विधानसभा के बीते सत्र में अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने विधायकों को छूट दी कि वे छत्तीसगढ़ी में सवाल करें, मंत्री उनका जवाब भी छत्तीसगढ़ी में देंगे. लेकिन हैरानी हुई कि तकरीबन 20 दिन चले इस सत्र में हजार से ज्यादा सवालों के बीच छत्तीसगढ़ी गायब थी. तीसरी विधानसभा के पहले सत्र में 90 में से केवल 10 विधायकों ने छत्तीसगढ़ी में शपथ ली. यह आईना है, छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी की हैसियत का. जिस तरह ज्यादा पढ़े-लिखे हिन्दी भाषाभाषी हिन्दी जानते हुए भी आपस में अंग्रेजी में बात करके खुद को ज्यादा सभ्य साबित करने की कोशिश करते हैं कमोबेश यही हाल छत्तीसगढ़ियों का है. छत्तीसगढ़ में इन दिनों नारा चल निकला है, छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया! लेकिन सबसे बढ़िया छत्तिसगढ़िया वे हैं, जो हिन्दी या अंग्रेजी बोलते हैं.
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीते साल विधानसभा ने सर्वसम्मति से इसे हिन्दी के साथ राजभाषा के रूप में स्वीकार किया. राज्य बनने के बाद यह सुविधा है कि स्थानीय महत्व के मुद्दों पर हमें अधिक संघर्ष की जरूरत नहीं पड़ रही. छत्तीसगढ़ी से प्रेम रखने वालों का यह सौभाग्य है कि इसे राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए सड़क पर उतरकर लाठी गोलियां नहीं खानी पड़ी. सरकार ने छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग का भी गठन किया, जो इस समय छत्तीसगढ़ी का एक मान्य व्याकरण, शब्दकोष इत्यादि तैयार कर रहा है.
बीते 21 फरवरी को यूनेस्को ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया. इस मौके पर जारी एक रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गई कि सन् 2050 के आते-आते दुनिया से 90 फीसदी भाषाएं खत्म हो जाएंगी. विश्व की 6000 भाषाओं में से 3000 का अस्तित्व खतरे में है. पिछली 3 पीढ़ियों में 200 भाषाएं खत्म हो चुकीं, 538 खत्म होने के कगार पर हैं, 632 असुरक्षित हैं और 607 भाषाएं जल्द असुरक्षित हो जाएंगी. हमें आशा है कि 41 साल बाद खत्म भाषाओं की सूची में छत्तीसगढ़ी नहीं होगी. रिपोर्ट कहती है कि युवा अपनी स्थानीय मूल भाषा सीखें और उसे व्यवहार में लाएं. पर देखा गया है कि वे अपने कैरियर को ध्यान में रखते हुए शक्तिशाली भाषाओं को सीखना चाहते हैं. रिपोर्ट कहती है कि अधिक से अधिक भाषाएं जानना हमेशा अच्छा है, लेकिन हम पर अपनी भाषा को संरक्षित करने का दायित्व है. भाषाओं के साथ उसकी परम्पराएं और सभ्यताएं पनपती और फलती-फूलती है, जिसे बचाना बड़ी चुनौती है.
राजभाषा के लिए संघर्ष करने वालों की सदैव चिंता रही है कि बोलचाल में छत्तीसगढ़ी इस्तेमाल की जाए, लेकिन यह नहीं हो पा रहा है. पिछले दिनों हिन्दी और आंचलिक बोलियों के आपसी सम्बन्धों पर रायपुर में एक सेमिनार था. छत्तीसगढ़ के विद्वानों के अलावा राहुल देव, विश्वनाथ सचदेव, प्रो. अमरनाथ आदि यहां पहुंचे. उनके विचारों में भिन्नताओं के बावजूद एक स्वर उभरा कि भाषाएं वे ही पनप सकती हैं, जो उन्हें रोजगार के मौके दें. जरा सोचें, छत्तीसगढ़ी को हम इस मापदण्ड पर कहां खड़ा हैं? सड़क, बिल्डिंग का ठेकेदार छत्तीसगढ़ चाहे थोड़े दिन पहले ही आया हो, घर में अपने प्रदेश की बोली बोलता हो, पर जब मजदूर, गरीब, खेतिहर से काम लेता है तो छत्तीसगढ़ी सीखता है. वही ठेकेदार जब अफसरों के पास बिल ले जाएगा तो छत्तीसगढ़ी बोलने पर उसे उपेक्षित होने का भय बना रहेगा.
राजभाषा पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में बिल पेश किया गया तो मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा कि छत्तीसगढ़ी बहुत मीठी बोली है और राज्य के लोगों के आपसी संवाद का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है. पर सरकार नहीं बता पायेगी कि विधानसभा में अनुवादकों की व्यवस्था करने के बाद भी इस मीठी बोली में सवाल क्यों नहीं किए. विपक्ष से रविन्द्र चौबे ने बिल पेश करने के दौरान सवाल उठाया कि छत्तीसगढ़ी को अकेले अधिकारिक भाषा के रूप में क्यों नहीं रखा जा रहा है, इसे हिन्दी के साथ क्यों जोड़ा गया. कुछ नेता ज़मीनी सच्चाई जानते हुए भी ऐसा कह देते हैं. जाने अनजाने उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की ख़िलाफत कर दी. छत्तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ियों का भावनात्मक लगाव है, भले इसे वे बोलचाल से गायब कर रहे हों. राजनेता यह बात जानते हैं. चुनाव के वक्त जहां निर्णायक गरीब मतदाताओं की भीड़ हो, सभी दल छत्तीसगढ़ी में बात करते दिखेंगे. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह में भी छत्तीसगढ़ी बोलकर भीड़ को लुभा लेने की क्षमता विकसित हुई है. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व सांसद पवन दीवान आदि पारंगत हैं ही.
पता नहीं क्यों छत्तीसगढ़ी बोला जाना छत्तीसगढ़ियों के लिए ही कौतूहल बना हुआ है. हमारे कंठ पर तो इसे सदैव सहज बसना चाहिए. इसके कुछ कारण दिखते हैं. एक नवंबर 2000 के पहले तक छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा रहा, जहां छत्तीसगढ़ी के अलावा बुंदेलखंडी, मालवी, बघेली और अवधी भी बोली जाती थी. प्रशासनिक कामकाज हिन्दी में होते थे. मध्यप्रदेश का हिस्सा होने के कारण राजनैतिक, प्रशासनिक सामंजस्य व पाठ्य पुस्तकों को एकरूप हिन्दी के माध्यम से ही बनाया जा सका. अवसरों में भागीदारी के लिए छत्तीसगढ़ियों को जरूरी था कि वे मध्यप्रदेश के निवासी के रूप में जाने जाएं. छत्तीसगढ़ बनने के 8 साल बाद अब छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा मिला है. इस बीच पूरी दुनिया में बहुत तेजी से अनेक परिवर्तन हुए हैं. पिछले कुछ दशकों के भीतर समाज में बाजार का प्रभाव बढ़ा है, सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने की चिंता करने वाले लोग घटे हैं. तकनीकी शिक्षा, जिसके प्रति युवा पीढ़ी का रूझान है वे ज्यादातर अंग्रेजी अथवा हिन्दी में हैं. राज्य में औद्योगिक, व्यापारिक गतिविधियां बढ़ी हैं, जिनमें निवेश करने वाले लोग देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से पहुंचे हैं. हाल के मंदी के असर को छोड़ दें तो लोगों का उपभोक्ता वस्तुओं की तरफ लगाव बढ़ा है. सार्वजनिक मंचों, विद्यालयों में राज्य की संस्कृति से सम्बन्धित गतिविधियों को केबल टीवी के कार्यक्रमों ने दबोच रखा है. शासकीय संरक्षण में होने वाले सांस्कृतिक आयोजन जिनसे राज्य की विशेषताओं को उभारने का अवसर मिल सकता है, सीमित हैं तथा आम लोगों की पहुंच से दूर हैं.नई पीढ़ी, जिनके हाथों में कल का छत्तीसगढ़ है गिल्ली डंडा या कबड्डी पसंद नहीं करते, उसे क्रिकेट पसंद है. अमरसा या ठेठरी खुरमी उसे नहीं भाता, वे चाऊमिन और नूडल्स के शौकीन हैं. वे चंदैनी, पंडवानी, ददरिया, गम्मत से दूर हैं, अब गांव-गांव, डिस्को पाप राक डांस काम्पीटिशन हो रहे हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे दूसरों से बराबरी कर पाएंगे. ऐसे में अपनी बोली के प्रति भी उनमें मोह नहीं जागा. अमीर धरती के गरीब लोगों के इस छत्तीसगढ़ में यह धारणा बनी कि जो निर्धन है, छत्तीसगढ़ी भाषा, कलाएं, सभ्यता उसकी है.
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में इस परिवर्तन की बयार तेजी से फैली. बस्तर, सरगुजा, जशपुर इलाकों में औद्योगिक व अधोसंरचनाओं का विकास धीमा रहा है. इसलिये छत्तीसगढ़ी पर संकट राज्य की दूसरी भाषाओं, बोलियों के मुकाबले ज्यादा है. छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के बाद जरूरी होगा कि इसे प्राथमिक स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल करें. वरना कुछ दिनों के बाद जो बच्चे स्कूल पहुंचेंगे वे चिरई, रद्दा, कुरथा, कुरिया जैसे सरल शब्दों का मतलब भी नहीं जानेंगे. छत्तीसगढ़ी में ज्यादा से ज्यादा प्रशासनिक कामकाज हों, इसकी पहल राजनेताओं को करनी होगी फिर अफसर इसे खुद-ब-खुद अपने पर लागू कर लेंगे. छत्तीसगढ़ी साहित्य और अन्य लोक विधाओं में निरन्तरता होनी चाहिए. नई पीढ़ी का रूझान बढ़ाने के लिए इसमें नये प्रयोग किए जायें और सृजन की गुणवत्ता पर ध्यान तो देना ही होगा. लगता है कि राजभाषा का दर्जा देने के लिए जितना जूझना पड़ा, वह संघर्ष का एक पड़ाव ही था. लक्ष्य अभी हासिल करना है, जिसमें सरकार के साथ समाज को भी जवाबदेह होना होगा.
दूसरी बोलियों का क्या होगा?
राज्य बनने के 8 साल बाद छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिलाने की पहल हुई. पर यहां की दूसरी भाषाओं के संरक्षण की जिम्मेदारी कौन निभाए? अक्सर कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ी दो करोड़ लोगों की भाषा है. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि दूसरे राज्यों से प्रभावित मिश्रित छत्तीसगढ़ी बोलने वालों को मिलाकर भी इसे बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ 15 लाख के आसपास है. तब हमें चिंता करनी चाहिए उन लोगों की जिनकी बोली 2 करोड़ 8 लाख की आबादी वाले छत्तीसगढ़ में रहते हुए भी छत्तीसगढ़ी नहीं है. ये हिन्दी भी ठीक तरह से नहीं समझ पाते. छत्तीसगढ़ी बोली के विकास पर सरकारी पहल अन्य बोलियों की कीमत पर नहीं होनी चाहिए. अकेले गोंडी बोलने वालों की संख्या 20 लाख से अधिक है. उत्तर व दक्षिण बस्तर की गोंड बोलियों में काफी फर्क भी है. यहां भतरी, हलबी, पारजी, दोरली आदि अनेक बोलियां हैं. इसी तरह सरगुजा और जशपुर में मैदानी हिस्से तो छत्तीसगढी से वाकिफ हैं पर कुड़ुक, सादरी, सरगुजिहा, जशपुरिहा आदि बोलने वालों की तादात भी लाखों में हैं. अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को अपने पारम्परिक तौर तरीकों से संभाले हुए ये लोग ज्यादा कठिनाई में हैं. प्रशासन इन तक पहुंचता नहीं. वे प्रशासन की भाषा से ही नहीं उसके रवैये से भी अनजान हैं. सिंचाई, सड़क, शिक्षा की सुविधाएं यहां काफी कम है. इन इलाकों में फसल छत्तीसगढ़ के दूसरे हिस्सों से एक तिहाई है और मजदूरी आधी. शोषण-कुपोषण यहां सबसे ज्यादा है. नाबालिग लड़कियों के खरीद फरोख्त हो रही है. ये दुर्गम पहाड़ी इलाके हैं, जहां सरकार पहुंचना भी नहीं चाहती, जबकि राज्य के निर्माण के बाद इनको भी रायपुर, बिलासपुर संभागों की तरह सहूलियतें मिलनी चाहिए थी. विकास व सेवाओं का असंतुलन दूर करने के लिए बजट तो दिए जाते हैं पर निगरानी का अभाव है और यहां के लोगों की राय पर काम नहीं होते. ऐसी स्थिति में राजभाषाओं की सूची में इन बोलियों को चाहे तो न भी जोड़ें, लेकिन प्रशासन इतना सक्षम तो हो कि उनकी भावनाओं में, उन्हीं की बोलियों में उनकी जरूरतों को समझे और उनकी समस्याएं दूर करे.
बस्तर में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी ने बीते साल 2 दिसम्बर से एक हफ्ते तक अपने संगठन की स्थापना की वर्षगांठ मनाई. इस दौरान उन्होंने जगह-जगह अपनी मांगों के परचे चिपकाए. इनमें छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का विरोध भी शामिल था. सन् 2001 में मुख्यमंत्री रहते हुए अजीत जोगी ने जब छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा देने की घोषणा की तो बस्तर के अख़बारों में नक्सलियों ने बयान भेजकर ऐसा फैसला नहीं लेने की चेतावनी दी. बस्तर के आदिवासियों का भरोसा जीतने व बाकी छत्तीसगढ़ियों से उन्हें अलग बताने के लिए नक्सलियों के पास एक मुद्दा यह भी है. समझा जा सकता है कि भाषा का मामला कितना संवेदनशील है. सब मानते हैं कि नक्सल केवल कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है. हम जब बस्तर में शांति की स्थापना व वहां के विकास की बात करते हैं, तो पहले हमें उनकी भाषा को साफ समझने वाला महकमा तैनात करना होगा. तब शायद बराक ओबामा जिन्हें छत्तीसगढ़ी जानने वालों की जरूरत है और यूनेस्को जो भाषाओं के खत्म होने पर चिंतित है, के सामने हम अपने राज्य की बेहतर तस्वीर पेश कर सकेंगे.
शनिवार, 7 मार्च 2009
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