घोषणा पत्र सामने आने से पहले ही कांग्रेस ने यह साफ किया है कि सलवा जुड़ूम पर उनकी पार्टी ख़ामोश रहेगी. दो बडे़ नेता महेन्द्र कर्मा और अजीत जोगी इस आंदोलन पर अलग-अलग राय रखते हैं. जोगी मानते हैं कि सलवा जुड़ूम के पीछे भावना तो सही है पर निहत्थे अथवा केवल तीर-कमान लेकर चलने वाले आदिवासियों को घातक बम और एके-47 रखने वालों से मुक़ाबले के लिये आगे नहीं किया जा सकता. दूसरी तरफ श्री कर्मा कहते हैं कि इस आंदोलन को वे इतनी दूर तक साथ दे चुके हैं कि उनका पीछे हटना मुमकिन नहीं है.
दोनों नेताओं की एक बैठक राजधानी में हुई थी, उनमें एक राय नहीं बन सकी. राज्य की कांग्रेस इकाई ने भी मान लिया कि सलवा जुड़ूम पर पार्टी की कोई सर्वसम्मत राय नहीं है. लेकिन प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते क्या कांग्रेस की चुप्पी ठीक है? सलवा जुड़ूम और नक्सल समस्या एक दूसरे से गुंथे हुए हैं. भाजपा के प्रमुख राजनैतिक दल व सत्ता में होने की वजह से तथा कांग्रेस के प्रभावशाली नेता महेन्द्र कर्मा के आदिवासियों के एक बड़े वर्ग में असर होने के नाते सलवा जुड़ूम से पड़े नकारात्मक-सकारात्मक प्रभावों का कोई राय जाहिर तो करनी ही होगी. नक्सली हिंसा में मौतें बीते 4 सालों के भीतर 4 गुना बढ़ी. सुरक्षा बलों व स्थानीय आदिवासियों पर हमलों का तेज हुए हैं. खनिज व रेल संसाधनों को क्षति पहुंचाना, 50-60 हजार लोगों का अपने गांवों से बेदख़ल हो जाना और शिविरों में रहना, विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तारियां होना, सैकड़ों आदिवासी परिवारों का आंध्रप्रदेश व दूसरे राज्यों की सीमाओं में शरण लेना, हजारों बच्चों का वहां शिक्षा से वंचित होना, कुपोषण से पीड़ित होना, सुरक्षा बलों व नक्सलियों के ख़िलाफ खड़े लोगों पर अत्याचार के आरोप लगना, उद्योगों के लिये भूमि देने का विरोध और समर्थन, बेदखली के लिये उत्पीड़न जैसे दर्जनों प्रश्न हैं. क्या इनके नेपथ्य में सलवा जुड़ूम क्या कहीं भी नहीं है? आखिरकार, नक्सल समस्या ने पूरे छत्तीसगढ़ पर असर डाला है. वे साधारण मतदाता भी, जो कभी बस्तर नहीं गये इसे लेकर चिंतित हैं और जल्द से जल्द बस्तर, सरगुजा के इलाकों को हिंसा से मुक्त देखना चाहते हैं, भोले-भाले आदिवासियों के लिये अपनी परम्परा, प्रकृति तथा मिट्टी के बीच सहज जीवन-यापन चाहते हैं. ऐसे महत्व के विषय पर कांग्रेस या कोई राजनैतिक दल मौन रहकर मतदाताओं के बीच कैसे जा सकती है? क्या कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में नक्सल समस्या पर भी कुछ नहीं बोलेगी? या फिर केवल भाजपा की निंदा करेगी. पर इससे तो कोई बात नहीं बनेगी. आखिर यह तो राज्य की प्रतिष्ठा और छबि का भी प्रश्न बनता है.
सभी दल और नक्सल समस्या से चिंतित लोग मान चुके हैं कि यह मसला केवल कानून का नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक भी है. प्रायः सभी राजनैतिक दल मानते हैं कि नक्सल किसी एक राज्य की नहीं बल्कि देश की समस्या है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश की सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती बता चुके हैं. देश-विदेश के अनेक मानवाधिकार संगठन सलवा जुड़ुम की बंद करने की मांग कर चुके हैं, जन सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारियों की निंदा कर चुके हैं और उनकी रिहाई के लिये आंदोलन भी कर रहे हैं. यदि उनकी बात ठीक हैं तो कांग्रेस साफ कहे,, नहीं है तो कहे.
दो जिम्मेदार नेताओं में घोर असहमति के कारण राज्य के सबसे जलते सवाल को किनारे कर देने से काम कैसे चलेगा. उन लाखों मतदाताओं का क्या होगा, जो केवल इसी बात पर कांग्रेस को वोट देने या नहीं देने का फैसला करने वाले हैं. राज्य की पार्टी इकाई यदि दोनों नेताओं के बीच सुलह नहीं करा सकती तो केन्द्रीय नेता सोचें और पहल करें. कांग्रेस एक राजनैतिक दल है. दल की एक विचारधारा होती है. कांग्रेस को विचार तो व्यक्त करना ही होगा. क्या सलवा जुड़ूम खत्म कर दिया जाये? या उसके स्वरूप में बदलाव किया जाये या उसका पूरी तरह समर्थन किया जाये, किसी एक लाइन पर तो उसे चलना ही होगा. यह लाइन नक्सल पीड़ितों की आवाज़ पहचानने पर टिकी हुई है, क्या सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने हमेशा आदिवासियों के बीच काम करने का दावा किया है, उनका मन टटोलने में असफल है या उससे मुंह मोड़ना चाहती है. क्या उनका सारा तर्क-वितर्क केवल दो नेताओं के विचार तक सीमित है. किसी के रूठ जाने के डर से, उनके समर्थकों के वोटों का नुकसान उठाने के डर से एक प्रमुख राष्ट्रीय राजनैतिक दल को तटस्थ रहने का अपराध नहीं करना चाहिये. भूख-भय, शोषण, हिंसा के ख़िलाफ बस्तर में लड़ाई अभी जारी है. नक्सल और इससे जुड़े तमाम सवालों पर राजनैतिक दलों की भी भूमिका इतिहास के पन्नों में चुपचाप दर्ज़ होते जा रहे हैं. इसलिये सबको अपनी राय स्पष्ट करनी होगी. आखिर सजग मतदाता भी किसी पार्टी के विचारों को ही ध्यान में रखकर ही अपना मत बनाता है.
बुधवार, 29 अक्तूबर 2008
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