बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

तटस्थ रहने का अपराध न करे कांग्रेस

घोषणा पत्र सामने आने से पहले ही कांग्रेस ने यह साफ किया है कि सलवा जुड़ूम पर उनकी पार्टी ख़ामोश रहेगी. दो बडे़ नेता महेन्द्र कर्मा और अजीत जोगी इस आंदोलन पर अलग-अलग राय रखते हैं. जोगी मानते हैं कि सलवा जुड़ूम के पीछे भावना तो सही है पर निहत्थे अथवा केवल तीर-कमान लेकर चलने वाले आदिवासियों को घातक बम और एके-47 रखने वालों से मुक़ाबले के लिये आगे नहीं किया जा सकता. दूसरी तरफ श्री कर्मा कहते हैं कि इस आंदोलन को वे इतनी दूर तक साथ दे चुके हैं कि उनका पीछे हटना मुमकिन नहीं है.
दोनों नेताओं की एक बैठक राजधानी में हुई थी, उनमें एक राय नहीं बन सकी. राज्य की कांग्रेस इकाई ने भी मान लिया कि सलवा जुड़ूम पर पार्टी की कोई सर्वसम्मत राय नहीं है. लेकिन प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते क्या कांग्रेस की चुप्पी ठीक है? सलवा जुड़ूम और नक्सल समस्या एक दूसरे से गुंथे हुए हैं. भाजपा के प्रमुख राजनैतिक दल व सत्ता में होने की वजह से तथा कांग्रेस के प्रभावशाली नेता महेन्द्र कर्मा के आदिवासियों के एक बड़े वर्ग में असर होने के नाते सलवा जुड़ूम से पड़े नकारात्मक-सकारात्मक प्रभावों का कोई राय जाहिर तो करनी ही होगी. नक्सली हिंसा में मौतें बीते 4 सालों के भीतर 4 गुना बढ़ी. सुरक्षा बलों व स्थानीय आदिवासियों पर हमलों का तेज हुए हैं. खनिज व रेल संसाधनों को क्षति पहुंचाना, 50-60 हजार लोगों का अपने गांवों से बेदख़ल हो जाना और शिविरों में रहना, विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तारियां होना, सैकड़ों आदिवासी परिवारों का आंध्रप्रदेश व दूसरे राज्यों की सीमाओं में शरण लेना, हजारों बच्चों का वहां शिक्षा से वंचित होना, कुपोषण से पीड़ित होना, सुरक्षा बलों व नक्सलियों के ख़िलाफ खड़े लोगों पर अत्याचार के आरोप लगना, उद्योगों के लिये भूमि देने का विरोध और समर्थन, बेदखली के लिये उत्पीड़न जैसे दर्जनों प्रश्न हैं. क्या इनके नेपथ्य में सलवा जुड़ूम क्या कहीं भी नहीं है? आखिरकार, नक्सल समस्या ने पूरे छत्तीसगढ़ पर असर डाला है. वे साधारण मतदाता भी, जो कभी बस्तर नहीं गये इसे लेकर चिंतित हैं और जल्द से जल्द बस्तर, सरगुजा के इलाकों को हिंसा से मुक्त देखना चाहते हैं, भोले-भाले आदिवासियों के लिये अपनी परम्परा, प्रकृति तथा मिट्टी के बीच सहज जीवन-यापन चाहते हैं. ऐसे महत्व के विषय पर कांग्रेस या कोई राजनैतिक दल मौन रहकर मतदाताओं के बीच कैसे जा सकती है? क्या कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में नक्सल समस्या पर भी कुछ नहीं बोलेगी? या फिर केवल भाजपा की निंदा करेगी. पर इससे तो कोई बात नहीं बनेगी. आखिर यह तो राज्य की प्रतिष्ठा और छबि का भी प्रश्न बनता है.
सभी दल और नक्सल समस्या से चिंतित लोग मान चुके हैं कि यह मसला केवल कानून का नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक भी है. प्रायः सभी राजनैतिक दल मानते हैं कि नक्सल किसी एक राज्य की नहीं बल्कि देश की समस्या है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती बता चुके हैं. देश-विदेश के अनेक मानवाधिकार संगठन सलवा जुड़ुम की बंद करने की मांग कर चुके हैं, जन सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारियों की निंदा कर चुके हैं और उनकी रिहाई के लिये आंदोलन भी कर रहे हैं. यदि उनकी बात ठीक हैं तो कांग्रेस साफ कहे,, नहीं है तो कहे.
दो जिम्मेदार नेताओं में घोर असहमति के कारण राज्य के सबसे जलते सवाल को किनारे कर देने से काम कैसे चलेगा. उन लाखों मतदाताओं का क्या होगा, जो केवल इसी बात पर कांग्रेस को वोट देने या नहीं देने का फैसला करने वाले हैं. राज्य की पार्टी इकाई यदि दोनों नेताओं के बीच सुलह नहीं करा सकती तो केन्द्रीय नेता सोचें और पहल करें. कांग्रेस एक राजनैतिक दल है. दल की एक विचारधारा होती है. कांग्रेस को विचार तो व्यक्त करना ही होगा. क्या सलवा जुड़ूम खत्म कर दिया जाये? या उसके स्वरूप में बदलाव किया जाये या उसका पूरी तरह समर्थन किया जाये, किसी एक लाइन पर तो उसे चलना ही होगा. यह लाइन नक्सल पीड़ितों की आवाज़ पहचानने पर टिकी हुई है, क्या सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने हमेशा आदिवासियों के बीच काम करने का दावा किया है, उनका मन टटोलने में असफल है या उससे मुंह मोड़ना चाहती है. क्या उनका सारा तर्क-वितर्क केवल दो नेताओं के विचार तक सीमित है. किसी के रूठ जाने के डर से, उनके समर्थकों के वोटों का नुकसान उठाने के डर से एक प्रमुख राष्ट्रीय राजनैतिक दल को तटस्थ रहने का अपराध नहीं करना चाहिये. भूख-भय, शोषण, हिंसा के ख़िलाफ बस्तर में लड़ाई अभी जारी है. नक्सल और इससे जुड़े तमाम सवालों पर राजनैतिक दलों की भी भूमिका इतिहास के पन्नों में चुपचाप दर्ज़ होते जा रहे हैं. इसलिये सबको अपनी राय स्पष्ट करनी होगी. आखिर सजग मतदाता भी किसी पार्टी के विचारों को ही ध्यान में रखकर ही अपना मत बनाता है.

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

चल रे मन वृंदावन की ओर

-राजेश अग्रवाल















लोक में रचा-बसा गणेशोत्सव पर होने वाला एक अलौकिक गम्मत

यह गम्मत वह नहीं है जिसमें नचकहर और जोक्कर पब्लिक को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. न ही यह नाचा में दिखाई देने वाला टुकड़े-टुकड़े में गूंथने के बाद भी बिखरे-उलझे छत्तीसगढ़ी और हिन्दीफिल्मी गीतों का ताना-बाना है. यह तो हर साल गणेश पूजा पर होने वाला अलौकिक गम्मत है, जिसका हर पात्र संगीत व नृत्य के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने का प्रयास करता है. क्योंकि इसमें है श्रीमद्भगवतगीता के दशम अध्याय का वर्णन. हैरत की बात यह भी है कि इस गम्मत में छत्तीसगढ़ी का भी कहीं समावेश नहीं,फिर भी रतनपुर की लोक-संस्कृति में अगर कुछ रचा-बसा है तो वह केवल यह गम्मत है.
महामाया शक्तिपीठ रतनपुर की पवित्र धार्मिक विरासत है. कलचुरी, मराठा शासकों के इतिहास के बिम्ब भग्न किले छत्तीसगढ़ की इस प्राचीन राजधानी ऐतिहासिक राजसी वैभव के प्रतीक हैं और 350 साल पुराना बाबू रेवाराम श्रीवास्तव का गम्मत हमें रतनपुर के सांस्कृतिक-साहित्यिक गौरव से पहचान कराता है. रतनपुरिहा गम्मत भक्तिकालीन कवियों की चुनी हुई रचनाओं का अद्भुत संग्रह है. सूरदास, कबीर, मीराबाई, रसखान जैसे अमर रचनाकारों के छंद तो इसमें लिये ही गये हैं. चंद्रसखी जैसे अनेक भक्तिकालीन कवि जिनके दस्तावेज और कहीं अब शायद ही कहीं मिल सकें, वे बाबू रेवाराम के गुटके में मिलता है. कृष्ण के जीवन के विभिन्न प्रसंगों को बाबू रेवाराम ने इन कृतियों से बीनकर कुछ इस तरह पिरोया है कि पूरी कृष्ण लीला ने एक मौलिक व सम्पूर्ण आकार ले लिया है. रचनाओं का चयन करते समय बाबू रेवाराम ने इस बात का ध्यान रखा कि किस कवि की रचना का कौन सा भाग आम लोगों को कृष्ण की लीला को सरलता से समझा देता है. अनूठी बात यह है कि जब कथानक के किसी हिस्से को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें कोई रचना ठीक नहीं लगी तो उन्होंने वहां खुद दोहे लिखकर जोड़ दिये.
बाबू रेवाराम की कृतियां नष्ट
बाबू रेवाराम छत्तीसगढ़ के उन रचनाकारों में हैं, जिनकी विद्वता से हजारी प्रसाद द्विवेदी भी प्रभावित थे, लेकिन उनकी रचनाओं को सहेजा नहीं जा सका. बिलासपुर जिले के अधिकांश देवी मंदिरों में गाये जाने वाले जसगीतों के रचनाकार बाबू रेवाराम ही हैं. कुछ इतिहास के जानकार तो यह आरोप लगाते हैं कि उनकी जाति उनकी कृतियों को प्रकाश में लाने में आड़े आई. यह तब की बात है जब विद्वता और पांडित्य में केवल ब्राम्हणों का वर्चस्व था. यह बात पता नहीं कितना सच है लेकिन रतनपुर के लोगों से बातचीत करने में दो बातें गौर करने लायक सुनने को मिलती है. एक तो यह कि उनकी रचनाओं को महामाया मंदिर में ही सहेज कर रखा गया था. लेकिन अब से सौ-सवा सौ साल पहले किसी विध्नसंतोषी ने उन पांडुलिपियों को फाड़-फाड़ कर प्रसाद बांट दिया और बहुमूल्य कृतियां नष्ट हो गईं. रतनपुर को लहुरी-काशी भी कहा जाता था, क्योंकि काशी से संत-विद्वान जगन्नाथ पुरी की यात्रा के लिये निकलते थे तब यहां विश्राम करते थे. दूसरी बात कही जाती है कि बाबू रेवाराम भी विद्वान थे लेकिन उन्हें इन संतों विद्वानों से शास्त्रार्थ करने के लिये उनके बराबर नहीं बैठ सकते थे. एक बटुक के माध्यम से वे वाद-विवाद करते थे. बाबू रेवाराम के जिस गुटके के आधार पर रतनपुरिहा गम्मत का मंचन होता है, उसका भी अधिकारिक प्रकाशन अब तक नहीं हो सका है. स्थानीय स्तर पर रेवाराम साहित्य समिति ने उनके गुटके का प्रकाशन कराया है, जो अधूरा ही है.
इस बार भी गम्मत एकादशी से
गणेश चतुर्थी के बाद आने वाली भादो एकादशी से यह गम्मत शुरू होकर पांच दिन चलता है. इसलिये इसे भादो गम्मत भी कहा जाता है. पहले दिन गुटका की पूजा व मंगल आरती होती है. दूसरे दिन कृष्ण जन्म और पूतना वध, तीसरे दिन से रास लीला के विभिन्न प्रसंगों का गायन-वादन होता है. तब यह गम्मत से कहीं ज्यादा रहस के करीब लगता है. रात 9-10 बजे से तीसरे पहर तक चलने वाले इस गम्मत के आखिरी दिन सुबह हो जाती है. इस दिन भगवान अतर्धान होते हैं. सखियों के विलाप के प्रसंग में जैसे दर्शक अपने आपको खुद भी शामिल कर लेता है. पर अंत सुखद होता है, क्योंकि उधो सखियों को शरीर की नश्वरता और आत्मा से परमात्मा तक पहुंचने का संदेश कृष्ण की ओर से सुनाते हैं.
आयोजन में खर्च यूं तो ज्यादा नहीं होता लेकिन सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये गम्मत दल घरों घर निमंत्रण देने जाता है और उनसे चंदा भी लिया जाता है. रतनपुरिहा गम्मत की प्रस्तुति के साथ कोई व्याख्या नहीं की जाती. इसमें संवादों की जगह ही नहीं है. चूंकि अलग-अलग कवियों के दोहों का छंद विन्यास भिन्न-भिन्न है अतएव इनकी संगीत संरचना भी विविधता से भरपूर है. कहीं तीव्र कहीं मध्यम, कहीं पर सुगम तो कहीं शास्त्रीय. श्रोता इसका भरपूर आनंद लेते हैं. कुछ तो इतने कठिन रागों में निबध्द है कि गायकों की टोली कई-कई साल तक ठीक तरह से गाने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं और कुछ इतने सरल कि यदि कोई अपनी गायकी को आजमाना चाहे तो वह दर्शक दीर्घा से उठकर मंच पर भी बैठ जाता है. पांच दिनों की पूरी प्रस्तुति बाबू रेवाराम के उपलब्ध गुटके से ही होती है. इस गम्मत में भी परियां होती है, जोकर होते हैं. चूंकि भक्ति का कार्य है तो आजकल तो गांव की बेटियां भी निःसंकोच गोपियां व राधा बनकर मंच पर आने लग गई हैं.
रतनपुर की रगों में दौड़ता है गुटका
रतनपुरिहा गम्मत की नई पीढ़ी बहुत धीमे गति से तैयार हो रही है. हाल के दिनों में कोई नई टोली नहीं बनी है. यह आसान भी नहीं है. इतना वक्त नई पीढ़ी के पास नहीं कि वे कई-कई दिन रियाज कर गम्मत गायन में पारंगत हो सके. फिर भी इस समय रतनपुर के करैया पारा, बाजार पारा, भेड़ी मुड़ा और महामाया पारा में रतनपुरिहा गम्मत की सशक्त टोलियां हैं. पहले रानीगांव, मटियारी और आसपास के कई गांवों में युवकों के दल थे. एक टोली में गायक और साजिंदों को मिलाकर 20 से 25 लोग होते हैं. लेकिन नये गायकों के अभाव में कई बार इससे कम लोगों में भी काम चलाया जाता है. यह गम्मत जीविकोपार्जन का जरिया नहीं है, लोग इसे आपस में सुनते-दिखाते हैं. 85 साल के भंगीलाल तिवारी अब ऊंचे स्वर में आलाप नहीं ले पाते लेकिन उनके बगैर महामाया पारा का गम्मत अधूरा लगता है. इनके अलावा बल्देव प्रसाद शर्मा, किशन तम्बोली, राजेन्द्र गिरी गोस्वामी, नरेन्द्र शर्मा, लक्ष्मी तम्बोली, शिवकुमार तम्बोली और नई पीढ़ी के गायकों में सोमेश्वर गोस्वामी भादो गम्मत के समर्पित कलाकारों में शामिल हैं.
रतनपुर की इस विशिष्ट पहचान को रतनपुर से बाहर तक ले जाने की कोशिश भी की गई है. अब से 4 साल पहले रेवाराम साहित्य समिति और काव्य भारती बिलासपुर के प्रयास से आसपास के गांवों से करीब 100 युवकों को रतनपुरिहा गम्मत की कार्यशाला में प्रशिक्षण दिया गया था. इसके बाद रतनपुर के नजदीकी गांवों, बिलासपुर तथा रायपुर में इसका मंचन भी हुआ, लेकिन अब इन युवकों की टीम बिखर चुकी है. दरअसल रतनपुरिहा गम्मत मौलिक रूप से आजीविका से जुड़ा मंचन रहा ही नहीं. लेकिन अब यदि इसका विस्तार करना है और नई पीढ़ी को इससे जोड़ना है तो इसे पारिश्रामिक के साथ भी जोड़ना होगा. संस्कृति विभाग को भी सोचना होगा कि इस कीमती विधा को नष्ट न होने दे.
धार्मिक नहीं सामाजिक उत्सव
रतनपुर का गम्मत धार्मिक न होकर एक सामाजिक मेलमिलाप का उत्सव है. किसी रतनपुरिहा में किस हद तक इसका जुनून सवार है यह समझाने के लिये आज से 50 साल पुरानी एक घटना रतनपुर के गम्मतिहा बताने से नहीं चूकते. रतनपुर गम्मत के एक तबला वादक थे, छोटे खान. जब वे मृत्युशैय्या पर चले गये तो उन्होंने अपने गम्मतिहा साथियों से मिलने की इच्छा जाहिर की. जब वे पास पहुंचे तो छोटे खान ने कहा- जाओ तुम लोग सब साज भी लेकर आओ, मुझे गम्मत के दोहे सुनाओ.एक दो साथी भागते हुए गये और तबला हारमोनियम के साथ शुरू हो गये.अद्भुत दृश्य था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान और खुदा दोनों ही एक सह्रदय जीव को अपने साथ ले जाने के लिये आतुर हैं. जब छोटे खान अंतिम सांसे ले रहे थे तो एक तरफ कुरान का पाठ हो रहा था, दूसरी ओर से आलाप लेकर उनकी मित्र मंडली गा रही थी-चल रे मन वृंदावन की ओर.

सोमवार, 4 अगस्त 2008

जशपुर का अपजश

जशपुर की सैकड़ों बेटियां न जाने किस नर्क में होंगी. एक बार बहकावे में निर्जन के अपने झोपड़े से संसार सागर में उतरी तो देह की किस मंडी में चली गयीं कुछ पता नहीं.
जशपुर जिले का लुड़ेग बीते कुछ दशकों में टमाटर की खूब फसल के कारण प्रसिध्द था. मिट्टी और मौसम अनुकूल होने के कारण यहां के आदिवासियों ने इसे खूब उगाया. कई बार तो ऐसी नौबत आई कि टमाटर खेतों में ही सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था, क्योंकि बाजार तक लेकर जाने में परिवहन का खर्च भी निकल नहीं पाता था. यहां कई बार मांग हुई कि टमाटर पर आधारित उद्योग लगा दिये जाएं जिससे आदिवासी किसानों का जीवन स्तर ऊपर उठ जाएगा. लेकिन इस पिछड़े इलाके के लिए कुछ नहीं सोचा गया.
पिछले कुछ वर्षों से जशपुर और सरगुजा जिले में एक नई तरह की फसल तैयार हो रही है. उसे बाजार भी खूब मिल रहा है. ये फसल हैं इस इलाके के निर्धन आदिवासी उरांव परिवारों की नाबालिग लड़कियां और बाजार बने हुए हैं दिल्ली गोवा जैसे देश के महानगर. इस फसल को खाद-बीज दे रहे हैं उनके अपने निकट सम्बन्धी और बिचौलिये का काम कर रही हैं, दिल्ली में काम कर रही 200 से ज्यादा प्लेसमेन्ट एजेंसियां. लड़कियां टमाटर तो होती नहीं. उनकी धमनियों में रक्त का संचार होता है. मन है, जो पंख लगाकर आकाश में उड़ना चाहता हैं. ह्रदय है जिसमें सुख-दुख मान,अपमान, स्वाभिवान कष्ट और प्रसन्नता महसूस कर सकती हैं. पर सरगुजा और जशपुर इलाके के गांवों में 3 दिन भटकने के बाद महसूस हुआ कि इन सब भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार केवल उनको है, जिनके पेट भरे हों.

इनकी आंखों में आंसू भी आते हैं तो रोककर रखना होगा, बाप को बेटी से बिछुड़ने और बेटी को घर की याद आने पर भी दोनों विवश हैं. पुलिस व प्रशासन की मदद नहीं मिलने की आशंका से अभिभावकों के पैरों में बेड़ियां लग गई हैं और बेटियां तो पता नहीं कहां नजरबंद हैं या घुटन भरी कोठियों में बीमार पड़ गई या मार डाली गई. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए ऐसी लड़कियों की संख्या सैकड़ों में है, जो एक बार निर्जन जंगल में बनी अपनी झोपड़ी से महानगरों की भूल-भुलैया में अपना भविष्य संवारने का सपना लिए निकल पड़ी और फिर उनका कुछ पता नहीं चला. सीतापुर ब्लाक के बेलगांव की ललिता एक्का पिछले सात साल से दिल्ली के एक मीडिया हाऊस में झाड़ू पोछे का काम कर रही है. 6ठवीं तक पढ़ी 19 साल की ललिता से जब हम मिले तो वह संकोच झिझक उसकी आंखों व हाव-भाव व पहनावे में नहीं थे, जो अक्सर इस गांव की लड़कियों में दिखाई देती है.

जशपुर जिले के दुलदुला थाना के अंतर्गत आने वाले चटकपुर गांव की शशिकांता किण्डो को जुलाई 2006 में गांव की ही अनिता और विमला अच्छी नौकरी दिलाने का आश्वासन देकर ले गये थे. वहां पहुंचने के बाद चिराग, दिल्ली के एक प्लेसमेंट एजेंट राजू अगाथा ने हिमांशु बख्शी के यहां नौकरी दिलाई. वहां मालकिन नमिता ने कुछ दिनों तक तो ठीक रखा पर बाद में उसे घर से निकलने भी नहीं दिया जाता था. जब भी शशिकांता गांव वापस लौटने की जिद करती थी, उसे जल्द ही छोड़ देने का भरोसा दिलाया जाता था. इधर गांव में शशि की मां प्रमिला और पिता विन्सेन्ट लकड़ा परेशान हो रहे थे. जब भी वे अपनी बेटी से फोन पर बात करने की कोशिश करते थे, मकान मालकिन उन्हें बात कराने से कोई न कोई बहाना बना देती थी. परेशान होकर उन्होंने दुलदुला थाने में शिकायत कर दी. मालकिन ने तब शशिकांता को धमकाया और उसकी शादी जबरदस्ती उसी अपार्टमेन्ट में वाचमैन का काम करने वाले रविन्द्र कुमार यादव से करा दी. रविन्द्र उसे अपने कमरे में लेकर रहने लगा.

इधर मालकिन से जब शशिकांता से बात कराने कहा जाता था तो उन्होंने कह दिया कि लड़की शादी कर चुकी है और अब उसके पास नहीं है. बहदवास मां अपनी भाई की पत्नी थेलमा के साथ दिल्ली पहुंची. थेलमा 10 साल से दिल्ली में ही रहती थी. रविन्द्र से शशिकांता के बारे में बात की जाती थी तो वह धमकियां देता था, झूठ बोलता था. बाद में उसने यह भी सफाई दी कि वह शशिकांता से शादी करना नहीं चाहता था, उसकी शादी तो पहले ही हो चुकी है और उत्तरप्रदेश के गांव में बीवी बच्चे रहते हैं. यह सब तो शशि की मालकिन के दबाव में उसे करना पड़ा. शशि अपनी जान बचाकर गांव लौट गई है. उनके मां-बाप कहते हैं कि अब किसी सूरत में इसे दिल्ली या और कहीं नहीं भेजेंगे. इकलौती बेटी की शादी यहीं किसी अच्छे लड़के से कर देंगे.

हैरत की बात है कि कई बार छोटी उम्र की लड़कियां मां-बाप या भाईयों से नाराज होकर भी घर छोड़कर भागती हैं तो बहुत दूर निकल जाती हैं और कई साल तक घरों की ओर दुबारा नहीं झांकती. पर जब लगातार प्रता़ड़ित हो जाती हैं और कैद होकर रह जाती हैं तो हर तरह का जोखिम उठाकर गांव वापस भाग आती हैं. लुड़ेग के पास घुरूआम्बा की रमिला टोप्पो के साथ ऐसा ही हुआ. गांव वालों ने बताया कि इस लड़की को गुजरात में किसी घर में नजरबंद कर लिया गया था. उसे घर से निकलने नहीं दिया जाता था और उसके हाथ में कोई पैसा नहीं दिया जाता था. किसी तरह एक सहेली से उसने टिकट के पैसे का प्रबंध किया और जिस कपड़े को पहने हुए थी, उसी में भाग निकली.

दो दिन बाद कुनकुरी पहुंची और 11 किलोमीटर पैदल चलकर रात के 9 बजे घर पहुंची. 6 साल बाद अपनी बेटी को घर पर बहदवास, बीमार हालत में देखकर अनपढ़ मां-बाप की आंखों में आंसू आ गए. वे अपनी बेटी के वापस मिलने की उम्मीद ही खो चुके थे. दूसरी तरफ रमिला जो कहानी बताती है उसके अनुसार वह अपने भाई ने मारपीट की तो नाराज होकर वह भाग गई. गांव से वह सीधे रायगढ़ में मदर टेरेसा अनाथ आश्रम में चली गई और वहां से इंदौर के एक अनाथाश्रम में भेज दिया गया. फिर वहां से सूरत के एक मिशनरी संचालित अनाथाश्रम में रख दिया गया. लगातार वहीं रह रही थी. रमिला की मानें तो इन अनाथाश्रमों में उसे कोई तकलीफ नहीं थी. खाने और कपड़े दिये जाते थे और पढ़ाई कराई जा रही थी. वह अपनी कहानी बताते वक्त कई बार ठिठकती रही तथा बीच-बीच में अपनी ही कई बातों को झुठला रही थी. जब वहां कोई तकलीफ नहीं थी तो भागकर क्यों आना पड़ा, पूछने पर वह कहने लगी कि घर की याद आ रही थी.

इतने सालों तक सम्पर्क क्यों नहीं किया? वह कहती है कि चूंकि उसने सभी जगहों पर खुद को अनाथ बताया था इसलिये किसी से कहते नहीं बना कि वह घर के लोगों को चिट्ठी लिखना चाहती है या उनसे फोन पर बात करना चाहती है. रमिला जब घर से अकेले निकली तो उसकी उम्र 9 साल के करीब थी. 6 साल बाद लौटने के बाद वह जसपुरिया बोली लगभग भूल गई है और अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में बात कर रही है. वह कम्प्यूटर सीखने और पढ़ाई करने की इच्छा रखती है, इसके लिये रायगढ़ या रांची के किसी बड़े स्कूल में दाखिला लेना चाहती है.

जो लौट के घर न आए

अब उनके गरीब मां-बाप इतने साल बाद मिले अपनी बच्ची को बाहर नहीं भेजना चाहते. साथ ही गरीबी के कारण बहुत बड़े स्कूल में बाहर पढ़ाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं. लेकिन रमिला ने उन्हें साफ कह दिया है कि वह गांव में नहीं रहना चाहती. दिल्ली से गये मीडिया के कुछ लोगों ने रमिला को टटोला तो वह तुरंत उनके साथ दिल्ली निकल चलने के लिए तैयार हो गई.

सरगुजा जिले के बतौली गांव की 14 साल की तारिणी घर से तो निकली थी, पड़ोस में सरसों की भाजी छोड़ने के लिये, लेकिन वह निकल गई दिल्ली. पिता भण्डारी और मां मुनारो किन्डो कुछ दिन बाद यह जानकर कुछ राहत महसूस कर सके कि वह अपने मामा की लड़की प्रमिला के साथ निकली है, जो पहले से ही दिल्ली आती जाती रहती है. बतौली ब्लाक मुख्यालय और उसके आसपास के गांवों से प्रमिला की तरह ही कई नजदीकी रिश्तेदारों ने लड़कियों को घरेलू नौकरानी के लिए काम पर पहुंचाया है, जिनमें से तारिणी समेत कम से कम 7 लड़कियों का आज पता नहीं है कि वे कहां हैं.
तारिणी जैसी लड़कियों को बचाने के लिए असल में जब लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा तो ही इलाके में कैंसर की तरह फैल चुके मानव-व्यापार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी. अभी तो उरांव आदिवासी परिवारों के भाई, पिता के हाथ खाली हैं, बेटियों को पढ़ाई और शादी करने के दिनों में बाहर भेज देना, उन्हें बिल्कुल नहीं भाता, पर असहाय हैं. इनके हाथ में काम हो, कुछ आय बढ़े तो हिम्मत के साथ वे इन लड़कियों को भी रोकेंगे और लड़कियों का भी भरोसा अपने परिवार व समाज पर बढ़ेगा.

बुधवार, 30 जुलाई 2008

सांसद वापस बुलाने का अधिकार क्यों नहीं हो?

-राजेश अग्रवाल
छत्तीसगढ़ में 45 साल पुराना एक कानून बोतल से जिन्न की तरह बाहर निकल कर आ गया है, जो लोकतंत्र पर भरोसा करने वाले हर मतदाता के लिये तो सुखद है पर एक बार चुन लिये जाने के बाद पद का दुरूपयोग करने वाले जनप्रतिनिधियों के लिये खतरे की घंटी है. संसद में विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया के दौरान पता नहीं कितने ही सांसद अपने मतदाताओं का भरोसा खो बैठे हैं पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार मतदाताओं को नहीं है. इधर छत्तीसगढ़ में 3 नगर पंचायत अध्यक्षों को नाराज जनता ने नहीं बख्शा और नगरपालिक अधिनियम 1961 की धारा 47 का इस्तेमाल करते हुए उन्हें कुर्सी से अलग कर दिया. इस कानून ने ऐसी जागरूकता लाई है कि अब एक चौथे नगर पंचायत अध्यक्ष पर भी शामत आ गई है, उन्हें भी जनता का विश्वास हासिल करना होगा.
दरअसल अविभाजित मध्यप्रदेश में स्थानीय निकायों के लिये बना कानून अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ में भी उसी तरह लागू हो गया था. इस अधिकार के तहत सबसे पहले धमतरी के नगर पंचायत अध्यक्ष विमल चोपड़ा के खिलाफ लाया गया था, लेकिन वे इसकी कुछ प्रक्रियाओं पर आपत्ति लगाते हुए हाईकोर्ट चले गये थे. उनका मामला अभी लम्बित है. गुण्डरदेही की अध्यक्ष भारती सोनकर भी हाईकोर्ट गई थी. उनके मामले में फैसला आ गया और आवेदन खारिज हो गया. पिछले 15 जून को भारती सोनकर समेत दो अन्य अध्यक्षों कोरेन खलखो, राजपुर और सीताराम गनेकर नवागढ़ के खिलाफ मतदाताओं ने वोट दिया और उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी. सिलसिला चल चुका है और लग रहा है कि वायदाखिलाफी करने वाले, भ्रष्टाचार में लिप्त रहने या अपनी जवाबदेही भूल जाने वाले जनप्रतिनिधियों को ढ़ोते रहने के लिये मतदाता लाचार नहीं रह गये हैं. अब एक और नगर पंचायत कुसमी के अध्यक्ष को अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिये मतदाताओं के बीच जाना होगा. इसके लिये मतदान 26 अगस्त को होगा और मतों की गिनती 28 अगस्त को होगी. इन्हीं दिनों में गुण्डरदेही, राजपुर और नवागढ़ में भी नये अध्यक्षों के लिये चुनाव हो रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में प्रत्यक्ष मतदान के जरिये इन अध्यक्षों का चुनाव हुआ था. इसलिये सामान्य सभा में बहुमत खोने के बाद भी इन्हें नहीं हटाया जा सकता. प्रक्रिया के तहत तीन चौथाई पार्षदों ने कलेक्टर के समक्ष अविश्वास प्रस्ताव का आवेदन दिया. इसके बाद 15 जून को मतदान कराया गया. मतपत्र में प्रत्याशियों के नाम नहीं थे, बल्कि एक खाली व दूसरी भरी हुई कुर्सी के चित्र थे. श्रीमती सोनकर के पक्ष में 1389 मत पड़े जबकि खिलाफ में 1977 वोट, श्री गनेकर के पक्ष में 805 वोट पड़े और खिलाफ में 1146, कोरेन खलखो के खिलाफ 813 मतदाता थे, जबकि उनके पक्ष में 740 वोट पड़े.
हालांकि छत्तीसगढ़ में इस कानून का इस्तेमाल पहली बार हुआ है, लेकिन मध्यप्रदेश में सन् 2002 में इसी एक्ट का इस्तेमाल कर अनूपपुर की नगर पालिका अध्यक्ष पावलिका पटेल को हटाया जा चुका है. महाराष्ट्र में भी स्थानीय निकायों के लिये इसी तरह का कानून है पर वहां पर अभी तक कोई उदाहरण इसके इस्तेमाल करने को लेकर मिला नहीं है.
1992 में जब राजीव गांधी सरकार ने 73 वें संविधान संशोधन के जरिये पंचायती राज अधिनियम संसद से पारित कराया तो कई राज्यों ने इसे लागू करने में ना-नुकर की. इसके बाद 1996 में महिलाओं, अनुसूचित जाति जनजाति व पिछड़े वर्ग को अवसर देने के लिए इस अधिनियम में कई बिन्दु और जोड़े गये. अनेक राज्यों ने इसमें संशोधन करके अधिनियम लागू किया. छत्तीसगढ़ ने लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रावधान लागू किये. दो से अधिक बच्चे होने पर या घर में शौचालय न होने पर चुनाव लड़ने का अधिकार खो देना, निर्वाचित होने के बाद तीसरा बच्चा पैदा होने पर पद खो देना आदि कुछ कठोर प्रावधान भी इसमें शामिल हैं. नगर निकायों के अध्यक्षों के मुकाबले सरपंचों को मतदाताओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाया गया है. पंचों के तीन चौथाई बहुमत के जरिये भी वे हटाये जा सकते हैं और ग्राम सभाओं के माध्यम से भी. मध्यप्रदेश पंचायती राज अधिनियम में 1999 व 2001 में किये गये संशोधनों के अनुसार सरपंचों को ग्राम सभाओं की अनुमति से ही किसी भी प्रकार का व्यय, निर्माण कार्य, चाहे वह पंचायत की बैठक में पारित कोई प्रस्ताव हो या न हो, गरीबी रेखा की सूची, निराश्रितों का पेंशन, आवासहीनों को जमीन का पट्टा सब कुछ तय होगा, जबकि नगर निकायों में पार्षदों की मौजदूगी में होने वाली सामान्य सभा में ही इसका फैसला लिया जा सकता है. ग्राम सभाओं को अपने सरपंच को सीधे बर्खास्त करने का भी अधिकार है. लेकिन इसमें ग्राम सभा के कुल सदस्यों का पांचवा हिस्सा मौजूद रहना चाहिये तथा इनमें भी कम से कम एक तिहाई महिलाएं हों.
छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में एक और संशोधन करके आरक्षित सीटों का क्रम जो पहले हर बार बदल जाता है, उसे 10 सालों के लिये स्थायी कर दिया है, इसके चलते अब एक बार चुना गया पंचायत प्रतिनिधि दूसरी बार भी अपनी सीट से लड़ सकेगा. पहले आरक्षण के कारण हर बार स्थिति बदल जाती थी और इस वजह से पंच, सरपंच मतदाताओं की परवाह ही नहीं करते थे. एक और महत्वपूर्ण संशोधन के तहत पंचायतों में 33 की जगह 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित कर दी गई है.
लब्बोलुआब यह कि नगर निकाय और पंचायतों में जो प्रतिनिधि चुनकर आते हैं वे अपने मतदाताओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह हैं. सांसद और विधायकों के लिये इतनी पाबंदी और जवाबदेही नहीं है. नगर निकायों में सीमित इस कानून को संसद और विधानसभा में चुने जाने वाले प्रतिनिधियों पर भी लागू क्या नहीं किया जाना चाहिये? हम संसद में लाये गये विश्वास मत के पक्ष में खड़े हों या विपक्ष में, लेकिन सांसदों के आचरण पर सवाल तो उठे हैं. क्या मतदाताओं को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिये कि वे तय कर सकें कि उन्हें अपने सांसद का काम पसंद नहीं आया तो वापस बुला लें.
नगर निकायों व पंचायतों में मतदाताओं को सौंपे गये अधिकार दरअसल कई अर्थों में इन संस्थाओं को नौकरशाहों के कब्जे में रखने का षड़यंत्र है. ज्यादातर पंच-सरपंच पढ़े लिखे नहीं है, अनुसचित जाति जनजाति व महिला वर्ग से आये जनप्रतिनिधियों को पंचायत एक्ट का ही पता नहीं है. केन्द्र से आने वाली राशि का दुरूपयोग जनपदों के सीईओ, पंचायतों के सचिव व पढ़े लिखे उप-सरपंच और उपाध्यक्ष तथा ठेकेदार करते हैं पर कलम इन प्रतिनिधियों की फंसी रह जाती है. ऐसे मामलों में प्रशासनिक अधिकारी इन प्रतिनिधियों को सीधे बर्खास्त करने और उन्हें जेल भिजवा देने का अधिकार भी रखते हैं. जब से आईएएस अधिकारियों को जिला पंचायतों का सचिव बनाया गया है अध्यक्षों की बिल्कुल नहीं सुनी जाती, सदस्यों को तो अपने इलाके में काम मंजूर करने के लिये गिड़गिड़ाना पड़ता है. नगर पंचायतों व नगर पालिकाओं में भी कमोबेश यही स्थिति है. पार्षद अक्सर आयुक्त व सीएमओ के पास नाली बनवाने, मच्छर भगाने व पेयजल उपलब्ध कराने के लिये गुहार लगाते हैं पर ये अधिकारी मंत्री-विधायकों को साध कर रखते हैं और इनकी बात नहीं सुनते. हाल ही में छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक धनेन्द्र साहू ने आरोप लगाया कि जनप्रतिनिधियों को भाजपा सरकार नौकरशाहों के जरिये धमका रही है. आरंग की महिला सरपंच लता चंद्राकर को हाईकोर्ट से स्थगन मिल गया था, इसके बाद भी उसे बर्खास्त कर दिया गया. बयान राजनैतिक भी हो सकता है लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे.
मतदाताओं के फैसले पर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता, तीन नगर पंचायतों के अध्यक्ष पार्षदों के बहुमत से खिलाफत करने व मतदाताओं के वोट डालने के बाद पदच्युत किये गये हैं, किन्तु क्या यह संयोग नहीं है कि भारती सोनकर, सीताराम गनेकर और कोरेन खलखो महिला अथवा अनुसूचित जाति से हैं. शायद वे उन तिकड़मों को नहीं जानते थे जिसका राजनैतिक दल इस्तेमाल कर जनता का सामना करने से बचे रह जाते हैं. एक शहर या एक गांव की कमान संभालने वाले जनप्रतिनिधियों के लिये तो कानून कड़े कर दिये गये हैं, पर संसद और विधानसभा में पहुंच कर देश और प्रदेश के लिये नीतियां बनाने वाले सदस्य पांच साल के भीतर एक बार भी मतदाताओं का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं. कोई ऐसा कानून क्यों नहीं बनाया जाता कि सांसद, विधायक भी री-काल के दायरे में लाये जाएं. ऐसा कोई प्रावधान होता तो शायद मध्यप्रदेश के सांसद चन्द्रभान के घर में तोड़फोड़ की नौबत नहीं आती. मतदाता उन्हें वापस बुला लेते. दुनिया के कई देशों में मतदाताओं को यह अधिकार दिया गया है. सोवियत संघ के भीतर आने वाले 36 राज्यों में से 18 में यह कानून सन 1917 से लागू है. जर्मनी में राज्य स्तर तक के निर्वाचित प्रतिनिधि वापस बुलाए जा सकते हैं. कुछ साल पहले केलिफोर्निया में गवर्नर को जनता ने वापस बुला लिया था. लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले दिनों तिरूअनंतपुरम् की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था कि वे जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार के हिमायती हैं. फिर भी लगता नहीं कि पंचायतों को आदर्श बनाने में लगे हमारे देश के नीति नियंता इन उदाहरणों को खुद पर लागू करेंगे.
(यह आलेख http://www.visfot.com/jan_jeevan/democracy_ch_1.html पर भी उपलब्ध है.)

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

झुरमुट में गुम बांस गीत की मिठास

(दैनिक भास्कर रायपुर में 25 जून 2008 को प्रकाशित)
-राजेश अग्रवाल
निर्धनता के थपेडों से सूख चुके 70 साल के छेड़ूराम को आज की शाम भी चौकीदारी पर जाने के लिए देर हो रही थी. अपने पोपले मुंह से बार-बार उखड़ती सांसों पर जोर देते हुए उसने तकरीबन एक घंटे तक सुरीली तान छेड़ी फिर पूरे आदरभाव के साथ बांस को भितिया पर लटका दिया. अब ये कई-कई दिनों तक इसी तरह टंगा रहेगा.
छैड़ूराम को याद नहीं कि पिछली बार बांस उसने कब बजाया. छेड़ूराम कहते हैं-' अब कौन पूछता है इसे. क्या मैं उम्मीद करूं कि मेरे नाती पोते इसे साध पाएंगे. पूरी रात खत्म नहीं होगी, अगर मैं एक राजा महरी का ही किस्सा लेकर बैठ जाऊं. अब तो वह कोलाहल है कि मेरे बांस बजाने का पड़ोसी को भी पता न चले, पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था. दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी ठहर कर कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था. छठी, बरही, गौना सब में बांस गीत गाने-बजाने वालों को बुलाया जाता था. राऊतों का तो कोई शुभ प्रसंग बांस गीत की बैठकी के बगैर अधूरा ही होता था.
अब इंस्टेन्ट जमाना हैं. टेस्ट मैच की जगह ट्वेन्टी-20 पसंद किये जाते हैं. बांस गीत की मिठास को पूरी रात पहर-पहर भर धीरज के साथ सुनकर ही महसूस किया जा सकता है. इसके सुर बहुत धीमे-धीमे रगों में उतरते हैं, आरोह- अवरोह, पंचम, द्रुत सब इसमें मिलेंगे. जब स्वर तेज हो जाते हैं तो मन-मष्तिष्क का कोना-कोना झनकने लगता है. रात में जब भोजन-पानी के बाद बांसगीत की सभा चबूतरे पर बैठती है तो बांस कहार, गीत कहार, ठेही देने वाले रागी और हुंकारू भरने वाले के बीच सुरों का संगत बिठाई जाती हैं. इसके बाद मां शारदा की वंदना होती है फिर शुरू होता है किसी एक कथानक का बखान. यह सरवन की महिमा हो सकती है, गोवर्धन पूजा, कन्हाई, राजा जंगी ठेठवार या लेढ़वा राऊत का किस्सा हो सकता है. गांव के बाल-बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े बारदाना, चारपाई, पैरा, चटाई लाकर बैठ जाते हैं और रात के आखिरी पहर तक रमे रहते हैं.
'अहो बन मं गरजथे बनस्पतिया जइसे, डिलवा मं गरजथे नाग हो
मड़वा में गरजथे मोर सातों सुवासिन गंगा, सभा में गरजथे बांस हो'
.
राऊत जब जंगलों की ओर गायों को लेकर गए होंगे तब बांस की झुरमुट से उन्हें हवाओं के टकराने से निकलते संगीत का आभास हुआ होगा. इसे कालान्तर में उन्होंने वाद्य यंत्र के रूप में परिष्कृत कर लिया. इसी का उन्नत स्वरूप बांसुरी के रूप में सामने आया. बांसुरी अपने आकार और वादन में बांस के अनुपात में ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण सभी समुदायों में लोकप्रिय हो गया. बांस, जंगल-झाड़ी और पशुओं के साथ जन्म से मृत्यु तक का नाता रखने वाले यादवों ने बांस गीत को पोषित पल्लवित किया.
छत्तीसगढ़ की जिन लोक विधाओं पर आज संकट मंडरा रहा है, बांस गीत उनमें से एक है. रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की बोली और लोक विधाओं को छत्तीसगढ़ के बाहर देश-विदेश के मंचों पर रखा. उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मिड समर नाइट स्ट्रीम' का हिन्दी रूपान्तर 'कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना' तैयार किया, इसका मंचन अब तक केवल विदेशों में हो सका है. जानकर हैरत हो सकती है कि नाटक का पूरा कथानक बांस गीतों के जरिए ही आगे बढ़ता है, बांस न हो तो इस नाटक का दृश्य परिवर्तन अधूरा लगेगा.
राजनांदगांव के विक्रम यादव ने बांस की धुनों से पूरे नाटक में जादुई माहौल पैदा किया है. विक्रम ने बनारस के घाट पर हुए सन् 2007 के संगीत नाटक अकादमी के वार्षिक समारोह में भी प्रस्तुति दी. सार्क फेस्टिवल 2007 के विज्ञापनों और निमंत्रण पत्रों में बांस गीत गायक खैरागढ़ के नकुल यादव की तस्वीर को ही उभारा गया था.
आकाशवाणी रायपुर में बांस गीतों के लिए हर सोमवार का एक समय निर्धारित था. यदा-कदा कला महोत्सवों में भी बांस गीत के कलाकारों को शामिल किया जाता है.
छत्तीसगढ़ के हर उस गांव में जहां यादव हैं, बांस गीत जरूर होता रहा है. यह बस्तर तक भी फैला हुआ है. बस्तर के दूरस्थ कोंडागांव में खेड़ी खेपड़ा गांव में यादवों का एक समूह बांस गीत को बड़ी रूचि से बजाते हैं.
बांसुरी से लम्बी किन्तु बांस से पतली और छोटी, मुरली भी बजाने की परम्परा यादवों में रही है. मुरली बजाने वाला एक परिवार बिलासपुर के समीप सीपत में मिल जाएगा. यादव दो मुंह वाला अलगोजना और नगडेवना भी बजाते रहे हैं, जो काफी कुछ सपेरों के बीन से मिलता जुलता वाद्य यंत्र है, यह खोज-बीन का मसला है कि कहां कहां बांस या उससे मिलते जुलते वाद्य यंत्र अब बजाये जा रहे हैं.
बांस गीतों का सिमटते जाने के कुछ कारणों को समझा जा सकता है. बांस गीत में वाद्य बांस ही प्रमुख है. गीत-संगीत की अन्य लोक विधाओं की तरह इसके साजों में बदलाव नहीं किया जा सकता. यादवों के अलावा भी कुछ अन्य लोगों ने बांस गीत सीखा पर इसके अधिकांश कथानक यादवों के शौर्य पर ही आधारित हैं. सभी कथा-प्रसंग लम्बे हैं, जिसके श्रोता अब कम मिलते हैं. पंडवानी, भरथरी में कथा प्रसंगों के एक अंश की प्रस्तुति कर उसे छोटा किया जा सकता है, पर बांस गीत में इसके लिए गुंजाइश कम ही है. हिन्दी फिल्मों की फूहड़ नकल से साथ फिल्मांकन कर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का सर्वनाश करने वालों को बांस गीतों में कोई प्रयोग करने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता.
अब तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, गांवों में बड़ी मुश्किल से चराई के लिए दैहान मिल पाता है. ऐसे में कच्चे बांस के जंगल कहां मिलेंगे. वे पेड़ नहीं मिलते, गाय चराते हुए जिस पर टिककर बांस या बांसुरी बजाई जा सके. यादवों के एक बड़े वर्ग से उनका गाय चराने का परम्परागत व्यवसाय छिन चुका है. छैड़ूराम, नकुल या विक्रम में से किसी का भी परिवार अब गाय नहीं चराता है. बांस गीत से इनका लगाव अपनी परम्परा और संगीत बचाये रखने की ललक की वजह से ही है.
रंगकर्मी अनूप रंजन पाण्डेय पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ की लुप्त होती लोक विधाओं और वाद्य यंत्रों को सहेजने के लिए काम कर रहे हैं. उनका मामना है कि लोक विधाओं को संरक्षण देने के नाम पर सरकार या तो कलाकारों को खुद या सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से बढ़ावा देती है, लेकिन बांस गीत जैसी लोक विधाओं की बात अलग है. इसे 15-20 मिनट के लिए मंच देकर बचाया नहीं जा सकता, बांस गीत तब तक नहीं बचेगा,जब तक इसे सीखने वालों की नई पीढ़ी तैयार न की जाए. बांस गीत जैसी विधाओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये, जिनमें गुरू शिष्य परम्परा को ध्यान में रखा जाए और दोनों को मानदेय मिले.

मंगलवार, 17 जून 2008

यह है हिन्दी की पहली प्रकाशित कहानी

मुद्रित कहानियों के इतिहास में भी छत्तीसगढ़ की उपस्थिति कम-से-कम एक शताब्दी पुरानी है.पं. माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ सन् 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित हुई थी.देवी प्रसाद वर्मा (बच्चू जाँजगीरी) ने ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को अनेक प्रमाणों और तर्कों के आधार पर हिंदी की प्रथम प्रकाशित कहानी करार दिया था.कमलेश्वरजी सहित अनेक साहित्यकारों ने श्री वर्मा के दावे का समर्थन किया.कमलेश्वरजी तो यहाँ तक कहते हैं कि आज हिंदी में जिसे द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है, उसे सप्रे युग कहा जा सकता है.(प्रख्यात पत्रकार रमेश नैयर की किताब कथा-यात्रा से साभार)

अविभाजित मध्यप्रदेश जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था, से सबसे पहला अख़बार तब के एक छोटे से गांव पेन्ड्रारोड से माधव राव सप्रे ने शुरू किया, जिसका नाम था-छत्तीसगढ़ मित्र. यह छत्तीसगढ़ के लिये गर्व की बात है कि उनकी जांजगीर जिले के झलमला में लिखी गई इस कहानी को साहित्यकारों की बिरादरी में हिन्दी की पहली कहानी के रूप में स्वीकार किया गया है.

एक टोकरी भर मिट्टी
-माधवराव सप्रे

किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी.जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई.विधवा ने बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले.पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी.उसका पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था.पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी.अब उसकी यही पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी.जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूटकर रोने लगती थी.और जब से उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना तब से वह मृतप्राय हो गई थी.उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी.श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए.तब वे जमींदारी चाल चलने लगे.बाल की खाल निकालनेवाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया.बिचारी अनाथ तो थी ही.पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी.
एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आस-पास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे.इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची.श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो.पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ‘‘महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हारी हो गई है.मैं उसे लेने नहीं आई हूँ.महाराज, क्षमा करें तो एक विनती है.’’ जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ‘‘जब से यह झोंपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है.मैंने बहुत समझाया, पर वह एक नहीं मानती.यही कहा करती है कि अपने घर चल ! टोकरी भर मिट्टी लेकर उसका चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी.इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी.महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ.’’ श्रीमान ने आज्ञा दे दी.
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई.वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों में आसूँ की धारा बहने लगी.अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई.फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी कि ‘महाराज’ कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए, जिससे मैं इसे अपने सिर पर धर लूँ.जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई.किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने को आगे बढ़े.ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति से बाहर है.फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई.वह लज्जित होकर कहने लगे, ‘‘नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जावेगी.’’
यह सुनकर विधवा ने कहा, ‘‘महाराज, नाराज न हों, आपसे तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है.उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा सकेंगे ? आप ही इस बात पर विचार कीजिए.’’
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे, पर विधवा के उपर्युक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गई.कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी उसको वापस दे दी.
झलमला
(वर्तमान जांजगीर जिले के अंतर्गत छत्तीसगढ़ का एक गांव)

सोमवार, 16 जून 2008

खाली होता धान का कटोरा

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन यहां के किसान शहरों में आकर रिक्शा चला रहे हैं, ईंटा-गारा की मजूरी रहे हैं और किसी तरह दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर पा रहे हैं.

हट्टा कट्टा महेन्द्र भी हमारे शहर में रिक्शा खींचता है. लेकिन महेन्द्र का इतिहास मैं जानता हूं इसलिए उसको इस हालत में देखकर मुझे बहुत दुख हुआ. महेन्द्र के पिता ने 5 बच्चे पैदा किये. सब सुबह से उठकर खेत पर चले जाते और कड़ी मेहनत करते थे. कुछ सालों के भीतर उनके पास दुगनी खेती हो गई. कभी वे खुद किसी से उधार या किराये पर बैल जोड़ी मांग कर खेती करते थे, लेकिन देखते ही देखते उन्होंने 4 जोड़ी बैल खरीद लिए. नदी के किनारे एक भुसभुसी जमीन पर उसने ईंट भट्ठा लगाया और अपने खेतों से बबूल तोड़कर दरवाजे खिड़कियां तैयार की. उनके बेटों ने ही बड़ा सा पक्का मकान खुद के श्रम से तैयार किया. परिवार में ही इतने लोग थे कि किसी बाहरी मजदूर की जरूरत ही नहीं पड़ी. बच्चों की शादी हुई. उनके भी बच्चे बड़े होने लगे. खर्च बढ़ता गया.
तय किया गया कि एक ट्रैक्टर संयुक्त खाते से खरीद लिया जाये. समय चक्र कुछ ऐसे फिरा कि ट्रैक्टर में नुकसान हो गया. बैंक की किश्त और ब्याज पटाने में दिक्कत आने लगी. तब भाईयों ने एक दूसरे पर फिजूलखर्ची, लापरवाही और शराब पीने का आरोप लगाया. पिता खिन्न हुए, पहले एक खेत को बेचकर ट्रैक्टर के कर्ज से मुक्ति पाई फिर ट्रैक्टर भी औने-पौने दाम पर बिक गया. बंटवारा हुआ तो पिता, महेन्द्र और बाकी भाईयों को इतनी कम जमीन मिल पाई कि वे सब मध्यम किसान के दर्जे से बाहर आकर सीमान्त किसान रह गये. उनके बड़े घर के भीतर भी सबकी अलग-अलग सीमा तय हो गई. महेन्द्र ने छोटे टुकड़े पर अकेले खेती कर के देखा, लेकिन रोजमर्रा के अनाज, दवा और कपड़ों पर खर्च के बाद खेतों में डालने के लिये बीज, खाद और दूसरी व्यवस्थाओं के लिये परेशान रहने लगा. खेत से आमदनी इतनी कम थी कि दो बच्चों वाले छोटे परिवार का गुजारा कठिन था. कुछ दिन उसने गांव में मजदूरी की, अपनी पत्नी को भी उसने काम पर भेजा, लेकिन अपने परिवार के अतीत को देखकर गांव में यह काम करने में उसे शर्मिंदगी होती थी. ऐसे में उसकी बच्ची को छाती की तकलीफ हुई. पैसों की जरूरत पड़ी. अपने ही समाज के एक सम्पन्न किसान जो साहूकारी का काम भी करता था, से कर्ज लिया. विश्वास दिलाया कि फसल आने पर रकम वापस हो जायेगी. पर फसल इतनी नहीं हुई कि ब्याज और मूलधन चुकाया जा सके. हारकर उसने अपना खेत बेच दिया.कर्ज से मुक्ति पाई. अपने कमरे की चाबी पिता के हाथ में सौंप दी.अब तो गांव में रहने का कोई जरिया और जरूरत ही नहीं रह गई थी. उसने बचे हुए पैसों से शहर के एक पिछड़ी बस्ती में एक झोपड़ी खरीदी और रिक्शा लिया. अब उसके हाथ में 90 से 120 रूपये रोज आ जाते हैं. कभी घर की मालकिन रही उसकी पत्नी अब स्कूलों में दाई का काम करके वह भी कुछ कमा ही लेती है.

शहर में नये तरह का विकास हो रहा है इसलिए बड़ी तादात में चल रहे बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन के काम में कुली और रेजा की बहुत जरूरत पड़ती है ऐसे में गांव से भागकर आये किसानों को मेहनत मजूरी काम मिल ही जाता है. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में न केवल हमारे देश का उत्पादक समाज शहर के दोयम दर्जे का अशिक्षित मजदूर होता जा रहा है बल्कि देश के जानकार किसानों की ज्ञानपरंपरा की मौत भी हो रही है.
75 फीसदी किसान घाटे में
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, यह इसलिये कि सिंचाई का रकबा सिर्फ 20 प्रतिशत होने के बावजूद यहां धान की भरपूर पैदावार होती है. राज्य की 83 प्रतिशत आबादी खेती पर ही निर्भर है. लेकिन यहां के कुल 33.5 लाख किसानों में 75 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास 5 एकड़ से कम खेती है. दिनों-दिन इनको अपना पुरखों का व्यवसाय बचाने में कठिनाई आ रही है. खाद-बीज और ईंधन के दामों में बढ़ोतरी के कारण खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है, पर उनका मुनाफा घटता जा रहा है. इन पंक्तियों को लिखते लिखते ही खबर आई है कि केन्द्र सरकार ने इस साल धान का समर्थन मूल्य 850 रूपये करने का निर्णय लिया है. यह फैसला राज्य सरकारों की ओर से बनाये गये दबावों का नतीजा बताया गया है. इस बात पर खुशी हो सकती है कि समर्थन मूल्य हर बार 20 से 50 रूपये तक ही बढ़ाया जाता था इस बार सीधे 100 रूपये बढ़ा दिये गये हैं. पर इसी बीच मंहगाई भी तेजी से बढ़ी है, जिसका शिकार गांवों के गरीब ज्यादा हुए हैं. कृषि विशेषज्ञ डा. संकेत ठाकुर ने आंकलन किया है कि किसानों को एक क्विंटल धान पैदा करने में 1350 रूपये खर्च आता है. यदि उन्हें 6 माह की मेहनत का 25 फीसदी मुनाफा भी देना है तो धान का समर्थन मूल्य कम से कम 1900 रूपये होना चाहिये. अक्सर किसान खेतों में की गई अपनी मेहनत को रोज की मजदूरी के दर से नहीं जोड़ता है इसके अलावा समय पर अच्छे बीज और खाद की व्यवस्था भी नहीं हो पाती है. इसलिये वे मजबूरन धान को उसकी वास्तविक कीमत से कम पर बेच देते हैं. किसानों को एक कृषि-सत्र के दौरान फसल पकने से पहले कोई आमदनी भी नहीं होती, ऊपर से निंदाई गुड़ाई बोनी और खाद बीज का खर्च भी उएाना पड़ता है. इसलिये वे फसल आते ही आनन-फानन में इसे बेच देते हैं. उन्हें पता है कि यही अनाज कुछ दिनों के बाद बाजार में ड्योढ़े या दुगने दाम पर बिकेगा, लेकिन उन्हें कर्ज लौटाने, घर सुधारने, बच्चों की शादी करने जैसे बड़े खर्च की भरपाई करनी होती है. पिछले कुछ दशकों में जितने लोग गांवों से शहर आये उनमें मध्यम वर्ग के किसान भी शामिल हैं, क्योंकि वे खेत में खुद मजदूरी करने नहीं जा पाते और इसके विकल्प के रूप में या तो उन्होंने अपनी जमीन टुकड़ों में बेच दी या फिर हर साल अनुबंध पर लघु कृषक या भूमिहीनों को सौंप देते हैं. ऐसे में खेत जोतने वाले पर ज्यादा दबाव होता है, क्योंकि उसे उपज का आधा-आधा बंटवारा करने के बाद उसे कुछ आमदनी हासिल करनी होती है.

खेत निगलते कांक्रीट के जंगल
छत्तीसगढ़ राज्य को बने 7 साल से ज्यादा हो गए. प्रदेश सरकार के राजस्व और अनुदान में बीते सालों में काफी वृध्दि हुई है. नौकरीपेशा और व्यवसायियों, कांट्रेक्टर्स की आय बहुत बढ़ी है. कंस्ट्रक्शन के व्यवसाय ने हर तरफ रफ्तार पकड़ी है. शहरों का हर छोर पर विस्तार हो रहा है. नई कालोनियां बस रही हैं, विशाल कैंपस में निजी विश्वविद्यालय और रेसिडेंसियल स्कूल अभिजात्य वर्ग के लिये खुल रहे हैं और ये सब लगातार खेतों को निगल रहे हैं. राजधानी रायपुर से दुर्ग-भिलाई की तरफ जाने वाली सड़क पर कोई खेत तो बचा ही नहीं यदि है तो उसे कोई अरबपति ही खरीद सकता है. दूसरे मार्गों पर भी लोग खेतों का मुंहमांगा दाम देने के लिये तैयार हैं. किसान तो अवाक रह गये हैं. उन्हें लगता है कि इन खेतों में धान बोकर सात पुरखे भी जितना नहीं कमा सकते उतना तो एक दलाल आज सामने रूपये लेकर खड़ा है. बिलासपुर से लगे मंगला और उसलापुर में कई बड़े किसान कुछ साल पहले तक गर्व से बताते थे कि वे उन्नत पध्दति से धान व साग सब्जी बोते हैं, और उन्हें नौकरी या व्यवसाय करने की जरूरत नहीं है. लेकिन अब उनके सारे खेत कांक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हैं. खाली खेत भी धान बोने के काम नहीं आ रहा है, क्योंकि इसका दाम करोड़ों में है और वहां देर-सबेर शापिंग माल या कालोनी तैयार हो जायेगी. बिलासपुर के सर्वश्रेष्ए किसानों में चमन लाल चड्डा का नाम लिया जाता है. खेती से कैसे समृध्दि हासिल की जा सकती है उन्होंने रास्ता दिखाया और हजारों किसानों ने उनसे प्रेरणा ली. उनके नाम पर आज भी एक सालाना समारोह होता है जिसमें श्रेष्ठ कृषक अपने उत्पादों के साथ पहुंचते हैं और सम्मानित होते हैं. विडम्बना है कि आज उनके पोतों ने सारे खेत साफ कर दिये हैं और वहां पर वे कम से कम 5 नई कालोनियां बना रहे हैं. आसपास के खेतों को भी बिल्डर्स लगातार खरीदते ही जा रहे हैं.

मेहनती लोगों को आश्रित बनाने की साजिश
ऐसा नहीं है कि खेती और किसानों को बचाने के लिये सरकार कोशिश नहीं कर रही है, पर मर्ज कहीं और है इलाज कहीं और किया जा रहा है. इसे छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य ही माना जाये कि धान के लिये पहचान बनाने वाले इस राज्य में 34 लाख गरीब परिवारों के पास दो जून का अनाज ले पाने की क्षमता नहीं है. ध्यान देना होगा कि 75 फीसदी राज्य के किसान भी लघु या सीमान्त किसानों की श्रेणी में है, जिनकी संख्या भी 35 लाख के आसपास ही है. तभी तो इनके लिये राज्य सरकार 3 रुपये किलो में हर माह 35 किलो चावल उपलब्ध करा रही है. प्रदेश के सभी 16 जिलों में ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत काम उपलब्ध कराये जा रहे हैं. राज्य के लगभग 24 लाख परिवारों को जाब कार्ड बांटे गये है. इन योजनाओं में भ्रष्टाचार की बड़ी शिकायतें हैं. किसानों को 35 किलो चावल न देकर मुफ्त में 15-20 किलो चावल दे दिये जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि बाकी चावल के बारे में सवाल मत करो. रोजगार गारंटी योजना में तो कांकेर जिले में घोटाले की अलग मिसाल बन गई, जहां 6 करोड़ रूपये के फर्नीचर, स्टेशनरी, एसी खरीद लिये गये. इस मामले में एक आईएएस अधिकारी समेत एक दर्जन अधिकारी कर्मचारियों पर कार्रवाई हुई. इस योजना की 60 फीसदी राशि मजदूरी पर खर्च की जानी है, पर कई स्थानों पर मशीनों से काम करा लिया जाता है और कुछ रकम देकर मजदूरों से जाब कार्ड में मजदूरी पाने का हस्ताक्षर करा लिया जाता है. एनआरईजीए में प्रावधान है कि 60 प्रतिशत कार्य जल संवर्धन की छोटी योजनाओं और पर्यावरण सुधार में खर्च किया जाये पर अधिकारियों व पंचायत पदाधिकारियों की रूचि सड़क और भवन बनाने में ज्यादा है, क्योंकि इसमें कमीशन की गुंजाइश अधिक होती है और भुगतान जल्दी मिल जाता है. सरगुजा जिले में जल संरक्षण के नाम पर ऐसे स्थानों पर तालाब खोद दिये गये जहां न तो पानी इकट्ठा हो सकता और न ही खेतों तक उसका रास्ता है. हरियाली के नाम पर रतनजोत के पौधे करोड़ों की तादात में रोप दिये गये, पर्यावरण विशेषज्ञ इसके खिलाफ हैं और गांव तथा खेत के लिये नुकसानदायक मानते हैं.

रोज मर रहा है किसान
किसानों को सीधे चावल और नगदी देकर अकर्मण्य बनाया जा रहा है. दोनों ही योजनाओं से बिचौलिये ज्यादा फायदे में हैं. छत्तीसगढ़ में धान की औसत उपज प्रति हेक्टेयर 13 क्विंटल है, जो राष्ट्रीय औसत 24 क्विंटल के आधे से कुछ ही ज्यादा है और पंजाब जैसे राज्य जहां का औसत 35 क्विंटल है, से बहुत कम. राज्य के सरगुजा और बस्तर जिले देश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में ऐसे ही नहीं गिने जाते. यहां औसत उपज 5 से 6 क्विंटल ही है जो शायद देश में सबसे कम उत्पादन वाला इलाका है. चावल और रोजगार गारंटी योजना ने किसानों को खेती की ओर आकर्षित करने के बजाय विमुख ही किया है. राज्य के मेहनती किसानों को अच्छी उपज कम लागत में कैसे मिल सके इस पर विचार नहीं हो रहा है. बस्तर में खेती की उपेक्षा तो इसलिये भी हो रही है क्योंकि वहां नक्सलियों का प्रभाव है. यह और कोई नहीं संसद की कृषि स्थायी समिति के सदस्यों ने माना है, जिन्होंने बीते अप्रेल माह में छत्तीसगढ़ का दौरा किया था. समिति का मानना था कि 1400 मिलीलीटर औसत बारिश वाले इलाके में कृषि की दशा उचित प्रबंधन के जरिये सुधारी जा सकती है, जिसकी तरफ सरकार को ध्यान देना चाहिये. राज्य का 40 फीसदी हिस्सा वनों से आच्छादित माना जाता है, पर यहां जंगल लगातार घट रहे हैं. आदिवासी बाक्साइट और कोयला खदानों को जमीन बांट दिये जाने के कारण विस्थापित किये जा रहे हैं. वनों से जीविका चला लेने वालों का जीवन-यापन दिनों दिन कष्टप्रद होता जा रहा है. अनाज के लिये पहचान बनाने वाले इस राज्य में कुपोषित बच्चों की संख्या नेशनल न्यूट्रीशियन ब्यूरो के मुताबिक 50 प्रतिशत से ज्यादा है. राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो के मुताबिक महाराष्ट्र की तरह छत्तीसगढ़ में भी आतुमहत्या करने वाले किसानों की संख्या बहुत है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के साझा आंकड़े में यह संख्या सन् 2006 में 2800 है. हालांकि इसकी पुष्टि छत्तीसगढ़ में न पुलिस ने न कृषि विभाग ने न ही सरकार के किसी दूसरे विभाग ने की है. मीडिया भी इस ब्यूरो के इस आंकड़े को सच नहीं मान रहा है पर किसानों की दशा कुछ ऐसी है कि वह हर रोज मर रहा है.
(इस आलेख को आप विस्फोट डाट काम पर भी देख सकते हैं)

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

सुरूज के सुर का सानी नहीं

0 राजेश अग्रवाल
(दैनिक भास्कर रायपुर में दिनांक 27 मार्च 2008 को प्रकाशित)

भरथरी गायिकी में उनकी कोई सानी नहीं. जब वह ' घोड़ा रोवय घोड़सार मां' पंक्तियों से गाना शुरू करती हैं तो हजारों की भीड़ में आखिरी छोर पर बैठा श्रोता तक सुध-बुध खो बैठता है. आज 57 साल की उम्र में भी यदि सुरूजबाई खाण्डे की बुलंद आवाज बरकरार है तो इसलिए कि वह छत्तीसगढ़ में पसीना बहाने वाले कर्मठ मजदूर के घर से है, उसका पालन-पोषण किसी ऐसे परिवेश में नहीं हुआ जहां गायिकी के हुनर को सिर माथे पर लेकर रियाज़ करने के लिए कोई सहूलियत दी जाए. 7-8 की उम्र में ही वे हाड़-तोड़ मेहनत करना सीख गईं. मां-बाप जब दूसरे के खेतों और ईंट-भट्ठों में मजदूरी के लिए जाते तो उसे भी अपने साथ ले जाते थे ताकि बड़ी हो और ससुराल जाए तो दो जून रोटी के लिए ताने न सुनना पड़े. दादा मोहरदास किसानों की फसल कटने के बाद चिकारा लेकर गांवों में निकलते थे, घूम-घूमकर लोगों को भरथरी सुनाते थे. चबूतरों, बैठकों में भी गाते थे, फिर जो मिलता, वह मजदूरी के अलावा होती थी. नन्हीं सुरूजबाई दादा के साथ शाम को ढिबरी की रोशनी में बैठी सुर मिलाने लगती थी, यही उनका स्कूल था. दादा सुरूजबाई को भी अपने साथ घुमाने लगे और साथ में वह भी गाने लगी.
10-11 साल की उम्र में शादी के बाद वह पौंसरी-सरगांव से ससुराल कछार-रतनपुर आ गई. 4 बच्चे हुए, दवा-पानी के अभाव में सब असमय परलोक सिधार गए. रोजी मजदूरी की तलाश में पति लखन के साथ बिलासपुर पहुंच गई. यह अच्छी बात थी कि पति भी गाने-बजाने का शौक रखते थे, लेकिन दोनों के पास इसे पूरा करने का मौका नहीं था. दोनों रोज माल-धक्का जाते, बड़ी-बड़ी नमक और गेंहूं की बोरियां, तेल के पीपे उठाते और ठेले खींचते थे. शाम अपने घर पहुंचकर जब थकावट दूर करने का मन होता तो पूरे आलाप में सुरूजबाई गाना शुरू कर देती- घोड़ा रोवय...,
मोहल्ले के लोग परेशान थे, लोग उसे 'पगली' कहने लगे. बिलासपुर में कुदुदण्ड, घसियापारा (राजेन्द्र नगर) ने कई जाने माने गायक पैदा किये हैं. इनमें से जवाहर बघेल उस वक्त रेडियो पर बजने वाले - दामाद बाबू दुलरू, बेन्दरा के मारे नई बांचय कोला बारी आदि गीतों से खासे चर्चित हो चुके थे, उन्होंने माना यह पगली नहीं है, बल्कि इसके भीतर गायकी कूट-कूट कर भरी है जिसे वह किसी भी तरीके से बिखेरना चाहती है. वे मंचों में सुरूजबाई को मौका देने लगे. इक्का दुक्का लोक कलाकार ही अपनी हुनर को आजीविका बना पाते हैं. सुरूजबाई की भी मूलभूत जरूरतें गाने से पूरी नहीं होनी थी, नहीं हो रही थी. जब गाने का मौका मिलता चली जाती, बाकी दिन माल-धक्के में ही धक्के खाते गुजरते थे.
सन् 1985 का विधानसभा चुनाव आया. नेताओं में लोक कलाकारों का प्रचार के इस्तेमाल करने का प्रयोग चल रहा था. सुरूजबाई कहती है- यादव भैया (पूर्व मंत्री बीआर यादव) ने उन्हें कांग्रेस के प्रचार के लिए कहा. सौदा अच्छा लगा- उसे माह भर तक गाने के लिए पैसा मिलेगा और माल-धक्का में बोरियां नहीं उठानी पडे़गी. गफ्फार भाई ने नई साड़ियां खरीद कर दी. पति-पत्नी अपने एक दो साजिंदों के साथ रिक्शे पर घूम-घूम कर कांग्रेस का प्रचार करने लगे, जबरदस्त क्रेज रहा. उसे आसपास के इलाकों में भी प्रचार के लिए बुलाया गया. कैसेट भी तैयार हो गया. बीआर यादव चुनाव जीत गए. वादे के मुताबिक उन्होंने सिफारिश की और कलाकारों के कोटे से सुरूजबाई को एसईसीएल में नौकरी मिल गई. अनपढ़ थी, सो भृत्य की नौकरी मिली और वहां लोगों को पानी पिलाने का काम सौंपा गया. एक अनूठी आवाज की मालकिन, यहां नौकरानी का काम करने लगी, क्योंकि यह पहले से बेहतर था. अफसर, बाबू और आगंतुकों में ज्यादातर लोग उन्हें नहीं पहचानते थे, जो जानते थे उनमें से कुछ गदगद हो जाते -कुछ क्षोभ से भर जाते. लेकिन सुरूजबाई ने इससे भी मुश्किल दिन देखे थे, इसलिये उसे मलाल नहीं था.
तब से लेकर आज तक वह यहां पानी पिलाने का ही काम कर रही है. 2 साल पहले एक फर्क आया कि एसईसीएल ने उसके पदनाम के आगे भृत्य शब्द हटा दिया और उसे सांस्कृतिक सलाहकार पद से नवाज दिया गया. उसे टूटी-फूटी ही सही- एक टेबल कुर्सी दे दी गई. लेकिन अभी भी कोई उसे आवाज लगाकर कह देता है- सुरूज बाई, चल पानी पिला.., तो वह ना नहीं कह पाती. मौजूदा सीएमडी बीके सिन्हा और एमडी आरएस सिंह को वे 'कला-प्रेमी' बताते हुए कहती हैं कि कम से कम अब सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी पर होने वाली बैठकों में उसे बुलाया जाता है और राय मांगी जाती है, पहले इतनी भी पूछ नहीं थी.
अब जब रिटायरमेन्ट में 2-3 साल बचे हैं, सुरूजबाई बहुत रूआंसी नजर आती है. उसे शिकायतें खूब है, पर वह जानती है कि वह लाचार है, पढ़ी-लिखी नहीं है कुछ नहीं कर पाएगी. उसके सबसे यादगार क्षण हैं जब उसने रूस में भारत महोत्सव के कार्यक्रम दिए. लेकिन वहां से आने के बाद जैसे आसमान से लाकर फिर धरती पर ही पटक दिया गया, फिर वहीं पानी पिलाने के लिए तैनात. सुरूजबाई के साथ रूस गए दूसरे कई कलाकार आज ठोकरें खा रहे हैं. कोई रिक्शा चला रहा है, कोई सब्जी बेच रहा है. सुरूजबाई कहती है कि इन सब साथियों के बीच मेरी स्थिति कुछ अच्छी है क्योंकि मैं गुजर-बसर के लायक नौकरी पा गई. ताकत होती तो आज इन कलाकारों को लेकर भरथरी के अलावा भी अपने आल्हा, सुआगीत, भड़ौनी और बिहाव गीत को लेकर नई पीढ़ी तैयार करती. लेकिन यहां मुझे ऐसा कोई काम ही नहीं दिया जाता. कहीं भरथरी सुनाने जाना हो तो भी छुट्टी मिल नहीं पाती.
सुरूजबाई कहती है कि-" कई बड़े नेता भी तो मेरी तरह अनपढ़ होते हैं, उनकी मदद के लिए तो लोग पीए देते हैं, अब मुझे यहां अंग्रेजी में सर्कुलर भेजकर बताया जाता है कि बैठक है- उस बैठक में मैं अपनी क्या बात रखूं और मेरी क्या सुनी जाएगी. इस बीच मैं थोड़ा हिन्दी समझने लगी और अपना दस्तखत भी करने लगी हूं, राजभाषा हफ्ता मनाने के बावजूद मेरे पास कोई चिट्ठी हिन्दी में नहीं आती. बूढ़ी हो रही हूं, सब मुझे कलाकार मानते हैं. इतना बड़ा दफ्तर है, सब्जियां लाने तक के लिए अफसरों के घर गाड़ियां दौड़ती हैं पर मुझे पैदल ही घर से आफिस तक आना पड़ता है."
सुरूजबाई, क्या आपको नहीं लगता कि छत्तीसगढ़ के अनेक कलाकारों को बड़े-बड़े अवार्ड मिले, आपको नहीं मिलना चाहिए? पूछे जाने पर वह हाल में मिले देवी मध्यप्रदेश सरकार के देवी अहिल्या अवार्ड सहित अनेक सम्मानों के बारे में अपने तरीके से बताने लगती हैं.
पद्मश्री भी तो एक सम्मान है, जिसका आप जैसे बड़े कलाकारों को दिया ही जाना चाहिए?
सुरूजबाई फिर से उदास हो जाती हैं. कहती हैं- "अब मेरी सिफारिश कौन करे. बिलासपुर में मैं अकेले पड़ जाती हूं. रायपुर, भिलाई में कलाकारों के बीच एकता है वे एक दूसरे के हित का बराबर ख्याल रखते हैं. बीएसपी और एसईसीएल में बड़ा फर्क है. मेरी सिफारिश कैसे की जानी है, कौन करेगा मुझे नहीं मालूम, पर अफसरों को तो पता है. मुझे कलाकार कोटे से नौकरी मिली है तो कला से जुड़ा कोई काम क्यों नहीं सौंपा जाता."
सुरूजबाई को शिकायत है कि कुछ कलाकार मंचों में वाहवाही लेने के लिए भरथरी के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ कर रहे हैं. शराब पीकर मंच पर चढ़ जाते हैं और कला को बदनाम कर रहे हैं. फिर भी उन्हें भरोसा है कि उसके भीतर भरथरी सालों जिंदा रहेगा, एसईसीएल से रिटायर हो जाने के बाद भी. नए कलाकारों में भी बड़ा लगन है. वह भिलाई के पास एक गांव से अपने पास आने वाली वंदना की तारीफ भी करती हैं.
भरथरी और सुरूजबाई
छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोकगीतों में भरथरी और सुरूजबाई एक दूसरे की पहचान हैं. सुरूजबाई की विशिष्ट शैली को पकड़ पाना या उसकी नकल कर पाना किसी दूसरे कलाकार के वश में नहीं है. उन्होंने भरथरी, चंदैनी और ढोला-मारू के किस्से को अपनी गायिकी में ढ़ालकर देश-विदेश में ख्याति दिलाई.
भरथरी बुंदेलखण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित एक ऐतिहासिक लोक कथा है, जिसे पूरे उत्तरभारत में अलग-अलग तरीके से गाया जाता है. सार यह है कि उज्जैन के राजा भृतहरि एक बार शिकार करने जंगल गए. वहां उन्होंने एक काले हिरण का शिकार किया. मान्यता थी कि एक काला हिरण 6 आगर, 6 कोरी यानि 126 हिरणियों का पति होता है. मरते वक्त हिरण ने राजा को श्राप दिया कि जाओ जैसा बर्ताव तुमने मेरे साथ किया है वैसा ही तुम्हारे साथ भी होगा. राजा भरथरी ऋषि गोरखनाथ के शिष्य बने. गोरखनाथ ने उन्हें एक फल खाने को दिया और कहा कि इससे उनका यौवन चिर-स्थायी होगा. राजा अपनी एक रानी पिंगला के प्रेम में पागल थे. उन्होंने फल खुद खाने के बजाय रानी को दे दिया. लेकिन रानी को एक सैनिक से प्रेम था. उसने फल सैनिक को खाने के लिए दे दिया. सैनिक को एक वेश्या से प्रेम था, उसने भी फल खुद न खाकर उसे दे दिया. वेश्या को फल मिला, तब उसने सोचा कि मैं तो पापिन हूं, मेरी आयु लम्बी हो, इससे क्या फायदा, वह सोचती है इस राज्य की रक्षा करने वाले राजा की आयु लम्बी होनी चाहिए. वह फल लेकर राजा भरथरी के पास पहुंच जाती है. राजा यह देखकर चकित रह जाता है. जब उसे पूरी बात मालूम होती है तो उसका मन विषाद से भर उठता है. राज-पाट से उसका मोहभंग हो गया और सबकुछ छोड़कर गोदरिया बनकर जंगलों की ओर निकल पड़ा.

संगीत से सेहत का राग मिलाने की अनूठी पहल


संस्कारधानी कहे जाने वाले बिलासपुर से हाल ही में संगीत और सेहत की जुगलबंदी शुरू की गई है. यह पहल पुलिस महानिरीक्षक राजीव श्रीवास्तव ने की. अब यहां अनेकसंगीत विशेषज्ञों और संगीत से अनुराग रखने वालों की एक टीम तैयार हो गई है, जो पूरे छत्तीसगढ़ में काम करेगी. समिति के गठन के ही दिन विश्व के शीर्षस्थ गिटार वादकों में से एक येल यूनिवर्सिटी से संगीत के स्नातक जेफरी क्रिंगर की अनूठी प्रस्तुति ने श्रोताओं को रसविभोर कर दिया.
संगीत अथवा ध्वनि के माध्यम से उपचार की पध्दति नई नहीं है. संगीत की शक्ति से हर भारतीय परिचित है. सुर सम्राट तानसेन ने जब सम्राट अकबर के दरबार में दीपक राग सुनाया तो संगीत के संप्रेषण से दीयों से लौ जल उठे. उनके राग मेघ मल्हार से वर्षा हो जाती थी. बाद में तानसेन अस्वस्थ हुए, तब भी उनकी बहनों ने राग मल्हार सुनाकर ही उन्हें ठीक किया. आधुनिक शोधों के बाद अब यह मान्यता बन चुकी है कि म्यूजिक थेरैपी आत्म विकास और आत्मावलोकन का उत्कृष्ट साधन है. यह न केवल शारीरिक विकारों को नियंत्रित करता है बल्कि व्यक्ति की सामाजिक गतिविधियों को सही दिशा दे सकता है. संगीत का प्रयोग कर किसी भी व्यक्ति की कार्यदक्षता और क्षमता बढ़ाई जा सकती है
एलोपैथी चिकित्सक डा. अनिल पाटिल पिछले 15 सालों से मुम्बई के समीप दादर में म्यजिक थेरैपी से मरीजों का उपचार कर रहे हैं. वे भारत के पहले म्यूजिक थेरैपिस्ट होने का दावा भी करते हैं. रोगियों की जरूरत के अनुसार वे खुद संगीत संयोजन करते हैं, गीतों की रचना करते हैं और अलग-अलग रोगियों की प्रवृति और आवश्यकता के अनुसार उन पर प्रयोग करते हैं. डा. पाटिल का कहना है कि अम्लता, मधुमेह, रक्तचाप और ह्रदय के मरीजों में म्यूजिक थेरैपी से बेहतर परिणाम सामने आए हैं. बच्चों के बेहतर विकास के लिए यह काफी कारगर है. यहां तक कि प्रसव के दौरान होने वाली पीड़ा भी म्यूजिक थेरैपी से कम की जा सकती है. डा. पाटिल ने उपचार की इस पध्दति की सफलता से उत्साहित होकर मुम्बई के समीप ही लोनावाला में एक आश्रम भी बना लिया है, जहां मरीजों का बेहतर सुविधाओं के साथ इलाज किया जाता है.
पर यह संगीत उपचार के लिए किस तरह काम करता है?
बिलासपुर में गठित छत्तीसगढ़ म्यूजिक थेरैपी एसोसिएशन के अध्यक्ष मनीष दत्त का कहना है कि पृथ्वी समेत सृष्टि की प्रत्येक संरचना में किसी न किसी प्रकार का कम्पन है. वस्तुओं के भार, प्रकृति व गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव से कम्पन की यह गति भिन्न हो सकती है. मष्तिष्क, नेत्र, ह्रदय, नाड़ी ही नहीं चलते बल्कि हमारे शरीर की संरचना कुछ ऐसी है कि इसके प्रत्येक भाग में अलग-अलग आवृत्ति और तीव्रता के कम्पन होते हैं. निरोगी काया में इन कम्पनों की गति कम या अधिक हो जाती है, म्यूजिक थेरैपी के जरिए रोगियों के इन कम्पनों को नियंत्रित किया जाता है तथा निश्चित गति दे दी जाती है. थेरैपिस्ट, रोगियों के लिए अनुकूल संगीत की रचना करते हैं अथवा रचे गए उपयुक्त संगीत की खुराक उन्हें ठीक दवाओं की तरह ही देते हैं. संगीत का कानों से होकर मष्तिष्क, नेत्र और ह्रदय पर पड़ने वाले प्रभाव हम देखते और महसूस करते हैं. इसी तरह शरीर के बाकी अंगों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है, वह भले ही हमें प्रत्यक्ष तौर पर महसूस न होता हो. व्याधि से मुक्त करने के लिए इसी सिध्दांत से काम किया जाता है.
महर्षि महेश योगी ने अपने हालैंड स्थित विश्वविद्यालय तथा उसकी दिल्ली शाखा में म्यूजिक थेरेपी पर शोध कराया और यहां प्रयोग करके दिखाया कि एक विशेष प्रकार का संगीत सुनने के दौरान गायें ज्यादा दूध देने लगती हैं. जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर (1889-1945), 6 माह से सो नहीं पा रहे थे, उन्हें नींद में लाने के लिए तमाम दवाओं का इस्तेमाल किया गया, लाभ नहीं हुआ. तब उस वक्त के प्रख्यात भारतीय संगीतज्ञ ओंकार नाथ ठाकुर की मदद ली गई. उन्होंने अपने संगीत का जादू इस तरह चलाया कि हिटलर को नींद आ गई.
हालांकि श्री दत्त का मानना है कि म्यूजिक थेरैपी इतनी सरल उपचार पध्दति नहीं है. चिकित्सा के क्षेत्र में काम करने वाले दूसरे प्रवीण लोगों की तरह ही इसके चिकित्सकों को पर्याप्त समर्पण भाव व गंभीरता से काम करने से ही रोगियों के उपचार में सफलता मिल सकती है. एक ही तरह का संगीत दो समान विकार वाले रोगियों के लिए कारगर हो यह भी जरूरी नहीं है. प्रत्येक रोगी के लिए उसके शरीर, मष्तिष्क और उसके मनोभावों के अनुसार ही संगीत का चयन करना आवश्यक है.
बहरहाल, अंग्रेजी दवाओं व खर्चीले प्रचलित उपचार पध्दतियों के बीच म्यूजिक थेरैपी रोगियों के लिए आशा की किरण है, जिसने छत्तीसगढ़ में भी दस्तक दे दी है.छत्तीसगढ़ म्यूजिक थेरैपी एसोसिएशन के मुख्य संगीत प्रशिक्षक उस्ताद आरिफ तनवीर का कहना है कि आधुनिक भारत के इतिहास में पांचवे दशक में प्रख्यात संगीत साधक कटनी के घनश्याम दास की किताब संगीत विज्ञान म्यूजिक थेरैपी पर ही केन्द्रित है. हालांकि संगीत के कोर्स में विश्वविद्यालयों ने इसे नहीं लिया है पर अनेक संगीत शिक्षण संस्थानों में यह किताब उपलब्ध है.
बिलासपुर में बनाई गई छत्तीसगढ़ स्तरीय समिति के संस्थापक पुलिस महानिरीक्षक श्री श्रीवास्तव हैं. जिन्हें खेल, संगीत के अलावा अनेक सामाजिक गतिविधियों में हमेशा आगे देखा जाता है. इसके अध्यक्ष संगीत के क्षेत्र में पिछले 50 सालों से सक्रिय मनीष दत्त हैं. मुख्य संगीत प्रशिक्षक आरिफ तनवीर हैं. समिति में राम प्रताप सिंह विमल, डा. योगेश जैन, डा. अलका रहालकर, विवेक जोगलेकर आदि भी शामिल किये गए हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में खासी महारत रखते हैं. छत्तीसगढ़ के हर जिले में इसकी इकाईयां गठित करने की योजना बनाई गई है. एसोसियेशन ने संगीत चिकित्सा के माध्यम से आम लोगों के अलावा पुलिस और सुरक्षा के काम में लगे जवानों का भी उपचार करने की योजना बनाई है.