बुधवार, 27 जनवरी 2010

प्रेस क्लब का बैन का फैसला सही

छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति को अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीक
ऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं.
बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी. इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजे की खेती करा रहे हैं.
पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया.
बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति-पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इससे निपटने का ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं सौंपा जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं?
बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है. दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी.
मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये, उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.
क्या हम पुलिस और सरकार को अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान, योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं?
दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों को खदेड़ने की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है.
छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें.
रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?

रविवार, 24 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी मौसेरी बहनें

बीते 23-24 जनवरी को बिलासपुर में भोजपुरी साहित्यकारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल भोजपुरी बल्कि छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई. दोनों ही भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए ठोस तर्क दिए गये. इस सम्मेलन में कई ख़ास मुद्दे उठाए गये. प्रस्तुत रिपोर्ट छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी ही नहीं बल्कि सभी स्थानीय बोलियों के जीवंत बने रहने की अपरिहार्यता क्यों है, इस पर भी प्रकाश डालती है. बोलियों का विकसित होना, फलना फूलना न सिर्फ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए जरूरी है, बल्कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास भी इसमें अन्तर्निहित है.
भोजपुरी- छत्तीसगढ़ी के साहित्यसेवियों का मानना है कि दोनों बोलियों में अद् भुत समानताएं हैं. छत्तीसगढ़ी बोलने वाला भोजपुरी भी समझता है और भोजपुरी बोलने वाले को छत्तीसगढ़ी समझने में कोई कसरत नहीं करनी पड़ती. विन्ध्यांचल के दोनों छोर पर बसे इन लोगों का जीवन संघर्ष, रीति-रिवाज, परम्पराएं, संस्कृति और आचार-विचार इतने मिलते हैं कि इनकी ये दोनों बोलियां आपस में बहनें मानी जाती हैं. वक्ताओं का मानना था कि राजनैतिक उदासीनता व नौकरशाही के चलते भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पाई है, जबकि इससे भी कम व्यापक बोलियां 8वीं अनुसूची में जगह बना चुकी हैं. इन दोनों भाषाओं के लगातार विकास की वजह राजाश्रय नहीं बल्कि लोकाश्रय है.
शहीद विनोद चौबे नगर, ई राघवेन्द्र राव सभा भवन में दूसरे दिन के पहले सत्र में भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर अनेक भाषा विशेषज्ञों व साहित्यकारों ने अपने सारगर्भित विचार रखे. विनोद चौबे बिलासपुर में पैदा हुए पुलिस अधिकारी थे, जो राजनांदगांव के एसपी रहते हुए बीते साल जुलाई में नक्सली हमले में शहीद हो गए. उनके पिता बिलासपुर प्रेस क्लब के प्रथम अध्यक्ष डीपी चौबे बिलासपुर भोजपुरी समाज के संस्थापक थे.
विषय प्रवर्तन करते हुए जयकांत सिहं 'जय' ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में सिर्फ क्रिया और भेद का अंतर है, जबकि संज्ञा और सर्वनाम एक ही तरह है. छत्तीसगढ़ी में मैं शब्द का इस्तेमाल होता है, भोजपुरी में इसकी जगह हम कहा जाता है. प्रत्यय और जोड़ भी समानता लेकर चलते हैं. भोजपुरी में यदि कहा जाता है- लड़िक मन के, तो छत्तीसगढ़ी में यही बात कही जाती है- लइकन के. हमार, तोर, तुहार, कहत हौं, रहत हौं जैसे शब्द हू-ब-हू भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में इस्तेमाल किए जाते हैं. भोजपुरी में कहते हैं आसरा देहल, छत्तीसगढ़ी में कहते हैं आसरा देन. अनेक उदाहरणों के माध्यम से जय ने बताया कि कर्म, क्रिया, कारक इत्यादि छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में एक ही तरह से हैं. उन्होंने कई लोकोक्तियों, कहावतों इत्यादि से भी स्पष्ट किया कि इनका भी समान रूप से इस्तेमाल किया जाना स्थापित करता है कि दोनों इलाकों की भौगोलिक सामाजिक परिस्थितियां, विशेषताएं, विषमताएं और समस्याएं एक ही तरह की हैं. छत्तीसगढ़ी में यदि उड़ीसा व पश्चिम बंगाल का असर दिखाई देता है तो भोजपुरी में नेपाल, अवध इलाके का पर्याप्त मिश्रण मिलता है. दोनों ही भाषाएं संवाद, समझ, सहयोग करते हुए अपनी बोली और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम रहे हैं. संचार व्यवसाय व समझ के माध्यम से दोनों बोलियां एक दूसरे के और नजदीक आ रही हैं.
इस मौके पर कार्यक्रम के अध्यक्ष मंडल के सदस्य भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि क्रिया व पद को छोड़ दें तो दोनों बोलियों में कोई भिन्नता नहीं. शब्द व उनके तात्पर्य जीवटता, जीवंतता, जीवन स्तर, परिस्थितियों में समानता की ओर इंगित करते हैं. भले ही दोनों ही भाषाओं को सियासी वजहों से मान्यता मिलने में दिक्कत जा रही है लेकिन एक न एक दिन इनकी ताक़त पहचानी जाएगी और इसके प्रभावों को सरकार स्वीकार करेगी. भोजपुरी का अब विश्व स्तर पर सम्मान हो रहा है. नेपाल व मारीशस में इसे मान्यता मिल चुकी है. भोजपुरी विश्व सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है. लेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते 20 करोड़ लोगों की इस भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए लोगों को जनान्दोलन के लिए मजबूर किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दुर्भाग्य से अभी तक शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई हैं. द्विवेदी ने आव्हान किया कि अगले साल शुरू हो रही जनगणना में लोग छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी को अपनी मातृभाषा दर्ज कराएं. इससे दोनों भाषाओं को संविधान में दर्जा दिलाने में मदद मिलेगी. कुछ लोगों का यह भय व्यर्थ है कि स्थानीय बोलियों को संविधान में जगह देने से, इसे शिक्षा व कामकाज में इस्तेमाल किए जाने से हिन्दी का नुकसान होगा. हिन्दी का निर्माण लोकभाषाओं से ही हुआ है जिनमें भोजपुरी, अवधी व मध्यक्षेत्र की तमाम भाषाएं शामिल हैं.
सम्मेलन के महामंत्री जौहर साफियावादी ने कहा कि पानी, बानी और जिन्दगानी से ही कोई संस्कृति पनपती है. इसके संवर्धन के लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करना चाहिए.
डा. गुरूचरण सिंह ने कहा कि अवधी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषी अपनी बोलियों का आदान-प्रदान करते रहे हैं. उन्होंने कुछ उदाहरणों के जरिये बताया कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जिन दोहों में मैं शब्द लिए हैं वे छत्तीसगढ़ी से ही हैं, क्योंकि अवधी व भोजपुरी में मैं की जगह हम इस्तेमाल होता है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दोनों में कट्टरता, चेतना, आत्मविश्वास एक ही तरह है, जो बोलते समय दिखाई देता है. विन्ध्य पर्वत के इस पार छत्तीसगढ़ है तो उस पार भोजपुरी. भोजपुर में बिरसा मुण्डा हैं, तो छत्तीसगढ़ में गुण्डा धूर. दोनों ही इलाकों ने अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया है, यह दोनों साहित्यों के वीर गीतों में दिखाई देता है. श्रृंगार गीतों में यह समानता दिखाई देती है. आम जनता को चाहिए कि वे सरकार को बाध्य करे इन दोनों समृध्द भाषाओं मान्यता दे. भोजपुरी समाज के एक सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार खुलकर स्वीकार कर चुकी हैं, इसे 8वीं अनुसूची में जगह दी जानी चाहिए. क्षेत्र के सांसदों ने भी लोकसभा में यह मांग उठाई है, इसके बाद भी सरकार का रूख सकारात्मक नहीं है. हम भीख नहीं मांग रहे हैं बल्कि हमें अपनी संस्कृति की सुरक्षा का साधन चाहिए. सैकड़ों वर्षों के संघर्ष से शब्दों का निर्माण होता है. 1908 में जब दक्षिण अफ्रीका ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी तो उन्होंने हिन्दुस्तानी हिन्दी की बात की थी, जो सारी भारतीय बोलियों को लेकर बनी हैं. केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, नामवर सिंह इत्यादि को हटा दिया जाए तो हिन्दी साहित्य में क्या बचेगा? इन सबकी रचनाओँ में उनकी स्थानीय बोलियों और संस्कृति का प्रभाव दिखता है, जो एक समृध्द हिन्दी तैयार करती है. राष्ट्रभाषा से यदि सभ्यता मिलती है तो मातृभाषा से संस्कृति का पता चलता है. इसलिए इसे बचाया जाना जरूरी है.
वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय पाठक ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं राजाश्रय से नहीं लोकाश्रय से जीवंत बनी हैं. इन दोनों के साथ इतनी मजबूत संस्कृति है कि इनके अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं है. छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के रेलवे को रेलगाड़ी, रेफ्रिजरेटर को फ्रिज, बाइसिकल को साइकिल कहकर अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल में लाया जाता है. उन्होंने फटफटी व कनसुनिया (स्टेथोस्कोप) जैसे शब्दों का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भाषा, जिसे अंग्रेज गंवारू भाषा कहते हैं उन्हें अंग्रेजी या दूसरी विदेशी भाषाओं से घबराना नहीं चाहिए. हमारी लोक बोलियां इतनी समृध्द हैं कि अंग्रेजी के जिन शब्दों का हिन्दी में अर्थ नहीं मिलेगा, इन बोलियों में मिल जाएगा. उन्होंने उदाहणों के जरिए बताया कि मेढ़क की विभिन्न प्रजातियों के जर्मन व लेटिन नाम हिन्दी में जितने स्पष्ट नहीं है, उसके कहीं ज्यादा साफ-साफ छत्तीसगढ़ी में मिल जाते हैं. लोरिक चंदा व अनेक लोकगाथाएं थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, बुंदेलखंड इत्यादि में मिल जाएंगे.
आज सम्मेलन के समापन दिवस पर बोलियों की संघर्ष यात्रा व भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में अध्ययन की समस्या आदि पर विचार के लिए अलग से सत्र रखे गए. इसमें चितरंजन कर, प्रो. नंदकिशोर तिवारी, डा. अशोक द्विवेदी, डा. जीतेन्द्र वर्मा, डा. गदाधर सिंह, रघुबर दयाल सिंह, डा. रविन्द्र शाहावादी, विनोद सिंह सेंगर, कृष्णानंद कृष्ण आदि ने विचार व्यक्त किया. सायंकाल हिन्दी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी कवियों ने रसविभोर किया, जिसका उद् घाटन डा. अजय पाठक ने किया. अध्यक्ष मंडल में सूर्यदेव पाठक पराग, सनत कुमार तिवारी, बुधराम यादव थे. संचालन डा. गुरूचरण सिंह ने किया, जबकि बी.बी. सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन दिया.
सम्मेलन के पहले दिन राष्ट्रीय साप्ताहिक द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण के नये अंक का भी लोकार्पण किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के विशेष संवाददाता अनिल द्विवेदी भी पहुंचे. उन्होंने पूरे दो दिन सम्मेलन में शिरकत की, उम्मीद है अगले अंक में ही इसकी रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी, जिससे भोजपुरी के अलावा छत्तीसगढ़ी बोली की जरूरतों को भी देश-दुनिया तक पहुंचाया जा सकेगा.