-राजेश अग्रवाल
लोक में रचा-बसा गणेशोत्सव पर होने वाला एक अलौकिक गम्मत
यह गम्मत वह नहीं है जिसमें नचकहर और जोक्कर पब्लिक को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. न ही यह नाचा में दिखाई देने वाला टुकड़े-टुकड़े में गूंथने के बाद भी बिखरे-उलझे छत्तीसगढ़ी और हिन्दीफिल्मी गीतों का ताना-बाना है. यह तो हर साल गणेश पूजा पर होने वाला अलौकिक गम्मत है, जिसका हर पात्र संगीत व नृत्य के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने का प्रयास करता है. क्योंकि इसमें है श्रीमद्भगवतगीता के दशम अध्याय का वर्णन. हैरत की बात यह भी है कि इस गम्मत में छत्तीसगढ़ी का भी कहीं समावेश नहीं,फिर भी रतनपुर की लोक-संस्कृति में अगर कुछ रचा-बसा है तो वह केवल यह गम्मत है.
महामाया शक्तिपीठ रतनपुर की पवित्र धार्मिक विरासत है. कलचुरी, मराठा शासकों के इतिहास के बिम्ब भग्न किले छत्तीसगढ़ की इस प्राचीन राजधानी ऐतिहासिक राजसी वैभव के प्रतीक हैं और 350 साल पुराना बाबू रेवाराम श्रीवास्तव का गम्मत हमें रतनपुर के सांस्कृतिक-साहित्यिक गौरव से पहचान कराता है. रतनपुरिहा गम्मत भक्तिकालीन कवियों की चुनी हुई रचनाओं का अद्भुत संग्रह है. सूरदास, कबीर, मीराबाई, रसखान जैसे अमर रचनाकारों के छंद तो इसमें लिये ही गये हैं. चंद्रसखी जैसे अनेक भक्तिकालीन कवि जिनके दस्तावेज और कहीं अब शायद ही कहीं मिल सकें, वे बाबू रेवाराम के गुटके में मिलता है. कृष्ण के जीवन के विभिन्न प्रसंगों को बाबू रेवाराम ने इन कृतियों से बीनकर कुछ इस तरह पिरोया है कि पूरी कृष्ण लीला ने एक मौलिक व सम्पूर्ण आकार ले लिया है. रचनाओं का चयन करते समय बाबू रेवाराम ने इस बात का ध्यान रखा कि किस कवि की रचना का कौन सा भाग आम लोगों को कृष्ण की लीला को सरलता से समझा देता है. अनूठी बात यह है कि जब कथानक के किसी हिस्से को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें कोई रचना ठीक नहीं लगी तो उन्होंने वहां खुद दोहे लिखकर जोड़ दिये.
बाबू रेवाराम की कृतियां नष्ट
बाबू रेवाराम छत्तीसगढ़ के उन रचनाकारों में हैं, जिनकी विद्वता से हजारी प्रसाद द्विवेदी भी प्रभावित थे, लेकिन उनकी रचनाओं को सहेजा नहीं जा सका. बिलासपुर जिले के अधिकांश देवी मंदिरों में गाये जाने वाले जसगीतों के रचनाकार बाबू रेवाराम ही हैं. कुछ इतिहास के जानकार तो यह आरोप लगाते हैं कि उनकी जाति उनकी कृतियों को प्रकाश में लाने में आड़े आई. यह तब की बात है जब विद्वता और पांडित्य में केवल ब्राम्हणों का वर्चस्व था. यह बात पता नहीं कितना सच है लेकिन रतनपुर के लोगों से बातचीत करने में दो बातें गौर करने लायक सुनने को मिलती है. एक तो यह कि उनकी रचनाओं को महामाया मंदिर में ही सहेज कर रखा गया था. लेकिन अब से सौ-सवा सौ साल पहले किसी विध्नसंतोषी ने उन पांडुलिपियों को फाड़-फाड़ कर प्रसाद बांट दिया और बहुमूल्य कृतियां नष्ट हो गईं. रतनपुर को लहुरी-काशी भी कहा जाता था, क्योंकि काशी से संत-विद्वान जगन्नाथ पुरी की यात्रा के लिये निकलते थे तब यहां विश्राम करते थे. दूसरी बात कही जाती है कि बाबू रेवाराम भी विद्वान थे लेकिन उन्हें इन संतों विद्वानों से शास्त्रार्थ करने के लिये उनके बराबर नहीं बैठ सकते थे. एक बटुक के माध्यम से वे वाद-विवाद करते थे. बाबू रेवाराम के जिस गुटके के आधार पर रतनपुरिहा गम्मत का मंचन होता है, उसका भी अधिकारिक प्रकाशन अब तक नहीं हो सका है. स्थानीय स्तर पर रेवाराम साहित्य समिति ने उनके गुटके का प्रकाशन कराया है, जो अधूरा ही है.
इस बार भी गम्मत एकादशी से
गणेश चतुर्थी के बाद आने वाली भादो एकादशी से यह गम्मत शुरू होकर पांच दिन चलता है. इसलिये इसे भादो गम्मत भी कहा जाता है. पहले दिन गुटका की पूजा व मंगल आरती होती है. दूसरे दिन कृष्ण जन्म और पूतना वध, तीसरे दिन से रास लीला के विभिन्न प्रसंगों का गायन-वादन होता है. तब यह गम्मत से कहीं ज्यादा रहस के करीब लगता है. रात 9-10 बजे से तीसरे पहर तक चलने वाले इस गम्मत के आखिरी दिन सुबह हो जाती है. इस दिन भगवान अतर्धान होते हैं. सखियों के विलाप के प्रसंग में जैसे दर्शक अपने आपको खुद भी शामिल कर लेता है. पर अंत सुखद होता है, क्योंकि उधो सखियों को शरीर की नश्वरता और आत्मा से परमात्मा तक पहुंचने का संदेश कृष्ण की ओर से सुनाते हैं.
आयोजन में खर्च यूं तो ज्यादा नहीं होता लेकिन सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये गम्मत दल घरों घर निमंत्रण देने जाता है और उनसे चंदा भी लिया जाता है. रतनपुरिहा गम्मत की प्रस्तुति के साथ कोई व्याख्या नहीं की जाती. इसमें संवादों की जगह ही नहीं है. चूंकि अलग-अलग कवियों के दोहों का छंद विन्यास भिन्न-भिन्न है अतएव इनकी संगीत संरचना भी विविधता से भरपूर है. कहीं तीव्र कहीं मध्यम, कहीं पर सुगम तो कहीं शास्त्रीय. श्रोता इसका भरपूर आनंद लेते हैं. कुछ तो इतने कठिन रागों में निबध्द है कि गायकों की टोली कई-कई साल तक ठीक तरह से गाने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं और कुछ इतने सरल कि यदि कोई अपनी गायकी को आजमाना चाहे तो वह दर्शक दीर्घा से उठकर मंच पर भी बैठ जाता है. पांच दिनों की पूरी प्रस्तुति बाबू रेवाराम के उपलब्ध गुटके से ही होती है. इस गम्मत में भी परियां होती है, जोकर होते हैं. चूंकि भक्ति का कार्य है तो आजकल तो गांव की बेटियां भी निःसंकोच गोपियां व राधा बनकर मंच पर आने लग गई हैं.
रतनपुर की रगों में दौड़ता है गुटका
रतनपुरिहा गम्मत की नई पीढ़ी बहुत धीमे गति से तैयार हो रही है. हाल के दिनों में कोई नई टोली नहीं बनी है. यह आसान भी नहीं है. इतना वक्त नई पीढ़ी के पास नहीं कि वे कई-कई दिन रियाज कर गम्मत गायन में पारंगत हो सके. फिर भी इस समय रतनपुर के करैया पारा, बाजार पारा, भेड़ी मुड़ा और महामाया पारा में रतनपुरिहा गम्मत की सशक्त टोलियां हैं. पहले रानीगांव, मटियारी और आसपास के कई गांवों में युवकों के दल थे. एक टोली में गायक और साजिंदों को मिलाकर 20 से 25 लोग होते हैं. लेकिन नये गायकों के अभाव में कई बार इससे कम लोगों में भी काम चलाया जाता है. यह गम्मत जीविकोपार्जन का जरिया नहीं है, लोग इसे आपस में सुनते-दिखाते हैं. 85 साल के भंगीलाल तिवारी अब ऊंचे स्वर में आलाप नहीं ले पाते लेकिन उनके बगैर महामाया पारा का गम्मत अधूरा लगता है. इनके अलावा बल्देव प्रसाद शर्मा, किशन तम्बोली, राजेन्द्र गिरी गोस्वामी, नरेन्द्र शर्मा, लक्ष्मी तम्बोली, शिवकुमार तम्बोली और नई पीढ़ी के गायकों में सोमेश्वर गोस्वामी भादो गम्मत के समर्पित कलाकारों में शामिल हैं.
रतनपुर की इस विशिष्ट पहचान को रतनपुर से बाहर तक ले जाने की कोशिश भी की गई है. अब से 4 साल पहले रेवाराम साहित्य समिति और काव्य भारती बिलासपुर के प्रयास से आसपास के गांवों से करीब 100 युवकों को रतनपुरिहा गम्मत की कार्यशाला में प्रशिक्षण दिया गया था. इसके बाद रतनपुर के नजदीकी गांवों, बिलासपुर तथा रायपुर में इसका मंचन भी हुआ, लेकिन अब इन युवकों की टीम बिखर चुकी है. दरअसल रतनपुरिहा गम्मत मौलिक रूप से आजीविका से जुड़ा मंचन रहा ही नहीं. लेकिन अब यदि इसका विस्तार करना है और नई पीढ़ी को इससे जोड़ना है तो इसे पारिश्रामिक के साथ भी जोड़ना होगा. संस्कृति विभाग को भी सोचना होगा कि इस कीमती विधा को नष्ट न होने दे.
धार्मिक नहीं सामाजिक उत्सव
रतनपुर का गम्मत धार्मिक न होकर एक सामाजिक मेलमिलाप का उत्सव है. किसी रतनपुरिहा में किस हद तक इसका जुनून सवार है यह समझाने के लिये आज से 50 साल पुरानी एक घटना रतनपुर के गम्मतिहा बताने से नहीं चूकते. रतनपुर गम्मत के एक तबला वादक थे, छोटे खान. जब वे मृत्युशैय्या पर चले गये तो उन्होंने अपने गम्मतिहा साथियों से मिलने की इच्छा जाहिर की. जब वे पास पहुंचे तो छोटे खान ने कहा- जाओ तुम लोग सब साज भी लेकर आओ, मुझे गम्मत के दोहे सुनाओ.एक दो साथी भागते हुए गये और तबला हारमोनियम के साथ शुरू हो गये.अद्भुत दृश्य था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान और खुदा दोनों ही एक सह्रदय जीव को अपने साथ ले जाने के लिये आतुर हैं. जब छोटे खान अंतिम सांसे ले रहे थे तो एक तरफ कुरान का पाठ हो रहा था, दूसरी ओर से आलाप लेकर उनकी मित्र मंडली गा रही थी-चल रे मन वृंदावन की ओर.
शुक्रवार, 5 सितंबर 2008
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