मंगलवार, 17 जून 2008

यह है हिन्दी की पहली प्रकाशित कहानी

मुद्रित कहानियों के इतिहास में भी छत्तीसगढ़ की उपस्थिति कम-से-कम एक शताब्दी पुरानी है.पं. माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ सन् 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित हुई थी.देवी प्रसाद वर्मा (बच्चू जाँजगीरी) ने ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को अनेक प्रमाणों और तर्कों के आधार पर हिंदी की प्रथम प्रकाशित कहानी करार दिया था.कमलेश्वरजी सहित अनेक साहित्यकारों ने श्री वर्मा के दावे का समर्थन किया.कमलेश्वरजी तो यहाँ तक कहते हैं कि आज हिंदी में जिसे द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है, उसे सप्रे युग कहा जा सकता है.(प्रख्यात पत्रकार रमेश नैयर की किताब कथा-यात्रा से साभार)

अविभाजित मध्यप्रदेश जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था, से सबसे पहला अख़बार तब के एक छोटे से गांव पेन्ड्रारोड से माधव राव सप्रे ने शुरू किया, जिसका नाम था-छत्तीसगढ़ मित्र. यह छत्तीसगढ़ के लिये गर्व की बात है कि उनकी जांजगीर जिले के झलमला में लिखी गई इस कहानी को साहित्यकारों की बिरादरी में हिन्दी की पहली कहानी के रूप में स्वीकार किया गया है.

एक टोकरी भर मिट्टी
-माधवराव सप्रे

किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी.जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई.विधवा ने बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले.पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी.उसका पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था.पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी.अब उसकी यही पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी.जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूटकर रोने लगती थी.और जब से उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना तब से वह मृतप्राय हो गई थी.उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी.श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए.तब वे जमींदारी चाल चलने लगे.बाल की खाल निकालनेवाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया.बिचारी अनाथ तो थी ही.पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी.
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आस-पास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे.इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची.श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो.पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ‘‘महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी हो गई है.मैं उसे लेने नहीं आई हूँ.महाराज, क्षमा करें तो एक विनती है.’’ जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ‘‘जब से यह झोंपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है.मैंने बहुत समझाया, पर वह एक नहीं मानती.यही कहा करती है कि अपने घर चल ! टोकरी भर मिट्टी लेकर उसका चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी.इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी.महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ.’’ श्रीमान ने आज्ञा दे दी.
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई.वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों में आसूँ की धारा बहने लगी.अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई.फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी कि ‘महाराज’ कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए, जिससे मैं इसे अपने सिर पर धर लूँ.जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई.किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढ़े.ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है.फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई.वह लज्जित होकर कहने लगे, ‘‘नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जावेगी.’’
यह सुनकर विधवा ने कहा, ‘‘महाराज, नाराज न हों, आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है.उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा सकेंगे ? आप ही इस बात पर विचार कीजिए.’’
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे, पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गई.कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी उसको वापस दे दी.
झलमला
(वर्तमान जांजगीर जिले के अंतर्गत छत्तीसगढ़ का एक गांव)

सोमवार, 16 जून 2008

खाली होता धान का कटोरा

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन यहां के किसान शहरों में आकर रिक्शा चला रहे हैं, ईंटा-गारा की मजूरी रहे हैं और किसी तरह दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर पा रहे हैं.

हट्टा कट्टा महेन्द्र भी हमारे शहर में रिक्शा खींचता है. लेकिन महेन्द्र का इतिहास मैं जानता हूं इसलिए उसको इस हालत में देखकर मुझे बहुत दुख हुआ. महेन्द्र के पिता ने 5 बच्चे पैदा किये. सब सुबह से उठकर खेत पर चले जाते और कड़ी मेहनत करते थे. कुछ सालों के भीतर उनके पास दुगनी खेती हो गई. कभी वे खुद किसी से उधार या किराये पर बैल जोड़ी मांग कर खेती करते थे, लेकिन देखते ही देखते उन्होंने 4 जोड़ी बैल खरीद लिए. नदी के किनारे एक भुसभुसी जमीन पर उसने ईंट भट्ठा लगाया और अपने खेतों से बबूल तोड़कर दरवाजे खिड़कियां तैयार की. उनके बेटों ने ही बड़ा सा पक्का मकान खुद के श्रम से तैयार किया. परिवार में ही इतने लोग थे कि किसी बाहरी मजदूर की जरूरत ही नहीं पड़ी. बच्चों की शादी हुई. उनके भी बच्चे बड़े होने लगे. खर्च बढ़ता गया.
तय किया गया कि एक ट्रैक्टर संयुक्त खाते से खरीद लिया जाये. समय चक्र कुछ ऐसे फिरा कि ट्रैक्टर में नुकसान हो गया. बैंक की किश्त और ब्याज पटाने में दिक्कत आने लगी. तब भाईयों ने एक दूसरे पर फिजूलखर्ची, लापरवाही और शराब पीने का आरोप लगाया. पिता खिन्न हुए, पहले एक खेत को बेचकर ट्रैक्टर के कर्ज से मुक्ति पाई फिर ट्रैक्टर भी औने-पौने दाम पर बिक गया. बंटवारा हुआ तो पिता, महेन्द्र और बाकी भाईयों को इतनी कम जमीन मिल पाई कि वे सब मध्यम किसान के दर्जे से बाहर आकर सीमान्त किसान रह गये. उनके बड़े घर के भीतर भी सबकी अलग-अलग सीमा तय हो गई. महेन्द्र ने छोटे टुकड़े पर अकेले खेती कर के देखा, लेकिन रोजमर्रा के अनाज, दवा और कपड़ों पर खर्च के बाद खेतों में डालने के लिये बीज, खाद और दूसरी व्यवस्थाओं के लिये परेशान रहने लगा. खेत से आमदनी इतनी कम थी कि दो बच्चों वाले छोटे परिवार का गुजारा कठिन था. कुछ दिन उसने गांव में मजदूरी की, अपनी पत्नी को भी उसने काम पर भेजा, लेकिन अपने परिवार के अतीत को देखकर गांव में यह काम करने में उसे शर्मिंदगी होती थी. ऐसे में उसकी बच्ची को छाती की तकलीफ हुई. पैसों की जरूरत पड़ी. अपने ही समाज के एक सम्पन्न किसान जो साहूकारी का काम भी करता था, से कर्ज लिया. विश्वास दिलाया कि फसल आने पर रकम वापस हो जायेगी. पर फसल इतनी नहीं हुई कि ब्याज और मूलधन चुकाया जा सके. हारकर उसने अपना खेत बेच दिया.कर्ज से मुक्ति पाई. अपने कमरे की चाबी पिता के हाथ में सौंप दी.अब तो गांव में रहने का कोई जरिया और जरूरत ही नहीं रह गई थी. उसने बचे हुए पैसों से शहर के एक पिछड़ी बस्ती में एक झोपड़ी खरीदी और रिक्शा लिया. अब उसके हाथ में 90 से 120 रूपये रोज आ जाते हैं. कभी घर की मालकिन रही उसकी पत्नी अब स्कूलों में दाई का काम करके वह भी कुछ कमा ही लेती है.

शहर में नये तरह का विकास हो रहा है इसलिए बड़ी तादात में चल रहे बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन के काम में कुली और रेजा की बहुत जरूरत पड़ती है ऐसे में गांव से भागकर आये किसानों को मेहनत मजूरी काम मिल ही जाता है. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में न केवल हमारे देश का उत्पादक समाज शहर के दोयम दर्जे का अशिक्षित मजदूर होता जा रहा है बल्कि देश के जानकार किसानों की ज्ञानपरंपरा की मौत भी हो रही है.
75 फीसदी किसान घाटे में
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, यह इसलिये कि सिंचाई का रकबा सिर्फ 20 प्रतिशत होने के बावजूद यहां धान की भरपूर पैदावार होती है. राज्य की 83 प्रतिशत आबादी खेती पर ही निर्भर है. लेकिन यहां के कुल 33.5 लाख किसानों में 75 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास 5 एकड़ से कम खेती है. दिनों-दिन इनको अपना पुरखों का व्यवसाय बचाने में कठिनाई आ रही है. खाद-बीज और ईंधन के दामों में बढ़ोतरी के कारण खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है, पर उनका मुनाफा घटता जा रहा है. इन पंक्तियों को लिखते लिखते ही खबर आई है कि केन्द्र सरकार ने इस साल धान का समर्थन मूल्य 850 रूपये करने का निर्णय लिया है. यह फैसला राज्य सरकारों की ओर से बनाये गये दबावों का नतीजा बताया गया है. इस बात पर खुशी हो सकती है कि समर्थन मूल्य हर बार 20 से 50 रूपये तक ही बढ़ाया जाता था इस बार सीधे 100 रूपये बढ़ा दिये गये हैं. पर इसी बीच मंहगाई भी तेजी से बढ़ी है, जिसका शिकार गांवों के गरीब ज्यादा हुए हैं. कृषि विशेषज्ञ डा. संकेत ठाकुर ने आंकलन किया है कि किसानों को एक क्विंटल धान पैदा करने में 1350 रूपये खर्च आता है. यदि उन्हें 6 माह की मेहनत का 25 फीसदी मुनाफा भी देना है तो धान का समर्थन मूल्य कम से कम 1900 रूपये होना चाहिये. अक्सर किसान खेतों में की गई अपनी मेहनत को रोज की मजदूरी के दर से नहीं जोड़ता है इसके अलावा समय पर अच्छे बीज और खाद की व्यवस्था भी नहीं हो पाती है. इसलिये वे मजबूरन धान को उसकी वास्तविक कीमत से कम पर बेच देते हैं. किसानों को एक कृषि-सत्र के दौरान फसल पकने से पहले कोई आमदनी भी नहीं होती, ऊपर से निंदाई गुड़ाई बोनी और खाद बीज का खर्च भी उएाना पड़ता है. इसलिये वे फसल आते ही आनन-फानन में इसे बेच देते हैं. उन्हें पता है कि यही अनाज कुछ दिनों के बाद बाजार में ड्योढ़े या दुगने दाम पर बिकेगा, लेकिन उन्हें कर्ज लौटाने, घर सुधारने, बच्चों की शादी करने जैसे बड़े खर्च की भरपाई करनी होती है. पिछले कुछ दशकों में जितने लोग गांवों से शहर आये उनमें मध्यम वर्ग के किसान भी शामिल हैं, क्योंकि वे खेत में खुद मजदूरी करने नहीं जा पाते और इसके विकल्प के रूप में या तो उन्होंने अपनी जमीन टुकड़ों में बेच दी या फिर हर साल अनुबंध पर लघु कृषक या भूमिहीनों को सौंप देते हैं. ऐसे में खेत जोतने वाले पर ज्यादा दबाव होता है, क्योंकि उसे उपज का आधा-आधा बंटवारा करने के बाद उसे कुछ आमदनी हासिल करनी होती है.

खेत निगलते कांक्रीट के जंगल
छत्तीसगढ़ राज्य को बने 7 साल से ज्यादा हो गए. प्रदेश सरकार के राजस्व और अनुदान में बीते सालों में काफी वृध्दि हुई है. नौकरीपेशा और व्यवसायियों, कांट्रेक्टर्स की आय बहुत बढ़ी है. कंस्ट्रक्शन के व्यवसाय ने हर तरफ रफ्तार पकड़ी है. शहरों का हर छोर पर विस्तार हो रहा है. नई कालोनियां बस रही हैं, विशाल कैंपस में निजी विश्वविद्यालय और रेसिडेंसियल स्कूल अभिजात्य वर्ग के लिये खुल रहे हैं और ये सब लगातार खेतों को निगल रहे हैं. राजधानी रायपुर से दुर्ग-भिलाई की तरफ जाने वाली सड़क पर कोई खेत तो बचा ही नहीं यदि है तो उसे कोई अरबपति ही खरीद सकता है. दूसरे मार्गों पर भी लोग खेतों का मुंहमांगा दाम देने के लिये तैयार हैं. किसान तो अवाक रह गये हैं. उन्हें लगता है कि इन खेतों में धान बोकर सात पुरखे भी जितना नहीं कमा सकते उतना तो एक दलाल आज सामने रूपये लेकर खड़ा है. बिलासपुर से लगे मंगला और उसलापुर में कई बड़े किसान कुछ साल पहले तक गर्व से बताते थे कि वे उन्नत पध्दति से धान व साग सब्जी बोते हैं, और उन्हें नौकरी या व्यवसाय करने की जरूरत नहीं है. लेकिन अब उनके सारे खेत कांक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हैं. खाली खेत भी धान बोने के काम नहीं आ रहा है, क्योंकि इसका दाम करोड़ों में है और वहां देर-सबेर शापिंग माल या कालोनी तैयार हो जायेगी. बिलासपुर के सर्वश्रेष्ए किसानों में चमन लाल चड्डा का नाम लिया जाता है. खेती से कैसे समृध्दि हासिल की जा सकती है उन्होंने रास्ता दिखाया और हजारों किसानों ने उनसे प्रेरणा ली. उनके नाम पर आज भी एक सालाना समारोह होता है जिसमें श्रेष्ठ कृषक अपने उत्पादों के साथ पहुंचते हैं और सम्मानित होते हैं. विडम्बना है कि आज उनके पोतों ने सारे खेत साफ कर दिये हैं और वहां पर वे कम से कम 5 नई कालोनियां बना रहे हैं. आसपास के खेतों को भी बिल्डर्स लगातार खरीदते ही जा रहे हैं.

मेहनती लोगों को आश्रित बनाने की साजिश
ऐसा नहीं है कि खेती और किसानों को बचाने के लिये सरकार कोशिश नहीं कर रही है, पर मर्ज कहीं और है इलाज कहीं और किया जा रहा है. इसे छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य ही माना जाये कि धान के लिये पहचान बनाने वाले इस राज्य में 34 लाख गरीब परिवारों के पास दो जून का अनाज ले पाने की क्षमता नहीं है. ध्यान देना होगा कि 75 फीसदी राज्य के किसान भी लघु या सीमान्त किसानों की श्रेणी में है, जिनकी संख्या भी 35 लाख के आसपास ही है. तभी तो इनके लिये राज्य सरकार 3 रुपये किलो में हर माह 35 किलो चावल उपलब्ध करा रही है. प्रदेश के सभी 16 जिलों में ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत काम उपलब्ध कराये जा रहे हैं. राज्य के लगभग 24 लाख परिवारों को जाब कार्ड बांटे गये है. इन योजनाओं में भ्रष्टाचार की बड़ी शिकायतें हैं. किसानों को 35 किलो चावल न देकर मुफ्त में 15-20 किलो चावल दे दिये जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि बाकी चावल के बारे में सवाल मत करो. रोजगार गारंटी योजना में तो कांकेर जिले में घोटाले की अलग मिसाल बन गई, जहां 6 करोड़ रूपये के फर्नीचर, स्टेशनरी, एसी खरीद लिये गये. इस मामले में एक आईएएस अधिकारी समेत एक दर्जन अधिकारी कर्मचारियों पर कार्रवाई हुई. इस योजना की 60 फीसदी राशि मजदूरी पर खर्च की जानी है, पर कई स्थानों पर मशीनों से काम करा लिया जाता है और कुछ रकम देकर मजदूरों से जाब कार्ड में मजदूरी पाने का हस्ताक्षर करा लिया जाता है. एनआरईजीए में प्रावधान है कि 60 प्रतिशत कार्य जल संवर्धन की छोटी योजनाओं और पर्यावरण सुधार में खर्च किया जाये पर अधिकारियों व पंचायत पदाधिकारियों की रूचि सड़क और भवन बनाने में ज्यादा है, क्योंकि इसमें कमीशन की गुंजाइश अधिक होती है और भुगतान जल्दी मिल जाता है. सरगुजा जिले में जल संरक्षण के नाम पर ऐसे स्थानों पर तालाब खोद दिये गये जहां न तो पानी इकट्ठा हो सकता और न ही खेतों तक उसका रास्ता है. हरियाली के नाम पर रतनजोत के पौधे करोड़ों की तादात में रोप दिये गये, पर्यावरण विशेषज्ञ इसके खिलाफ हैं और गांव तथा खेत के लिये नुकसानदायक मानते हैं.

रोज मर रहा है किसान
किसानों को सीधे चावल और नगदी देकर अकर्मण्य बनाया जा रहा है. दोनों ही योजनाओं से बिचौलिये ज्यादा फायदे में हैं. छत्तीसगढ़ में धान की औसत उपज प्रति हेक्टेयर 13 क्विंटल है, जो राष्ट्रीय औसत 24 क्विंटल के आधे से कुछ ही ज्यादा है और पंजाब जैसे राज्य जहां का औसत 35 क्विंटल है, से बहुत कम. राज्य के सरगुजा और बस्तर जिले देश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में ऐसे ही नहीं गिने जाते. यहां औसत उपज 5 से 6 क्विंटल ही है जो शायद देश में सबसे कम उत्पादन वाला इलाका है. चावल और रोजगार गारंटी योजना ने किसानों को खेती की ओर आकर्षित करने के बजाय विमुख ही किया है. राज्य के मेहनती किसानों को अच्छी उपज कम लागत में कैसे मिल सके इस पर विचार नहीं हो रहा है. बस्तर में खेती की उपेक्षा तो इसलिये भी हो रही है क्योंकि वहां नक्सलियों का प्रभाव है. यह और कोई नहीं संसद की कृषि स्थायी समिति के सदस्यों ने माना है, जिन्होंने बीते अप्रेल माह में छत्तीसगढ़ का दौरा किया था. समिति का मानना था कि 1400 मिलीलीटर औसत बारिश वाले इलाके में कृषि की दशा उचित प्रबंधन के जरिये सुधारी जा सकती है, जिसकी तरफ सरकार को ध्यान देना चाहिये. राज्य का 40 फीसदी हिस्सा वनों से आच्छादित माना जाता है, पर यहां जंगल लगातार घट रहे हैं. आदिवासी बाक्साइट और कोयला खदानों को जमीन बांट दिये जाने के कारण विस्थापित किये जा रहे हैं. वनों से जीविका चला लेने वालों का जीवन-यापन दिनों दिन कष्टप्रद होता जा रहा है. अनाज के लिये पहचान बनाने वाले इस राज्य में कुपोषित बच्चों की संख्या नेशनल न्यूट्रीशियन ब्यूरो के मुताबिक 50 प्रतिशत से ज्यादा है. राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो के मुताबिक महाराष्ट्र की तरह छत्तीसगढ़ में भी आतुमहत्या करने वाले किसानों की संख्या बहुत है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के साझा आंकड़े में यह संख्या सन् 2006 में 2800 है. हालांकि इसकी पुष्टि छत्तीसगढ़ में न पुलिस ने न कृषि विभाग ने न ही सरकार के किसी दूसरे विभाग ने की है. मीडिया भी इस ब्यूरो के इस आंकड़े को सच नहीं मान रहा है पर किसानों की दशा कुछ ऐसी है कि वह हर रोज मर रहा है.
(इस आलेख को आप विस्फोट डाट काम पर भी देख सकते हैं)