छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्याओं को केवल कर्ज़ नहीं चुका पाने का नतीजा मान लेना हमें एक ऐसे झूठ को आधार देना होगा, जो देर-सबेर धराशायी हो जाएगा और इसकी आड़ में वे नौकरशाह और राजनीतिज्ञ साफ बच निकलेंगे जो इनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं.
पिछले दो सालों से केन्द्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो का वह आंकड़ा काफी चर्चा में है, जिसमें किसानों की आत्महत्या की दर छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की ही तरह बताई गई है. रिपोर्ट कहती है कि साल में छत्तीसगढ़ के करीब 1500 किसान खुदकुशी कर रहे हैं. यानि

इन मौतों को राज्य के 33.5 लाख किसान परिवारों की बदहाली का आईना मान लेना भूल होगी. जिस पुलिस जांच के आधार पर हम इतने किसानों की आत्महत्या की बात कर रहे हैं, वही जांच यह भी कहती है कि ज्यादातर मौतें बीमारी से तंग आकर, पारिवारिक कलह, ख़राब दिमागी हालत, शराब की लत आदि से हुई. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में एक जनवरी 2008 से 31 जुलाई 2008 के बीच 400 ऐसे लोगों ने खुदकुशी की, जिनका पेशा कृषि था. गांव में इंजीनियर, प्रोफेसर, साइंटिस्ट होते नहीं, किसान ही होते हैं. राज्य में खेती पर निर्भर लोगों की तादात 83 फीसदी है. इसलिये कोई स्वाभाविक मौत मरे या दुर्घटना में उनमें से ज्यादातर का पेशा किसानी ही दर्ज है. हरेक अपराध में खानापूर्ति करते वक्त मरने वाले का पेशा भी पुलिस लिखती है. गांव की साधारण जरूरतों को पूरा करने के लिए इनमें से कई लोग बैलगाड़ी किराये पर देने, किराना सामान की बिक्री करने, पंचर की दुकान चलाने, साप्ताहिक बाजार में जाकर सब्जियां बेचने, कपड़े सिलने, बिजली सुधारने, रेडियो ट्रांजिस्टर सुधारने जैसा काम भी करते हैं लेकिन उन्हें कहते किसान ही हैं.
छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या को मजबूती से स्थापित करने के पक्ष में कहा जा सकता है कि पारिवारिक कलह, दिमागी हालत का बिगड़ना, शराब का आदी हो जाना भी खेती में नुकसान की वजह से और कर्ज़ लेने के कारण है. लेकिन कलह, दिमागी हालत और लत का केवल गरीबी से रिश्ता है नहीं. यह शहरों में और अमीर परिवारों में होने वाले हादसों की तरह है. अपवादस्वरूप एक या दो मामले ही अभी तक सामने आए हैं जिनमें किसान का बीज ख़राब हुआ और कर्ज़ से लद गया, तब उसने खुदकुशी कर ली. आत्महत्या की परिस्थितियां बेरोजगारी, प्रेम प्रसंगों, खेती से मिली आय को फिजूलखर्ची में उड़ा देने के चलते भी हैं.
दरअसल, छत्तीसगढ़ के किसान अलग मिजाज के हैं. उन्हें महाराष्ट्र, पंजाब की तरह कपास, दलहन आदि की व्यावसायिक खेती करनी नहीं आती. तीन चौथाई किसान- लघु व सीमान्त श्रेणी के हैं, जिनके पास 4 एकड़ से कम खेत हैं. वे साल में केवल एक बार धान की फसल लेते हैं. फसल-चक्र परिवर्तन के लिए राज्य बनने के बाद ही सरकारों ने कोशिशें की लेकिन किसान समझदार निकले. उन्होंने प्रयोग करने के बजाय पारम्परिक खेती पर ही भरोसा किया. सरकारी योजनाओं में उलझने के बजाय इन्हें खुद के सामर्थ्य पर भरोसा है. भले मुनाफा कम मिले लेकिन वे कर्ज उतना ही लेंगे, जितना फसल बर्बाद होने पर भी मजदूरी करके चुका सकें. सोसाइटियों में बहुत से कर्ज़ हैं पर वे डिफाल्टर हो जाने पर भी परवाह नहीं करते,देर-सबेर चुका देने या सरकार से माफी मिल जाने की उम्मीद लेकर खेती या मजदूरी करते रहते हैं. हो सकता है इसके लिए वे कुछ साल या कुछ महीनों के लिए दूसरे प्रदेशों में कमाने-खाने चले जाएं, हालांकि यह विवशता और कलंक ही है. किसान धान की जगह किसी दूसरी फसल पर हाथ आजमाने के बारे में नहीं सोचते. 3 फीसदी ब्याज दर सहकारी बैंकों में चल रहा है, फिर भी पिछले साल केवल 600 करोड़ रूपये बांटे जा सके. अब सरकार ने चुनावी घोषणा को पूरा करते हुए खेती के लिए बिना ब्याज कर्ज देने की योजना शुरू कर दी है, तब भी मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की मानें तो यह आंकड़ा केवल 800 करोड़ तक पहुंच पाएगा. राज्य में करीब 48 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि है, जिनमें से सब्जी की खेती को भी जोड़ लिया जाए जिनमें गन्ना,फल आदि शामिल हैं, कुल रकबा 3 फीसदी से भी कम लगभग 1.5 लाख हेक्टेयर में दूसरी फसलें ली जाती हैं. धान जोखिम से परे खेती है. इसे बोने के लिए ज्यादातर खुद का श्रम किसान इस्तेमाल करते हैं. सामर्थ्य के अनुसार खाद बीज का इंतजाम कर लेता है. धान मुनाफा नहीं देता तो खास नुकसान भी नहीं होता. इन किसानों के पास ऐसे व्यवस्थित खेत नहीं है कि उन्नत बीज, असरकारी मंहगे खाद व सिंचाई सुविधा के साथ खेती करें. पारम्परिक खेती से उन्हें थोड़ा मिलता है, पर वह उन्हें फांसी पर लटकने की नौबत तक नहीं पहुंचना पड़ता. वे न मरै न मौटावै की स्थिति में हैं. यानि वह समृध्द भी नहीं है लेकिन मरने के कगार पर भी नहीं पहुंचा है. समृध्द नहीं हुए तो सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं, उनके लिए सिंचाई, बीज, खेतों को सुधारने व मिट्टी के उपचार का प्रबंध नहीं किया गया और किसान मरने से बच रहे हैं तो अपने सीमित साधन से असीमित श्रम करते हुए.
दरअसल, छत्तीसगढ़ के किसानों की दुर्दशा पर आत्महत्या के आंकड़ों को किनारे रखकर बात होनी चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होगा उर्वरा व खनिज सम्पदा से भरपूर अमीर धरती के किसान गरीब क्यों हैं, इस सवाल का हल नहीं तलाशा जा सकेगा. देश में कृषि भूमि का औसत सिंचित रकबा 42 फीसदी है, लेकिन छत्तीसगढ़ के सरकारी आंकड़ों में यह 30 प्रतिशत है. हालांकि वास्तविक सिंचित रकबा इससे भी कम 17 से 19 फीसदी ही है. कुल मिलाकर यहां सिंचित भूमि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. राष्ट्रीय औसत 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के मुकाबले छत्तीसगढ़ में धान उत्पादन का औसत केवल 13 क्विंटल है. सरगुजा और बस्तर जैसे आदिवासी इलाकों में तो यह केवल 5-6 क्विंटल है. शायद यही वजह है कि राज्य के 42 फीसदी परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं. उन्हें सरकार सस्ता चावल मुहैया करा रही है.
आत्महत्या, झगड़ों व दुर्घटनाओं की प्रमुख वजह शराब
आत्महत्याओं के मामले में समाज कल्याण मंत्री लता उसेंडी का वक्तव्य ज्यादा महत्वपूर्ण है. वे मानती हैं कि छत्तीसगढ़ के गांवों में अधिकांश कमाऊ परिवार के लोग नशे की आदत के कारण अपनी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा नशे पर खर्च कर देते हैं इससे वे अपने परिवार को पौष्टिक भोजन नहीं दे पाते, जिसके चलते बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं. सुश्री उसेंडी की चिंता गलत नहीं है, देश में सर्वाधिक 54 फीसदी कुपोषित बच्चे छत्तीसगढ़ में ही है, यह केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का आंकड़ा कहता है. छत्तीसगढ़ बेवरेज कार्पोरेशन की सालाना रिपोर्ट में पिछले साल मार्च में बताया गया है कि देश में शराब की खपत पंजाब और हरियाणा के बाद सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में है. इन परिवारों में मुखिया की आत्महत्या को किसान की आत्महत्या मानना तो ठीक नहीं होगा. छत्तीसगढ़ के अखबारों में हर रोज दो चार ख़बरे होती हैं, जिनमें लोग शराब के नशे में अपने ही सगे सम्बन्धियों पर हमले कर देते हैं. सड़क दुर्घटनाओं के ज्यादातर मामले छत्तीसगढ़ में शराब पीकर गाड़ी चलाने के कारण हो रहे हैं. यदि पारिवारिक कलह और बीमारी से भी कोई आत्महत्या हो रही है तो उसके जड़ में शराबखोरी मिल जाएगी.
भविष्य में खेती के चलते फांसी पर चढ़ेंगे किसान
रायपुर जिले में इस बार पिछले साल के मुकाबले इस साल 20 हजार एकड़ कम जमीन पर खेती हो रही है. नई राजधानी की योजना, नये उद्योग व कालोनियों के कारण यह परिस्थिति बनी है. राज्य के किसानों ने अभी तक उन्नत खेती पर ध्यान न दिया हो, लेकिन अब खेती की जमीन घट रही है और अपनी जमीन छीने जाने पर सरकार के ख़िलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, उससे साफ है कि वे भविष्य में कम जमीन में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए उन्नत खेती की ओर बढ़ेंगे. फिर वे मजबूरन धान बोना छोड़ेगे और कम जमीन में पंजाब महाराष्ट्र की तरह ज्यादा मुनाफा पाने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बीज खरीदेंगे और फसल तैयार कर उन्हें बेचने के लिए बड़ा कर्ज लेंगे. छत्तीसगढ़ सरकार ने एक लाख करोड़ एमओयू कर रखा है. यहां जिन्दल, टाटा-एस्सार जैसी दर्जनों कम्पनियां मंडरा रही हैं जो किसानों को निगलने के लिए उतारू हैं. रायगढ़ से लेकर बस्तर तक किसानों की जमीन बलात् जन सुनवाई कर हड़पी जा रही है. उपजाऊ खेतों पर चिमनियां रोपी जा रही हैं. आसार दिखते हैं कि भविष्य में ये सब आत्महत्याओं, हत्याओं के कारण बनेंगे. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह हाल ही में वित्त आयोग के साथ हुई बैठक में छत्तीसगढ़ में ज्यादा जंगल होने को अभिशाप बता चुके हैं.

किसानों की भूमि से जुड़ी और समस्याएं
छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक हत्याएं राजस्व मामलों को लेकर होती है, यह पुलिस के एक आला अधिकारी का कहना है. लेकिन अब आत्महत्याओं का दौर भी शुरू हो गया है. बीते 21 मई को बैंकुंठपुर थाने के छेलिया ग्राम में 10 साल के एक बच्चे की हत्या पत्थर मार-मार कर कर दी गई. 22 मई को इसी थाने में एक और बुजुर्ग की उसके ही रिश्तेदारों ने हत्या कर दी. उसके पिता के साथ आरोपी का जमीन विवाद चल रहा था. रायपुर के पास सिमगा में पुलिस ने माता, पिता और सगे भाई की हत्या के आरोप में बेटे समेत 22 लोगों को पुलिस ने अप्रैल माह में गिरफ्तार किया. जांजगीर जिले में दो परिवारों के बीच हुए विवाद में 4 लोगों की हत्या इसी साल हो गई. छत्तीसगढ़ के किसान जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि अब उनके बीच पुरखों की जमीन का बंटवारा होता जा रहा है और खेती से उनकी आय सीमित होती जा रही है. जांजगीर जिले के सरहर ग्राम में एक बुजुर्ग किसान फूलसाय की जमीन सरकार ने सड़क बनाने के लिए अधिग्रहित की थी, उसे मुआवजा सालों नहीं मिला. जगह-जगह फरियाद कर निराश हो जाने के बाद वह बीते 13 मई को आत्महत्या करने के इरादे से कलेक्टोरेट पहुंच गया. अफसरों ने उन्हें मनाया, आश्वासन दिया कि एक हफ्ते में मुआवजा मिल जायेगा. लेकिन पखवाड़े भर के इंतजार के बाद भी मुआवजा नहीं मिला. 30 मई को उस बुजुर्ग किसान के प्राण पखेरू उड़ गए. मुआवजा तो नहीं मिला-मौत मिल गई. दरअसल वह अपनी सांस की बीमारी का इलाज कराने के लिए मुआवजे की राशि हर हालत पाना चाहता था. हाल ही में राज्य में सुरेश यादव के मामले ने भी तूल पकड़ा. राजधानी से केवल 20 किलोमीटर दूर सिंगारभाठा ग्राम के सुरेश की आत्महत्या ने किसानों को लेकर सरकार की संवेदनहीनता और भ्रष्ट राजस्व अमले की करतूत को उजागर कर दिया. कांग्रेस ने इसे लेकर पैदल मार्च किया और भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया. दबाव में आई सरकार ने उसके परिवार को मुआवजा दिया. सुरेश की 9 साल पहले खरीदी गई जमीन तहसीलदार और पटवारियों ने रिश्वत लेने के बाद भी उसके नाम नहीं चढ़ाई. पूरे प्रदेश में राजस्व अमले का यही हाल है. ई-गवर्नेंस के लिए अपनी पीठ थपथपा रही सरकार का यह हाल है. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू कहते हैं कि सरकार अब पूरे प्रदेश में राजस्व दस्तावेजों को सुधारने के लिए अभियान चलाएगी. आदिवासी इलाकों में स्थिति और बदतर है. रायपुर जिले में जहां सिंचाई का प्रतिशत 46 फीसदी है वहीं रायगढ़ जिले में केवल 7 फीसदी, सरगुजा और बस्तर के सारे जिले केवल 3 फीसदी सिंचित हैं. रायगढ़-जशपुर से टमाटर की खेती खत्म हो चुकी है, कभी यहां फूड प्रोसेसिंग प्लांट लगाने की बात की जाती थी लेकिन अब इसकी कोई गुंजाइश नहीं बची है. नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में माओवादी हिंसा व सलवा जुड़ूम अभियान से सबसे ज्यादा नुकसान खेती को हुआ. जिले के 738 गांवों के 28 हजार से ज्यादा किसान अपना घर बार खेत छोड़कर पलायन कर चुके हैं. वे या तो सरकारी कैम्पों में हैं अथवा सीमावर्ती राज्यों में चले गए हैं. नक्सली हिंसा के चलते 30 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि बंजर में तब्दील हो रही है.
छत्तीसगढ़ के किसानों की दुर्दशा आत्महत्या करने वाले किसानों के घर में झांकने से जितना नहीं मिलेगा, उससे ज्यादा कहीं गांवों, खेतों. जंगलों और सरकारी फाइलों में भटकने से मिलने वाला है. अलग-अलग कारणों से की गई आत्महत्याओं को अलग रखें और जिंदा रहकर तिल तिल मर रहे किसानों की सुध लेने सरकार को मजबूर किया जाए.