बुधवार, 30 जुलाई 2008

सांसद वापस बुलाने का अधिकार क्यों नहीं हो?

-राजेश अग्रवाल
छत्तीसगढ़ में 45 साल पुराना एक कानून बोतल से जिन्न की तरह बाहर निकल कर आ गया है, जो लोकतंत्र पर भरोसा करने वाले हर मतदाता के लिये तो सुखद है पर एक बार चुन लिये जाने के बाद पद का दुरूपयोग करने वाले जनप्रतिनिधियों के लिये खतरे की घंटी है. संसद में विश्वास मत हासिल करने की प्रक्रिया के दौरान पता नहीं कितने ही सांसद अपने मतदाताओं का भरोसा खो बैठे हैं पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार मतदाताओं को नहीं है. इधर छत्तीसगढ़ में 3 नगर पंचायत अध्यक्षों को नाराज जनता ने नहीं बख्शा और नगरपालिक अधिनियम 1961 की धारा 47 का इस्तेमाल करते हुए उन्हें कुर्सी से अलग कर दिया. इस कानून ने ऐसी जागरूकता लाई है कि अब एक चौथे नगर पंचायत अध्यक्ष पर भी शामत आ गई है, उन्हें भी जनता का विश्वास हासिल करना होगा.
दरअसल अविभाजित मध्यप्रदेश में स्थानीय निकायों के लिये बना कानून अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ में भी उसी तरह लागू हो गया था. इस अधिकार के तहत सबसे पहले धमतरी के नगर पंचायत अध्यक्ष विमल चोपड़ा के खिलाफ लाया गया था, लेकिन वे इसकी कुछ प्रक्रियाओं पर आपत्ति लगाते हुए हाईकोर्ट चले गये थे. उनका मामला अभी लम्बित है. गुण्डरदेही की अध्यक्ष भारती सोनकर भी हाईकोर्ट गई थी. उनके मामले में फैसला आ गया और आवेदन खारिज हो गया. पिछले 15 जून को भारती सोनकर समेत दो अन्य अध्यक्षों कोरेन खलखो, राजपुर और सीताराम गनेकर नवागढ़ के खिलाफ मतदाताओं ने वोट दिया और उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी. सिलसिला चल चुका है और लग रहा है कि वायदाखिलाफी करने वाले, भ्रष्टाचार में लिप्त रहने या अपनी जवाबदेही भूल जाने वाले जनप्रतिनिधियों को ढ़ोते रहने के लिये मतदाता लाचार नहीं रह गये हैं. अब एक और नगर पंचायत कुसमी के अध्यक्ष को अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिये मतदाताओं के बीच जाना होगा. इसके लिये मतदान 26 अगस्त को होगा और मतों की गिनती 28 अगस्त को होगी. इन्हीं दिनों में गुण्डरदेही, राजपुर और नवागढ़ में भी नये अध्यक्षों के लिये चुनाव हो रहे हैं.
छत्तीसगढ़ में प्रत्यक्ष मतदान के जरिये इन अध्यक्षों का चुनाव हुआ था. इसलिये सामान्य सभा में बहुमत खोने के बाद भी इन्हें नहीं हटाया जा सकता. प्रक्रिया के तहत तीन चौथाई पार्षदों ने कलेक्टर के समक्ष अविश्वास प्रस्ताव का आवेदन दिया. इसके बाद 15 जून को मतदान कराया गया. मतपत्र में प्रत्याशियों के नाम नहीं थे, बल्कि एक खाली व दूसरी भरी हुई कुर्सी के चित्र थे. श्रीमती सोनकर के पक्ष में 1389 मत पड़े जबकि खिलाफ में 1977 वोट, श्री गनेकर के पक्ष में 805 वोट पड़े और खिलाफ में 1146, कोरेन खलखो के खिलाफ 813 मतदाता थे, जबकि उनके पक्ष में 740 वोट पड़े.
हालांकि छत्तीसगढ़ में इस कानून का इस्तेमाल पहली बार हुआ है, लेकिन मध्यप्रदेश में सन् 2002 में इसी एक्ट का इस्तेमाल कर अनूपपुर की नगर पालिका अध्यक्ष पावलिका पटेल को हटाया जा चुका है. महाराष्ट्र में भी स्थानीय निकायों के लिये इसी तरह का कानून है पर वहां पर अभी तक कोई उदाहरण इसके इस्तेमाल करने को लेकर मिला नहीं है.
1992 में जब राजीव गांधी सरकार ने 73 वें संविधान संशोधन के जरिये पंचायती राज अधिनियम संसद से पारित कराया तो कई राज्यों ने इसे लागू करने में ना-नुकर की. इसके बाद 1996 में महिलाओं, अनुसूचित जाति जनजाति व पिछड़े वर्ग को अवसर देने के लिए इस अधिनियम में कई बिन्दु और जोड़े गये. अनेक राज्यों ने इसमें संशोधन करके अधिनियम लागू किया. छत्तीसगढ़ ने लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रावधान लागू किये. दो से अधिक बच्चे होने पर या घर में शौचालय न होने पर चुनाव लड़ने का अधिकार खो देना, निर्वाचित होने के बाद तीसरा बच्चा पैदा होने पर पद खो देना आदि कुछ कठोर प्रावधान भी इसमें शामिल हैं. नगर निकायों के अध्यक्षों के मुकाबले सरपंचों को मतदाताओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाया गया है. पंचों के तीन चौथाई बहुमत के जरिये भी वे हटाये जा सकते हैं और ग्राम सभाओं के माध्यम से भी. मध्यप्रदेश पंचायती राज अधिनियम में 1999 व 2001 में किये गये संशोधनों के अनुसार सरपंचों को ग्राम सभाओं की अनुमति से ही किसी भी प्रकार का व्यय, निर्माण कार्य, चाहे वह पंचायत की बैठक में पारित कोई प्रस्ताव हो या न हो, गरीबी रेखा की सूची, निराश्रितों का पेंशन, आवासहीनों को जमीन का पट्टा सब कुछ तय होगा, जबकि नगर निकायों में पार्षदों की मौजदूगी में होने वाली सामान्य सभा में ही इसका फैसला लिया जा सकता है. ग्राम सभाओं को अपने सरपंच को सीधे बर्खास्त करने का भी अधिकार है. लेकिन इसमें ग्राम सभा के कुल सदस्यों का पांचवा हिस्सा मौजूद रहना चाहिये तथा इनमें भी कम से कम एक तिहाई महिलाएं हों.
छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में एक और संशोधन करके आरक्षित सीटों का क्रम जो पहले हर बार बदल जाता है, उसे 10 सालों के लिये स्थायी कर दिया है, इसके चलते अब एक बार चुना गया पंचायत प्रतिनिधि दूसरी बार भी अपनी सीट से लड़ सकेगा. पहले आरक्षण के कारण हर बार स्थिति बदल जाती थी और इस वजह से पंच, सरपंच मतदाताओं की परवाह ही नहीं करते थे. एक और महत्वपूर्ण संशोधन के तहत पंचायतों में 33 की जगह 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित कर दी गई है.
लब्बोलुआब यह कि नगर निकाय और पंचायतों में जो प्रतिनिधि चुनकर आते हैं वे अपने मतदाताओं के प्रति ज्यादा जवाबदेह हैं. सांसद और विधायकों के लिये इतनी पाबंदी और जवाबदेही नहीं है. नगर निकायों में सीमित इस कानून को संसद और विधानसभा में चुने जाने वाले प्रतिनिधियों पर भी लागू क्या नहीं किया जाना चाहिये? हम संसद में लाये गये विश्वास मत के पक्ष में खड़े हों या विपक्ष में, लेकिन सांसदों के आचरण पर सवाल तो उठे हैं. क्या मतदाताओं को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिये कि वे तय कर सकें कि उन्हें अपने सांसद का काम पसंद नहीं आया तो वापस बुला लें.
नगर निकायों व पंचायतों में मतदाताओं को सौंपे गये अधिकार दरअसल कई अर्थों में इन संस्थाओं को नौकरशाहों के कब्जे में रखने का षड़यंत्र है. ज्यादातर पंच-सरपंच पढ़े लिखे नहीं है, अनुसचित जाति जनजाति व महिला वर्ग से आये जनप्रतिनिधियों को पंचायत एक्ट का ही पता नहीं है. केन्द्र से आने वाली राशि का दुरूपयोग जनपदों के सीईओ, पंचायतों के सचिव व पढ़े लिखे उप-सरपंच और उपाध्यक्ष तथा ठेकेदार करते हैं पर कलम इन प्रतिनिधियों की फंसी रह जाती है. ऐसे मामलों में प्रशासनिक अधिकारी इन प्रतिनिधियों को सीधे बर्खास्त करने और उन्हें जेल भिजवा देने का अधिकार भी रखते हैं. जब से आईएएस अधिकारियों को जिला पंचायतों का सचिव बनाया गया है अध्यक्षों की बिल्कुल नहीं सुनी जाती, सदस्यों को तो अपने इलाके में काम मंजूर करने के लिये गिड़गिड़ाना पड़ता है. नगर पंचायतों व नगर पालिकाओं में भी कमोबेश यही स्थिति है. पार्षद अक्सर आयुक्त व सीएमओ के पास नाली बनवाने, मच्छर भगाने व पेयजल उपलब्ध कराने के लिये गुहार लगाते हैं पर ये अधिकारी मंत्री-विधायकों को साध कर रखते हैं और इनकी बात नहीं सुनते. हाल ही में छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक धनेन्द्र साहू ने आरोप लगाया कि जनप्रतिनिधियों को भाजपा सरकार नौकरशाहों के जरिये धमका रही है. आरंग की महिला सरपंच लता चंद्राकर को हाईकोर्ट से स्थगन मिल गया था, इसके बाद भी उसे बर्खास्त कर दिया गया. बयान राजनैतिक भी हो सकता है लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे.
मतदाताओं के फैसले पर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता, तीन नगर पंचायतों के अध्यक्ष पार्षदों के बहुमत से खिलाफत करने व मतदाताओं के वोट डालने के बाद पदच्युत किये गये हैं, किन्तु क्या यह संयोग नहीं है कि भारती सोनकर, सीताराम गनेकर और कोरेन खलखो महिला अथवा अनुसूचित जाति से हैं. शायद वे उन तिकड़मों को नहीं जानते थे जिसका राजनैतिक दल इस्तेमाल कर जनता का सामना करने से बचे रह जाते हैं. एक शहर या एक गांव की कमान संभालने वाले जनप्रतिनिधियों के लिये तो कानून कड़े कर दिये गये हैं, पर संसद और विधानसभा में पहुंच कर देश और प्रदेश के लिये नीतियां बनाने वाले सदस्य पांच साल के भीतर एक बार भी मतदाताओं का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं. कोई ऐसा कानून क्यों नहीं बनाया जाता कि सांसद, विधायक भी री-काल के दायरे में लाये जाएं. ऐसा कोई प्रावधान होता तो शायद मध्यप्रदेश के सांसद चन्द्रभान के घर में तोड़फोड़ की नौबत नहीं आती. मतदाता उन्हें वापस बुला लेते. दुनिया के कई देशों में मतदाताओं को यह अधिकार दिया गया है. सोवियत संघ के भीतर आने वाले 36 राज्यों में से 18 में यह कानून सन 1917 से लागू है. जर्मनी में राज्य स्तर तक के निर्वाचित प्रतिनिधि वापस बुलाए जा सकते हैं. कुछ साल पहले केलिफोर्निया में गवर्नर को जनता ने वापस बुला लिया था. लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले दिनों तिरूअनंतपुरम् की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था कि वे जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार के हिमायती हैं. फिर भी लगता नहीं कि पंचायतों को आदर्श बनाने में लगे हमारे देश के नीति नियंता इन उदाहरणों को खुद पर लागू करेंगे.
(यह आलेख http://www.visfot.com/jan_jeevan/democracy_ch_1.html पर भी उपलब्ध है.)

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

झुरमुट में गुम बांस गीत की मिठास

(दैनिक भास्कर रायपुर में 25 जून 2008 को प्रकाशित)
-राजेश अग्रवाल
निर्धनता के थपेडों से सूख चुके 70 साल के छेड़ूराम को आज की शाम भी चौकीदारी पर जाने के लिए देर हो रही थी. अपने पोपले मुंह से बार-बार उखड़ती सांसों पर जोर देते हुए उसने तकरीबन एक घंटे तक सुरीली तान छेड़ी फिर पूरे आदरभाव के साथ बांस को भितिया पर लटका दिया. अब ये कई-कई दिनों तक इसी तरह टंगा रहेगा.
छैड़ूराम को याद नहीं कि पिछली बार बांस उसने कब बजाया. छेड़ूराम कहते हैं-' अब कौन पूछता है इसे. क्या मैं उम्मीद करूं कि मेरे नाती पोते इसे साध पाएंगे. पूरी रात खत्म नहीं होगी, अगर मैं एक राजा महरी का ही किस्सा लेकर बैठ जाऊं. अब तो वह कोलाहल है कि मेरे बांस बजाने का पड़ोसी को भी पता न चले, पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था. दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी ठहर कर कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था. छठी, बरही, गौना सब में बांस गीत गाने-बजाने वालों को बुलाया जाता था. राऊतों का तो कोई शुभ प्रसंग बांस गीत की बैठकी के बगैर अधूरा ही होता था.
अब इंस्टेन्ट जमाना हैं. टेस्ट मैच की जगह ट्वेन्टी-20 पसंद किये जाते हैं. बांस गीत की मिठास को पूरी रात पहर-पहर भर धीरज के साथ सुनकर ही महसूस किया जा सकता है. इसके सुर बहुत धीमे-धीमे रगों में उतरते हैं, आरोह- अवरोह, पंचम, द्रुत सब इसमें मिलेंगे. जब स्वर तेज हो जाते हैं तो मन-मष्तिष्क का कोना-कोना झनकने लगता है. रात में जब भोजन-पानी के बाद बांसगीत की सभा चबूतरे पर बैठती है तो बांस कहार, गीत कहार, ठेही देने वाले रागी और हुंकारू भरने वाले के बीच सुरों का संगत बिठाई जाती हैं. इसके बाद मां शारदा की वंदना होती है फिर शुरू होता है किसी एक कथानक का बखान. यह सरवन की महिमा हो सकती है, गोवर्धन पूजा, कन्हाई, राजा जंगी ठेठवार या लेढ़वा राऊत का किस्सा हो सकता है. गांव के बाल-बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े बारदाना, चारपाई, पैरा, चटाई लाकर बैठ जाते हैं और रात के आखिरी पहर तक रमे रहते हैं.
'अहो बन मं गरजथे बनस्पतिया जइसे, डिलवा मं गरजथे नाग हो
मड़वा में गरजथे मोर सातों सुवासिन गंगा, सभा में गरजथे बांस हो'
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राऊत जब जंगलों की ओर गायों को लेकर गए होंगे तब बांस की झुरमुट से उन्हें हवाओं के टकराने से निकलते संगीत का आभास हुआ होगा. इसे कालान्तर में उन्होंने वाद्य यंत्र के रूप में परिष्कृत कर लिया. इसी का उन्नत स्वरूप बांसुरी के रूप में सामने आया. बांसुरी अपने आकार और वादन में बांस के अनुपात में ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण सभी समुदायों में लोकप्रिय हो गया. बांस, जंगल-झाड़ी और पशुओं के साथ जन्म से मृत्यु तक का नाता रखने वाले यादवों ने बांस गीत को पोषित पल्लवित किया.
छत्तीसगढ़ की जिन लोक विधाओं पर आज संकट मंडरा रहा है, बांस गीत उनमें से एक है. रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की बोली और लोक विधाओं को छत्तीसगढ़ के बाहर देश-विदेश के मंचों पर रखा. उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मिड समर नाइट स्ट्रीम' का हिन्दी रूपान्तर 'कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना' तैयार किया, इसका मंचन अब तक केवल विदेशों में हो सका है. जानकर हैरत हो सकती है कि नाटक का पूरा कथानक बांस गीतों के जरिए ही आगे बढ़ता है, बांस न हो तो इस नाटक का दृश्य परिवर्तन अधूरा लगेगा.
राजनांदगांव के विक्रम यादव ने बांस की धुनों से पूरे नाटक में जादुई माहौल पैदा किया है. विक्रम ने बनारस के घाट पर हुए सन् 2007 के संगीत नाटक अकादमी के वार्षिक समारोह में भी प्रस्तुति दी. सार्क फेस्टिवल 2007 के विज्ञापनों और निमंत्रण पत्रों में बांस गीत गायक खैरागढ़ के नकुल यादव की तस्वीर को ही उभारा गया था.
आकाशवाणी रायपुर में बांस गीतों के लिए हर सोमवार का एक समय निर्धारित था. यदा-कदा कला महोत्सवों में भी बांस गीत के कलाकारों को शामिल किया जाता है.
छत्तीसगढ़ के हर उस गांव में जहां यादव हैं, बांस गीत जरूर होता रहा है. यह बस्तर तक भी फैला हुआ है. बस्तर के दूरस्थ कोंडागांव में खेड़ी खेपड़ा गांव में यादवों का एक समूह बांस गीत को बड़ी रूचि से बजाते हैं.
बांसुरी से लम्बी किन्तु बांस से पतली और छोटी, मुरली भी बजाने की परम्परा यादवों में रही है. मुरली बजाने वाला एक परिवार बिलासपुर के समीप सीपत में मिल जाएगा. यादव दो मुंह वाला अलगोजना और नगडेवना भी बजाते रहे हैं, जो काफी कुछ सपेरों के बीन से मिलता जुलता वाद्य यंत्र है, यह खोज-बीन का मसला है कि कहां कहां बांस या उससे मिलते जुलते वाद्य यंत्र अब बजाये जा रहे हैं.
बांस गीतों का सिमटते जाने के कुछ कारणों को समझा जा सकता है. बांस गीत में वाद्य बांस ही प्रमुख है. गीत-संगीत की अन्य लोक विधाओं की तरह इसके साजों में बदलाव नहीं किया जा सकता. यादवों के अलावा भी कुछ अन्य लोगों ने बांस गीत सीखा पर इसके अधिकांश कथानक यादवों के शौर्य पर ही आधारित हैं. सभी कथा-प्रसंग लम्बे हैं, जिसके श्रोता अब कम मिलते हैं. पंडवानी, भरथरी में कथा प्रसंगों के एक अंश की प्रस्तुति कर उसे छोटा किया जा सकता है, पर बांस गीत में इसके लिए गुंजाइश कम ही है. हिन्दी फिल्मों की फूहड़ नकल से साथ फिल्मांकन कर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का सर्वनाश करने वालों को बांस गीतों में कोई प्रयोग करने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता.
अब तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, गांवों में बड़ी मुश्किल से चराई के लिए दैहान मिल पाता है. ऐसे में कच्चे बांस के जंगल कहां मिलेंगे. वे पेड़ नहीं मिलते, गाय चराते हुए जिस पर टिककर बांस या बांसुरी बजाई जा सके. यादवों के एक बड़े वर्ग से उनका गाय चराने का परम्परागत व्यवसाय छिन चुका है. छैड़ूराम, नकुल या विक्रम में से किसी का भी परिवार अब गाय नहीं चराता है. बांस गीत से इनका लगाव अपनी परम्परा और संगीत बचाये रखने की ललक की वजह से ही है.
रंगकर्मी अनूप रंजन पाण्डेय पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ की लुप्त होती लोक विधाओं और वाद्य यंत्रों को सहेजने के लिए काम कर रहे हैं. उनका मामना है कि लोक विधाओं को संरक्षण देने के नाम पर सरकार या तो कलाकारों को खुद या सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से बढ़ावा देती है, लेकिन बांस गीत जैसी लोक विधाओं की बात अलग है. इसे 15-20 मिनट के लिए मंच देकर बचाया नहीं जा सकता, बांस गीत तब तक नहीं बचेगा,जब तक इसे सीखने वालों की नई पीढ़ी तैयार न की जाए. बांस गीत जैसी विधाओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिये, जिनमें गुरू शिष्य परम्परा को ध्यान में रखा जाए और दोनों को मानदेय मिले.