
स्थिति व संस्कृति को पहचान दिलाने वाली इस कालजयी कृति को जिस तरह सरकार और रंगकर्म के झंडाबरदारों ने मिलकर विवादों के घेरे में ला दिया है, उससे निकट भविष्य में इस नाटक को हबीब की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ में निर्विध्न खेला जाना मुश्किल हो गया है.इस विवाद के बीच किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि न तो छत्तीसगढ़ सरकार ने चरणदास चोर किताब को प्रतिबंधित किया है और न ही नाटक को. विरोध-प्रदर्शन और उस पर सरकार की चुप्पी ने मामले को अनावश्यक रुप से उलझा दिया है.
बखेड़ा तब शुरू हुआ जब सतनामी समाज के एक धर्मगुरू बालदास ने मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से मुलाकात कर वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हबीब तनवीर की किताब चरणदास चोर पर प्रतिबंध लगाने की मांग की. स्कूली बच्चों में किताबों पर रूचि जगाने के लिए छत्तीसगढ़ में हर साल पुस्तक वाचन सप्ताह मनाया जाता है, इनमें सामूहिक रूप से किताबें पढ़ी जाती हैं. वाणी प्रकाशन की यह किताब भी उन पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की सूची में शामिल थी. गुरू बालदास ने शिकायत की थी कि इस किताब में बताया गया है कि सतनामी पंथ की स्थापना से पहले बाबा घासीदास डकैत थे. यह बात आधारहीन है और इससे गुरू घासीदास व समाज का अपमान हो रहा है. आनन-फानन में शिक्षा संचालनालय ने इस किताब को पुस्तक वाचन से हटाने का निर्देश दे दिया और यह भी चेतावनी दी कि यदि किसी स्कूल में किताब को पढ़ते हुए पाया गया तो जिम्मेदार शिक्षक पर कार्रवाई की जाएगी.
राज्य में सतनामी समाज अनुसूचित जाति में शामिल है. अरसे से यह तबका सामाजिक शोषण का शिकार रहा है, लेकिन प्रदेश की राजनीति में इनका काफी महत्व है. दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा इनके वोट अपने पास समेटने के लिए तमाम उपाय करते हैं. सतनामी समाज के नेताओं व गुरूओं को राजनेता साधने में लगे होते हैं. गुरू बालदास सतनामी का समाज में काफी प्रभाव है. वे तब खासे चर्चित हुए जब पिछले साल जुलाई माह में बिलासपुर जिले के बोड़सरा में एक निजी स्वामित्व की भूमि- बाजपेयी बाड़ा पर उन्होंने समाज का हक जताया और कहा कि यह उनके गुरू अघनदास की कर्मभूमि है. इसे हासिल करने के लिए सतनामी समाज के हजारों लोग एक मेले में इकट्ठे हुए. भीड़ के हिंसक हो जाने के बाद पुलिस ने गुरू बालदास समेत दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया. इसके बाद विधानसभा में इस मुद्दे पर लगातार हंगामा हुआ. कांग्रेस गुरू बालदास की रिहाई मांगती रही, जबकि सरकार अपने बचाव में लगी थी. कांग्रेस के सभी गुटों के नेता गुरू बालदास के पक्ष में हो गए. कुछ दिन बाद ही राज्य में चुनाव होने वाले थे. सतनामी समाज की नाराज़गी भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकती है. राज्य सरकार ने घोषणा कि बोड़सरा बाड़ा को अधिग्रहित किया जाएगा और वहां एक स्मारक बनाया जाएगा. राजनैतिक विश्लेषकों ने माना कि सरकार ने यह फैसला अपनी पार्टी के संभावित नुकसान को ध्यान में रखते हुए लिया. बाद में राज्य सरकार के इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई और अधिग्रहण की घोषणा पर अभी तक आगे की कार्रवाई नहीं की जा सकी है. लेकिन इस मामले ने मीडिया और समाज में गुरू बालदास को चर्चित तो कर ही दिया.
पुस्तक वाचन सप्ताह में किताब को पढ़ने से रोकने के लिए राज्य सरकार की तरफ से जारी आदेश में गुरू बालदास के इस प्रभाव का ही असर दिखाई दे रहा है. बोड़सरा आंदोलन में संयम का अभाव था, वहीं इस मुद्दे पर गुरू बालदास संयमित रहे. उन्होंने विरोध दर्ज कराने का शांतिपूर्ण व लोकतांत्रिक तरीका अपनाया, परन्तु राज्य सरकार ने फैसला घबराहट में ले लिया. सतनामी समाज में बाबा घासीदास पर आस्था व्यक्त करने के लिए पंथी नृत्य का चलन है. बाबा घासीदास सत्य के पुजारी थे. चरणदास चोर नाटक का नायक भी सत्य निष्ठा की शपथ लेता है. पंथी नृत्य तथा नर्तक दल के प्रमुख पद्मश्री स्व. देवदास बंजारे को चरणदास चोर में शामिल नृत्य से अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली. हबीब तनवीर का प्रत्येक सृजन छत्तीसगढ़ के शोषितों, दलितों व आदिवासियों की विषमताओं का आईना और समृध्द लोक व शिल्प कलाओं का प्रतिबिम्ब है. उनका अपना जीवन, उनके कलाकार और उनका रंगकर्म सामाजिक सौहार्द्र को बढ़ाने और गरीबों, पिछड़ों को महत्व दिलाने के लिए समर्पित रहा.
दरअसल, चरणदास चोर नाटक के किसी भी अंश में सतनामी समाज के ख़िलाफ कोई टिप्पणी ही नहीं है. विवाद वाणी प्रकाशन की किताब की भूमिका को लेकर है. भूमिका का एकाध वाक्य विवादास्पद कहा जा सकता हैं, जिस पर सतनामी समाज का विरोध भी जायज है. गुरू बालदास का दावा है कि उन्होंने सन् 2004 में ही वाणी प्रकाशन की किताब में शामिल भूमिका के उस अंश को लेकर आपत्ति दर्ज करा दी थी. संभवतः उस समय दर्ज कराए गये उनके विरोध को नौकरशाहों व सरकार ने महत्व इसलिए नहीं दिया कि वे गुरू बालदास के प्रभावों से परिचित नहीं थे, इसलिये उस समय उनका ज्ञापन किसी फाइल में धूल खाने के लिए छोड़ दिया गया होगा. वाणी प्रकाशन की भूमिका को या कम से कम उस अंश को हटा दिये जाने के बाद भी चरणदास चोर नाटक कहीं प्रभावित नहीं होता. इस बार जब पुस्तक वाचन सप्ताह के लिए उसी किताब को फिर छपवा कर मंगा लिए गये. 2004 में जो हिस्सा छपा था, 2009 में भी वह यथावत आ गया है. मतलब यह कि जो किताबें पढ़ने के लिए बच्चों को दी जा रही है, उस पर खुद अफसर नज़र नहीं डालते. यदि यहां पर गलती हो भी गई तो उसे पुस्तक वाचन में प्रतिबंधित करने के दौरान फिर दोहरा दिया गया. शिक्षा विभाग किताब पर प्रतिबंध लगाने के बजाय विवादित वाक्य को न पढ़ने का आदेश जारी कर सकती थी. बच्चों को किताबें देने से पहले इसको विलोपित भी किया जा सकता था. पर पूरी की पूरी किताब को प्रतिबंधित करने और यह स्पष्ट नहीं करने से कि नाटक को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, मामला उलझ गया.
नतीजा यह निकला है कि सरकारी आदेश के बाद चरणदास चोर नाटक ही कटघरे में दिखाई देने लगा है. स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने प्रतिबंध लगने वाले दिन ही बयान दिया था कि किताब से विवादित हिस्से को हटाया जाएगा उसके बाद पठन-पाठन के लिए भेजा जाएगा. लेकिन फोकस केवल यही बात हुई है कि सरकार ने चरणदास चोर पर पाबंदी लगा दी है. देशभर में बुध्दिजीवी, रंगकर्मी और साहित्यकार सरकार के फैसले की आलोचना इसी आधार पर कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में तो कुछ अति उत्साही कला प्रेमियों ने तख़्तियां लेकर संस्कृति विभाग के सामने प्रदर्शन भी कर डाला.
अफसोसजनक है कि इन सब गतिविधियों से सरकार अभी तक आंख मूंदे बैठी हुई है. हबीब तनवीर की प्रतिष्ठा और उनकी कृति को इससे कितनी क्षति पहुंच रही है इसका वह अनुमान भी नहीं लगाना चाहती. यह रवैया पुस्तक को वाचन से हटाए जाने से भी ज्यादा खतरनाक है. राज्य सरकार के पास ऐसे संवेदनशील मामलों से निपटने के लिए अनुभवी अफसरों की कमी दिखाई दे रही है. राज्य को तत्काल साफ करना चाहिए कि नाटक में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है और न ही उसने इसके प्रदर्शन पर कोई पाबंदी लगाई है. इस चुप्पी के चलते एक गुट नाटक के पक्ष में खडा़ हो रहा है जबकि दूसरे गुट में इस नाटक के ख़िलाफ भीतर ही भीतर आक्रोश पनपने का खतरा दिखाई दे रहा है.पूरे नाटक का कोई छोटा सा भी हिस्सा विवाद के घेरे में नहीं है फिर भी ताजा हालात यह है कि राजधानी से लेकर गांव-देहात तक जिस चरणदास चोर के मंचन ने कला के रसिकों को तृप्त किया है, उसका मंचन होने पर विरोध में झंडे-डंडे निकल सकते हैं और जिस सामाजिक मेल-मिलाप के लिए हबीब तनवीर और उनकी टीम ने अपना सर्वस्व होम किया, उसी को क्षति पहुंचेगी. नाटक के पात्र चरणदास चोर ने अपने वचन और सच की लड़ाई लड़ी और फांसी पर चढ़ना मंजूर किया था. एक बार फिर यह बेकसूर नाटक उसी फंदे पर चढ़ता नज़र आ रहा है.