 बिलासपुर के पत्रकारों का रिश्ता बने यह तो कोशिश न तो आम तौर पर होती थी न ही इसे आसान माना जा सकता था. ऐसे दौर में जब पहली बार 1991 में प्रभाष जोशी से बिलासपुर के पत्रकार रू-ब-रू हुए तो न केवल कौतूहल से भर गए बल्कि धोती कुरते का लिबास लेकर चलने वाले इस विभूति के सहज और आत्मीय वार्तालाप से अनेक भ्रांतियां दूर हो गई.
बिलासपुर के पत्रकारों का रिश्ता बने यह तो कोशिश न तो आम तौर पर होती थी न ही इसे आसान माना जा सकता था. ऐसे दौर में जब पहली बार 1991 में प्रभाष जोशी से बिलासपुर के पत्रकार रू-ब-रू हुए तो न केवल कौतूहल से भर गए बल्कि धोती कुरते का लिबास लेकर चलने वाले इस विभूति के सहज और आत्मीय वार्तालाप से अनेक भ्रांतियां दूर हो गई.दरअसल, कोरबा जिले के करतला में उस साल सूचना के अधिकार के पक्ष में बड़ी बात हुई. देश के अनेक बुध्दिजीवियों व सामाजिक संगठनों के साथ प्रभाष जी भी इस कार्यक्रम में पहुंचे. पता नहीं दिल्ली से करतला पहुंचने में उन्हें कितने साधनों का इस्तेमाल करना पड़ा होगा और वे कितने घंटे बाद वहां तक पहुंच पाए होंगे, लेकिन इस सम्मेलन का महत्व उन्होंने दिल्ली में, अपनी व्यस्तता के बीच भी समझ लिया.
सूचना के अधिकार के तहत पूरे देश में आयोजित की गई यह पहली जन सुनवाई थी, जिसमें तब के कमिश्नर हर्षमंदर की पहल पर कानून बनने के 15 साल पहले अफसरों ने ग्रामीणों को वह सब सूचना उपलब्ध कराई, जो आज आरटीआई के तहत मांगी जा सकती हैं. इसके बाद प्रभाष जी ने सूचना के अधिकार की मांग को दिल्ली के न केवल हिन्दी बल्कि अंग्रेजी अख़बारों की सुर्खियों में ला दिया. क्षेत्रीय दैनिक अख़बारों व छिट-पुट छपने वाले साप्ताहिक पत्रों के पत्रकारों के लिए प्रभाष जी का बिलासपुर आगमन प्रसन्नता, आश्चर्य और कौतूहल का मामला था. जिस पत्रकार ने अंग्रेजी मीडिया के आगे हिन्दी को सीना तान कर खड़ा करना सिखाया हो व जो देसी लिबास पहने, सहज तरीके से मिलने-जुलने वाला हो, ऐसा तो उनके बारे में सुनकर उनसे मिलने वाला सोच भी नहीं सकता था.
प्रभाष जी का आखिरी और प्रतिक्रियाओं के लिहाज से विवादास्पद भी- सबसे बड़ा इंटरव्यू हाल ही में रविवार डाट काम पर प्रकाशित हुआ है. इसे कव्हर करने वाले बिलासपुर के पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की सुनें-
रायपुर के मयूरा होटल में ठहरे प्रभाष जी ने कमरे का दरवाजा काफी देर तक नहीं खोला. बाद में आधे कपड़ों में वे बाहर आए. उन्होंने इस बात के लिए खेद जताया कि वे बाथरूम में थे.
पुतुल ने झिझकते हुए कहा- थोड़ी देर में आता हूं. प्रभाष जी बोले नहीं-नहीं बैठो.
‘आप धोती वगैरह तो पहन लीजिए.’
प्रभाष जी बोले- अरे धोती पहनने में क्या रखा है, यह तो उनके लिए मुश्किल है जो पहनना नहीं जानते. हम तो चौक पर भी आराम से बांध लें.
इसके बाद दो घंटे तक उन्होंने इत्मीनान से बातें की.
पुतुल बताते हैं- मेरे साथ गए कैमरामैन ने उनके मिलकर नीचे उतरते हुए कहा- आप तो कह रहे थे कि दिल्ली के किसी बहुत बड़े पत्रकार से मिलाने जा रहे है. मुझे लगा कि वे कोट और टाई पहने मिलेंगे, लेकिन मुझे तो उनकी बनियाइन में छेद दर छेद देखकर समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस एंगल से शाट लूं.
करतला में हुई आरटीआई सुनवाई का मामला अकेला नहीं है, वे लगातार बिलासपुर रायपुर की विभिन्न गोष्ठियों में आते रहे और हर बार पत्रकार उनसे एक मीडिया कर्मी की प्रतिबध्दता व सामाजिक मुद्दों पर उनकी अवधारणा को समझते हुए अपने ज्ञान को समृध्द करते रहे.
वे तो थे शुध्द अहिंसक गांधी और विनोबा के दर्शन से प्रभावित और जेपी के आंदोलन में उनके सहयोगी, लेकिन नक्सलियों से तार जुड़े होने का आरोप झेलने वाले मानवाधिकार संगठन- पीयूसीएल के बुलावे पर वे उनके बिलासपुर सम्मेलन में भी पहुंचे, क्योंकि पीयूसीएल ने जिस मुद्दे को लेकर दिन भर का सम्मेलन रखा था, वह उन्हें जंच गया. वस्तुतः, यह आयोजन छत्तीसगढ़ सरकार के जनसुरक्षा कानून 2005 का विरोध करने के लिए था. प्रभाष जी सहमत थे कि इस कानून से अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार का हनन होगा. यह बताना ठीक होगा कि इस कानून के जरिये छत्तीसगढ़ सरकार उन सभी लोगों को 2 साल के लिए जेल भेज सकती है, जिनके बारे में संदेह है कि वे नक्सलियों से किसी न किसी तरीके से सम्पर्क में रहते हैं अथवा उनसे बातचीत कर लेते हैं. यह कानून सच को सामने लाने के लिए जुटी मीडिया के ख़िलाफ भी हो सकता है.
इसी सम्मेलन से जुड़ा एक मीठा संस्मरण रायपुर-बिलासपुर से छपने वाले सांध्य दैनिक इवनिंग टाइम्स के सम्पादक नथमल शर्मा के साथ हैं- सम्मेलन में कुछ देर बैठने के बाद प्रभाष जी बेचैन लगे. उन्होंने कहा कि मुझे होटल चलना है. नथमल उन्हें लेकर बाहर निकलने लगे तो आयोजकों ने प्रभाष जी को रोका. कहां जा रहे हैं, अभी तो आपको भाषण देना है.
प्रभाष जी ने कहा- मुझे पता है, मेरा भाषण शाम को होगा और मुझे क्या बोलना है यह भी पता है.
होटल के कमरे में घुसते ही उन्होंने पूछा- नथमल, क्या आप क्रिकेट में रूचि हैं?
नथमल ने कहा- क्रिकेट पसंद है, पर बहुत ज्यादा नहीं.
प्रभाष जी ने कहा- अरे तब तो आपका समय ख़राब होगा. आप अभी विदा लें और मुझे शाम 5 बजे आकर ले जाएं.
दरअसल, उस दिन कोई क्रिकेट मैच चल रहा था, प्रभाष जी के लिए सम्मेलन में भाग लेना जितना जरूरी था, उतना ही उस मैच को देखना भी.
नथमल बताते हैं कि शाम को जब वे उन्हें लेने पहुंचे तो वे फ्रेश लग रहे थे, मानो मन मांगी मुराद पूरी हो गई.
समय की पाबंदी और दैनिक अख़बार से जुड़े काम के महत्व को रेखांकित करने वाली एक और बात दिखी. होटल के कमरे में उन्होंने कागद कारे भी लिख डाला. इसे उन्होंने खुद जब तक फैक्स नहीं कर लिया, उन्हें तसल्ली नहीं हुई. पीयूसीएल के कार्यक्रम में भी समय पर भाषण देने लौट चुके थे.
देश के कई बड़े शहरों में काम कर चुके बिलासपुर के पत्रकार दिनेश ठक्कर ने जनसत्ता कोलकाता संस्करण में काम किया. उनके हाथों का लिखा नियुक्ति-पत्र उन्होंने आज तक संभाल कर रखा हैं. ठक्कर कहते हैं कि मेरी तरह उन्होंने सभी सम्पादकीय सहयोगियों को सादे कागज पर अपने हाथ का लिखा नियुक्ति- पत्र दिया और शायद मेरी तरह सभी ने इसे महत्व का दस्तावेज मान रखा है. ठक्कर बताते हैं कि जनसत्ता की कोलकाता में शुरूआत थी, ज्यादा मेहनत होनी थी. प्रभाष जी, आख़िरी संस्करण के निकलते तक दफ़्तर में ही काम देखते थे. सहयोगी कहते कि आप निकलिये- सब ठीक होगा, पर ऐसा करीब 3 माह तक नहीं हुआ. देर हो जाने पर रात में वे अखबार बिछाकर दफ़्तर में ही सो जाते थे, जबकि मालिकों ने उनके लिए किसी पांच सितारा होटल का कमरा बुक कर रखा था, वे सुबह फ्रेश होने वहां जाते थे. जिम्मेदारी के साथ काम करना उनके साथ काम करने वाले हर पत्रकार ने सीखी.
बिलासपुर और छत्तीसगढ़ के दूसरे शहरों में वे लगातार आते रहे हे. मेरी (लेखक) की अनेक मुलाकातें हैं. आखिरी भेंट दिल्ली में तब हुई जब 2007 में उदयन शर्मा पत्रकारिता सम्मान मिला. मंच पर बैठे प्रभाष जी से आशीर्वाद मिला. नीचे उतरने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों के बारे में जानकारी ली. यह बताते हुए प्रसन्नता महसूस करता हूं कि उनका एक वाक्य मुझे पत्रकारिता के अलावा छत्तीसगढ़ी रचनाएं लिखने के लिए भी लगातार प्रेरणा देता है. दरअसल, बिलासपुर में एक कार्यक्रम के बाद समय बचा. उसके बाद हम कुछ पत्रकार साथी उन्हें लेकर अचानकमार अभयारण्य घूमने के लिए निकले. वहां स्थानीय पत्रकार साथियों के अनुरोध पर मैंने अपनी छत्तीसगढ़ी रचना सुनाई. रचना लम्बी थी. प्रभाष जी ने ख़ामोशी के साथ पूरा सुना- फिर प्रतिक्रिया दी- राजेश, तुमने इसके अलावा क्या लिखा है, यह मुझे नहीं पता लेकिन एक इसी रचना को सुनकर मैं तुम्हें एक मंझा हुआ गीतकार कह सकता हूं.
सचमुच, गांव टोले तक चौथा पाये का कदर है, यह समझने वाला दिल्ली में कोई दूसरा पत्रकार पैदा नहीं होगा. प्रभाष जी बरसों जेहन में रहेंगे और नई पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे.
 
 
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