत्मसमर्पण करने वाले बच्चे को ही हथियार थमा दिया.<br />बस्तर में नक्सलियों और पुलिस फोर्स द्वारा बच्चों का हिंसक गतिविधियों के लिए हो रहे इस्तेमाल को लेकर ह्मूमन राइट्स वाच ने राजधानी रायपुर में बीते साल सितम्बर में 58 पृष्ठों की एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की. इसमें बताया गया था कि बड़ी संख्या में नक्सलियों से निपटने के लिए पुलिस ने आदिवासी नाबालिगों को विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनाकर हथियार सौंपा है. पुलिस अधिकारियों ने इसके जवाब में कहा कि ऐसा जानबूझकर नहीं किया गया है. कुछ एक नाबालिग थे, पर इसकी वजह सिर्फ ये है कि उनकी जन्मतिथि से सम्बन्धित दस्तावेज हासिल नहीं हुए. जैसे ही पता चला, उन्हें हटा दिया गया. इनकी संख्या पुलिस के मुताबिक करीब 150 थी. लेकिन 'वाच' का दावा है कि अब भी बड़ी संख्या में एसपीओ के रूप में नाबालिग काम कर रहे हैं और सशस्त्र नक्सलियों से लोहा लेने के लिए उन्हें मोर्चे पर भेजा जा रहा है. सर्चिंग आपरेशनों में उन्हें सामने रखा जा रहा है. नाबालिग एसपीओ की सही संख्या को लेकर तो 'वाच' ने कोई दावा नहीं किया लेकिन यह बताया गया कि नक्सलियों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अनेक एसपीओ नाबालिग थे, यह प्रत्यक्षदर्शियों ने स्वीकार किया है.<br /><strong>बच्चे सीखते हैं बारूदी सुरंग बिछाना</strong><br />दूसरी तरफ नक्सली भी हिंसा व जोखिम भरे काम में बच्चों को पिछले एक दशक से झोंक रहे हैं. इन्हें न केवल खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए तैनात करते हैं बल्कि भूमिगत सुरंग बिछाने और बारूद बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है. नक्सलियों ने बाल संघम का गठन भी कर रखा है, जिसमें 6 से लेकर 12 साल के बच्चे शामिल किये गये हैं. 12 साल से ज्यादा उम्र के बच्चों को राइफल चलाने की ट्रेनिंग दी जाती है. कई बच्चे नुक्कड़ नाटकों में रखे गए हैं, बाद में उन्हें हथियार थमा दिया जाता है. नक्सली बच्चों को अपने दस्ते में शामिल करने के लिए तमाम हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं. पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी ने बीते साल 2 सितम्बर से 8 सितम्बर तक नक्सली सप्ताह मनाया. इस दौरान उन्होंने जगह-जगह बैठकें ली थी और परचे चस्पा किए . परचों में उन्होंने हर घर से एक सदस्य को जनवादी संघर्ष में शामिल होने की अपील की. जाहिर है यह अपील नये लड़कों के लिए ही थी. इसी साल 8 जनवरी को सिंगावरम मुठभेड़ में 17 लोगों की मौत हुई, जिनके बारे में पुलिस का कहना है कि ये नक्सली हैं. इनमें 3 की उम्र 16 साल से कम थी. इसी साल जनवरी में पत्रकारों से बात करते हुए छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन ने कहा कि नक्सली बडी़ संख्या में बच्चों की भर्ती कर रहे हैं. इनमें लड़कियां भी हैं. उन्होंने बताया कि नक्सलियों की अलग-अलग शाखाओं में शामिल लोगों की संख्या 45 हजार है, जिनमें एक तिहाई लड़कियां हैं और ज्यादातर नाबालिग रहते ही दस्ते में शामिल किए गये.<br />बस्तर में नक्सली हिंसा और उसके बाद शुरू हुए सलवा जुड़ूम आंदोलन के बाद करीब 500 गांव उजड़ चुके हैं. इसका सबसे बुरा प्रभाव आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर पड़ा है. सलवा जुड़ूम के बाद बने कुछ कैम्पों में तो पढ़ाई हो रही है पर बड़ी संख्या में स्कूलों, छात्रावासों को नक्सलियों ने ढ़हा दिया है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि इन गांवों की आबादी लगभग 3 लाख थी. लेकिन कैम्पों में रहने वालों की संख्या 60 हजार से अधिक नहीं है. अनेक आंध्रप्रदेश के सीमावर्ती गांवों में चले गए. इनके बच्चों के लिए शिक्षा तो दूर की बात है, पेट भरने का साधन भी नहीं है. इन सबके चलते बच्चों का हिंसक और जोखिम से भरे कामों में इस्तेमाल आसान हो गया है. <br /><strong>व्यथा सरगुजा-जशपुर की </strong><br />दिल्ली, मुम्बई की पाश कालोनियों में जशपुर, बगीचा, कुनकुरी की लड़कियों को झाड़ू-पोछा लगाते देखा जा सकता है. अधिकांश उरांव आदिवासी हैं, जो इसाई धर्म अपना चुके हैं. राज्य महिला आयोग के अनुसार जशपुर व सरगुजा जिले से काम की तलाश में बाहर जाने वाली लड़कियों की संख्या 19000 है. रायपुर के एनजीओ 'फोरम फार फैक्ट फाइंडिंग डाक्यूमेन्टेशन एण्ड एडवोकेसी' के सुभाष महापात्र के अनुसार 7021 लड़कियां ऐसी हैं, जिन्हें छत्तीसगढ़ से बाहर ले जाकर या तो बेच दिया गया या वे बंधक बनाई ली गईं. कुनकुरी में ग्रामीण विकास केन्द्र की सिस्टर सेवती पन्ना, एस्थेर खेस इत्यादि ने कुनकुरी व आसपास के गांवों में घूमकर 3000 से अधिक बच्चों की सूची तैयार की है, जिन्हें दलाल बहला-फुसलाकर दिल्ली, गोवा, मुम्बई आदि ले गए. इनमें 90 फीसदी लड़कियों की उम्र 16 साल से कम है. कुछ तो स्कूल जाने के लिए घर से निकलीं और बस्ते को खेत में फेंक दिया, फिर दलालों के साथ दिल्ली निकल गईं. ये अमीरों की कोठियों में 24 घंटे रहती हैं और सुबह से देर रात तक काम करती हैं. इन्हें ठीक तरह से न कपड़े मिलते न खाना. इनसे मारपीट की जाती है और शारीरिक शोषण भी किया जाता है. कई लड़कियां यहां गर्भवती होकर लौटीं और अनेक आईं गंभीर बीमारियों को साथ लेकर. कुछ लड़कियों की दिल्ली में ही मौत हो गई और परिजनों को इसका पता ही नहीं चला. सिस्टर्स के पास जानकारी है कि इनमें से 12 लड़कियां विदेशों में भी भेज दी गई. दिल्ली में करीब 150 प्लेसमेन्ट एजेंसियां सक्रिय हैं, जिनके एजेंट अक्सर सरगुजा, कुनकुरी इलाकों में घूमते दिखाई देते हैं. दिल्ली ले जाकर इनके नाम बदल दिये जाते हैं ताकि जब मां-बाप या पुलिस उन्हें ढूंढने के लिए पहुंचे तो उनका पता-ठिकाना ही न मिले. <br /><strong>सभ्य समाज का नकारात्मक हस्तक्षेप</strong><br />दक्षिण बस्तर से लेकर उत्तर सरगुजा तक के आदिवासी बच्चों के साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव के पीछे बनी परिस्थितियां अलग-अलग हैं लेकिन सब जगह वजह एक ही है कि जंगलों में अपनी खास जीवन शैली के आदी आदिवासियों के विकास के नाम पर सभ्य माने जाने वाले समाज ने उनकी मंशा के ख़िलाफ हस्तक्षेप किया है. छत्तीसगढ़ में पलायन दशकों से होता रहा है. जांजगीर, धमतरी, बिलासपुर जिलों के अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग के लोग हर साल फसल काटने के बाद परिवार लेकर उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों के ईंट भट्ठों में काम करने निकलते हैं और बारिश शुरू होते ही लौट आते हैं. शहरी वातावरण से ये घुले मिले हैं. वहां जाकर ये ज्यादा कमाते हैं और घर बनाने, बच्चों का ब्याह रचाने के लिए पैसे लाते हैं. इनका भी वहां शोषण होता है. तय मजदूरी से कम दी जाती है. काम के घंटे तय नहीं होते और रहने खाने का इंतजाम ख़राब होता है. महिलाएं हवस का शिकार होती हैं. पुरूषों को बंधक बना लिया जाता है. छत्तीसगढ़ के लिए यह कलंक ही है. राज्य सरकार सस्ते चावल की योजना को पलायन रोकने का एक जरिया मानती है. इस चुनाव में भाजपा ने छत्तीसगढ़ को पलायन मुक्त राज्य बनाने का वादा किया था. लेकिन हिंसा और क्रूरता के शिकार बच्चों के लिए सरकार की कोई चुनावी घोषणा नहीं है. शायद सरकार समझती है कि बस्तर, रायगढ़ और सरगुजा के आदिवासियों का भला यहां मौजूद खनिज सम्पदाओं व पानी के दोहन से ही होगा. नक्सल हिंसा इससे खत्म होगी, बेरोजगारी खत्म होगी तो बस्तर के बच्चे हथियार उठाने व राज्य से बाहर जाकर मशीनों के नीचे दबने के लिए विवश नहीं होंगे. नक्सली इसका विरोध करते हैं. दोनों ही पक्षों का दावा है कि उनकी सोच ही आदिवासियों का भला करेगी और इसके चलते बस्तर में हिंसक संघर्ष जारी है. इस संघर्ष में जो बच्चे शामिल हो रहे हैं वे बे-मौत मारे जा रहे हैं और जो बस्तर से भाग रहे हैं वे भी मर रहे हैं. प्रेमनगर, मैनपाट इलाकों से जोखिम का काम लेने के लिए जिन बच्चों को राज्य के बाहर बेचा जा रहा है, उन इलाकों में बाक्साइट का उत्खनन हो रहा है, नये पावर प्लांट लगाए जा रहे हैं. जशपुर-सरगुजा इलाके में मिशनरियों ने सेवा और शिक्षा के प्रसार के साथ इसाई धर्म का भी विस्तार किया. आदिवासियों ने इनसे रहन सहन का नया तरीका सीखा. दो दशक पहले कुनकुरी के उरांव आदिवासी खूब पढ़ाकू थे. यह देश का सबसे ज्यादा प्रशासनिक अधिकारी देने वाला इलाका था. लेकिन यहां बचे आदिवासी पढ़ लिख कर बेरोजगार हो गये हैं. खेती टुकड़ों में बंट गई है. उद्योग धंधे हैं नहीं. इसाई कल्चर अपनाने लेने के बाद अच्छा खाना और पहनावा चाहते हैं. उनके बीच भयंकर द्वन्द मचा है. इनमें से सैकड़ों लड़कियों ने जोखिम जान लेने के बाद भी महानगरों में जाकर काम तलाशना ठीक समझा. फिलहाल तो नाबालिग आदिवासियों के इस त्रासदी से निकल बचने की कोई सूरत दिखाई नहीं देती है. शायद आने वाले दिनों में सरकार व जागरूक समुदाय मिलकर कोई रास्ता निकाले.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-76833983163165292452009-03-07T03:31:00.000-08:002009-05-26T09:07:31.054-07:00छत्तीसगढ़िया क्यों नहीं बोलता छत्तीसगढ़ी?<strong>विधानसभा के बीते सत्र में अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने विधायकों को छूट दी कि वे छत्तीसगढ़ी में सवाल करें, मंत्री उनका जवाब भी छत्तीसगढ़ी में देंगे. लेकिन हैरानी हुई कि तकरीबन 20 दिन चले इस सत्र में हजार से ज्यादा सवालों के बीच छत्तीसगढ़ी गायब थी. तीसरी विधानसभा के पहले सत्र में 90 में से केवल 10 विधायकों ने छत्तीसगढ़ी में शपथ ली. यह आईना है, छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी की हैसियत का. जिस तरह ज्यादा पढ़े-लिखे हिन्दी भाषाभाषी हिन्दी जानते हुए भी आपस में अंग्रेजी में बात करके खुद को ज्यादा सभ्य साबित करने की कोशिश करते हैं कमोबेश यही हाल छत्तीसगढ़ियों का है. छत्तीसगढ़ में इन दिनों नारा चल निकला है, छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया! लेकिन सबसे बढ़िया छत्तिसगढ़िया वे हैं, जो हिन्दी या अंग्रेजी बोलते हैं.</strong><br />विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीते साल विधानसभा ने सर्वसम्मति से इसे हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में स्वीकार किया. राज्य बनने के बाद यह सुविधा है कि स्थानीय महत्व के मुद्दों पर हमें अधिक संघर्ष की जरूरत नहीं पड़ रही. छत्तीसगढ़ी से प्रेम रखने वालों का यह सौभाग्य है कि इसे राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए सड़क पर उतरकर लाठी गोलियां नहीं खानी पड़ी. सरकार ने छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का भी गठन किया, जो इस समय छत्तीसगढ़ी का एक मान्य व्याकरण, शब्दकोष इत्यादि तैयार कर रहा है.<br />बीते 21 फरवरी को यूनेस्को ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया. इस मौके पर जारी एक रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गई कि <a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SbSu-Cxr2oI/AAAAAAAAAec/xqjAYe9yeRk/s1600-h/School.bmp"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 316px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SbSu-Cxr2oI/AAAAAAAAAec/xqjAYe9yeRk/s320/School.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5311062241497045634" /></a>सन् 2050 के आते-आते दुनिया से 90 फीसदी भाषाएं खत्म हो जाएंगी. विश्व की 6000 भाषाओं में से 3000 का अस्तित्व खतरे में है. पिछली 3 पीढ़ियों में 200 भाषाएं खत्म हो चुकीं, 538 खत्म होने के कगार पर हैं, 632 असुरक्षित हैं और 607 भाषाएं जल्द असुरक्षित हो जाएंगी. हमें आशा है कि 41 साल बाद खत्म भाषाओं की सूची में छत्तीसगढ़ी नहीं होगी. रिपोर्ट कहती है कि युवा अपनी स्थानीय मूल भाषा सीखें और उसे व्यवहार में लाएं. पर देखा गया है कि वे अपने कैरियर को ध्यान में रखते हुए शक्तिशाली भाषाओं को सीखना चाहते हैं. रिपोर्ट कहती है कि अधिक से अधिक भाषाएं जानना हमेशा अच्छा है, लेकिन हम पर अपनी भाषा को संरक्षित करने का दायित्व है. भाषाओं के साथ उसकी परम्पराएं और सभ्यताएं पनपती और फलती-फूलती है, जिसे बचाना बड़ी चुनौती है.<br />राजभाषा के लिए संघर्ष करने वालों की सदैव चिंता रही है कि बोलचाल में छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल की जाए, लेकिन यह नहीं हो पा रहा है. पिछले दिनों हिन्दी और आंचलिक बोलियों के आपसी सम्बन्धों पर रायपुर में एक सेमिनार था. छत्तीसगढ़ के विद्वानों के अलावा राहुल देव, विश्वनाथ सचदेव, प्रो. अमरनाथ आदि यहां पहुंचे. उनके विचारों में भिन्नताओं के बावजूद एक स्वर उभरा कि भाषाएं वे ही पनप सकती हैं, जो उन्हें रोजगार के मौके दें. जरा सोचें, छत्तीसगढ़ी को हम इस मापदण्ड पर कहां खड़ा हैं? सड़क, बिल्डिंग का ठेकेदार छत्तीसगढ़ चाहे थोड़े दिन पहले ही आया हो, घर में अपने प्रदेश की बोली बोलता हो, पर जब मजदूर, गरीब, खेतिहर से काम लेता है तो छत्तीसगढ़ी सीखता है. वही ठेकेदार जब अफसरों के पास बिल ले जाएगा तो छत्तीसगढ़ी बोलने पर उसे उपेक्षित होने का भय बना रहेगा.<br />राजभाषा पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में बिल पेश किया गया तो मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा कि छत्तीसगढ़ी बहुत मीठी बोली है और राज्य के लोगों के आपसी संवाद का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है. पर सरकार नहीं बता पायेगी कि विधानसभा में अनुवादकों की व्यवस्था करने के बाद भी इस मीठी बोली में सवाल क्यों नहीं किए. विपक्ष से रविन्द्र चौबे ने बिल पेश करने के दौरान सवाल उठाया कि छत्तीसगढ़ी को अकेले अधिकारिक भाषा के रूप में क्यों नहीं रखा जा रहा है, इसे हिन्दी के साथ क्यों जोड़ा गया. कुछ नेता ज़मीनी सच्चाई जानते हुए भी ऐसा कह देते हैं. जाने अनजाने उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की ख़िलाफत कर दी. छत्तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ियों का भावनात्मक लगाव है, भले इसे वे बोलचाल से गायब कर रहे हों. राजनेता यह बात जानते हैं. चुनाव के वक्त जहां निर्णायक गरीब मतदाताओं की भीड़ हो, सभी दल छत्तीसगढ़ी में बात करते दिखेंगे. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह में भी छत्तीसगढ़ी बोलकर भीड़ को लुभा लेने की क्षमता विकसित हुई है. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व सांसद पवन दीवान आदि पारंगत हैं ही. <br />पता नहीं क्यों छत्तीसगढ़ी बोला जाना छत्तीसगढ़ियों के लिए ही कौतूहल बना हुआ है. हमारे कंठ पर तो इसे सदैव सहज बसना चाहिए. इसके कुछ कारण दिखते हैं. एक नवंबर 2000 के पहले तक छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा रहा, जहां छत्तीसगढ़ी के अलावा बुंदेलखंडी, मालवी, बघेली और अवधी भी बोली जाती थी. प्रशासनिक कामकाज हिन्दी में होते थे. मध्यप्रदेश का हिस्सा होने के कारण राजनैतिक, प्रशासनिक सामंजस्य व पाठ्य पुस्तकों को एकरूप हिन्दी के माध्यम से ही बनाया जा सका. अवसरों में भागीदारी के लिए छत्तीसगढ़ियों को जरूरी था कि वे मध्यप्रदेश के निवासी के रूप में जाने जाएं. छत्तीसगढ़ बनने के 8 साल बाद अब छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा मिला है. इस बीच पूरी दुनिया में बहुत तेजी से अनेक परिवर्तन हुए हैं. पिछले कुछ दशकों के भीतर समाज में बाजार का प्रभाव बढ़ा है, सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने की चिंता करने वाले लोग घटे हैं. तकनीकी शिक्षा, जिसके प्रति युवा पीढ़ी का रूझान है वे ज्यादातर अंग्रेजी अथवा हिन्दी में हैं. राज्य में औद्योगिक, व्यापारिक गतिविधियां बढ़ी हैं, जिनमें निवेश करने वाले लोग देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से पहुंचे हैं. हाल के मंदी के असर को छोड़ दें तो लोगों का उपभोक्ता वस्तुओं की तरफ लगाव बढ़ा है. सार्वजनिक मंचों, विद्यालयों में राज्य की संस्कृति से सम्बन्धित गतिविधियों को केबल टीवी के कार्यक्रमों ने दबोच रखा है. शासकीय संरक्षण में होने वाले सांस्कृतिक आयोजन जिनसे राज्य की विशेषताओं को उभारने का अवसर मिल सकता है, सीमित हैं तथा आम लोगों की पहुंच से दूर हैं.नई पीढ़ी, जिनके हाथों में कल का छत्तीसगढ़ है <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjW_CGI6cszDhgX7rgTFzbW8A9gZZg-6PIf_A-4-abSGuHKaDZSHgOVHctaeY_b1t03F_B6NE0a5w7AgKs9QPsz1kzT0dF_teYOGVvgu2NDARl-d1JzSCD8ugUPOUk1_WucPRrWVVpwB0k/s1600-h/Teejan.bmp"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 258px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjW_CGI6cszDhgX7rgTFzbW8A9gZZg-6PIf_A-4-abSGuHKaDZSHgOVHctaeY_b1t03F_B6NE0a5w7AgKs9QPsz1kzT0dF_teYOGVvgu2NDARl-d1JzSCD8ugUPOUk1_WucPRrWVVpwB0k/s320/Teejan.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5311062601706850018" /></a>गिल्ली डंडा या कबड्डी पसंद नहीं करते, उसे क्रिकेट पसंद है. अमरसा या ठेठरी खुरमी उसे नहीं भाता, वे चाऊमिन और नूडल्स के शौकीन हैं. वे चंदैनी, पंडवानी, ददरिया, गम्मत से दूर हैं, अब गांव-गांव, डिस्को पाप राक डांस काम्पीटिशन हो रहे हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे दूसरों से बराबरी कर पाएंगे. ऐसे में अपनी बोली के प्रति भी उनमें मोह नहीं जागा. अमीर धरती के गरीब लोगों के इस छत्तीसगढ़ में यह धारणा बनी कि जो निर्धन है, छत्तीसगढ़ी भाषा, कलाएं, सभ्यता उसकी है.<br />छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में इस परिवर्तन की बयार तेजी से फैली. बस्तर, सरगुजा, जशपुर इलाकों में औद्योगिक व अधोसंरचनाओं का विकास धीमा रहा है. इसलिये छत्तीसगढ़ी पर संकट राज्य की दूसरी भाषाओं, बोलियों के मुकाबले ज्यादा है. छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के बाद जरूरी होगा कि इसे प्राथमिक स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल करें. वरना कुछ दिनों के बाद जो बच्चे स्कूल पहुंचेंगे वे चिरई, रद्दा, कुरथा, कुरिया जैसे सरल शब्दों का मतलब भी नहीं जानेंगे. छत्तीसगढ़ी में ज्यादा से ज्यादा प्रशासनिक कामकाज हों, इसकी पहल राजनेताओं को करनी होगी फिर अफसर इसे खुद-ब-खुद अपने पर लागू कर लेंगे. छत्तीसगढ़ी साहित्य और अन्य लोक विधाओं में निरन्तरता होनी चाहिए. नई पीढ़ी का रूझान बढ़ाने के लिए इसमें नये प्रयोग किए जायें और सृजन की गुणवत्ता पर ध्यान तो देना ही होगा. लगता है कि राजभाषा का दर्जा देने के लिए जितना जूझना पड़ा, वह संघर्ष का एक पड़ाव ही था. लक्ष्य अभी हासिल करना है, जिसमें सरकार के साथ समाज को भी जवाबदेह होना होगा.<br /><br /><strong>दूसरी बोलियों का क्या होगा?</strong><br />राज्य बनने के 8 साल बाद छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिलाने की पहल हुई. पर यहां की दूसरी भाषाओं के संरक्षण की जिम्मेदारी कौन निभाए? अक्सर कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ी दो करोड़ लोगों की भाषा है. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि दूसरे राज्यों से प्रभावित मिश्रित छत्तीसगढ़ी बोलने वालों को मिलाकर भी इसे बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ 15 लाख के आसपास है. तब हमें चिंता करनी चाहिए उन लोगों की जिनकी बोली 2 करोड़ 8 लाख की आबादी वाले छत्तीसगढ़ में रहते हुए भी छत्तीसगढ़ी नहीं है. ये हिन्दी भी ठीक तरह से नहीं समझ पाते. छत्तीसगढ़ी बोली के विकास पर सरकारी पहल अन्य बोलियों की कीमत पर नहीं होनी चाहिए. अकेले गोंडी बोलने वालों की संख्या 20 लाख से अधिक है. उत्तर व दक्षिण बस्तर की गोंड बोलियों में काफी फर्क भी है. यहां भतरी, हलबी, पारजी, दोरली आदि अनेक बोलियां हैं. इसी तरह सरगुजा और जशपुर में मैदानी हिस्से तो छत्तीसगढी से वाकिफ हैं पर कुड़ुक, सादरी, सरगुजिहा, जशपुरिहा आदि बोलने वालों की तादात भी लाखों में हैं. अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को अपने पारम्परिक तौर तरीकों से संभाले हुए ये लोग ज्यादा कठिनाई में हैं. प्रशासन इन तक पहुंचता नहीं. वे प्रशासन की भाषा से ही नहीं उसके रवैये से भी अनजान हैं. सिंचाई, सड़क, शिक्षा की सुविधाएं यहां काफी कम है. इन इलाकों में फसल छत्तीसगढ़ के दूसरे हिस्सों से एक तिहाई है और मजदूरी आधी. शोषण-कुपोषण यहां सबसे ज्यादा है. नाबालिग लड़कियों के खरीद फरोख्त हो रही है. ये दुर्गम पहाड़ी इलाके हैं, जहां सरकार पहुंचना भी नहीं चाहती, जबकि राज्य के निर्माण के बाद इनको भी रायपुर, बिलासपुर संभागों की तरह सहूलियतें मिलनी चाहिए थी. विकास व सेवाओं का असंतुलन दूर करने के लिए बजट तो दिए जाते हैं पर निगरानी का अभाव है और यहां के लोगों की राय पर काम नहीं होते. ऐसी स्थिति में राजभाषाओं की सूची में इन बोलियों को चाहे तो न भी जोड़ें, लेकिन प्रशासन इतना सक्षम तो हो कि उनकी भावनाओं में, उन्हीं की बोलियों में उनकी जरूरतों को समझे और उनकी समस्याएं दूर करे.<br />बस्तर में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी ने बीते साल 2 दिसम्बर से एक हफ्ते तक अपने संगठन की स्थापना की वर्षगांठ मनाई. इस दौरान उन्होंने जगह-जगह अपनी मांगों के परचे चिपकाए. इनमें छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का विरोध भी शामिल था. सन् 2001 में मुख्यमंत्री रहते हुए अजीत जोगी ने जब छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा देने की घोषणा की तो बस्तर के अख़बारों में नक्सलियों ने बयान भेजकर ऐसा फैसला नहीं लेने की चेतावनी दी. बस्तर के आदिवासियों का भरोसा जीतने व बाकी छत्तीसगढ़ियों से उन्हें अलग बताने के लिए नक्सलियों के पास एक मुद्दा यह भी है. समझा जा सकता है कि भाषा का मामला कितना संवेदनशील है. सब मानते हैं कि नक्सल केवल कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है. हम जब बस्तर में शांति की स्थापना व वहां के विकास की बात करते हैं, तो पहले हमें उनकी भाषा को साफ समझने वाला महकमा तैनात करना होगा. तब शायद बराक ओबामा जिन्हें छत्तीसगढ़ी जानने वालों की जरूरत है और यूनेस्को जो भाषाओं के खत्म होने पर चिंतित है, के सामने हम अपने राज्य की बेहतर तस्वीर पेश कर सकेंगे.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-33623415713029326452009-02-22T19:12:00.000-08:002009-02-22T22:32:54.144-08:00महकने दीजिए गेंदा फूल ही बनकर<a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIaAmvn9zI/AAAAAAAAAds/OGeFnAzyjRE/s1600-h/Genda+Phool.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 221px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIaAmvn9zI/AAAAAAAAAds/OGeFnAzyjRE/s400/Genda+Phool.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5305831908698486578" /></a>छत्तीसगढ़ इन दिनों अपने दशकों पुराने एक गीत को नये कलेवर में पाकर झूम रहा है. हाल में प्रदर्शित दिल्ली-6 का गेंदा फूल हाट-बाजारों से लेकर ड्राइंग रूम में गूंज रहा है. देश-दुनिया के लोगों को राज्य के समृध्द लोक संगीत की मिठास, शब्दों में सहजता, सरलता व अपनापे का नया अनुभव लेना हो तो यह गीत उसकी एक झलक दिखाएगा. गांवों के मेले-ठेले व आकाशवाणी केन्द्रों में कुछ बरस तक ऐसे न जाने कितने मधुर गीत बजते रहते थे, लेकिन राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ के हर संसाधन को बाजारू बनाने जो कोशिश की गई, उनमें कला व संगीत से जुड़ा क्षेत्र भी शामिल हो गया. पिछले कुछ सालों से छत्तीसगढ़ का संगीत बाज़ार फिल्मी गीतों के बेसुरे नकल, फूहड़ तुकबंदी और अश्लील भाव भंगिमाओं से भरे गीतों से पट गया है. रोज थोक के भाव में वीडियो सीडी निकल रहे हैं, जिनमें कल्पनाशीलता गुम है, रस-माधुर्य खो चुका है और टीन कनस्तर पीट-पीटकर बताया यह जा रहा है कि यही छत्तीसगढ़ की <a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIVBT7s6RI/AAAAAAAAAdM/9tGdGgL4PCw/s1600-h/merigold.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 316px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIVBT7s6RI/AAAAAAAAAdM/9tGdGgL4PCw/s320/merigold.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5305826423270598930" /></a>पहचान है. इनको पोसने से आकाशवाणी केन्द्र तो अभी तक बचे हुए हैं पर दूरदर्शन अपने क्षेत्रीय प्रसारण में ऐसे गीतों को जगह देने लगा है. ऐसे में ए आर रहमान और प्रसून जोशी ने <strong><em>सास गारी देथे, ननंद मुंह लेथे</em></strong> गाने पर प्रयोग कर नई पीढ़ी को फिर से बताया है कि छत्तीसगढ़ी लोक-संगीत में कालजयी विशेषताएं हैं.<br />फिल्म रिलीज होने के कुछ दिन पहले से लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया व प्रमुख अख़बारों में यह ख़बर चली कि गीत को सुनकर तो लोग आल्हादित हैं पर गीतकार व संगीतकार ने छत्तीसगढ़ का कहीं पर जिक्र नहीं किया. लोगों की बड़ी संख्या में प्रतिक्रियाएं ली गई और उन्हें कोसने की मुहिम चलाई गई. लोगों से उगलवाया गया कि यह भोले-भाले छत्तीसगढ़िया लोगों के साथ धोखाधड़ी है, अन्याय है. असली गीतकार व गायकों को इसका श्रेय नहीं दिया. गीत से छेड़छाड़ की गई, गोंदा फूल को गेंदा फूल कर दिया गया.मामले ने यहां तक तूल पकड़ा कि छत्तीसगढ़ विधानसभा में भी मुद्दा उठ गया.ख़बरें तलाशने और जल्द से जल्द छाप देने की होड़ ने इसे पहले पन्ने का पहला समाचार तो बना दिया लेकिन अधूरा. उन व्यक्तियों का पक्ष समाचार से गायब है, जो आरोपी हैं. जब कोई घटना पहले पन्ने की पहली ख़बर बने तो पत्रकारिता की जिम्मेदारी कहती है कि उस व्यक्ति का पक्ष भी जाना जाए, जिसे कटघरे पर खड़ा किया गया है. लेकिन इन समाचारों में इसकी जरूरत महसूस नहीं की गई.<br />अब जरा फिल्म दिल्ली-6 के गीतकार प्रसून जोशी का कहना सुन लिया जाए. संयोग से इंटरनेट पर उनकी ई-मेल आईडी मिल गई. जल्दी ही जवाब आ गया. मोटे तौर पर उन्होंने जो कहा, वे इस तरह से हैं-<a href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIWTz4xuQI/AAAAAAAAAdc/ujDiFWWK4wQ/s1600-h/prasoon_joshi.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 184px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIWTz4xuQI/AAAAAAAAAdc/ujDiFWWK4wQ/s320/prasoon_joshi.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5305827840597539074" /></a><br /><strong>एक-</strong> <em>पारम्परिक लोक गीतों पर किसी को अनुचित श्रेय लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. <strong><em>गेंदा फूल </em></strong>गीत पारम्परिक है और इसका स्पष्ट उल्लेख सीडी कवर पर किया गया है.</em> <br /><strong>दो-</strong><em>गीतकार के रूप में मुझे अपना नाम डालने में कोई गलत बात नहीं दिखती क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर बोधगम्य बनाने के लिए मूल गीत में कई फेरबदल करने पड़े.</em> <br /><strong>तीन-</strong> <em>गीत में रायपुर का जिक्र आया है, छत्तीसगढ़ को गीत से छिपाने की कोई मंशा नहीं रही है.</em><br /><strong>चार- </strong><em>संगीतकार के रूप में रजत ढोलकिया और ए आर रहमान ने इसमें मौलिक जादुई असर डाले हैं, ताकि देश के हर कोने के संगीत प्रेमियों को सहज ही भाए.</em> <br />प्रसून जोशी बताते हैं कि पहली बार उन्होंने रघुबीर यादव से यह गीत सुना. उन्हें यह गीत फिल्म दिल्ली-6 के लिए उपयुक्त लगा और उन्होंने इसे ले लिया. श्री जोशी का यह भी मानना है कि छत्तीसगढ़ हो, पंजाब या फिर कुमाऊं, जहां से वे खुद आते हैं, में लोकगीतों का ख़जाना भरा पड़ा है. व्यावसायिक सिनेमा इसकी मिठास को ही ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाकर इसे समृध्द करने का ही काम करते हैं.समय और जरूरत के अनुसार कुछ नई चमक लाते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी इसे सहेजने काम चलना चाहिए.<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIWstBoEKI/AAAAAAAAAdk/zrGu1FnoJvw/s1600-h/ar+rahman.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 275px; height: 320px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SaIWstBoEKI/AAAAAAAAAdk/zrGu1FnoJvw/s320/ar+rahman.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5305828268252336290" /></a> श्री जोशी से असहमति की कोई वजह नहीं दिखती. हम, <em>पिंजरे वाली मैना</em> से लेकर <em>कजरारे-कजरारे</em> तक कितने ही लोक गीतों पर थिरकते आ रहे हैं, क्या किसी ने कापीराइट का मामला बनाया? पंजाब, असम, राजस्थान, गुजरात, हिमालय की तराई के पारम्परिक गीतों का हर दूसरी फिल्म में प्रयोग होता देख रहे हैं. इन सबके बीच छत्तीसगढ़ कहां है? क्या छत्तीसगढ़ में लोक विविधताओं, विशेषताओं का अकाल है? हरगिज़ नहीं. गेंदा फूल जैसे सैकड़ों गीत हैं, जिन पर दुनिया भर के संगीत प्रेमी थिरक सकते हैं. आकाशवाणी रायपुर के पास बेशुमार गीत हैं. तपत गुरू भई तपत गुरू, मोर संग चलव रे, झिमिर-झिमिर बरसे पानी...ददरिया, करमा, सुआ, पंडवानी, बिहाव गीत, कितनी ही विधाओं के गीत. न तो आकाशवाणी उन्हें खुद नये प्रयोगों के साथ नई पीढ़ी के लिए सामने ला रहा है न ही किसी जिम्मेदार हाथों में सौंप रहा है. छत्तीसगढ़ के लोक गीतों पर छत्तीसगढ़ियों ने ही प्रयोग किए हैं और वे श्रव्य बन सके हैं. इसी गेंदा फूल गीत को अलग-अलग बोलों में तथा बदले हुए धुन में सालों से गाया जा रहा है. लोक गीतों में खूबी यही है कि उस माटी में पलने-बढ़ने वाला हर कोई उसमें नये अंतरे और आयाम जोड़ सकता है.पर अब शायद हम अपनी तिजोरी पर ताला लगाकर चाबी समन्दर में फेंक चुके हैं. छत्तीसगढ़ी गीतों से प्रेम करने वाले लोग आज उन गीतों को सुनने के लिए तरस रहे हैं. बाजार में टिक गए हैं वे लोग जिनके गीतों को सुनने में शर्म आती है. छत्तीसगढ़ के लोग इन गीतों को पसंद नहीं करते. ये सीडी बाजार से लोग कुछ नया पाने की उम्मीद में खरीदते हैं, पर निराशा हाथ लगती है. ऐसे सीडी दुकानों में भरे पड़े हैं, जिन्हें कोई खरीदार नहीं मिल रहा. इसीलिए जब छत्तीसगढ़ का <strong><em>गोंदा फूल</em></strong> नये कलेवर में गेंदा फूल बनकर सामने आया है तो उसे हाथों हाथ उठाया जा रहा है. उम्मीद है, छत्तीसगढ़ लोक संगीत की खूबियों को अब ज्यादा लोग पहचानेंगे और गेंदा फूल की ही तरह अनेक प्रयोगों का सिलसिला शुरू होगा. संगीत के व्यवसाय से जुड़े स्थानीय लोग भी संभवतः इसे प्रेरणा के रूप में लें और कुछ सकारात्मक करें. प्रसून, रहमान, जय हो!राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-70975932770991699652009-02-19T14:55:00.000-08:002009-02-20T04:24:42.235-08:00नक्सलियों के नाम पर निर्दोषों का संहार<a href="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SZ3kVflppgI/AAAAAAAAAdE/4RFbJLH8NJ8/s1600-h/killer+cops.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 247px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SZ3kVflppgI/AAAAAAAAAdE/4RFbJLH8NJ8/s320/killer+cops.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5304646994020115970" /></a><br /><strong>बीते 8 जनवरी को छत्तीसगढ़ के अख़बारों व इलेक्ट्रानिक मीडिया में बस्तर पुलिस की जबरदस्त कामयाबी की एक ख़बर पहुंची. वह ये कि राजधानी रायपुर से तकरीबन 450 किलोमीटर दूर बस्तर के दंतेवाड़ा जिले के सिंगावरम गांव में पुलिस मुठभेड़ में 17 नक्सली मारे गए हैं. इनमें 6 महिलाएं भी हैं. उस दिन क्षेत्रीय समाचार चैनल इसी ख़बर से पट गए, जाहिर है अगले दिन छत्तीसगढ़ के सभी अख़बारों में यह प्रमुखता से छपा. पुलिस ने बताया कि सर्चिग पर निकले एसपीओ व जिला पुलिस बल के जवानों पर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया. पुलिस ने जवाबी कार्रवाई की, जिसमें ये नक्सली ढेर हो गए. पुलिस के अनुसार वह मारे गए नक्सलियों का शव उठाकर इसलिए नहीं ला पाई क्योंकि मुठभेड़ के बाद अंधेरा हो चुका था और वहां रात भर ठहरना खतरे से खाली नहीं था. सबको लगा कि बस्तर में नक्सलवाद के खात्मे का संकल्प लेने वाली भाजपा, जिसे बस्तर की 12 में से 11 विधानसभा सीटों पर हाल के चुनावों में जीत मिली है, ने दुबारा सत्ता में पहुंचने के बाद पुलिस का मनोबल ऊंचा उठाया है और प्रधानमंत्री के शब्दों में 'देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या' के खात्मे के लिए दुगने जोश से काम कर रही है. उस बस्तर के लिए तो यह सफलता खासी अहमियत की है, जहां कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों से भी ज्यादा लोग उग्रवाद के कारण मारे जाते हैं. मगर अफसोस! यह सब सच नहीं था. धुंधलका जैसे ही छटा सिंगावरम मामले ने सरकार व पुलिस की कलई खोल दी और यह संवेदनहीनता और क्रूरता का एक बड़ा नमूना बनकर सामने आया.</strong><br />आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे इस दुर्गम व अभावग्रस्त गांव में दो दिन बाद जब वहां पत्रकारों का दल इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए पहुंचा तो मुठभेड़ की हकीकत सामने आई. सिंगावरम के ज्यादातर ग्रामीण भय से गांव छोड़कर भाग चुके थे. कुछ रक्तरंजित मैदान में इधर उधर बिखरे शवों के सामने बिलख रहे थे. ग्रामीणों ने बताया कि पुलिस ने सिंगावरम व पास के 2 और गांवों के लोगों को सामान उठाने में मदद करने के लिए बुलाया. नक्सलियों के बारे में पूछताछ करने के बाद जवानों ने उन्हें एक कतार पर खड़ा किया और अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं. लोग अपनी जान बचाकर भागे. लेकिन 17 उनके निशाने से नहीं बच सके. (कुछ ख़बरों में मृतकों की संख्या 19 बताई गई है) इसके बाद पुलिस ने इस जनसंहार को जायज ठहराने के लिए जरूरी इंतजाम किया. कुछ ग्रामीणों को नक्सलियों की वर्दी पहनाई गई. घटनास्थल से 5 भरमार बंदूकों की बरामदगी दिखाई गई. आंध्र के अख़बारों में रिपोर्टिंग के बाद बस्तर से भी पत्रकारों का दल पहुंचा, उन्हें भी नक्सली मुठभेड़ की परिस्थितियां नहीं दिखीं. राज्य के विपक्षी दल कांग्रेस के कान भी खड़े हुए. बस्तर के एकमात्र कांग्रेस विधायक कवासी लखमा ने घटनास्थल का दौरा किया. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने श्री लखमा, मीडिया और अपने कुछ प्रतिनिधियों से रिपोर्ट मंगाने के बाद इस मुठभेड़ को लेकर सवाल उठाए. उन्होंने इसे जनसंहार बताया और मामले की जांच सीबीआई से या विधायकों की समिति से कराने की मांग की. श्री लखमा ने तो यहां तक कहा कि मारे गए लोगों में उनके रिश्तेदार भी शामिल हैं, जिनका नक्सली गतिविधियों से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है. बस्तर के पूर्व विधायक आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजाम व आदिवासी चेतना आश्रम दंतेवाड़ा के प्रतिनिधि घटनास्थल गए. लौटने के बाद कुंजाम ने कहा कि क्या 5 भरमार बंदूकों से 17 नक्सली फोर्स से मुकाबला करने के लिए आएंगे, मारे गए लोगों को ऊपर से नक्सलियों के कपड़े पहनाए गये हैं, कई नाबालिग हैं.<br />विधानसभा सत्र शुरू होने के बाद 3 फरवरी को पहले सिंगावरम का मामला ही उठा. विपक्ष ने हंगामा किया और आसंदी तक जा पहुंचे. 32 विधायक सदन से निलम्बित कर दिए गए. लेकिन सरकार सीबीआई या विधायकों से मामले की जांच के लिए राजी नहीं हुई. दंतेवाड़ा जिलाधीश ने एक एसडीएम को जांच अधिकारी बनाया . वे क्या जांच करेंगे और क्या रिपोर्ट देंगे, लगभग तय है. प्रतिपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे कहते हैं कि यह अजीब मामला है कि 17 नक्सलियों को मारने वाले जिन अधिकारियों व जवानों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए उनका नाम भी उजागर करने से सरकार डर रही है और जब यह सरकार की उपलब्धि ही है तो किसी भी स्तर की जांच से घबराने की क्या जरूरत? इस कथित मुठभेड़ में 3 एसपीओ घायल हुए, ऐसा पुलिस का कहना है पर वे सामने नहीं लाए गए.<br />इसी दिन बस्तर में आदिवासियों के बीच सक्रिय कुछ संगठनों की मदद से मृतकों के परिजन 500 किलोमीटर दूर हाईकोर्ट बिलासपुर पहुंच गए. उन्होंने याचिका लगाई जिसमें यह भी बताया गया कि हत्या करने के पहले महिलाओं से दुष्कर्म भी किया गया. परिजनों के लिए 25-25 लाख रूपए मुआवजे तथा घटना में शामिल पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ मुकदमा दर्ज करने की मांग की गई. हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई चल रही है. हाईकोर्ट के निर्देश पर आदिवासियों के दफनाए गए 8 शवों को निकालकर पोस्टमार्टम किया गया. इसकी रिपोर्ट न्यायालय में सौंपी जाएगी. हाईकोर्ट ने राज्य के गृह सचिव, दंतेवाड़ा पुलिस अधीक्षक तथा घटना में शामिल 16 विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को जवाब देने के लिए कहा है. सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया है. अब 25 फरवरी को इस मामले में सरकार को विस्तार से हलफनामा देने का निर्देश दिया गया है. 17 फरवरी को विधानसभा में एक बार फिर यह मामला उठा. उस समय विपक्ष ने फिर सवाल उठाया. सिंगावरम में मारे गए कथित नक्सलियों के नाम-पते तो सरकार की तरफ से बता दिए गये लेकिन यह नहीं बताया गया कि उनके ख़िलाफ क्या मामले दर्ज थे. जब विपक्ष ने पूछा कि पुलिस कैसे तय करती है कि कोई नक्सली है या नहीं. तब संसदीय सचिव विजय बघेल ने कहा कि जो भी व्यक्ति बस्तर में हथियार लेकर पुलिस की तरफ आएगा, वे उसे नक्सली मानते हैं. <br /> नक्सलियों ने अब तक दर्जनों बार विस्फोट और कई सामूहिक हत्याएं की हैं. नक्सलियों की वजह से बस्तर के आदिवासी सड़क,पानी, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. हर साल दर्जनों जवान नक्सली हमलों में मारे जा रहे हैं. उन्होंने 1 लाख 35 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले बस्तर के आम-आदमी का जनजीवन खतरे में डाल रखा है. विषम परिस्थितियों में नक्सलियों से जूझ रहे जवानों के साहस का भी कोई जवाब नहीं. नक्सलियों को बस्तर के आदिवासियों की बेहतरी से सरोकार नहीं. वे हर कीमत पर इस इलाके में अपना साम्राज्य बनाए रखना चाहते हैं. जब रमन सरकार कहती है कि वे इस कार्यकाल में बस्तर से नक्सलियों का सफाया करके रहेंगे, तब पुलिस नक्सलियों की क्रूरता का जवाब यदि उन्हीं की भाषा में देना चाहती हो तो अचरज क्यों हो. लेकिन सिंगावरम जनसंहार से लगता है कि सरकार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए पुलिस अधिकारी नक्सली मौंतों का आंकड़ा बढ़ाने में लगे हैं और फर्जी मुठभेड़ों में बेकसूर ग्रामीणों को निशाना बनाया जा रहा है. शायद सरकार यह भी समझती है कि ग्रामीणों को मारने से नक्सलियों में प्रतिक्रिया होगी और वे दहशत में आएंगे. सच कहा जाए तो सिंगावरम घटना सवाल यह करता है कि प्रचुर संसाधनों से भरे और दुनिया भर के उद्यमियों की निगाह में गड़े बस्तर से सरकार नक्सलियों का सफाया करना चाहती है या आदिवासियों का?राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-61387347563902310542008-10-29T11:23:00.000-07:002008-10-29T11:27:10.631-07:00तटस्थ रहने का अपराध न करे कांग्रेस<a href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SQiq4kaQAKI/AAAAAAAAAUI/rib_tpYLiw8/s1600-h/salwa.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 251px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SQiq4kaQAKI/AAAAAAAAAUI/rib_tpYLiw8/s320/salwa.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5262644053405597858" /></a>घोषणा पत्र सामने आने से पहले ही कांग्रेस ने यह साफ किया है कि सलवा जुड़ूम पर उनकी पार्टी ख़ामोश रहेगी. दो बडे़ नेता महेन्द्र कर्मा और अजीत जोगी इस आंदोलन पर अलग-अलग राय रखते हैं. जोगी मानते हैं कि सलवा जुड़ूम के पीछे भावना तो सही है पर निहत्थे अथवा केवल तीर-कमान लेकर चलने वाले आदिवासियों को घातक बम और एके-47 रखने वालों से मुक़ाबले के लिये आगे नहीं किया जा सकता. दूसरी तरफ श्री कर्मा कहते हैं कि इस आंदोलन को वे इतनी दूर तक साथ दे चुके हैं कि उनका पीछे हटना मुमकिन नहीं है.<br />दोनों नेताओं की एक बैठक राजधानी में हुई थी, उनमें एक राय नहीं बन सकी. राज्य की कांग्रेस इकाई ने भी मान लिया कि सलवा जुड़ूम पर पार्टी की कोई सर्वसम्मत राय नहीं है. लेकिन प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते क्या कांग्रेस की चुप्पी ठीक है? सलवा जुड़ूम और नक्सल समस्या एक दूसरे से गुंथे हुए हैं. भाजपा के प्रमुख राजनैतिक दल व सत्ता में होने की वजह से तथा कांग्रेस के प्रभावशाली नेता महेन्द्र कर्मा के आदिवासियों के एक बड़े वर्ग में असर होने के नाते सलवा जुड़ूम से पड़े नकारात्मक-सकारात्मक प्रभावों का कोई राय जाहिर तो करनी ही होगी. नक्सली हिंसा में मौतें बीते 4 सालों के भीतर 4 गुना बढ़ी. सुरक्षा बलों व स्थानीय आदिवासियों पर हमलों का तेज हुए हैं. खनिज व रेल संसाधनों को क्षति पहुंचाना, 50-60 हजार लोगों का अपने गांवों से बेदख़ल हो जाना और शिविरों में रहना, विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तारियां होना, सैकड़ों आदिवासी परिवारों का आंध्रप्रदेश व दूसरे राज्यों की सीमाओं में शरण लेना, हजारों बच्चों का वहां शिक्षा से वंचित होना, कुपोषण से पीड़ित होना, सुरक्षा बलों व नक्सलियों के ख़िलाफ खड़े लोगों पर अत्याचार के आरोप लगना, उद्योगों के लिये भूमि देने का विरोध और समर्थन, बेदखली के लिये उत्पीड़न जैसे दर्जनों प्रश्न हैं. क्या इनके नेपथ्य में सलवा जुड़ूम क्या कहीं भी नहीं है? आखिरकार, नक्सल समस्या ने पूरे छत्तीसगढ़ पर असर डाला है. वे साधारण मतदाता भी, जो कभी बस्तर नहीं गये इसे लेकर चिंतित हैं और जल्द से जल्द बस्तर, सरगुजा के इलाकों को हिंसा से मुक्त देखना चाहते हैं, भोले-भाले आदिवासियों के लिये अपनी परम्परा, प्रकृति तथा मिट्टी के बीच सहज जीवन-यापन चाहते हैं. ऐसे महत्व के विषय पर कांग्रेस या कोई राजनैतिक दल मौन रहकर मतदाताओं के बीच कैसे जा सकती है? क्या कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में नक्सल समस्या पर भी कुछ नहीं बोलेगी? या फिर केवल भाजपा की निंदा करेगी. पर इससे तो कोई बात नहीं बनेगी. आखिर यह तो राज्य की प्रतिष्ठा और छबि का भी प्रश्न बनता है.<br /> सभी दल और नक्सल समस्या से चिंतित लोग मान चुके हैं कि यह मसला केवल कानून का नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक भी है. प्रायः सभी राजनैतिक दल मानते हैं कि नक्सल किसी एक राज्य की नहीं बल्कि देश की समस्या है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती बता चुके हैं. देश-विदेश के अनेक मानवाधिकार संगठन सलवा जुड़ुम की बंद करने की मांग कर चुके हैं, जन सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारियों की निंदा कर चुके हैं और उनकी रिहाई के लिये आंदोलन भी कर रहे हैं. यदि उनकी बात ठीक हैं तो कांग्रेस साफ कहे,, नहीं है तो कहे. <br />दो जिम्मेदार नेताओं में घोर असहमति के कारण राज्य के सबसे जलते सवाल को किनारे कर देने से काम कैसे चलेगा. उन लाखों मतदाताओं का क्या होगा, जो केवल इसी बात पर कांग्रेस को वोट देने या नहीं देने का फैसला करने वाले हैं. राज्य की पार्टी इकाई यदि दोनों नेताओं के बीच सुलह नहीं करा सकती तो केन्द्रीय नेता सोचें और पहल करें. कांग्रेस एक राजनैतिक दल है. दल की एक विचारधारा होती है. कांग्रेस को विचार तो व्यक्त करना ही होगा. क्या सलवा जुड़ूम खत्म कर दिया जाये? या उसके स्वरूप में बदलाव किया जाये या उसका पूरी तरह समर्थन किया जाये, किसी एक लाइन पर तो उसे चलना ही होगा. यह लाइन नक्सल पीड़ितों की आवाज़ पहचानने पर टिकी हुई है, क्या सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने हमेशा आदिवासियों के बीच काम करने का दावा किया है, उनका मन टटोलने में असफल है या उससे मुंह मोड़ना चाहती है. क्या उनका सारा तर्क-वितर्क केवल दो नेताओं के विचार तक सीमित है. किसी के रूठ जाने के डर से, उनके समर्थकों के वोटों का नुकसान उठाने के डर से एक प्रमुख राष्ट्रीय राजनैतिक दल को तटस्थ रहने का अपराध नहीं करना चाहिये. भूख-भय, शोषण, हिंसा के ख़िलाफ बस्तर में लड़ाई अभी जारी है. नक्सल और इससे जुड़े तमाम सवालों पर राजनैतिक दलों की भी भूमिका इतिहास के पन्नों में चुपचाप दर्ज़ होते जा रहे हैं. इसलिये सबको अपनी राय स्पष्ट करनी होगी. आखिर सजग मतदाता भी किसी पार्टी के विचारों को ही ध्यान में रखकर ही अपना मत बनाता है.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-44277055641593705912008-09-05T04:06:00.000-07:002008-09-05T20:32:39.208-07:00चल रे मन वृंदावन की ओर<strong>-राजेश अग्रवाल </strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SMEYF8fe2nI/AAAAAAAAAS0/gFxlj9D2FSA/s1600-h/RatanpurGammat2.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="http://1.bp.blogspot.com/_kAbQECGcYOM/SMEYF8fe2nI/AAAAAAAAAS0/gFxlj9D2FSA/s400/RatanpurGammat2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5242497931652553330" /></a> <br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><em><strong>लोक में रचा-बसा गणेशोत्सव पर होने वाला एक अलौकिक गम्मत </strong></em><br /><br />यह गम्मत वह नहीं है जिसमें नचकहर और जोक्कर पब्लिक को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. न ही यह नाचा में दिखाई देने वाला टुकड़े-टुकड़े में गूंथने के बाद भी बिखरे-उलझे छत्तीसगढ़ी और हिन्दीफिल्मी गीतों का ताना-बाना है. यह तो हर साल गणेश पूजा पर होने वाला अलौकिक गम्मत है, जिसका हर पात्र संगीत व नृत्य के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने का प्रयास करता है. क्योंकि इसमें है श्रीमद्भगवतगीता के दशम अध्याय का वर्णन. हैरत की बात यह भी है कि इस गम्मत में छत्तीसगढ़ी का भी कहीं समावेश नहीं,फिर भी रतनपुर की लोक-संस्कृति में अगर कुछ रचा-बसा है तो वह केवल यह गम्मत है. <br />महामाया शक्तिपीठ रतनपुर की पवित्र धार्मिक विरासत है. कलचुरी, मराठा शासकों के इतिहास के बिम्ब भग्न किले छत्तीसगढ़ की इस प्राचीन राजधानी ऐतिहासिक राजसी वैभव के प्रतीक हैं और 350 साल पुराना बाबू रेवाराम श्रीवास्तव का गम्मत हमें रतनपुर के सांस्कृतिक-साहित्यिक गौरव से पहचान कराता है. रतनपुरिहा गम्मत भक्तिकालीन कवियों की चुनी हुई रचनाओं का अद्भुत संग्रह है. सूरदास, कबीर, मीराबाई, रसखान जैसे अमर रचनाकारों के छंद तो इसमें लिये ही गये हैं. चंद्रसखी जैसे अनेक भक्तिकालीन कवि जिनके दस्तावेज और कहीं अब शायद ही कहीं मिल सकें, वे बाबू रेवाराम के गुटके में मिलता है. कृष्ण के जीवन के विभिन्न प्रसंगों को बाबू रेवाराम ने इन कृतियों से बीनकर कुछ इस तरह पिरोया है कि पूरी कृष्ण लीला ने एक मौलिक व सम्पूर्ण आकार ले लिया है. रचनाओं का चयन करते समय बाबू रेवाराम ने इस बात का ध्यान रखा कि किस कवि की रचना का कौन सा भाग आम लोगों को कृष्ण की लीला को सरलता से समझा देता है. अनूठी बात यह है कि जब कथानक के किसी हिस्से को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें कोई रचना ठीक नहीं लगी तो उन्होंने वहां खुद दोहे लिखकर जोड़ दिये.<br /><strong>बाबू रेवाराम की कृतियां नष्ट </strong> <br />बाबू रेवाराम छत्तीसगढ़ के उन रचनाकारों में हैं, जिनकी विद्वता से हजारी प्रसाद द्विवेदी भी प्रभावित थे, लेकिन उनकी रचनाओं को सहेजा नहीं जा सका. बिलासपुर जिले के अधिकांश देवी मंदिरों में गाये जाने वाले जसगीतों के रचनाकार बाबू रेवाराम ही हैं. कुछ इतिहास के जानकार तो यह आरोप लगाते हैं कि उनकी जाति उनकी कृतियों को प्रकाश में लाने में आड़े आई. यह तब की बात है जब विद्वता और पांडित्य में केवल ब्राम्हणों का वर्चस्व था. यह बात पता नहीं कितना सच है लेकिन रतनपुर के लोगों से बातचीत करने में दो बातें गौर करने लायक सुनने को मिलती है. एक तो यह<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFaLpnpc6wHbxyHDo-YIhrSAtzeOUkDwOlbtxmH1RuTgF0NxEpKbLZwZt0dTuVqR0VmQY7XxTwBpqzavW3Y3e0bvR4M0WsdyUKwxVEsY2mlV4MuJNTmK3YAyzznrgeUdBFY5pI5KppqxI/s1600-h/RatanpurGammat3.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFaLpnpc6wHbxyHDo-YIhrSAtzeOUkDwOlbtxmH1RuTgF0NxEpKbLZwZt0dTuVqR0VmQY7XxTwBpqzavW3Y3e0bvR4M0WsdyUKwxVEsY2mlV4MuJNTmK3YAyzznrgeUdBFY5pI5KppqxI/s400/RatanpurGammat3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5242497255790500866" /></a> कि उनकी रचनाओं को महामाया मंदिर में ही सहेज कर रखा गया था. लेकिन अब से सौ-सवा सौ साल पहले किसी विध्नसंतोषी ने उन पांडुलिपियों को फाड़-फाड़ कर प्रसाद बांट दिया और बहुमूल्य कृतियां नष्ट हो गईं. रतनपुर को लहुरी-काशी भी कहा जाता था, क्योंकि काशी से संत-विद्वान जगन्नाथ पुरी की यात्रा के लिये निकलते थे तब यहां विश्राम करते थे. दूसरी बात कही जाती है कि बाबू रेवाराम भी विद्वान थे लेकिन उन्हें इन संतों विद्वानों से शास्त्रार्थ करने के लिये उनके बराबर नहीं बैठ सकते थे. एक बटुक के माध्यम से वे वाद-विवाद करते थे. बाबू रेवाराम के जिस गुटके के आधार पर रतनपुरिहा गम्मत का मंचन होता है, उसका भी अधिकारिक प्रकाशन अब तक नहीं हो सका है. स्थानीय स्तर पर रेवाराम साहित्य समिति ने उनके गुटके का प्रकाशन कराया है, जो अधूरा ही है. <br /><strong>इस बार भी गम्मत एकादशी से </strong><br />गणेश चतुर्थी के बाद आने वाली भादो एकादशी से यह गम्मत शुरू होकर पांच दिन चलता है. इसलिये इसे भादो गम्मत भी कहा जाता है. पहले दिन गुटका की पूजा व मंगल आरती होती है. दूसरे दिन कृष्ण जन्म और पूतना वध, तीसरे दिन से रास लीला के विभिन्न प्रसंगों का गायन-वादन होता है. तब यह गम्मत से कहीं ज्यादा रहस के करीब लगता है. रात 9-10 बजे से तीसरे पहर तक चलने वाले इस गम्मत के आखिरी दिन सुबह हो जाती है. इस दिन भगवान अतर्धान होते हैं. सखियों के विलाप के प्रसंग में जैसे दर्शक अपने आपको खुद भी शामिल कर लेता है. पर अंत सुखद होता है, क्योंकि उधो सखियों को शरीर की नश्वरता और आत्मा से परमात्मा तक पहुंचने का संदेश कृष्ण की ओर से सुनाते हैं. <br /> आयोजन में खर्च यूं तो ज्यादा नहीं होता लेकिन सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये गम्मत दल घरों घर निमंत्रण देने जाता है और उनसे चंदा भी लिया जाता है. रतनपुरिहा गम्मत की प्रस्तुति के साथ कोई व्याख्या नहीं की जाती. इसमें संवादों की जगह ही नहीं है. चूंकि अलग-अलग कवियों के दोहों का छंद विन्यास भिन्न-भिन्न है अतएव इनकी संगीत संरचना भी विविधता से भरपूर है. कहीं तीव्र कहीं मध्यम, कहीं पर सुगम तो कहीं शास्त्रीय. श्रोता इसका भरपूर आनंद लेते हैं. कुछ तो इतने कठिन रागों में निबध्द है कि गायकों की टोली कई-कई साल तक ठीक तरह से गाने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं और कुछ इतने सरल कि यदि कोई अपनी गायकी को आजमाना चाहे तो वह दर्शक दीर्घा से उठकर मंच पर भी बैठ जाता है. पांच दिनों की पूरी प्रस्तुति बाबू रेवाराम के उपलब्ध गुटके से ही होती है. इस गम्मत में भी परियां होती है, जोकर होते हैं. चूंकि भक्ति का कार्य है तो आजकल तो गांव की बेटियां भी निःसंकोच गोपियां व राधा बनकर मंच पर आने लग गई हैं.<br /><strong>रतनपुर की रगों में दौड़ता है गुटका </strong><br />रतनपुरिहा गम्मत की नई पीढ़ी बहुत धीमे गति से तैयार हो रही है. हाल के दिनों में कोई नई टोली नहीं बनी है. यह आसान भी नहीं है. इतना वक्त नई पीढ़ी के पास नहीं कि वे कई-कई दिन रियाज कर गम्मत गायन में पारंगत हो सके. फिर भी इस समय रतनपुर के करैया पारा, बाजार पारा, भेड़ी मुड़ा और महामाया पारा में रतनपुरिहा गम्मत की सशक्त टोलियां हैं. पहले रानीगांव, मटियारी और आसपास के कई गांवों में युवकों के दल थे. एक टोली में गायक और साजिंदों को मिलाकर 20 से 25 लोग होते हैं. लेकिन नये गायकों के अभाव में कई बार इससे कम लोगों में भी काम चलाया जाता है. यह गम्मत जीविकोपार्जन का जरिया नहीं है, लोग इसे आपस में सुनते-दिखाते हैं. 85 साल के भंगीलाल तिवारी अब ऊंचे स्वर में आलाप नहीं ले पाते लेकिन उनके बगैर महामाया पारा का गम्मत अधूरा लगता है. इनके अलावा बल्देव प्रसाद शर्मा, किशन तम्बोली, राजेन्द्र गिरी गोस्वामी, नरेन्द्र शर्मा, लक्ष्मी तम्बोली, शिवकुमार तम्बोली और नई पीढ़ी के गायकों में सोमेश्वर गोस्वामी भादो गम्मत के समर्पित कलाकारों में शामिल हैं. <br />रतनपुर की इस विशिष्ट पहचान को रतनपुर से बाहर तक ले जाने की कोशिश भी की गई है. अब से 4 साल पहले रेवाराम साहित्य समिति और काव्य भारती बिलासपुर के प्रयास से आसपास के गांवों से करीब 100 युवकों को रतनपुरिहा गम्मत की कार्यशाला में प्रशिक्षण दिया गया था. इसके बाद रतनपुर के नजदीकी गांवों, बिलासपुर तथा रायपुर में इसका मंचन भी हुआ, लेकिन अब इन युवकों की टीम बिखर चुकी है. दरअसल रतनपुरिहा गम्मत मौलिक रूप से आजीविका से जुड़ा मंचन रहा ही नहीं. लेकिन अब यदि इसका विस्तार करना है और नई पीढ़ी को इससे जोड़ना है तो इसे पारिश्रामिक के साथ भी जोड़ना होगा. संस्कृति विभाग को भी सोचना होगा कि इस कीमती विधा को नष्ट न होने दे. <br /><strong>धार्मिक नहीं सामाजिक उत्सव </strong><br />रतनपुर का गम्मत धार्मिक न होकर एक सामाजिक मेलमिलाप का उत्सव है. किसी रतनपुरिहा में किस हद तक इसका जुनून सवार है यह समझाने के लिये आज से 50 साल पुरानी एक घटना रतनपुर के गम्मतिहा बताने से नहीं चूकते. रतनपुर गम्मत के एक तबला वादक थे, छोटे खान. जब वे मृत्युशैय्या पर चले गये तो उन्होंने अपने गम्मतिहा साथियों से मिलने की इच्छा जाहिर की. जब वे पास पहुंचे तो छोटे खान ने कहा- जाओ तुम लोग सब साज भी लेकर आओ, मुझे गम्मत के दोहे सुनाओ.एक दो साथी भागते हुए गये और तबला हारमोनियम के साथ शुरू हो गये.अद्भुत दृश्य था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान और खुदा दोनों ही एक सह्रदय जीव को अपने साथ ले जाने के लिये आतुर हैं. जब छोटे खान अंतिम सांसे ले रहे थे तो एक तरफ कुरान का पाठ हो रहा था, दूसरी ओर से आलाप लेकर उनकी मित्र मंडली गा रही थी-चल रे मन वृंदावन की ओर.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4294876642043841838.post-68926064527438037912008-08-04T09:52:00.000-07:002008-08-04T09:56:04.699-07:00जशपुर का अपजश<em><strong>जशपुर की सैकड़ों बेटियां न जाने किस नर्क में होंगी. एक बार बहकावे में निर्जन के अपने झोपड़े से संसार सागर में उतरी तो देह की किस मंडी में चली गयीं कुछ पता नहीं.</strong></em><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgp6koXGPzEojG1AUXwQ56SCe2Q99A2_7PTWvfXtq1SY5RJjQRoWgvBOSBLDRRwfOM_EwCiPGIpaB1yTIjW_JJ8pGai4aj0_YW-wHWD_MgCWyBxcvTLGuXtAEkTgODNU-mnLGC2ujRkD4/s1600-h/jashpur_788050541.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgp6koXGPzEojG1AUXwQ56SCe2Q99A2_7PTWvfXtq1SY5RJjQRoWgvBOSBLDRRwfOM_EwCiPGIpaB1yTIjW_JJ8pGai4aj0_YW-wHWD_MgCWyBxcvTLGuXtAEkTgODNU-mnLGC2ujRkD4/s400/jashpur_788050541.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5230707012412922898" /></a>जशपुर जिले का लुड़ेग बीते कुछ दशकों में टमाटर की खूब फसल के कारण प्रसिध्द था. मिट्टी और मौसम अनुकूल होने के कारण यहां के आदिवासियों ने इसे खूब उगाया. कई बार तो ऐसी नौबत आई कि टमाटर खेतों में ही सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था, क्योंकि बाजार तक लेकर जाने में परिवहन का खर्च भी निकल नहीं पाता था. यहां कई बार मांग हुई कि टमाटर पर आधारित उद्योग लगा दिये जाएं जिससे आदिवासी किसानों का जीवन स्तर ऊपर उठ जाएगा. लेकिन इस पिछड़े इलाके के लिए कुछ नहीं सोचा गया.<br />पिछले कुछ वर्षों से जशपुर और सरगुजा जिले में एक नई तरह की फसल तैयार हो रही है. उसे बाजार भी खूब मिल रहा है. ये फसल हैं इस इलाके के निर्धन आदिवासी उरांव परिवारों की नाबालिग लड़कियां और बाजार बने हुए हैं दिल्ली गोवा जैसे देश के महानगर. इस फसल को खाद-बीज दे रहे हैं उनके अपने निकट सम्बन्धी और बिचौलिये का काम कर रही हैं, दिल्ली में काम कर रही 200 से ज्यादा प्लेसमेन्ट एजेंसियां. लड़कियां टमाटर तो होती नहीं. उनकी धमनियों में रक्त का संचार होता है. मन है, जो पंख लगाकर आकाश में उड़ना चाहता हैं. ह्रदय है जिसमें सुख-दुख मान,अपमान, स्वाभिवान कष्ट और प्रसन्नता महसूस कर सकती हैं. पर सरगुजा और जशपुर इलाके के गांवों में 3 दिन भटकने के बाद महसूस हुआ कि इन सब भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार केवल उनको है, जिनके पेट भरे हों. <br /><br />इनकी आंखों में आंसू भी आते हैं तो रोककर रखना होगा, बाप को बेटी से बिछुड़ने और बेटी को घर की याद आने पर भी दोनों विवश हैं. पुलिस व प्रशासन की मदद नहीं मिलने की आशंका से अभिभावकों के पैरों में बेड़ियां लग गई हैं और बेटियां तो पता नहीं कहां नजरबंद हैं या घुटन भरी कोठियों में बीमार पड़ गई या मार डाली गई. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए ऐसी लड़कियों की संख्या सैकड़ों में है, जो एक बार निर्जन जंगल में बनी अपनी झोपड़ी से महानगरों की भूल-भुलैया में अपना भविष्य संवारने का सपना लिए निकल पड़ी और फिर उनका कुछ पता नहीं चला. सीतापुर ब्लाक के बेलगांव की ललिता एक्का पिछले सात साल से दिल्ली के एक मीडिया हाऊस में झाड़ू पोछे का काम कर रही है. 6ठवीं तक पढ़ी 19 साल की ललिता से जब हम मिले तो वह संकोच झिझक उसकी आंखों व हाव-भाव व पहनावे में नहीं थे, जो अक्सर इस गांव की लड़कियों में दिखाई देती है.<br /><br />जशपुर जिले के दुलदुला थाना के अंतर्गत आने वाले चटकपुर गांव की शशिकांता किण्डो को जुलाई 2006 में गांव की ही अनिता और विमला अच्छी नौकरी दिलाने का आश्वासन देकर ले गये थे. वहां पहुंचने के बाद चिराग, दिल्ली के एक प्लेसमेंट एजेंट राजू अगाथा ने हिमांशु बख्शी के यहां नौकरी दिलाई. वहां मालकिन नमिता ने कुछ दिनों तक तो ठीक रखा पर बाद में उसे घर से निकलने भी नहीं दिया जाता था. जब भी शशिकांता गांव वापस लौटने की जिद करती थी, उसे जल्द ही छोड़ देने का भरोसा दिलाया जाता था. इधर गांव में शशि की मां प्रमिला और पिता विन्सेन्ट लकड़ा परेशान हो रहे थे. जब भी वे अपनी बेटी से फोन पर बात करने की कोशिश करते थे, मकान मालकिन उन्हें बात कराने से कोई न कोई बहाना बना देती थी. परेशान होकर उन्होंने दुलदुला थाने में शिकायत कर दी. मालकिन ने तब शशिकांता को धमकाया और उसकी शादी जबरदस्ती उसी अपार्टमेन्ट में वाचमैन का काम करने वाले रविन्द्र कुमार यादव से करा दी. रविन्द्र उसे अपने कमरे में लेकर रहने लगा.<br /><br />इधर मालकिन से जब शशिकांता से बात कराने कहा जाता था तो उन्होंने कह दिया कि लड़की शादी कर चुकी है और अब उसके पास नहीं है. बहदवास मां अपनी भाई की पत्नी थेलमा के साथ दिल्ली पहुंची. थेलमा 10 साल से दिल्ली में ही रहती थी. रविन्द्र से शशिकांता के बारे में बात की जाती थी तो वह धमकियां देता था, झूठ बोलता था. बाद में उसने यह भी सफाई दी कि वह शशिकांता से शादी करना नहीं चाहता था, उसकी शादी तो पहले ही हो चुकी है और उत्तरप्रदेश के गांव में बीवी बच्चे रहते हैं. यह सब तो शशि की मालकिन के दबाव में उसे करना पड़ा. शशि अपनी जान बचाकर गांव लौट गई है. उनके मां-बाप कहते हैं कि अब किसी सूरत में इसे दिल्ली या और कहीं नहीं भेजेंगे. इकलौती बेटी की शादी यहीं किसी अच्छे लड़के से कर देंगे. <br /><br />हैरत की बात है कि कई बार छोटी उम्र की लड़कियां मां-बाप या भाईयों से नाराज होकर भी घर छोड़कर भागती हैं तो बहुत दूर निकल जाती हैं और कई साल तक घरों की ओर दुबारा नहीं झांकती. पर जब लगातार प्रता़ड़ित हो जाती हैं और कैद होकर रह जाती हैं तो हर तरह का जोखिम उठाकर गांव वापस भाग आती हैं. लुड़ेग के पास घुरूआम्बा की रमिला टोप्पो के साथ ऐसा ही हुआ. गांव वालों ने बताया कि इस लड़की को गुजरात में किसी घर में नजरबंद कर लिया गया था. उसे घर से निकलने नहीं दिया जाता था और उसके हाथ में कोई पैसा नहीं दिया जाता था. किसी तरह एक सहेली से उसने टिकट के पैसे का प्रबंध किया और जिस कपड़े को पहने हुए थी, उसी में भाग निकली. <br /><br />दो दिन बाद कुनकुरी पहुंची और 11 किलोमीटर पैदल चलकर रात के 9 बजे घर पहुंची. 6 साल बाद अपनी बेटी को घर पर बहदवास, बीमार हालत में देखकर अनपढ़ मां-बाप की आंखों में आंसू आ गए. वे अपनी बेटी के वापस मिलने की उम्मीद ही खो चुके थे. दूसरी तरफ रमिला जो कहानी बताती है उसके अनुसार वह अपने भाई ने मारपीट की तो नाराज होकर वह भाग गई. गांव से वह सीधे रायगढ़ में मदर टेरेसा अनाथ आश्रम में चली गई और वहां से इंदौर के एक अनाथाश्रम में भेज दिया गया. फिर वहां से सूरत के एक मिशनरी संचालित अनाथाश्रम में रख दिया गया. लगातार वहीं रह रही थी. रमिला की मानें तो इन अनाथाश्रमों में उसे कोई तकलीफ नहीं थी. खाने और कपड़े दिये जाते थे और पढ़ाई कराई जा रही थी. वह अपनी कहानी बताते वक्त कई बार ठिठकती रही तथा बीच-बीच में अपनी ही कई बातों को झुठला रही थी. जब वहां कोई तकलीफ नहीं थी तो भागकर क्यों आना पड़ा, पूछने पर वह कहने लगी कि घर की याद आ रही थी. <br /><br />इतने सालों तक सम्पर्क क्यों नहीं किया? वह कहती है कि चूंकि उसने सभी जगहों पर खुद को अनाथ बताया था इसलिये किसी से कहते नहीं बना कि वह घर के लोगों को चिट्ठी लिखना चाहती है या उनसे फोन पर बात करना चाहती है. रमिला जब घर से अकेले निकली तो उसकी उम्र 9 साल के करीब थी. 6 साल बाद लौटने के बाद वह जसपुरिया बोली लगभग भूल गई है और अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में बात कर रही है. वह कम्प्यूटर सीखने और पढ़ाई करने की इच्छा रखती है, इसके लिये रायगढ़ या रांची के किसी बड़े स्कूल में दाखिला लेना चाहती है. <br /><br /><strong>जो लौट के घर न आए</strong><br /><br />अब उनके गरीब मां-बाप इतने साल बाद मिले अपनी बच्ची को बाहर नहीं भेजना चाहते. साथ ही गरीबी के कारण बहुत बड़े स्कूल में बाहर पढ़ाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं. लेकिन रमिला ने उन्हें साफ कह दिया है कि वह गांव में नहीं रहना चाहती. दिल्ली से गये मीडिया के कुछ लोगों ने रमिला को टटोला तो वह तुरंत उनके साथ दिल्ली निकल चलने के लिए तैयार हो गई.<br /><br />सरगुजा जिले के बतौली गांव की 14 साल की तारिणी घर से तो निकली थी, पड़ोस में सरसों की भाजी छोड़ने के लिये, लेकिन वह निकल गई दिल्ली. पिता भण्डारी और मां मुनारो किन्डो कुछ दिन बाद यह जानकर कुछ राहत महसूस कर सके कि वह अपने मामा की लड़की प्रमिला के साथ निकली है, जो पहले से ही दिल्ली आती जाती रहती है. बतौली ब्लाक मुख्यालय और उसके आसपास के गांवों से प्रमिला की तरह ही कई नजदीकी रिश्तेदारों ने लड़कियों को घरेलू नौकरानी के लिए काम पर पहुंचाया है, जिनमें से तारिणी समेत कम से कम 7 लड़कियों का आज पता नहीं है कि वे कहां हैं.<br />तारिणी जैसी लड़कियों को बचाने के लिए असल में जब लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा तो ही इलाके में कैंसर की तरह फैल चुके मानव-व्यापार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी. अभी तो उरांव आदिवासी परिवारों के भाई, पिता के हाथ खाली हैं, बेटियों को पढ़ाई और शादी करने के दिनों में बाहर भेज देना, उन्हें बिल्कुल नहीं भाता, पर असहाय हैं. इनके हाथ में काम हो, कुछ आय बढ़े तो हिम्मत के साथ वे इन लड़कियों को भी रोकेंगे और लड़कियों का भी भरोसा अपने परिवार व समाज पर बढ़ेगा.राजेश अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/03166713468895085704noreply@blogger.com4