0 राजेश अग्रवाल
(दैनिक भास्कर रायपुर में दिनांक 27 मार्च 2008 को प्रकाशित)
भरथरी गायिकी में उनकी कोई सानी नहीं. जब वह ' घोड़ा रोवय घोड़सार मां' पंक्तियों से गाना शुरू करती हैं तो हजारों की भीड़ में आखिरी छोर पर बैठा श्रोता तक सुध-बुध खो बैठता है. आज 57 साल की उम्र में भी यदि सुरूजबाई खाण्डे की बुलंद आवाज बरकरार है तो इसलिए कि वह छत्तीसगढ़ में पसीना बहाने वाले कर्मठ मजदूर के घर से है, उसका पालन-पोषण किसी ऐसे परिवेश में नहीं हुआ जहां गायिकी के हुनर को सिर माथे पर लेकर रियाज़ करने के लिए कोई सहूलियत दी जाए. 7-8 की उम्र में ही वे हाड़-तोड़ मेहनत करना सीख गईं. मां-बाप जब दूसरे के खेतों और ईंट-भट्ठों में मजदूरी के लिए जाते तो उसे भी अपने साथ ले जाते थे ताकि बड़ी हो और ससुराल जाए तो दो जून रोटी के लिए ताने न सुनना पड़े. दादा मोहरदास किसानों की फसल कटने के बाद चिकारा लेकर गांवों में निकलते थे, घूम-घूमकर लोगों को भरथरी सुनाते थे. चबूतरों, बैठकों में भी गाते थे, फिर जो मिलता, वह मजदूरी के अलावा होती थी. नन्हीं सुरूजबाई दादा के साथ शाम को ढिबरी की रोशनी में बैठी सुर मिलाने लगती थी, यही उनका स्कूल था. दादा सुरूजबाई को भी अपने साथ घुमाने लगे और साथ में वह भी गाने लगी.
10-11 साल की उम्र में शादी के बाद वह पौंसरी-सरगांव से ससुराल कछार-रतनपुर आ गई. 4 बच्चे हुए, दवा-पानी के अभाव में सब असमय परलोक सिधार गए. रोजी मजदूरी की तलाश में पति लखन के साथ बिलासपुर पहुंच गई. यह अच्छी बात थी कि पति भी गाने-बजाने का शौक रखते थे, लेकिन दोनों के पास इसे पूरा करने का मौका नहीं था. दोनों रोज माल-धक्का जाते, बड़ी-बड़ी नमक और गेंहूं की बोरियां, तेल के पीपे उठाते और ठेले खींचते थे. शाम अपने घर पहुंचकर जब थकावट दूर करने का मन होता तो पूरे आलाप में सुरूजबाई गाना शुरू कर देती- घोड़ा रोवय...,
मोहल्ले के लोग परेशान थे, लोग उसे 'पगली' कहने लगे. बिलासपुर में कुदुदण्ड, घसियापारा (राजेन्द्र नगर) ने कई जाने माने गायक पैदा किये हैं. इनमें से जवाहर बघेल उस वक्त रेडियो पर बजने वाले - दामाद बाबू दुलरू, बेन्दरा के मारे नई बांचय कोला बारी आदि गीतों से खासे चर्चित हो चुके थे, उन्होंने माना यह पगली नहीं है, बल्कि इसके भीतर गायकी कूट-कूट कर भरी है जिसे वह किसी भी तरीके से बिखेरना चाहती है. वे मंचों में सुरूजबाई को मौका देने लगे. इक्का दुक्का लोक कलाकार ही अपनी हुनर को आजीविका बना पाते हैं. सुरूजबाई की भी मूलभूत जरूरतें गाने से पूरी नहीं होनी थी, नहीं हो रही थी. जब गाने का मौका मिलता चली जाती, बाकी दिन माल-धक्के में ही धक्के खाते गुजरते थे.
सन् 1985 का विधानसभा चुनाव आया. नेताओं में लोक कलाकारों का प्रचार के इस्तेमाल करने का प्रयोग चल रहा था. सुरूजबाई कहती है- यादव भैया (पूर्व मंत्री बीआर यादव) ने उन्हें कांग्रेस के प्रचार के लिए कहा. सौदा अच्छा लगा- उसे माह भर तक गाने के लिए पैसा मिलेगा और माल-धक्का में बोरियां नहीं उठानी पडे़गी. गफ्फार भाई ने नई साड़ियां खरीद कर दी. पति-पत्नी अपने एक दो साजिंदों के साथ रिक्शे पर घूम-घूम कर कांग्रेस का प्रचार करने लगे, जबरदस्त क्रेज रहा. उसे आसपास के इलाकों में भी प्रचार के लिए बुलाया गया. कैसेट भी तैयार हो गया. बीआर यादव चुनाव जीत गए. वादे के मुताबिक उन्होंने सिफारिश की और कलाकारों के कोटे से सुरूजबाई को एसईसीएल में नौकरी मिल गई. अनपढ़ थी, सो भृत्य की नौकरी मिली और वहां लोगों को पानी पिलाने का काम सौंपा गया. एक अनूठी आवाज की मालकिन, यहां नौकरानी का काम करने लगी, क्योंकि यह पहले से बेहतर था. अफसर, बाबू और आगंतुकों में ज्यादातर लोग उन्हें नहीं पहचानते थे, जो जानते थे उनमें से कुछ गदगद हो जाते -कुछ क्षोभ से भर जाते. लेकिन सुरूजबाई ने इससे भी मुश्किल दिन देखे थे, इसलिये उसे मलाल नहीं था.
तब से लेकर आज तक वह यहां पानी पिलाने का ही काम कर रही है. 2 साल पहले एक फर्क आया कि एसईसीएल ने उसके पदनाम के आगे भृत्य शब्द हटा दिया और उसे सांस्कृतिक सलाहकार पद से नवाज दिया गया. उसे टूटी-फूटी ही सही- एक टेबल कुर्सी दे दी गई. लेकिन अभी भी कोई उसे आवाज लगाकर कह देता है- सुरूज बाई, चल पानी पिला.., तो वह ना नहीं कह पाती. मौजूदा सीएमडी बीके सिन्हा और एमडी आरएस सिंह को वे 'कला-प्रेमी' बताते हुए कहती हैं कि कम से कम अब सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी पर होने वाली बैठकों में उसे बुलाया जाता है और राय मांगी जाती है, पहले इतनी भी पूछ नहीं थी.
अब जब रिटायरमेन्ट में 2-3 साल बचे हैं, सुरूजबाई बहुत रूआंसी नजर आती है. उसे शिकायतें खूब है, पर वह जानती है कि वह लाचार है, पढ़ी-लिखी नहीं है कुछ नहीं कर पाएगी. उसके सबसे यादगार क्षण हैं जब उसने रूस में भारत महोत्सव के कार्यक्रम दिए. लेकिन वहां से आने के बाद जैसे आसमान से लाकर फिर धरती पर ही पटक दिया गया, फिर वहीं पानी पिलाने के लिए तैनात. सुरूजबाई के साथ रूस गए दूसरे कई कलाकार आज ठोकरें खा रहे हैं. कोई रिक्शा चला रहा है, कोई सब्जी बेच रहा है. सुरूजबाई कहती है कि इन सब साथियों के बीच मेरी स्थिति कुछ अच्छी है क्योंकि मैं गुजर-बसर के लायक नौकरी पा गई. ताकत होती तो आज इन कलाकारों को लेकर भरथरी के अलावा भी अपने आल्हा, सुआगीत, भड़ौनी और बिहाव गीत को लेकर नई पीढ़ी तैयार करती. लेकिन यहां मुझे ऐसा कोई काम ही नहीं दिया जाता. कहीं भरथरी सुनाने जाना हो तो भी छुट्टी मिल नहीं पाती.
सुरूजबाई कहती है कि-" कई बड़े नेता भी तो मेरी तरह अनपढ़ होते हैं, उनकी मदद के लिए तो लोग पीए देते हैं, अब मुझे यहां अंग्रेजी में सर्कुलर भेजकर बताया जाता है कि बैठक है- उस बैठक में मैं अपनी क्या बात रखूं और मेरी क्या सुनी जाएगी. इस बीच मैं थोड़ा हिन्दी समझने लगी और अपना दस्तखत भी करने लगी हूं, राजभाषा हफ्ता मनाने के बावजूद मेरे पास कोई चिट्ठी हिन्दी में नहीं आती. बूढ़ी हो रही हूं, सब मुझे कलाकार मानते हैं. इतना बड़ा दफ्तर है, सब्जियां लाने तक के लिए अफसरों के घर गाड़ियां दौड़ती हैं पर मुझे पैदल ही घर से आफिस तक आना पड़ता है."
सुरूजबाई, क्या आपको नहीं लगता कि छत्तीसगढ़ के अनेक कलाकारों को बड़े-बड़े अवार्ड मिले, आपको नहीं मिलना चाहिए? पूछे जाने पर वह हाल में मिले देवी मध्यप्रदेश सरकार के देवी अहिल्या अवार्ड सहित अनेक सम्मानों के बारे में अपने तरीके से बताने लगती हैं.
पद्मश्री भी तो एक सम्मान है, जिसका आप जैसे बड़े कलाकारों को दिया ही जाना चाहिए?
सुरूजबाई फिर से उदास हो जाती हैं. कहती हैं- "अब मेरी सिफारिश कौन करे. बिलासपुर में मैं अकेले पड़ जाती हूं. रायपुर, भिलाई में कलाकारों के बीच एकता है वे एक दूसरे के हित का बराबर ख्याल रखते हैं. बीएसपी और एसईसीएल में बड़ा फर्क है. मेरी सिफारिश कैसे की जानी है, कौन करेगा मुझे नहीं मालूम, पर अफसरों को तो पता है. मुझे कलाकार कोटे से नौकरी मिली है तो कला से जुड़ा कोई काम क्यों नहीं सौंपा जाता."
सुरूजबाई को शिकायत है कि कुछ कलाकार मंचों में वाहवाही लेने के लिए भरथरी के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ कर रहे हैं. शराब पीकर मंच पर चढ़ जाते हैं और कला को बदनाम कर रहे हैं. फिर भी उन्हें भरोसा है कि उसके भीतर भरथरी सालों जिंदा रहेगा, एसईसीएल से रिटायर हो जाने के बाद भी. नए कलाकारों में भी बड़ा लगन है. वह भिलाई के पास एक गांव से अपने पास आने वाली वंदना की तारीफ भी करती हैं.
भरथरी और सुरूजबाई
छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोकगीतों में भरथरी और सुरूजबाई एक दूसरे की पहचान हैं. सुरूजबाई की विशिष्ट शैली को पकड़ पाना या उसकी नकल कर पाना किसी दूसरे कलाकार के वश में नहीं है. उन्होंने भरथरी, चंदैनी और ढोला-मारू के किस्से को अपनी गायिकी में ढ़ालकर देश-विदेश में ख्याति दिलाई.
भरथरी बुंदेलखण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित एक ऐतिहासिक लोक कथा है, जिसे पूरे उत्तरभारत में अलग-अलग तरीके से गाया जाता है. सार यह है कि उज्जैन के राजा भृतहरि एक बार शिकार करने जंगल गए. वहां उन्होंने एक काले हिरण का शिकार किया. मान्यता थी कि एक काला हिरण 6 आगर, 6 कोरी यानि 126 हिरणियों का पति होता है. मरते वक्त हिरण ने राजा को श्राप दिया कि जाओ जैसा बर्ताव तुमने मेरे साथ किया है वैसा ही तुम्हारे साथ भी होगा. राजा भरथरी ऋषि गोरखनाथ के शिष्य बने. गोरखनाथ ने उन्हें एक फल खाने को दिया और कहा कि इससे उनका यौवन चिर-स्थायी होगा. राजा अपनी एक रानी पिंगला के प्रेम में पागल थे. उन्होंने फल खुद खाने के बजाय रानी को दे दिया. लेकिन रानी को एक सैनिक से प्रेम था. उसने फल सैनिक को खाने के लिए दे दिया. सैनिक को एक वेश्या से प्रेम था, उसने भी फल खुद न खाकर उसे दे दिया. वेश्या को फल मिला, तब उसने सोचा कि मैं तो पापिन हूं, मेरी आयु लम्बी हो, इससे क्या फायदा, वह सोचती है इस राज्य की रक्षा करने वाले राजा की आयु लम्बी होनी चाहिए. वह फल लेकर राजा भरथरी के पास पहुंच जाती है. राजा यह देखकर चकित रह जाता है. जब उसे पूरी बात मालूम होती है तो उसका मन विषाद से भर उठता है. राज-पाट से उसका मोहभंग हो गया और सबकुछ छोड़कर गोदरिया बनकर जंगलों की ओर निकल पड़ा.
मंगलवार, 8 अप्रैल 2008
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