देश की एक अरब की आबादी में अब तक केवल 57 ऐसे लोगों की पहचान हो पाई जिनका ब्लड ग्रुप-बाम्बे ब्लड ग्रुप है। ऐसे में एक मासूम बालक के दिल में सुराख का आपरेशन कराने के लिए 3 यूनिट बाम्बे ब्लड की जरूरत पड़ी। गरीब मां बाप अरविन्द के जीने की आशा छोड़ चुके थे। रिपोर्टर असलम ने मीडिया की पहुंच का इस्तेमाल किया और अरविन्द का सफल आपरेशन हो सका।
ऐसी हर खबर जो सनसनी फैलाए, पाठकों की संवेदनाओं को झकझोर दे, किसी भी अखबारनवीस के लिए बड़े काम की होती है। प्रेस रिपोर्टर और प्रेस छायाकार हर दिन किसी अनूठी खबर की तलाश सुबह से शुरू करते देर रात तक तैयार कर लेते हैं।
छप जाने के बाद अगली सुबह फिर किसी नई खबर की खोज शुरू हो जाती है। दैनिक अखबारों में काम करने वाले रिपोर्टरों के पास अपने कोटे की खबरें तैयार कर एक तय समय पर देने का दबाव होता है और वह अपने नाते-रिश्तेदारों के सुख-दुख के लिए भी बहुत कम समय निकाल पाता है। ऊपर से कस्बों में काम करने वाले पत्रकारों की पगार इतनी कम होती है कि अपने परिवार के लिए रोजमर्रा का इंतजाम कर लेने में ही सुख की अनुभूति कर लेता है। उनके भीतर आमतौर पर समाज का पहरेदार होने का भाव अहंकार भी पैदा कर देता है, जो किसी की भलाई करने से उन्हें रोकता है।
ऐसी हालत में अगर कोई रिपोर्टर किसी दलित, गरीब गंभीर ह्रदय रोग से पीड़ित बच्चे के निराश हो चुके माता-पिता के दुख में खुद को शामिल कर लेता है और देशभर में मदद की गुहार लगाकर बालक का जीवन बचाने में सफल हो जाता है तो सुखद अनुभूति होती है।
इस मार्मिक घटना का अंत बहुत सुखद है और जिसके चलते एक 90रूपए की रोजी कमाने वाला बढ़ई अपने गरीब बच्चे के पीछे दो लाख रूपए का इंतजाम कर दुर्लभ आपरेशन करा सका है। सवाल केवल रुपए का नहीं, यहां पर उससे भी बड़ा पहाड़ था बाम्बे ब्लड ग्रुप का प्रबंध करना। इस ग्रुप का खून न केवल हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में बहुत कम लोगों में पाया जाता है। हिन्दुस्तान की एक अरब से अधिक की आबादी में अब तक केवल 57 लोगों की पहचान हो पाई है, जिनका ब्लड बाम्बे ग्रुप का है।
बिलासपुर छत्तीसगढ़ के स्लम एरिया में रहने वाले बढ़ई अश्वनी कुमार बघेल के 6 साल के बेटे के बारे में यहां के एक दैनिक अखबार में काम करने वाले रिपोर्टर छायाकार असलम को तब मालूम हुआ जब वह किसी खबर के लिए यहां के अपोलो हास्पीटल में पहुंचा। वहां किसी से बातचीत के दौरान ही पता चला कि एक बालक यहां कल तक भर्ती था, जिसके ह्रदय में सुराख था। डाक्टरों ने उसे इस लिए डिस्चार्ज कर दिया क्योंकि उस बालक का ब्लड ग्रुप बाम्बे है, जो अत्यन्त सीमित है। इस बालक के लिए राज्य सरकार ने संजीवनी राहत कोष से राशि मंजूर की थी, जिसे अपोलो प्रबंधन ने दो दिन का खर्च काटकर वापस भेज दिया, अपनी रिपोर्ट में बिना इस बात का जिक्र किए कि अरविन्द का इलाज नहीं हो पाया है। असलम को लगा कि यह खबर बनती है। उसने बताए पते पर जाकर अरविन्द और उसके माता-पिता की तलाश शुरू की। पहले पन्ने की खबर बनी। छपने के बाद बहुत से पाठकों को मालूम हुआ कि कोई ऐसा ब्लड ग्रुप है, जिसकी उपलब्धता अत्यन्त दुर्लभ है। छपने के बाद असलम इस खबर से अलग नहीं हो पाया। मासूम अरविन्द अपनी बीमारी की गंभीरता से अनजान था, और मोहक मुस्कान लिए खेलता था पर थोड़ी ही देर में हांफने लगता था। गरीब, दलित और मामूली पढ़े लिखे मां-बाप अपने बेटे के बचने की उम्मीद पूरी तरह छोड़ चुके थे। उनकी लाचारी-बेबसी असलम को परेशान कर रही थी।
इस बीच शहर के सारे अखबारों में मासूम अरविन्द की खबर आई।
अपोलो हास्पीटल के डाक्टर भी इसके बाद फिर सक्रिय हुए। असलम के सम्पर्क करने पर उन्होंने कहा कि 4 यूनिट बाम्बे ब्लड यदि उन्हें मिल जाता है तो वे अरविन्द का आपरेशन कर देंगे। असलम ने अरविन्द के लिए रक्त जुटाने के काम को एक मिशन की तरह लिया। उसने खबर छापने के बाद इंटरनेट का सहारा लिया। दर्जनों वेबसाइट्स में उसने तलाश की क्या बाम्बे ब्लड ग्रुप का कोई दानदाता मिलेगा? असलम को इससे खास मदद नहीं मिली। अपोलो हास्पीटल प्रबंधन ने कुछ गंभीर होकर बाम्बे ग्रुप के ब्लड की तलाश की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। यहां के प्रबंधकों ने बताया कि उन्होंने देशभर के नामी ब्लड बैंकों में पता लगा लिया है, कहीं पर भी इसकी उपलब्धता नहीं है। असलम ने न्यूयार्क में दुनिया के सबसे बड़े माने जाने वाले ब्लड बैंक, न्यूयार्क ब्लड बैंक को भी मेल किया और अरविन्द के लिए बाम्बे ब्लड की मांग की। वहां से जवाब आया कि बेहतर होगा, आप हिन्दुस्तान में ही तलाश करें।
असलम इस पर भी निराश नहीं हुआ। तलाश के दौरान कोरबा के एक युवक का पता चला, जिसका रक्त बाम्बे ग्रुप का था। भगीरथ यादव नाम का यह युवक जन्म से ही दोनों पैरों से अशक्त है। अरविन्द की पीड़ा सुनकर वह तत्काल खून देने के लिए तैयार हो गया। इस तरह एक शुरूआत हो गई। लेकिन अभी भी 3 यूनिट और खून की जरूरत थी। मीडिया से जुड़े असलम ने अपनी ताकत इस तरफ भी लगाई। याहू ग्रुप के अलावा देश भर में रक्तदाताओं के लिए काम करने वालों का वेबसाइट्स में पता लगाना शुरू किया। अनेक लोगों से मेल पर जानकारी शेयर की गई और मेसेन्जर पर चर्चा हुई। इसके चलते जल्द ही अरविन्द का मामला तमाम राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से देश-विदेश में पहुंच गया। जी न्यूज, सहारा न्यूज, ईटीवी, बीबीसी हिन्दी डाटकाम, इंडिया टुडे आदि में अरविन्द की हालत पर समाचार बने। स्टार न्यूज ने इस पर 3 मई 2007 को लाइव विशेष रिपोर्ट प्रसारित किया। आईबीएन7 ने इस पर 30 मिनट तक अरविन्द की दास्तां दिखाई। जिसका शीर्षक दिया- अंकल मुझे बचा लो। देश भर के लोगों के इन दफ्तरों में फोन आए और लोगों ने असलम तथा अरविन्द के पिता अश्वनी से सम्पर्क शुरू कर दिया।
अपोलो ने हाथ खींचा
भगीरथ यादव ने सबसे पहले एक यूनिट खून दिया। इसके बाद राऊरकेला के एक भले आदमी ने आकर अपोलो में अपना ब्लड दिया और अरविन्द से मिले बगैर ही वापस चला गया। मुम्बई के डोम्बीवेली से एक अपरिचित एमआर ने अपने खर्च पर वहां के किसी ब्लड बैंक से एक यूनिट ब्लड खरीदा और उसे सुरक्षित अपोलो छोड़ गया।
इस तरह से इस विशाल देश में चिन्हित बाम्बे ब्लड ग्रुप के 57 लोगों में से ऐसे 3 लोगों की तलाश हो गई जिन्होंने अपना रक्त अरविन्द के लिए दिया । अपोलो के चिकित्सक डा. संजय जैन 3 यूनिट पर भी अरविन्द का आपरेशन करने के लिए तैयार हो गए। लेकिन आपरेशन की तय तिथि के ठीक एक दिन पहले वे अपना हौसला खो बैठे और यहां की सुविधाओं में कमी का हवाला देते हुए आपरेशन स्थगित कर चैन्नई अपोलो रिफर कर दिया। अरविन्द का पिता निराश हुआ लेकिन उम्मीद तो छोड़ी नहीं जा सकती थी। वह अरविन्द को लेकर चैन्नई गया। वहां के डाक्टरों ने और भी हताश कर दिया। उन्होंने कह दिया कि 3 यूनिट ब्लड से तो कुछ नहीं हो पाएगा, कम से कम 6 यूनिट की जरूरत पडे़गी। यह भी कहा गया कि जो खून अपोलो बिलासपुर के ब्लड बैंक में जमा है, वह अरविन्द के किसी काम नहीं आएगा और उन्हें फ्रेश खून की जरूरत पड़ेगी।
इसके बाद लगातार प्रयास जारी रहे। अनेक लोगों के फोन आते रहे और अपनी ओर से मदद करने की कोशिश करते रहे।
रायगढ़ के सतीश सिंह ठाकुर और टाटानगर, जमशेदपुर के अमिताभ कुमार सिंह ने ब्लड देने की इच्छा जताई और कहा कि वे जहां उनकी जरूरत हो पहुंचने के लिए तैयार हैं। एक टेलीकाम इंडस्ट्री के चीफ मैनेजर बी एस श्रीधर, जो बैंगलोर से ही हैं, अपना रक्त देने के लिए तैयार हो गए। इस बीच अपोलो बिलासपुर में जमा कराया गया दुर्लभ रक्त खराब हो चुका था।
इसी बीच असलम को उसके एक मित्र ने बैंगलोर के एक अस्पताल नारायण ह्रदयालय बैंगलोर का पता दिया और कहा कि वहां पर कम खर्च में अच्छी सुविधाओं के साथ अरविन्द का आपरेशन हो सकता है। उस हास्पीटल ने अच्छा सहयोग दिया। यहां असलम ने अस्पताल के चेयरमैन डा. देवी शेट्ठी से सम्पर्क किया। डाक्टर ने कहा कि वे कम से कम खर्च पर अरविन्द का इलाज करेंगे और बाकी ब्लड की भी व्यवस्था करेंगे। नारायण ह्रदयालय बैंगलोर, वही हास्पीटल है, जहां पाकिस्तानी बच्ची नूर के ह्रदय का आपरेशन हुआ था, जिसकी देशभर में चर्चा थी।
इसके बाद आपरेशन की तय तारीख के 15 दिन पहले 7 अक्टूबर को अरविन्द और उसके परिजन बैंगलोर पहुंच गए। बाद में असलम और दोनों रक्तदाता अमिताभ और सतीश भी वहां पहुंचे। 24 अक्टूबर को डा. सी रेड्डी और डा. संदीप के साथ 4 डाक्टरों की टीम ने अरविन्द का 4 घंटे में सफल ओपन हार्ट सर्जरी की।
अब अरविन्द अपने घर लौट चुका है और हाल ही में उसने अपना आठवां जन्मदिन मनाया।
अरविन्द के साथ सबको हमदर्दी रही। जाने कितने लोगों ने अपनी अपनी भूमिका निभाई। बलौदा कालेज में पढ़ाने वाली शिवकुमारी कुर्रे, नोविनो बैटरी के अधिकारी ए के पौराणिक, राकेश बाटवे, सुनील मित्तल, प्रमोद अग्रवाल, निखिल उपाध्याय, अफजल हुसैन, मीना लुसानी- कुवैत आदि ने अपनी अपनी तरफ से मदद दी। अरविन्द के मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और राजस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने विशेष रूचि लेकर संजीवनी कोष से राशि स्वीकृत की, इसके बावजूद की राज्य के अनुमोदित अस्पतालों में नारायण ह्रदयालय का नाम नहीं था। एसईसीएल बिलासपुर ने भी जरूरत के अनुसार आर्थिक सहायता दी।
अरविन्द के मामले में असलम ने दुर्लभ बाम्बे ब्लड समूह की खोज के लिए अब बाम्बे ब्लड हेल्पलाइन रक्तदाताओं के सहयोग से बनाया है और इसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। असलम की संस्था से वह हर कोई जुड़ सकता है। संस्था का उद्देश्य है कि लोगों के रक्त समूह की पहचान के लिए देश भर में अभियान चले और इसमें से खासतौर पर बाम्बे ब्लड ग्रुप वालों की पहचान की जाए। आप अब्दुल असलम से सम्पर्क करना चाहते हैं तो उनका ई-मेल आईडी है bombayblood.bsp@rediffmail.com और aslamimage@rediffmail.com.
गुरुवार, 29 नवंबर 2007
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