शनिवार, 12 दिसंबर 2009

खेत-बाड़ी रौंदने के लिए सिर फुटौव्वल

सरगुजा जिले के मुड़गांव में तीर-धनुष से लैस आदिवासियों ने चमचमाती जीपों में सवार होकर पहुंचे दो दर्जन लठैतों को घेर लिया
और उन्हें करीब 18 घंटे तक बंधक बना कर रखा. बाद में पुलिस के गांव वालों को समझाया और उनके चंगुल से उन्हें छुड़ाया. पर इसके बाद ग्रामीणों पर बलवा और मारपीट का मुकदमा दर्ज कर लिया गया. मुड़गांव के ग्रामीणों का आरोप है कि यहां के सरपंच के भाई नारायण सिंह की इफको वालों से मिलीभगत है. उसने एक फर्जी ग्राम-सभा करा ली और बिना गांव वालों की मंजूरी के ही तय किया कि इफको को जमीन देनी हैं. गांव के लोग अपनी खेत-बाड़ी छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि वह उनकी उपजाऊ जमीन है और पुरखों से वहां खेती करते हुए आ रहे हैं. दरअसल, इफको को सरगुजा इलाके में एक कोल ब्लाक आबंटित हुआ है और यहीं पर उसे पावर प्लांट भी लगाना है. हालांकि इफको के प्रोजेक्ट मैनेजर यूपी सिंह का कहना है कि अधिकांश ग्रामीणों ने जमीन छोड़ने की सहमति दी है और ज्यादातर ने मुआवजा भी ले लिया है. लेकिन सच्चाई यही है कि जिन ग्रामीणों के नाम चेक काट दिये गए हैं वे इससे वाकिफ ही नहीं.
घने जंगलों, प्राकृतिक और वन्य सम्पदा से भरपूर सरगुजा और कोरबा के बीच 5 कोल ब्लाक आबंटित किए गये हैं. प्रेमनगर में इफको तो सरगुजा व कोरबा के बीच राज्य सरकार का पावर प्लांट लगाया जाना है. उदयपुर में अदानी ग्रुप गुजरात का प्लांट लगने जा रहा है. इन प्लांटों से करीब 100 गांव बेदखल होने जा रहे हैं. अकेले इफको को 750 हेक्टेयर जमीन चाहिए. राज्य सरकार व दूसरी बिजली कम्पनियों को भी 3300 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है. एक एनजीओ ने सर्वेक्षण के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इन परियोजनाओं से कटने वाले पेड़ो की संख्या 1.5 करोड़ से ज्यादा होगी. इतने पेड़ों के कटने के बाद यहां कोयला खदानों व बिजली परियोजनाओं से जबरदस्त प्रदूषण भी फैलेगा. उदयपुर, प्रेमनगर के ग्रामीणों को अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई दे रहा है, गोन्डवाना गणतंत्र पार्टी ग्रामीणों के साथ खड़ी है. इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम कहते हैं कि इफको को यदि जमीन चाहिए तो पहले वास्तविक ग्राम-सभा बुलाकर ग्रामीणों की सहमति ले. वे क्या मुआवजा देंगे और पुनर्वास तथा राहत के लिए क्या करने वाले हैं. दरअसल, यही वह बिन्दु है जहां से उद्योगपतियों व ग्रामीणों के बीच सहमति नहीं बन पाती.
बीते 4-5 सालों से जमीन हथियाने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं करना, ग्राम के प्रमुखों का अपहरण कर उनसे बलात् सहमति लेना, पुलिस में झूठे मुकदमे दर्ज कर जेल भिजवा देना, लाठी चार्ज करा देना-यही सब चल रहा है. बस्तर में टाटा व एस्सार की बड़ी स्टील परियोजनाएं इतने सालों में आकार नहीं ले पाई है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह कहते हैं कि लोहड़ीगुड़ा व आसपास के प्रभावित गांवों के 80 फीसदी किसान अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन 20 फीसदी लोगों को तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों ने बरगला दिया है और परियोजना शुरू ही नहीं हो पा रही है. टाटा की परियोजना में 19 हजार करोड़ रूपये खर्च होने जा रहे हैं. एस्सार करीब 70 अरब रूपये खर्च करने जा रही है.
कोन्टा के पूर्व विधायक व आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम कहते हैं कि बस्तर में जनजातियों को नक्सलियों का समर्थन है, जिसके चलते वे लौह अयस्क के खदानों में काम बंद करा सकते हैं. टाटा-एस्सार जैसी कम्पनियों के लिए रास्ता खोलने के लिए आदिवासी अपने जंगल और जमीन से बेदखल किये जा रहे हैं. इसे रोकने में नक्सली मददगार साबित हो रहे हैं. इसलिए आसानी से आदिवासियों की सहानुभूति नक्सलियों के साथ हो गई है. टाटा को यहां करीब 5000 एकड़ जमीन चाहिए, जिसमें 1700 परिवारों को विस्थापित होना पड़ेगा. एस्सार को 1500 एकड़ भूमि की ज़रूरत है और इससे 500 परिवार बेदखल होंगे. दोनों ही परियोजनाओं में विरोध इतना जबरदस्त है और नक्सली उपद्रव की आशंका है कि 5 साल से दोनों ही कम्पनियां काम शुरू नहीं कर पा रही हैं.
नक्सल प्रभावित इलाकों में यदि यह मान भी लिया जाए कि नक्सलियों के प्रभाव के चलते अधिग्रहण खटाई में पड़ा है तो फिर प्रदेश के दूसरे इलाकों में हो रहे विरोध को क्या माना जाए.
राज्य के उद्योग विभाग के अधिकारियों का ही मानना है कि प्रदेश की लम्बित परियोजनाओं के लिए सरकार को करीब 30000 एकड़ जमीन की जरूरत है, लेकिन इनमें से केवल 5 फीसदी का ही अधिग्रहण किया जा सका है. अधिग्रहण की यह बाधा बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर, कोरबा जैसे इलाकों में हैं, जहां पर नक्सलियों का प्रभाव नहीं है बल्कि सरकारी नीति और उद्योगपतियों के रवैये के लिए ख़िलाफ ग्रामीण खुद सामने आकर संघर्ष कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में किसानों की जमीन को मिट्टी के मोल ही खरीदने का प्रावधान है और जो वादे पुनर्वास व राहत के लिए किये जाते हैं वे दशकों बीत जाने के बाद भी पूरे नहीं किए जाते.
भू-अर्जन अधिनियम के अनुसार बंजर जमीन के लिए केवल 50 हजार रूपये, एक फसली जमीन के लिए 75 हजार रूपये व दो फसल वाली भूमि के लिए 1 लाख रूपये का मुआवजा देना तय किया गया है. लेकिन बाजार दर वास्तव में इससे कई गुना ज्यादा है. फिर बेघर और भूमिहीन होने के बाद केवल खेती जानने वाले किसान कहां भटकेंगे, यह सवाल भी उनको खाया जाता है.
लोहड़ीगुड़ा में 3 साल पहले ग्राम सभा आयोजित कर ग्रामीणों की सहमति लेने की कोशिश की गई थी. ग्रामीण ठीक मुआवजे के अलावा टाटा व एस्सार की परियोजनाओं में अपना शेयर भी चाहते थे. जब ग्रामीणों को राजी करने में जिला प्रशासन नाकाम रहा तो पुलिस बल की मौजूदगी में 150 से ज्यादा लोगों के ख़िलाफ मुकदमा दर्ज कर और प्रभावित गांवों में धारा 144 लागू कर ग्राम सभा कराई गई और इस तरह से अधिग्रहण किया गया आसपास के 10 गावों में जमीन का. इसे साबित की गई ग्रामीणों की सहमति. श्री कुंजाम का तो कहना है कि 7 करोड़ रूपयों से ज्यादा का मुआवजा फर्जी लोगों को बांट दिया गया है, जिसकी सीबीआई जांच कराई जानी चाहिए. ग्रामीणों ने इसे धोखाधड़ी मानते हुए पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी है. जगदलपुर कलेक्टर एमएस परस्ते इसके उलट कहते हैं कि मुआवजा बांटने के लिए पंचायत स्तर पर ही समिति बनाई गई है और गांव के प्रतिनिधियों ने ही हितग्राहियों की पहचान की है.
रायपुर से 20 किलोमीटर दूर बन रही नई राजधानी में जमीन गंवाने वाले किसान आज अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं. उन्हें 5 लाख रूपये की दर पर मुआवजा दिया गया है. लेकिन अब इन रूपयों को लिए वे दूसरी जमीन तलाश कर रहे हैं तो उनके चेहरे से हवाईयां उड़ रही है. राजधानी की वृहद परियोजना के कारण 50 किलोमीटर के दायरे तक उन्हें खेती के लायक जमीन ही नहीं मिल रही है. अब एकड़ या डिसमिल में नहीं बल्कि वर्गफीट के दर से जमीन का सौदा हो रहा है. अब किसान आंदोलन कर रहे हैं कि उन्हें 50 लाख रूपये से लेकर एक करोड़ रूपये तक का मुआवजा मिले, लेकिन सरकार कहती है कि मुआवजा दिया जा चुका है अब कोई बात नहीं होगी. रायगढ़ शहर से बमुश्किल 7 किलोमीटर दूर वीसा स्टील को स्टील व पावर प्लांट लगाने के लिए 146 एकड़ जमीन ग्रामीणों की सहमति के बगैर ही हस्तांतरित कर दी गई और शहर की सीमा से जुड़ते जा रहे इस गांव के लोगों को मुआवजा केवल 80 हजार रूपये दिया गया. किसान बदकिस्मत रहे कि इस मामले को लेकर वे अदालतों तक भी चले गए लेकिन मुकदमा हार गए. सरकार ने उन्हें इस जगह पर करीब 1000 एकड़ जमीन उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है.
छत्तीसगढ़ का कोई जिला- ब्लाक अछूता नहीं है, जहां ग्रामीण सरकारी मदद से हथियाए जा रहे खेत व झोपड़ी के ख़िलाफ सड़क पर न उतर रहे हों. हालांकि अब राज्य सरकार ने नई उद्योग नीति बनाई है, जिसमें जमीन का मुआवजा 10 लाख रूपये तक देने का प्रावधान किया गया है. यह भी कहा गया है कि अब उद्योगपति किसानों से सीधे जमीन खरीदेंगे, सरकार इसमें कम से कम हस्तक्षेप करेगी. ग्रामीण अब भी उद्योगों, उद्योगपतियों व सरकार की नीयत पर संदेह से घिरे हुए हैं.कांग्रेस नेता भूपेश बघेल की मानें तो सरकार ने नई उद्योग नीति अदालतों में चल रहे मामलों से बचाव के लिए ही बनाई है.

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

किसानों के गुस्से से हिली छत्तीसगढ़ सरकार

गन्ना किसानों ने जिन दिनों दिल्ली में प्रदर्शन कर संसद की कार्रवाई रूकवा दी थी, तकरीबन उसी समय देश के प्रमुख धान उत्पादक राज्य छत्तीसगढ़ के किसानों ने राज्य की भाजपा सरकार को धान पर बोनस देने के वादे से पीछे हटने पर अपनी ताकत दिखाई. गन्ना उत्पादकों की तरह छत्तीसगढ़ के धान उगाने वाले किसानों की लड़ाई अभी जारी है.
छत्तीसगढ़ के किसानों में ऐसा आक्रोश हाल के वर्षों में देखा नहीं गया. मीडिया में हाशिये पर रहने वाले व नौकरशाहों के बीच कोई हैसियतनहीं रखने वाले इस असंगठित व गरीब तबके ने अपनी हुंकार से पुलिस प्रशासन और सरकार को झकझोरा और अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर दिया. 9 नवंबर को जगह-जगह राजमार्गों पर लाखों किसान इकट्ठा हुए और कम से कम 30 स्थानों पर उन्होंने चक्काजाम किया. गुस्से से फट पड़े किसान धमतरी में हिंसा पर उतारू हो गए और पुलिस वालों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. सरकार को चेतावनी दी कि धान पर बोनस व मुफ़्त बिजली के मामले में वह वादाख़िलाफी से बाज आए. सरकार ने आंदोलन तोड़ने की भरसक कोशिश की और कुछ नेताओं को अपनी तरफ मिला लिया, व्यापारियों ने भी शादी-ब्याह का हवाला देते हुए आंदोलन में साथ देने से मना कर दिया, बावजूद इसके किसान नाइंसाफी को लेकर दम-खम से मैदान पर उतार आए.
दरअसल, डा. रमन सिंह के नेतृत्व में पिछले साल भाजपा सरकार दुबारा बनी, उसकी वजह सस्ते चावल की योजना के अलावा किसानों के लिए किए गये लुभावने वादे भी हैं. घोषणा पत्र में धान पर 270 रूपये बोनस तथा 5 हार्सपावर तक के सिंचाई पम्पों को मुफ़्त बिजली देने की बात थी. भाजपा नेताओं के लिए यह चुनाव जीतने का जरिया रहा हो, लेकिन खेती की बढ़ती लागत और लगातार अवर्षा की मार झेलते किसानों के लिए तो ये आश्वासन वरदान सरीखे थे. विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव था, लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सरकार बनाने प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा भाजपा के सांसदों को भेजा जाना जरूरी था. लिहाजा, सरकार घोषणा पत्र पर डटी रही. उसने हाय-तौबा मचाकर ही सही दो किश्तों में धान पर 220 रूपये का बोनस दिया. 50 रूपये केन्द्र से मिले बोनस को जोड़कर क्विंटल पीछे कुल अतिरिक्त राशि 270 रूपये तक पहुंचा दी गई. लोकसभा चुनाव में आचार संहिता लगने से पहले राज्य भर में मुख्यमंत्री व बाकी नेताओं की अगुवाई में किसान महोत्सवों का आयोजन कर बोनस की आधी राशि बांटी गई. मंत्रियों का सरकारी खर्च पर जगह-जगह वंदन-अभिनंदन हुआ. लेकिन जैसे ही इस साल अक्टूबर में फिर नये फसल की खरीदी शुरू हुई, किसानों से छल हो गया. शायद किसान संतुष्ट भी रह जाते या उन्हें एकजुट करना कठिन हो सकता था, यदि सरकार 220 रूपये के ही बोनस को पिछले साल की तरह जारी रखती. लेकिन घोषणा पत्र के वादे से पीछा छुड़ाने के बाद तो उनके आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा. राज्य सरकार बिजली मुफ़्त देने के वादे से भी पीछे हट गई. पांच हार्सपावर तक के पम्पों को मुफ़्त बिजली देने के बजाय खपत की सीमा तय कर दी गई. इस विसंगति का नतीजा यह हुआ कि मुफ़्त सिंचाई के भरोसे बैठे किसानों को हजारों रूपयों का बिल थमा दिया गया. नये बिजली बिलों से तो जैसे आग ही लग गई.
इन सबने अरसे से बिखरे पड़े, अपने वाज़िब हक़ के लिए नेताओं के पीछे घूमते- उनका झंडा उठाते-जयकारा लगाते रहने वाले किसानों ने बग़ावत कर दी. किसानों के एक संयुक्त मोर्चे ने आकार ले लिया. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू व खुद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से इन्होंने मुलाकात कर अपनी मांग रखी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई. मोर्चे ने सड़क पर उतरने का फैसला लिया. कई धरना-प्रदर्शनों के बाद किसानों ने राज्य में जगह-जगह चक्काजाम कर दिया. राजमार्गों पर वाहनों का आवागमन घंटो ठप पड़ा रहा. धमतरी में तो आंदोलन हिंसक हो उठा. सड़क घेरकर बैठे किसान नेताओं से एक पुलिस अधिकारी ने कथित रूप से मारपीट कर दी. इसके बाद आंदोलनकारी पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गए. भीड़ ने पुलिस कर्मियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. कम से कम 5 सरकारी वाहन जला दिए गये. उन दुकानों में पथराव-लूटपाट की गई, जहां पुलिस जाकर छिपी. हालांकि किसान नेताओं व कांग्रेस का कहना है कि इन सबमें किसानों का हाथ नहीं है. इसमे वे असामाजिक तत्व शामिल हैं, जो भीड़ में शामिल हो गए थे.
इसके बाद पुलिस व प्रशासन की जो प्रतिक्रिया होनी थी उसका अनुमान लगाया जा सकता है. अगले ही दिन धमतरी में भारी फोर्स पहुंची, दो दर्जन से ज्यादा किसान नेता गिरफ़्तार कर लिये गए. प्रतिक्रिया तीखी हुई, किसान नेताओं की बैठक रायपुर में हुई, कहा गया कि जिन्हें गिरफ़्तार किया गया, उन्हें बिना शर्त रिहा किया जाए. किसान आंदोलन से घबराई सरकार ने 50 रूपये बोनस अपनी तरफ से भी देने की घोषणा कर दी और 3 मंत्रियों की एक समिति किसानों के हित में क्या निर्णय लिए जाए, यह तय करने के लिए बना दी. इसके अलावा बीते 3 माह के सिंचाई पम्पों के बिजली बिल भी रद्द कर दिए गये और कहा गया कि आगे से जो बिल आएगा व फ्लैट रेट 65 रूपया प्रति हार्सपावर के हिसाब से होगा. लेकिन किसानों ने सरकार का डाला हुआ चारा पसंद नहीं किया. उन्होंने इसे नाकाफी बताया और अपना आंदोलन जारी रखने की घोषणा की. इसके बाद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार से मिलने भी गया. उन्हें एक ज्ञापन सौंपा गया, किसानों को संदेश देने के लिए मांग की गई कि राज्य में सूखे के गंभीर हालात और धान के उत्पादन लागत में वृध्दि को देखते हुए समर्थन मूल्य कम से कम 1300 रूपये किया जाए. समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव न हो तो इसी के बराबर बोनस कीराशि दी जाए. मुख्यमंत्री डा. सिंह ने वक्तव्य दिया, राज्य सरकार केन्द्र के लिए धान खरीदती है अतः इसका मूल्य निर्धारण केन्द्र सरकार को ही करना होगा. वे सिर्फ केन्द्र से इसके लिए मांग कर सकते हैं. बोनस का बोझ उठाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है. लेकिन ऐसा कहते वक़्त सरकार यह साफ नहीं करती कि चुनावी साल में ही 270 रूपये बोनस का प्रलोभन किसानों को क्यों दिया गया और चुनावी घोषणा पत्र में क्यों नहीं बताया गया कि यह बोनस लोकसभा की वोटिंग के बाद नहीं मिलेगा.
बहरहाल, 25 नवंबर के बंद को मिलते समर्थन को देखकर सरकार चिन्ता में पड़ गई. डेमेज कंट्रोल के लिए भाजपा किसान मोर्चा को सामने किया गया. इससे जुड़े कुछ लोग संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल थे, उन्होंने मुख्यमंत्री से मुलाकात की और उनके आश्वासन पर आंदोलन वापस करने की एकतरफा घोषणा कर दी. किसान इससे टूटे नहीं, उस पदाधिकारी को ही मोर्चे से बाहर कर दिया गया और 25 नवंबर का महाबंद यथावत रखने का फैसला लिया गया. इधर बाज़ार का समर्थन जुटाने निकले किसानों को तब एक नया पैंतरा नजर आया- जब छत्तीसगढ़ चेम्बर आफ कामर्स ने उनके बंद को समर्थन देने से मना कर दिया. ऐसा फैसला चेम्बर ने खुद से लिया या सरकार के दबाव में आकर, ये वे ही बता सकते हैं. लेकिन यह सच है कि चेम्बर के बड़े पदाधिकारी भाजपा से जुड़े हैं और वे मुख्यमंत्री- मंत्रियों के करीबी भी हैं. किसान इससे भी नहीं हताश नहीं हुए. जब दिल्ली में गन्ना किसानों के मार्च के कारण संसद की कार्रवाई ठप पड़ गई थी, उसी के आसपास धान के लिए किसानों ने महाबंद कराया.
विपक्ष ने किसानों के असंतोष को हाथों-हाथ लिया है. कांग्रेस समेत प्रायः सभी दल किसानों के साथ हो लिए हैं. अब राज्य सरकार की तरफ से यह बताया जा रहा है कि मजदूरों किसानों के हित में सरकार ने जो फैसले लिए हैं, वे अनूठे हैं. उसे देश के दूसरे राज्य भी अपने यहां लागू करने जा रहे हैं. मसलन, खेती के लिए 3 प्रतिशत में ऋण उपलब्ध कराना. यहां पर भाजपा भूल गई कि उसने घोषणा-पत्र में ब्याज मुक्त ऋण देने की घोषणा कर रखी है.
बहरहाल, 25 नवंबर के आंदोलन के बाद किसानों ने अब असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है. वे अब गांधीगिरी करेंगे. तय किया गया है कि अब वे सरकार का कोई कर पटाएंगे और न ही बिजली का बिल.
छत्तीसगढ़ बनने का नेता, व्यापारी, ठेकेदार, अफसर सभी ने फायदा महसूस किया है और इसे जमकर भोगा भी है. लखपति-करोड़पति हो चुके हैं और करोड़पति-अरबपति. शायद किसानों को अपना वाजिब हिस्सा छीन-झपटकर ही लेना पड़ेगा.