अनेक मायनों में छत्तीसगढ़ आज भी पिछड़ा हुआ है, लेकिन अलग राज्य बनने के पहले तो इसकी बड़ी-बड़ी घटनाएं देश के टीवी व अख़बारों में सुर्खियां नहीं बन पाती थी. दिल्ली, मुम्बई के सम्पादकों-पत्रकारों के साथ राज्य के दूसरे सबसे बड़े शहरबिलासपुर के पत्रकारों का रिश्ता बने यह तो कोशिश न तो आम तौर पर होती थी न ही इसे आसान माना जा सकता था. ऐसे दौर में जब पहली बार 1991 में प्रभाष जोशी से बिलासपुर के पत्रकार रू-ब-रू हुए तो न केवल कौतूहल से भर गए बल्कि धोती कुरते का लिबास लेकर चलने वाले इस विभूति के सहज और आत्मीय वार्तालाप से अनेक भ्रांतियां दूर हो गई.
दरअसल, कोरबा जिले के करतला में उस साल सूचना के अधिकार के पक्ष में बड़ी बात हुई. देश के अनेक बुध्दिजीवियों व सामाजिक संगठनों के साथ प्रभाष जी भी इस कार्यक्रम में पहुंचे. पता नहीं दिल्ली से करतला पहुंचने में उन्हें कितने साधनों का इस्तेमाल करना पड़ा होगा और वे कितने घंटे बाद वहां तक पहुंच पाए होंगे, लेकिन इस सम्मेलन का महत्व उन्होंने दिल्ली में, अपनी व्यस्तता के बीच भी समझ लिया.
सूचना के अधिकार के तहत पूरे देश में आयोजित की गई यह पहली जन सुनवाई थी, जिसमें तब के कमिश्नर हर्षमंदर की पहल पर कानून बनने के 15 साल पहले अफसरों ने ग्रामीणों को वह सब सूचना उपलब्ध कराई, जो आज आरटीआई के तहत मांगी जा सकती हैं. इसके बाद प्रभाष जी ने सूचना के अधिकार की मांग को दिल्ली के न केवल हिन्दी बल्कि अंग्रेजी अख़बारों की सुर्खियों में ला दिया. क्षेत्रीय दैनिक अख़बारों व छिट-पुट छपने वाले साप्ताहिक पत्रों के पत्रकारों के लिए प्रभाष जी का बिलासपुर आगमन प्रसन्नता, आश्चर्य और कौतूहल का मामला था. जिस पत्रकार ने अंग्रेजी मीडिया के आगे हिन्दी को सीना तान कर खड़ा करना सिखाया हो व जो देसी लिबास पहने, सहज तरीके से मिलने-जुलने वाला हो, ऐसा तो उनके बारे में सुनकर उनसे मिलने वाला सोच भी नहीं सकता था.
प्रभाष जी का आखिरी और प्रतिक्रियाओं के लिहाज से विवादास्पद भी- सबसे बड़ा इंटरव्यू हाल ही में रविवार डाट काम पर प्रकाशित हुआ है. इसे कव्हर करने वाले बिलासपुर के पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की सुनें-
रायपुर के मयूरा होटल में ठहरे प्रभाष जी ने कमरे का दरवाजा काफी देर तक नहीं खोला. बाद में आधे कपड़ों में वे बाहर आए. उन्होंने इस बात के लिए खेद जताया कि वे बाथरूम में थे.
पुतुल ने झिझकते हुए कहा- थोड़ी देर में आता हूं. प्रभाष जी बोले नहीं-नहीं बैठो.
‘आप धोती वगैरह तो पहन लीजिए.’
प्रभाष जी बोले- अरे धोती पहनने में क्या रखा है, यह तो उनके लिए मुश्किल है जो पहनना नहीं जानते. हम तो चौक पर भी आराम से बांध लें.
इसके बाद दो घंटे तक उन्होंने इत्मीनान से बातें की.
पुतुल बताते हैं- मेरे साथ गए कैमरामैन ने उनके मिलकर नीचे उतरते हुए कहा- आप तो कह रहे थे कि दिल्ली के किसी बहुत बड़े पत्रकार से मिलाने जा रहे है. मुझे लगा कि वे कोट और टाई पहने मिलेंगे, लेकिन मुझे तो उनकी बनियाइन में छेद दर छेद देखकर समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस एंगल से शाट लूं.
करतला में हुई आरटीआई सुनवाई का मामला अकेला नहीं है, वे लगातार बिलासपुर रायपुर की विभिन्न गोष्ठियों में आते रहे और हर बार पत्रकार उनसे एक मीडिया कर्मी की प्रतिबध्दता व सामाजिक मुद्दों पर उनकी अवधारणा को समझते हुए अपने ज्ञान को समृध्द करते रहे.
वे तो थे शुध्द अहिंसक गांधी और विनोबा के दर्शन से प्रभावित और जेपी के आंदोलन में उनके सहयोगी, लेकिन नक्सलियों से तार जुड़े होने का आरोप झेलने वाले मानवाधिकार संगठन- पीयूसीएल के बुलावे पर वे उनके बिलासपुर सम्मेलन में भी पहुंचे, क्योंकि पीयूसीएल ने जिस मुद्दे को लेकर दिन भर का सम्मेलन रखा था, वह उन्हें जंच गया. वस्तुतः, यह आयोजन छत्तीसगढ़ सरकार के जनसुरक्षा कानून 2005 का विरोध करने के लिए था. प्रभाष जी सहमत थे कि इस कानून से अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार का हनन होगा. यह बताना ठीक होगा कि इस कानून के जरिये छत्तीसगढ़ सरकार उन सभी लोगों को 2 साल के लिए जेल भेज सकती है, जिनके बारे में संदेह है कि वे नक्सलियों से किसी न किसी तरीके से सम्पर्क में रहते हैं अथवा उनसे बातचीत कर लेते हैं. यह कानून सच को सामने लाने के लिए जुटी मीडिया के ख़िलाफ भी हो सकता है.
इसी सम्मेलन से जुड़ा एक मीठा संस्मरण रायपुर-बिलासपुर से छपने वाले सांध्य दैनिक इवनिंग टाइम्स के सम्पादक नथमल शर्मा के साथ हैं- सम्मेलन में कुछ देर बैठने के बाद प्रभाष जी बेचैन लगे. उन्होंने कहा कि मुझे होटल चलना है. नथमल उन्हें लेकर बाहर निकलने लगे तो आयोजकों ने प्रभाष जी को रोका. कहां जा रहे हैं, अभी तो आपको भाषण देना है.
प्रभाष जी ने कहा- मुझे पता है, मेरा भाषण शाम को होगा और मुझे क्या बोलना है यह भी पता है.
होटल के कमरे में घुसते ही उन्होंने पूछा- नथमल, क्या आप क्रिकेट में रूचि हैं?
नथमल ने कहा- क्रिकेट पसंद है, पर बहुत ज्यादा नहीं.
प्रभाष जी ने कहा- अरे तब तो आपका समय ख़राब होगा. आप अभी विदा लें और मुझे शाम 5 बजे आकर ले जाएं.
दरअसल, उस दिन कोई क्रिकेट मैच चल रहा था, प्रभाष जी के लिए सम्मेलन में भाग लेना जितना जरूरी था, उतना ही उस मैच को देखना भी.
नथमल बताते हैं कि शाम को जब वे उन्हें लेने पहुंचे तो वे फ्रेश लग रहे थे, मानो मन मांगी मुराद पूरी हो गई.
समय की पाबंदी और दैनिक अख़बार से जुड़े काम के महत्व को रेखांकित करने वाली एक और बात दिखी. होटल के कमरे में उन्होंने कागद कारे भी लिख डाला. इसे उन्होंने खुद जब तक फैक्स नहीं कर लिया, उन्हें तसल्ली नहीं हुई. पीयूसीएल के कार्यक्रम में भी समय पर भाषण देने लौट चुके थे.
देश के कई बड़े शहरों में काम कर चुके बिलासपुर के पत्रकार दिनेश ठक्कर ने जनसत्ता कोलकाता संस्करण में काम किया. उनके हाथों का लिखा नियुक्ति-पत्र उन्होंने आज तक संभाल कर रखा हैं. ठक्कर कहते हैं कि मेरी तरह उन्होंने सभी सम्पादकीय सहयोगियों को सादे कागज पर अपने हाथ का लिखा नियुक्ति- पत्र दिया और शायद मेरी तरह सभी ने इसे महत्व का दस्तावेज मान रखा है. ठक्कर बताते हैं कि जनसत्ता की कोलकाता में शुरूआत थी, ज्यादा मेहनत होनी थी. प्रभाष जी, आख़िरी संस्करण के निकलते तक दफ़्तर में ही काम देखते थे. सहयोगी कहते कि आप निकलिये- सब ठीक होगा, पर ऐसा करीब 3 माह तक नहीं हुआ. देर हो जाने पर रात में वे अखबार बिछाकर दफ़्तर में ही सो जाते थे, जबकि मालिकों ने उनके लिए किसी पांच सितारा होटल का कमरा बुक कर रखा था, वे सुबह फ्रेश होने वहां जाते थे. जिम्मेदारी के साथ काम करना उनके साथ काम करने वाले हर पत्रकार ने सीखी.
बिलासपुर और छत्तीसगढ़ के दूसरे शहरों में वे लगातार आते रहे हे. मेरी (लेखक) की अनेक मुलाकातें हैं. आखिरी भेंट दिल्ली में तब हुई जब 2007 में उदयन शर्मा पत्रकारिता सम्मान मिला. मंच पर बैठे प्रभाष जी से आशीर्वाद मिला. नीचे उतरने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों के बारे में जानकारी ली. यह बताते हुए प्रसन्नता महसूस करता हूं कि उनका एक वाक्य मुझे पत्रकारिता के अलावा छत्तीसगढ़ी रचनाएं लिखने के लिए भी लगातार प्रेरणा देता है. दरअसल, बिलासपुर में एक कार्यक्रम के बाद समय बचा. उसके बाद हम कुछ पत्रकार साथी उन्हें लेकर अचानकमार अभयारण्य घूमने के लिए निकले. वहां स्थानीय पत्रकार साथियों के अनुरोध पर मैंने अपनी छत्तीसगढ़ी रचना सुनाई. रचना लम्बी थी. प्रभाष जी ने ख़ामोशी के साथ पूरा सुना- फिर प्रतिक्रिया दी- राजेश, तुमने इसके अलावा क्या लिखा है, यह मुझे नहीं पता लेकिन एक इसी रचना को सुनकर मैं तुम्हें एक मंझा हुआ गीतकार कह सकता हूं.
सचमुच, गांव टोले तक चौथा पाये का कदर है, यह समझने वाला दिल्ली में कोई दूसरा पत्रकार पैदा नहीं होगा. प्रभाष जी बरसों जेहन में रहेंगे और नई पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे.
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
शनिवार, 14 नवंबर 2009
दसवें साल में हाशिये पर जाते आदिवासी, ठगे जाते किसान
लगभग 9 साल पहले जब मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग बांटा गया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि प्रचुर नैसर्गिंक संसाधनों से भरपूर इस आदिवासी बाहुल्य पिछड़े राज्य को विकास के मामले में किसी भेदभाव का शिकार होने से बचाया जाए. अब जबकि बीते एक नवंबर को यह राज्य अपने दसवें साल की ओर कदम बढ़ा चुका है तो साथ बने दो अन्य राज्यों झारखंड और उत्तराखंड के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई तो देता है लेकिन विकास का मतलब एक बड़ी आबादी को आज भी नहीं समझाया जा सका है. राज्य की तरक्की के लिए बड़े फैसले लिए जा रहे हैं, लेकिन राजनैतिक स्थिरता के बावजूद इच्छाशक्ति की कमी, लापरवाह विपक्ष और बेलगाम नौकरशाही ने इसके पहिए जाम कर रखे हैं. भारी भरकम बजट वाले इस राज्य में- राजमद में डूबे लोग ज़मीनी चुनौती का खुद सामना करने के बजाय फोर्स को आगे कर रहे हैं और नक्सलियों के हाथ शहरी इलाकों के गर्दन तक पहुंच रहे हैं.
झारखंड और उत्तराखंड के लिए जिस तरह हिंसक संघर्ष हुए, छत्तीसगढ़ में वह देखने को नहीं मिला. इसकी वजह यह नहीं थी कि छत्तीसगढ़ की जरूरत को यहां के लोगों ने कम करके आंका. कारण बस इतना था कि यहां के लोग शांतिप्रिय है. छत्तीसगढ़ियों की बोली बहुत मीठी है और रहन-सहन सादा. कई दशक पहले पं. सुन्दरलाल शर्मा व खूबचंद बघेल जैसों ने गांधीवादी तरीके से अलग राज्य की मांग शुरू कर दी थी. इसी का असर था कि सर्वदलीय पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच की अगुवाई में यहां के लोगों ने दो दशक के शांतिपूर्ण आंदोलनों के ही जरिये अपनी मांग मनवा ली. छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खूबी है यहां के 44 फीसदी हिस्से का जंगलों से ढ़का होना, जहां पर 32 प्रतिशत आदिवासियों का निवास है. विकास की धुरी में यही तबका केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था. न केवल इसलिए कि वे जनसंख्या के लिहाज से संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने का अधिकार रखते हैं बल्कि इसलिए भी कि वे ही राज्य के मूल निवासी माने जाते हैं. 18 वीं शताब्दी के हलबा आंदोलन से लेकर मुगल, मराठा व ब्रिटिश सरकारों के ख़िलाफ आदिवासियों ने जमकर लोहा लिया और यहां की प्रचुर खनिज, वन सम्पदा को बचाये रखने, अपनी मौलिक जीवन शैली, रहन-सहन व संस्कृति को संभाले रखने के लिए उन्होंने पूरे साहस के साथ खून बहाया.
सन् 2000 में राज्य बना तो छत्तीसगढ़ का बजट 5700 करोड़ रूपये था, जो आज 9 साल बाद बढ़कर 23 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है, लेकिन 66 लाख की आबादी वाले आदिवासी समुदाय का हाल जस का तस है. वे कुपोषण के शिकार हैं, शासकीय योजनाओं की रकम उन तक पहुंचने से पहले ही हड़प ली जाती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, रोजगार जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा है. इस असंतोष को भुनाया है हिंसा पर भरोसा रखने वाले माओवादियों ने. सरकार कहती है कि 44 हजार वर्गकिलोमीटर में फैले बस्तर इलाके का विकास इन्होंने रोक रखा है, जबकि माओवादी आदिवासियों को यह विश्वास दिलाने में एक हद तक सफल दिखाई देते हैं कि सरकार बेशकीमती खनिज और वन सम्पदा को लूटना चाहती है. पुलिस व केन्द्रीय बलों को लगातार नक्सली छका रहे हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इनकी समानान्तर सरकारें चल रही हैं. वे बस्तर के बहुमूल्य संसाधनों को अपने हाथों में लेकर अपनी शर्तों पर इस्तेमाल करने की हद तक प्रभाव रखते हैं. सरकार के पास रिपोर्ट है कि यहां प्रवेश करने वाले व्यापारियों और ठेकेदारों से नक्सली सालाना 300 करोड़ रूपये की फिरौती वसूल रहे हैं. अर्धसैनिक बलों-पुलिस के अलावा नक्सलियों से लोहा लेने के लिए बतौर एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) आदिवासी युवकों को भी झोंक दिया गया है. बीते 2 सालों में 700 से ज्यादा नागरिक व पुलिस कर्मी इन मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं. इनमें एक पुलिस अधीक्षक व करीब दर्जन भर अधिकारी स्तर के जवान शामिल हैं. कांग्रेस व भाजपा के कई नेता शामिल हैं. भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के एक बेटे की हत्या तो हाल ही में हुई. कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा के भतीजे की भी हत्या हो चुकी है.
नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए. सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे. बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए. इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है. इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई ख़बर नहीं. बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता है. इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया.
छत्तीसगढ़ राज्य जिन लोगों की खुशहाली की कामना करते हुए बनाया गया था, आज वे हताश और भयभीत हैं. इन दिनों बस्तर में बड़ी तादात में केन्द्रीय बलों के जवान तैनात किये जा रहे हैं. सरकार ने बस्तर में निर्णायक लड़ाई लड़ने का इरादा बना लिया है. सुरक्षा बलों व नक्सलियों के बीच संभावित बड़े संघर्ष की ख़बरों से भयभीत आदिवासी फिर पलायन करने जा रहे हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के इस आश्वासन के बावजूद भय का वातावरण गहराता जा रहा है कि आम लोगों को इस आपरेशन को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए.
रायपुर, बिलासपुर की सड़कों पर चलें और तेजी से बढ़ती नई कालोनियों और इंडस्ट्रीयल इलाकों को देखें तो राज्य की भाजपा सरकार के इस दावे में काफी दम दिखाई देता है कि प्रदेश तेजी से विकास कर रहा है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह यह बताते हुए नहीं अघाते हैं कि उनकी सरकार ने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपये का एमओयू किया है. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लोगों ने इनके जरिये अपना जीवन स्तर ऊपर उठते हुए नहीं देखा. रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसी जगहों पर तेजी से स्पंज आयरन और बिजली परियोजनाएं शुरू हुईं. लेकिन आम लोगों ने पाया तो केवल अपनी पुश्तैनी खेती से बेदखली की पीड़ा और बेशुमार प्रदूषण. राज्य के किसी न किसी छोर में विस्थापन और प्रदूषण के खिलाफ अक्सर आंदोलन चलते रहते हैं. समस्या इतनी गंभीर है कि रायपुर में प्रदूषण को लेकर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन खुद बार-बार दखल दे रहे हैं. सत्ता पक्ष के ही एक विधायक देवजी पटेल ने तो अपनी ही सरकार के ख़िलाफ मोर्चा खोल रखा है.
राज्य बनने के तत्काल बाद यहां चुनाव नहीं हुए. मध्यप्रदेश से टूटकर बनी 90 सीटों में से बहुमत कांग्रेस का था, लिहाजा अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. 3 साल बाद हुए चुनाव में वे अपने ख़िलाफ जातिवाद को बढ़ावा देने व सरकारी आतंक के आरोपों का जवाब नहीं दे पाये और इन्हीं को मुद्दा बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी. भाजपा ने पहले कार्यकाल में औद्योगिकीकरण व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ समझौतों को खूब प्रोत्साहन दिया. लेकिन जब पांच साल बाद 2008 में चुनाव हुए तो परिस्थितियां बदल चुकी थी. प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल करने की योजना से राज्य के राजस्व में तो इजाफा हुआ, लेकिन आम लोगों को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. अधिकांश योजनाएं उन इलाकों की हैं, जहां नक्सलियों के चलते काम शुरू नहीं किए जा सके. जमीनों के अधिग्रहण के ख़िलाफ न केवल बस्तर के आदिवासी बल्कि मैदानी इलाकों में भी किसान उठ खड़े हुए. इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा में सरकार ने पिछले साल एक ब्योरा पेश किया, जिसमें बताया गया कि तब तक किए गये 16 एमओयू में से केवल एक पर काम शुरू किया जा सका है.
भाजपा के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि 83 फीसद खेती पर निर्भर छत्तीसगढ़ियों के बीच धान और चावल की ही सबसे ज्यादा अहमियत है. राजनीति इसी पर शुरू हुई. इसके बाद आकार लिया 3 रूपये किलो चावल की योजना ने. नवम्बर 2008 के विधानसभा चुनाव के 8 माह पहले यह योजना लागू की गई और इसे इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिली कि विपक्ष हक्का-बक्का रह गया. कांग्रेस ने 101 घोटालों की फेहरिस्त जारी की. इनमें के कई मामलों को उन्होंने लोक आयोग को भी सौंपा लेकिन सारे मुद्दे बेअसर रहे. भाजपा ने केन्द्र सरकार की गरीबी रेखा सूची में शामिल 18 लाख लोगों की सूची से पृथक एक अलग सर्वेक्षण कराया और राज्य के 30 लाख परिवारों को गरीबों की सूची में जोड़ दिया. इसके अलावा 7 लाख परिवारों को अति-गरीब माना गया. चुनावी घोषणा पत्र में चावल योजना का विस्तार किया गया. अब यहां के 30 लाख परिवारों को चावल कुछ कम कर 7 किलो गेंहूं भी दिया जा रहा है. चावल का मूल्य गरीबों के लिए 2 रूपये किया गया, अति-गरीबों को तो यह एक ही रूपये में दिया जा रहा है. यह विडम्बना ही कही जाए कि दो करोड़ 8 लाख की आबादी वाले इस राज्य में सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार 66 लाख से ज्यादा गरीब निवास करते हैं. केन्द्र सरकार की योजना का खाका तैयार होने से पहले ही राज्य सरकार ने अपने बजट से ही राज्य में भोजन का अधिकार योजना लागू करने की घोषणा कर दी है. नमक का पैकेट मुफ़्त दिया जा रहा है.
किसानों को चुनावी साल में धान पर प्रति क्विंटल 270 रूपये का बोनस दिया गया. पर 2009 की खरीफ फसल आने पर किसान अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है क्योंकि इस साल यह बोनस देने से सरकार ने मना कर दिया है. न केवल विधानसभा चुनाव में बल्कि लोकसभा में धान चावल का असर रहा. विधानसभा में भाजपा ने अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखते हुए 50 सीटें हासिल की, जबकि लोकसभा की 11 में से 10 सीटें उसकी झोली में आ गिरीं.
राज्य की रमन सरकार को अपनी पार्टी की ओर से कोई चुनौती नहीं है. गाहे-बगाहे विरोध के स्वर उठते हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इनसे निपटने का पर्याप्त अनुभव हासिल हो चुका है. केन्द्रीय नेतृत्व विशेषकर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री के मधुर सम्बन्ध हैं. इसलिए जब दूसरी पारी में भी मुख्यमंत्री के तौर पर उनके अलावा कोई नाम नहीं उभरा. इस लिहाज से देखा जाए तो सन् 2000 में बने तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा राजनैतिक स्थिरता है. झारखंड में अब तक 9 बार मुख्यमंत्री तथा उत्तराखंड में 5 मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में दो ही मुख्यमंत्री हुए और दूसरी बार चुने जाने के बाद डा. सिंह अपना कार्यकाल सफलता पूर्वक लगभग एक साल पूरा करने जा रहे हैं.
यदि राजनैतिक अस्थिरता विकास में बाधा मानी जाती है, तो अधिक स्थिरता सरकार को निश्चिन्त भी कर देती है. छत्तीसगढ़ में यह दिखाई देता है. सबसे ज्यादा राहत नौकरशाहों में दिखाई देता है. धान खरीदी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, प्रधानमंत्री सड़क योजना, उर्जा विभाग, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आये दिन भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं. बड़े बजट वाला राज्य है, लिहाजा घोटाले की राशि भी करोड़ों में होती है. विधानसभा में जांच और कार्रवाईयों का भरोसा दिलाए जाने के बाद ऐसे दर्जनों मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करते हुए राज्य सरका ने यह संदेश दे दिया है कि वे इन्हें बचाने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती.
इन 9 सालों में राज्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि वह बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. राज्य बनने के बाद जहां केवल 1300 मेगावाट बिजली छत्तीसगढ़ में उपलब्ध थी वहीं अब 2100 मेगावाट है, जिसे अगले साल तक बढ़ाकर 2600 मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है. राज्य ने करीब 4000 करोड़ रूपये बिजली बेचकर कमाये. प्रदूषण और पानी की समस्या के बावजूद राज्य सरकार ने इस दिशा में काफी आगे जाने का विचार किया है. अगले एक दशक में निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों की मदद से इस दिशा में 44000 करोड़ रूपये के निवेश की योजना बनाई गई है.
प्रदेश में राज्य बनने के समय 100 वर्ग किमी के दायरे में 17 किलोमीटर ही सड़कें थी, जिसे अब 20 किलोमीटर तक पहुंचाया जा चुका है. खाद्य विभाग के बाद सबसे ज्यादा बजट 2100 करोड़ रूपये का पीडब्ल्यूडी के लिए ही रखा गया है. राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है. तेजी से नये औद्योगिक संयंत्र खुलने के बाद भी यहां के इंजीनियरों को रोजगार की तलाश में बाहर भटकना पड़ता है. 4 नये मेडिकल कालेज खुलने के बाद भी राज्य में करीब 3500 डाक्टरों की कमी है. इनमें से भी अधिकांश शहरों में जमे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है. यहां कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है. स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर हजारों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं. राज्य सरकार कहती है कि राज्य बनने के बाद अब 13 लाख हेक्टेयर के बजाय 17 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. लेकिन इन्हीं आंकड़ों एक सच यह भी है कि कुल खेती के रकबे का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा सिंचित है. खेती के जानकार तो कहते हैं कि वास्तविक सिंचित रकबा 16-17 फीसद ही है. सरगुजा-बस्तर जैसे इलाके में सिंचाई सुविधा केवल 3 और 6 प्रतिशत किसानों को उपलब्ध है. इस बार 20 फीसदी वर्षा कम होने के कारण राज्य की 146 में से 66 तहसीलों में भयंकर सूखा पड़ा हुआ है. कई तहसीलों को सूखाग्रस्त होने के बावजूद उसे सरकार ने अपनी राहत योजना में शामिल करने से मना कर दिया है.
छत्तीसगढ़ में वे सब साधन मौजूद हैं जिनकी बदौलत इसे एक विकसित राज्य बनाया जा सकता है. अकेले देवभोग की धरती पर ऊंचे दर्जे का इतना हीरा दबा है कि इससे होने वाली अकेली आय ही इसे कर-मुक्त राज्य बना सकता है. मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद विकास के लिए आबंटन बढ़ा, राज्य का राजस्व बढ़ा लेकिन राज्य की आम जनता की आकांक्षाओं को सस्ता चावल देने तक ही सिमटाकर राज्य के प्रचुर संसाधनों के इस्तेमाल के मामले में नौकरशाह और राजनेता मनमाने फैसले ले रहे हैं. उन्हें विरोधों की परवाह इसलिए भी नहीं है कि ये विरोध उनके ख़िलाफ वोट में नहीं बदलेंगे. गरीबों के हिस्से में सस्ता चावल आया है और सम्पन्न राज्य के राजस्व की शक्ति को सत्ता से जुड़े लोग अपना हक समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं.
-राजेश अग्रवाल
झारखंड और उत्तराखंड के लिए जिस तरह हिंसक संघर्ष हुए, छत्तीसगढ़ में वह देखने को नहीं मिला. इसकी वजह यह नहीं थी कि छत्तीसगढ़ की जरूरत को यहां के लोगों ने कम करके आंका. कारण बस इतना था कि यहां के लोग शांतिप्रिय है. छत्तीसगढ़ियों की बोली बहुत मीठी है और रहन-सहन सादा. कई दशक पहले पं. सुन्दरलाल शर्मा व खूबचंद बघेल जैसों ने गांधीवादी तरीके से अलग राज्य की मांग शुरू कर दी थी. इसी का असर था कि सर्वदलीय पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच की अगुवाई में यहां के लोगों ने दो दशक के शांतिपूर्ण आंदोलनों के ही जरिये अपनी मांग मनवा ली. छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खूबी है यहां के 44 फीसदी हिस्से का जंगलों से ढ़का होना, जहां पर 32 प्रतिशत आदिवासियों का निवास है. विकास की धुरी में यही तबका केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था. न केवल इसलिए कि वे जनसंख्या के लिहाज से संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने का अधिकार रखते हैं बल्कि इसलिए भी कि वे ही राज्य के मूल निवासी माने जाते हैं. 18 वीं शताब्दी के हलबा आंदोलन से लेकर मुगल, मराठा व ब्रिटिश सरकारों के ख़िलाफ आदिवासियों ने जमकर लोहा लिया और यहां की प्रचुर खनिज, वन सम्पदा को बचाये रखने, अपनी मौलिक जीवन शैली, रहन-सहन व संस्कृति को संभाले रखने के लिए उन्होंने पूरे साहस के साथ खून बहाया.
सन् 2000 में राज्य बना तो छत्तीसगढ़ का बजट 5700 करोड़ रूपये था, जो आज 9 साल बाद बढ़कर 23 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है, लेकिन 66 लाख की आबादी वाले आदिवासी समुदाय का हाल जस का तस है. वे कुपोषण के शिकार हैं, शासकीय योजनाओं की रकम उन तक पहुंचने से पहले ही हड़प ली जाती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, रोजगार जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा है. इस असंतोष को भुनाया है हिंसा पर भरोसा रखने वाले माओवादियों ने. सरकार कहती है कि 44 हजार वर्गकिलोमीटर में फैले बस्तर इलाके का विकास इन्होंने रोक रखा है, जबकि माओवादी आदिवासियों को यह विश्वास दिलाने में एक हद तक सफल दिखाई देते हैं कि सरकार बेशकीमती खनिज और वन सम्पदा को लूटना चाहती है. पुलिस व केन्द्रीय बलों को लगातार नक्सली छका रहे हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इनकी समानान्तर सरकारें चल रही हैं. वे बस्तर के बहुमूल्य संसाधनों को अपने हाथों में लेकर अपनी शर्तों पर इस्तेमाल करने की हद तक प्रभाव रखते हैं. सरकार के पास रिपोर्ट है कि यहां प्रवेश करने वाले व्यापारियों और ठेकेदारों से नक्सली सालाना 300 करोड़ रूपये की फिरौती वसूल रहे हैं. अर्धसैनिक बलों-पुलिस के अलावा नक्सलियों से लोहा लेने के लिए बतौर एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) आदिवासी युवकों को भी झोंक दिया गया है. बीते 2 सालों में 700 से ज्यादा नागरिक व पुलिस कर्मी इन मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं. इनमें एक पुलिस अधीक्षक व करीब दर्जन भर अधिकारी स्तर के जवान शामिल हैं. कांग्रेस व भाजपा के कई नेता शामिल हैं. भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के एक बेटे की हत्या तो हाल ही में हुई. कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा के भतीजे की भी हत्या हो चुकी है.
नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए. सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे. बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए. इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है. इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई ख़बर नहीं. बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता है. इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया.
छत्तीसगढ़ राज्य जिन लोगों की खुशहाली की कामना करते हुए बनाया गया था, आज वे हताश और भयभीत हैं. इन दिनों बस्तर में बड़ी तादात में केन्द्रीय बलों के जवान तैनात किये जा रहे हैं. सरकार ने बस्तर में निर्णायक लड़ाई लड़ने का इरादा बना लिया है. सुरक्षा बलों व नक्सलियों के बीच संभावित बड़े संघर्ष की ख़बरों से भयभीत आदिवासी फिर पलायन करने जा रहे हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के इस आश्वासन के बावजूद भय का वातावरण गहराता जा रहा है कि आम लोगों को इस आपरेशन को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए.
रायपुर, बिलासपुर की सड़कों पर चलें और तेजी से बढ़ती नई कालोनियों और इंडस्ट्रीयल इलाकों को देखें तो राज्य की भाजपा सरकार के इस दावे में काफी दम दिखाई देता है कि प्रदेश तेजी से विकास कर रहा है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह यह बताते हुए नहीं अघाते हैं कि उनकी सरकार ने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपये का एमओयू किया है. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लोगों ने इनके जरिये अपना जीवन स्तर ऊपर उठते हुए नहीं देखा. रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसी जगहों पर तेजी से स्पंज आयरन और बिजली परियोजनाएं शुरू हुईं. लेकिन आम लोगों ने पाया तो केवल अपनी पुश्तैनी खेती से बेदखली की पीड़ा और बेशुमार प्रदूषण. राज्य के किसी न किसी छोर में विस्थापन और प्रदूषण के खिलाफ अक्सर आंदोलन चलते रहते हैं. समस्या इतनी गंभीर है कि रायपुर में प्रदूषण को लेकर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन खुद बार-बार दखल दे रहे हैं. सत्ता पक्ष के ही एक विधायक देवजी पटेल ने तो अपनी ही सरकार के ख़िलाफ मोर्चा खोल रखा है.
राज्य बनने के तत्काल बाद यहां चुनाव नहीं हुए. मध्यप्रदेश से टूटकर बनी 90 सीटों में से बहुमत कांग्रेस का था, लिहाजा अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. 3 साल बाद हुए चुनाव में वे अपने ख़िलाफ जातिवाद को बढ़ावा देने व सरकारी आतंक के आरोपों का जवाब नहीं दे पाये और इन्हीं को मुद्दा बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी. भाजपा ने पहले कार्यकाल में औद्योगिकीकरण व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ समझौतों को खूब प्रोत्साहन दिया. लेकिन जब पांच साल बाद 2008 में चुनाव हुए तो परिस्थितियां बदल चुकी थी. प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल करने की योजना से राज्य के राजस्व में तो इजाफा हुआ, लेकिन आम लोगों को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. अधिकांश योजनाएं उन इलाकों की हैं, जहां नक्सलियों के चलते काम शुरू नहीं किए जा सके. जमीनों के अधिग्रहण के ख़िलाफ न केवल बस्तर के आदिवासी बल्कि मैदानी इलाकों में भी किसान उठ खड़े हुए. इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा में सरकार ने पिछले साल एक ब्योरा पेश किया, जिसमें बताया गया कि तब तक किए गये 16 एमओयू में से केवल एक पर काम शुरू किया जा सका है.
भाजपा के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि 83 फीसद खेती पर निर्भर छत्तीसगढ़ियों के बीच धान और चावल की ही सबसे ज्यादा अहमियत है. राजनीति इसी पर शुरू हुई. इसके बाद आकार लिया 3 रूपये किलो चावल की योजना ने. नवम्बर 2008 के विधानसभा चुनाव के 8 माह पहले यह योजना लागू की गई और इसे इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिली कि विपक्ष हक्का-बक्का रह गया. कांग्रेस ने 101 घोटालों की फेहरिस्त जारी की. इनमें के कई मामलों को उन्होंने लोक आयोग को भी सौंपा लेकिन सारे मुद्दे बेअसर रहे. भाजपा ने केन्द्र सरकार की गरीबी रेखा सूची में शामिल 18 लाख लोगों की सूची से पृथक एक अलग सर्वेक्षण कराया और राज्य के 30 लाख परिवारों को गरीबों की सूची में जोड़ दिया. इसके अलावा 7 लाख परिवारों को अति-गरीब माना गया. चुनावी घोषणा पत्र में चावल योजना का विस्तार किया गया. अब यहां के 30 लाख परिवारों को चावल कुछ कम कर 7 किलो गेंहूं भी दिया जा रहा है. चावल का मूल्य गरीबों के लिए 2 रूपये किया गया, अति-गरीबों को तो यह एक ही रूपये में दिया जा रहा है. यह विडम्बना ही कही जाए कि दो करोड़ 8 लाख की आबादी वाले इस राज्य में सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार 66 लाख से ज्यादा गरीब निवास करते हैं. केन्द्र सरकार की योजना का खाका तैयार होने से पहले ही राज्य सरकार ने अपने बजट से ही राज्य में भोजन का अधिकार योजना लागू करने की घोषणा कर दी है. नमक का पैकेट मुफ़्त दिया जा रहा है.
किसानों को चुनावी साल में धान पर प्रति क्विंटल 270 रूपये का बोनस दिया गया. पर 2009 की खरीफ फसल आने पर किसान अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है क्योंकि इस साल यह बोनस देने से सरकार ने मना कर दिया है. न केवल विधानसभा चुनाव में बल्कि लोकसभा में धान चावल का असर रहा. विधानसभा में भाजपा ने अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखते हुए 50 सीटें हासिल की, जबकि लोकसभा की 11 में से 10 सीटें उसकी झोली में आ गिरीं.
राज्य की रमन सरकार को अपनी पार्टी की ओर से कोई चुनौती नहीं है. गाहे-बगाहे विरोध के स्वर उठते हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इनसे निपटने का पर्याप्त अनुभव हासिल हो चुका है. केन्द्रीय नेतृत्व विशेषकर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री के मधुर सम्बन्ध हैं. इसलिए जब दूसरी पारी में भी मुख्यमंत्री के तौर पर उनके अलावा कोई नाम नहीं उभरा. इस लिहाज से देखा जाए तो सन् 2000 में बने तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा राजनैतिक स्थिरता है. झारखंड में अब तक 9 बार मुख्यमंत्री तथा उत्तराखंड में 5 मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में दो ही मुख्यमंत्री हुए और दूसरी बार चुने जाने के बाद डा. सिंह अपना कार्यकाल सफलता पूर्वक लगभग एक साल पूरा करने जा रहे हैं.
यदि राजनैतिक अस्थिरता विकास में बाधा मानी जाती है, तो अधिक स्थिरता सरकार को निश्चिन्त भी कर देती है. छत्तीसगढ़ में यह दिखाई देता है. सबसे ज्यादा राहत नौकरशाहों में दिखाई देता है. धान खरीदी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, प्रधानमंत्री सड़क योजना, उर्जा विभाग, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आये दिन भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं. बड़े बजट वाला राज्य है, लिहाजा घोटाले की राशि भी करोड़ों में होती है. विधानसभा में जांच और कार्रवाईयों का भरोसा दिलाए जाने के बाद ऐसे दर्जनों मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करते हुए राज्य सरका ने यह संदेश दे दिया है कि वे इन्हें बचाने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती.
इन 9 सालों में राज्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि वह बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. राज्य बनने के बाद जहां केवल 1300 मेगावाट बिजली छत्तीसगढ़ में उपलब्ध थी वहीं अब 2100 मेगावाट है, जिसे अगले साल तक बढ़ाकर 2600 मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है. राज्य ने करीब 4000 करोड़ रूपये बिजली बेचकर कमाये. प्रदूषण और पानी की समस्या के बावजूद राज्य सरकार ने इस दिशा में काफी आगे जाने का विचार किया है. अगले एक दशक में निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों की मदद से इस दिशा में 44000 करोड़ रूपये के निवेश की योजना बनाई गई है.
प्रदेश में राज्य बनने के समय 100 वर्ग किमी के दायरे में 17 किलोमीटर ही सड़कें थी, जिसे अब 20 किलोमीटर तक पहुंचाया जा चुका है. खाद्य विभाग के बाद सबसे ज्यादा बजट 2100 करोड़ रूपये का पीडब्ल्यूडी के लिए ही रखा गया है. राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है. तेजी से नये औद्योगिक संयंत्र खुलने के बाद भी यहां के इंजीनियरों को रोजगार की तलाश में बाहर भटकना पड़ता है. 4 नये मेडिकल कालेज खुलने के बाद भी राज्य में करीब 3500 डाक्टरों की कमी है. इनमें से भी अधिकांश शहरों में जमे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है. यहां कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है. स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर हजारों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं. राज्य सरकार कहती है कि राज्य बनने के बाद अब 13 लाख हेक्टेयर के बजाय 17 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. लेकिन इन्हीं आंकड़ों एक सच यह भी है कि कुल खेती के रकबे का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा सिंचित है. खेती के जानकार तो कहते हैं कि वास्तविक सिंचित रकबा 16-17 फीसद ही है. सरगुजा-बस्तर जैसे इलाके में सिंचाई सुविधा केवल 3 और 6 प्रतिशत किसानों को उपलब्ध है. इस बार 20 फीसदी वर्षा कम होने के कारण राज्य की 146 में से 66 तहसीलों में भयंकर सूखा पड़ा हुआ है. कई तहसीलों को सूखाग्रस्त होने के बावजूद उसे सरकार ने अपनी राहत योजना में शामिल करने से मना कर दिया है.
छत्तीसगढ़ में वे सब साधन मौजूद हैं जिनकी बदौलत इसे एक विकसित राज्य बनाया जा सकता है. अकेले देवभोग की धरती पर ऊंचे दर्जे का इतना हीरा दबा है कि इससे होने वाली अकेली आय ही इसे कर-मुक्त राज्य बना सकता है. मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद विकास के लिए आबंटन बढ़ा, राज्य का राजस्व बढ़ा लेकिन राज्य की आम जनता की आकांक्षाओं को सस्ता चावल देने तक ही सिमटाकर राज्य के प्रचुर संसाधनों के इस्तेमाल के मामले में नौकरशाह और राजनेता मनमाने फैसले ले रहे हैं. उन्हें विरोधों की परवाह इसलिए भी नहीं है कि ये विरोध उनके ख़िलाफ वोट में नहीं बदलेंगे. गरीबों के हिस्से में सस्ता चावल आया है और सम्पन्न राज्य के राजस्व की शक्ति को सत्ता से जुड़े लोग अपना हक समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं.
-राजेश अग्रवाल
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