रविवार, 9 दिसंबर 2007

छत्तीसगढ के हर आंगन का लोकपर्व राऊतनाच

हाल में बिलासपुर में राऊत नाच महोत्सव सम्पन्न हुआ। राऊत नाच छत्तीसगढ़ का संभवतः सबसे वृहद सामूहिक नृत्य है।
जैसा कि देश के अधिकांश भागों में है, राज्य के यादव भी परम्परागत रूप से गाय-भैंस पालने और दूध बेचने के व्यवसाय से जुड़े हैं। धान की फसल जब घरों में पहुंचने लगती है और गायों को कटी हुई फसल से भरपूर चारा मिलने लगता है। यह ठंड के मौसम की शुरूआत भी होती है। गायें न केवल भरपूर दूध देने लगती हैं बल्कि वे हष्ट पुष्ट भी हो जाती हैं। जिन घरों के गायों को यादव चराते हैं, वहां से यादवों को उपहार भी मिलता है। देवउठनी एकादशी से शुरू होने वाले इस पर्व में सजे धजे राऊत (यादव) अन्नपूर्णा गायों, बैलों को भी खूब सजाते हैं, इस सजावट में उनके गले में बांधा जाने वाला पट्टा- सुहई महत्वपूर्ण है, जो एक रंगीन धागे से बनी चौड़ी पट्टी होती है। उन्हें घंटी भी बांधी जाती है, सिर को भी सजाया जाता है।
संभवतः राऊत नाच का उद्गगम धान की फसल आने से ही जुड़ा हुआ है।

धान की कोठियों को धान भरने के पहले गोबर से लीपा-पोता जाता है। कोठियों की सजावट तब तक अधूरी मानी जाती है, जब तक पूर्णिमा की रात्रि में आकर तेज स्वर में समृध्दि की कामना करने वाला लोकगीत गाते हुए यादव गोबर और धान के मिश्रण वाला थाप उस कोठी पर नहीं लगा जाता। इस थाप को सुखधना कहते हैं। गाय-बैलों ने परिश्रम कर भरपूर फसल उगाकर किसान को समृध्द किया और इन गाय-बैलों की देखभाल राऊत ने की, फिर इस राऊत का थाप पड़े बगैर कोठी फलेगी-फूलेगी कैसे और धान भरने का शुभ कार्य कैसे पूरा होगा?
राऊत देखता है कि किसान साल भर की मेहनत से उगे फसल को लेकर आनंदित है। चारों ओर व्यस्तता होती है। खेत में धान की कटाई चल रही होती है। किसान माई-पिल्ला (बाल-बच्चों के साथ) धान समेटने में लगा होता है। छोटे बच्चों के लिए भी काम बंटा हुआ है। वे सीला बीनते हैं- सीला यानि धान की जो बालियां (करपा) बटोरते हुए बोझा बांधने के दौरान छूट जाती हैं। एक-एक बाली बच्चे बीनते हैं, या तो उसे घर लाकर इकट्ठा करेंगे या फिर तुरंत ही मींज कर रख लेंगे। यह हिस्सा बच्चे का ही होता है। वे चाहें तो इसे बेचकर अपनी पसंद की चीजें खाई, खिलौने आदि तुरंत खरीद लेते हैं या फिर ज्यादा पसंद की चीज खरीदने के लिए साप्ताहिक बाजार का इंतजार करते हैं।

देवउठनी एकादशी के बाद पड़ने वाले साप्ताहिक बाजार के लिए राऊत तैयारी करते हैं। वे खूब सजते धजते हैं। सिर पर पागा (पगड़ी) पहनते हैं, जो एक पूरी रंगीन अथवा सफेद धोती होती है, जिसे बांधकर उसके ऊपर रंगीन कागज लपेटा जाता है। रंगीन कागज नहीं है तो गेंदे की माला भी चलेगी। पसंद और उपलब्धता की बात है। पूरा चेहरा अभ्रक जैसी चीज से पुता होता है। यह वास्तव में होता है- रामरस। नाम राम पर है लेकिन है यह कृष्ण की कर्मभूमि वृंदावन की मिट्टी, वे कृष्ण जो यादवों के ईष्टदेव हैं। दुकानों में इसे खासतौर पर राऊतों की जरूरत को देखते हुए मंगाया जाता है। माथा बिंदिया या फिर तिलक से सजाया जाता है। इसके बाद कमीज, प्रायः यह पूरे बांह की होती है। चटक रंग की होनी चाहिए। उसके ऊपर जैकेट जैसी चीज, जिसे सुरखा कहा जाता है। गले में कौड़ियों से बनी माला, कलाई में भी इसी तरह की माला और कमर में भी कौड़ियों की ही पेटी। नीचे चुस्त पहनी गई धोती, जूते मोजे और घुंघरू। एक हाथ में सजी हुई मजबूत लाठी, दूसरे हाथ में ढाल, छत्तीसगढ़ी में लाठी को लऊठी और ढाल को फरी कहते हैं। लाठी आक्रमण के लिए और ढाल बचाव के लिए, क्योंकि नृत्य के दौरान लाठियों का बड़ा महत्व है। फिर यादव लाठियों के बगैर घर से निकलते ही नहीं। यह इनका शस्त्र है। शस्त्र चालन का अद्भुत शौर्य प्रदर्शन नृत्य समारोह के दौरान दिखाई देता है। कई बार सिर भी फूट जाते हैं। पूरा घर यादव बच्चे बूढ़ों के श्रृंगार का सामान जुटाने और उन्हें संवारने में मशगूल होता है क्योंकि ये बाज़ार बिहाने के लिये यानि बाज़ार को जीतने के लिए निकलने वाले हैं।

राऊत केवल मवेशियों की रखवाली नहीं करते बल्कि उन्हें पूरे गांव का रखवाला माना जाता है। जब कभी किसी घर में कोई विपत्ति आती है, तो परिवार के सदस्यों की तरह, चाहे दिन हो या रात-यादव सबसे पहले पहुंचते हैं, अपनी लाठी लेकर।
ऐसे में छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े शहर संस्कारधानी और राजधानी नहीं बन पाने के बाद से न्यायधानी के नाम से जाना जाने वाला बिलासपुर देवउठनी एकादशी के बाद पड़ने वाले शनिवार को छोड़कर उसके बाद आने वाले शनिवार को राऊत नाच के हंगामे से गूंज उठता है। सड़कों पर लाठियों की ठक-ठक और घुंघरूओं की छम-छम जिस दिशा से गुजरें बरबस लोगों का ध्यान खींच लेती है। इन टोलियों के साथ होता है बजगरियों का समूह, वाद्यकार, जो छत्तीसगढ़ के पिछड़े समाज में हैं कई सालों से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं, उनका यह परम्परागत व्यवसाय है। कुछ गड़वा अच्छी सरकारी नौकरियों में आ गए हैं पर ज्यादातर की माली हालत दयनीय है। वे आज भी समृध्द समुदाय के आश्रित होते हैं।
शादी ब्याह में बैंड बाजों और डीजे का चलन बढ़ने के बाद परी और गड़वा बाजा बजाने वालों के धंधे पर असर पड़ा है, पर ये गांव के किसी भी उल्लास में अपनी भागीदारी निभाने के लिये पहुंच जाते हैं। इनकी पूछ परख सिर्फ इनके पीछे किए जाने वाले खर्चों की वजह से नहीं की जाती है, वरना ये आज भी उत्सव और शादी ब्याह में उल्लास का असल मजा देते हैं जब इनका ओंगन (वेस्टेज इंजन आयल) से पुता हुआ चमड़े का नगाड़ा जैसा वाद्य गुदड़ुम गुदड़ुम का स्वर निकालता है। इसमें चार चांद लगा देती हैं परियां। ये परियां खूबसूरती में कल की हेमामालिनी और आज की ऐश्वर्या से कम नहीं। ये बहुत गाढ़ा मेकअप करके, बहुत चटकीली सलवार सूट या घाघरा चोली पहनकर गड़वा बाजा की टोली के साथ ही निकलती हैं। ये बहुत अच्छा गाती भी हैं। लेकिन राज़ की बात यह है कि ये युवतियां नहीं युवक हैं। जी हां, महिलाओं का स्वांग धरकर, लिपस्टिक, बिंदिया, पाउडर पोतकर जब निकलते हैं तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। और इस बात का पता होने के बाद भी केवल मज़ा लेने के लिये युवक इनपर फिकरे कसते हैं, सीटियां बजाते हैं।
आजकल ये बजगरिये कुछ मंहगे हैं। इसलिए नहीं कि इनका मार्केट रेट बढ़ गया है, बल्कि इसलिए कि मंहगाई बढ़ गई है। एक टोली में होते हैं कम से कम दस से पन्द्रह लोग और उनको घूमना है दस बारह दिन तक बाजार बिहाने के लिए, आंगन में हांका के लिए यादव बंधुओं की टोली के साथ। इतने लोगों का रोज का चांवल-दाल और फिर सब उत्साह में भरे हैं, किसान भी, यादव भी, बजगरियों के लिए भी तो यह सीजन है, उनका भी हक बनता है। कुछ बचे तो आने वाले एक दो महीने की रोटी नसीब हो। कई बजगरियों की टोली 20 से 25 हजार तक में तय होती है। बिलासपुर राऊत नाच महोत्सव से पहले, शहर के सबसे पुराने बाजार शनिचरी में इनका जमघट लग जाता है। ठीक अरपा नदी के रपटे के ऊपर। राऊतों के लीडर आते हैं, सौदा पक्का करके उनको उठा ले जाते हैं। ये सब उस शनिवार की दोपहर बाद से शनिचरी बाजार के पास ही स्थित लगभग 100 साल पुराने लाल बहादुर शास्त्री स्कूल के मैदान मे इकट्ठे होने लगते हैं। टोलियों की संख्या एक सौ से उपर होती है। एक टोली में 50 से 200 यादव और हर टोली के पीछे दर्जन भर बजगरिये। शहनाई, गड़वा बाजा, तुरही, बेन्जो और तमाम पारम्परिक और जो उपलब्ध है उन आधुनिक वाद्य यंत्रों के साथ। मजे की बात है कि गड़वा बाजा को नेपथ्य में होना चाहिए मगर यहां ऐसा नहीं होता। गड़वा बाजा ही धुन की लम्बाई तय करता है। गड़वा बाजा थमते ही सारे वाद्य थम जाते हैं। परियां इन धुनों पर थिरकती हैं, और गला खोल के गाती हैं। उनके गायन में रामचरित मानस के दोहे, गीत, जगजीत सिंह की गज़लें और डिस्को कुछ भी हो सकते हैं।आनंद भरपूर आता है। लेकिन इससे भी महत्व का है राऊतों का नाच और उनके दोहे। लाठियां लहराते, उछालते और शौर्य प्रदर्शन करते हुए जब वे निकलते हैं और जब वे जीवन- दर्शन से जुड़े दोहों को हुंकार लगाकर आकाश हिलाने की कोशिश करते हैं तो फिर जबरदस्त माहौल बन जाता है। इन दोहों में भी ज्यादातर लोक जीवन की पीड़ा, सामाजिक समरसता के संदेश और जीवन के गूढ़ रहस्यों पर टिप्पणियां होती है। कबीर, गुरूनानक, तुलसीदास के दोहे और उनके उध्दरणों से तैयार की गई रचनाएं दो पंक्तियों की होती है-एक लाईन जैसे ही मुख्य स्वर की ओर से पूरा होता है-दूसरा यादव लाठियां लहराकर दूसरी लाईन पूरी कर देता है। दूसरी लाइन पूरी होते ही शुरू हो जाता परियों, राऊतों का नाच और गड़वा बाजा टीम का धुन।
इस बार भी आई टोलियों की संख्या 70 से अधिक थी। कोई बस में चढ़कर पहुंचे तो कोई स्पेशल मेटाडोर करके आए, आसपास की कई टीमें तो पैदल ही पहुंच गईं। शाम से लेकर रात दो बजे तक इनका प्रदर्शन होता रहा। भाग लेने वालों की संख्या कभी घट जाती है कभी बढ़ जाती है। लेकिन परम्परा जिंदा है अपनी भरपूर ताकत से। बिना किसी सरकारी सहायता के।
राऊत नाच तो एक ऐसा नृत्य़ है, जिसमें पात्र तो यादव हैं पर इसका आनन्द हर आंगन में उठाया जाता है। यादव आंगन-आंगन पहुंचते हैं। गांव का हर घर इंतजार करता है कि यादव उनके यहां कब आएंगे और गड़वा की धमक के साथ समृध्दि की कामना वाले गीत गाएंगे।
30 साल पुराने हो चुके राऊत नाच महोत्सव के मौजूदा स्वरूप को आकार देने वाले शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र से जुड़े डा. कालीचरण यादव ने बताया कि राऊत नाच तो लोकपर्व है। इसे केवल आयोजकों ने व्यवस्थित करने और उसे गौरव प्रदान करने का प्रयास किया है। कोई भी लोक-नृत्य थमे हुए तालाब का पानी नहीं बल्कि बहता हुआ झरना होता है। राऊत नाच में जो बदलाव आए हैं समय के साथ स्वाभाविक रूप से आता गया है। आयोजकों ने केवल उन्हें एकजुट करने के लिए कोशिश की है और इस नाच की महत्ता के अनुसार उसे मंच दिया है। अब इस महोत्सव में एक लाख रूपयों से अधिक के इनाम हर साल दिये जाते हैं। हर साल दर्जनों शील्ड बांटे जाते हैं। अब पिछले कुछ सालों से प्रतिभावान बच्चों को भी पुरस्कृत किया जाने लगा है।
जब आसपास के गांवों से शनिचरी का बाजार बिहाने के लिए यादवों की टोली आती थी तो रास्ते उबड़ खाबड़ होते थे। कईयों को चोट लग जाती खी। त्योहार के उल्लास में और लाठी संचालन के दौरान इतनी लड़ाई उनके बीच हो जाती थी, कि हर महोत्सव के बाद कहीं न कहीं हत्या आदि की वारदात सुनाई देती थी। यह लड़ाई दो परिवारों के रंजिश में भी बदल जाती थी और तब एक परिवार को मुखिया खोना पड़ता था, तो दूसरे परिवार जेल में होता था। पिछले 15-20 सालों से कम से कम बिलासपुर जिले में इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है।
राऊत नाच महोत्सव ने जो दिशा दी, उसके चलते छत्तीसगढ़ के कई अन्य गांवों में भी इस तरह के महोत्सव आयोजित किये जाने लगे हैं। डा. कालीचरण बताते हैं कि देश के जिस भाग में भी दूध का व्यवसाय है राऊत नाच या इससे मिलता जुलता लोक पर्व मनाया जाता है। उत्तर भारत के अनेक राज्यों में यह मनाया जाता है। पर जैसा समृध्द छत्तीसगढ़ का राऊत नाच है, वैसा कोई नहीं।
एक तरफ अनेक लोकनृत्यों पर्वों को छत्तीसगढ़ में ही राजाश्रय दिए जाने के बाद भी बचाया नहीं जा सका है, वहीं राऊत नाच बिना किसी सरकारी मदद के इसे मनाने वाले लोगों के जुनून पर फल-फूल रहा है। अब तो राऊतनाच महोत्सव एक पहचान बन गया है बिलासपुर का। हजारों लोगों की भीड़ इस बार भी लालबहादुर शास्त्री स्कूल प्रांगण में उमड़ी। यह एक ऐसा कार्यक्रम है जहां राजनेता मुख्य अतिथि बनने के लिए लालायित होते हैं। आयोजक कुछ-कुछ इस बात का ख्याल भी रखते हैं। हर साल अतिथि बदलते रहते हैं पर कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हैं पूर्व मंत्री बीआर यादव। वे शुरू से इस आयोजन की रीढ़ रहे हैं।
All photographs are contributed by Aslam, reporter Daily Deshbandhu, Bilaspur.