मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

किसानों के गुस्से से हिली छत्तीसगढ़ सरकार

गन्ना किसानों ने जिन दिनों दिल्ली में प्रदर्शन कर संसद की कार्रवाई रूकवा दी थी, तकरीबन उसी समय देश के प्रमुख धान उत्पादक राज्य छत्तीसगढ़ के किसानों ने राज्य की भाजपा सरकार को धान पर बोनस देने के वादे से पीछे हटने पर अपनी ताकत दिखाई. गन्ना उत्पादकों की तरह छत्तीसगढ़ के धान उगाने वाले किसानों की लड़ाई अभी जारी है.
छत्तीसगढ़ के किसानों में ऐसा आक्रोश हाल के वर्षों में देखा नहीं गया. मीडिया में हाशिये पर रहने वाले व नौकरशाहों के बीच कोई हैसियतनहीं रखने वाले इस असंगठित व गरीब तबके ने अपनी हुंकार से पुलिस प्रशासन और सरकार को झकझोरा और अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर दिया. 9 नवंबर को जगह-जगह राजमार्गों पर लाखों किसान इकट्ठा हुए और कम से कम 30 स्थानों पर उन्होंने चक्काजाम किया. गुस्से से फट पड़े किसान धमतरी में हिंसा पर उतारू हो गए और पुलिस वालों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. सरकार को चेतावनी दी कि धान पर बोनस व मुफ़्त बिजली के मामले में वह वादाख़िलाफी से बाज आए. सरकार ने आंदोलन तोड़ने की भरसक कोशिश की और कुछ नेताओं को अपनी तरफ मिला लिया, व्यापारियों ने भी शादी-ब्याह का हवाला देते हुए आंदोलन में साथ देने से मना कर दिया, बावजूद इसके किसान नाइंसाफी को लेकर दम-खम से मैदान पर उतार आए.
दरअसल, डा. रमन सिंह के नेतृत्व में पिछले साल भाजपा सरकार दुबारा बनी, उसकी वजह सस्ते चावल की योजना के अलावा किसानों के लिए किए गये लुभावने वादे भी हैं. घोषणा पत्र में धान पर 270 रूपये बोनस तथा 5 हार्सपावर तक के सिंचाई पम्पों को मुफ़्त बिजली देने की बात थी. भाजपा नेताओं के लिए यह चुनाव जीतने का जरिया रहा हो, लेकिन खेती की बढ़ती लागत और लगातार अवर्षा की मार झेलते किसानों के लिए तो ये आश्वासन वरदान सरीखे थे. विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव था, लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सरकार बनाने प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा भाजपा के सांसदों को भेजा जाना जरूरी था. लिहाजा, सरकार घोषणा पत्र पर डटी रही. उसने हाय-तौबा मचाकर ही सही दो किश्तों में धान पर 220 रूपये का बोनस दिया. 50 रूपये केन्द्र से मिले बोनस को जोड़कर क्विंटल पीछे कुल अतिरिक्त राशि 270 रूपये तक पहुंचा दी गई. लोकसभा चुनाव में आचार संहिता लगने से पहले राज्य भर में मुख्यमंत्री व बाकी नेताओं की अगुवाई में किसान महोत्सवों का आयोजन कर बोनस की आधी राशि बांटी गई. मंत्रियों का सरकारी खर्च पर जगह-जगह वंदन-अभिनंदन हुआ. लेकिन जैसे ही इस साल अक्टूबर में फिर नये फसल की खरीदी शुरू हुई, किसानों से छल हो गया. शायद किसान संतुष्ट भी रह जाते या उन्हें एकजुट करना कठिन हो सकता था, यदि सरकार 220 रूपये के ही बोनस को पिछले साल की तरह जारी रखती. लेकिन घोषणा पत्र के वादे से पीछा छुड़ाने के बाद तो उनके आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा. राज्य सरकार बिजली मुफ़्त देने के वादे से भी पीछे हट गई. पांच हार्सपावर तक के पम्पों को मुफ़्त बिजली देने के बजाय खपत की सीमा तय कर दी गई. इस विसंगति का नतीजा यह हुआ कि मुफ़्त सिंचाई के भरोसे बैठे किसानों को हजारों रूपयों का बिल थमा दिया गया. नये बिजली बिलों से तो जैसे आग ही लग गई.
इन सबने अरसे से बिखरे पड़े, अपने वाज़िब हक़ के लिए नेताओं के पीछे घूमते- उनका झंडा उठाते-जयकारा लगाते रहने वाले किसानों ने बग़ावत कर दी. किसानों के एक संयुक्त मोर्चे ने आकार ले लिया. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू व खुद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से इन्होंने मुलाकात कर अपनी मांग रखी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई. मोर्चे ने सड़क पर उतरने का फैसला लिया. कई धरना-प्रदर्शनों के बाद किसानों ने राज्य में जगह-जगह चक्काजाम कर दिया. राजमार्गों पर वाहनों का आवागमन घंटो ठप पड़ा रहा. धमतरी में तो आंदोलन हिंसक हो उठा. सड़क घेरकर बैठे किसान नेताओं से एक पुलिस अधिकारी ने कथित रूप से मारपीट कर दी. इसके बाद आंदोलनकारी पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गए. भीड़ ने पुलिस कर्मियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. कम से कम 5 सरकारी वाहन जला दिए गये. उन दुकानों में पथराव-लूटपाट की गई, जहां पुलिस जाकर छिपी. हालांकि किसान नेताओं व कांग्रेस का कहना है कि इन सबमें किसानों का हाथ नहीं है. इसमे वे असामाजिक तत्व शामिल हैं, जो भीड़ में शामिल हो गए थे.
इसके बाद पुलिस व प्रशासन की जो प्रतिक्रिया होनी थी उसका अनुमान लगाया जा सकता है. अगले ही दिन धमतरी में भारी फोर्स पहुंची, दो दर्जन से ज्यादा किसान नेता गिरफ़्तार कर लिये गए. प्रतिक्रिया तीखी हुई, किसान नेताओं की बैठक रायपुर में हुई, कहा गया कि जिन्हें गिरफ़्तार किया गया, उन्हें बिना शर्त रिहा किया जाए. किसान आंदोलन से घबराई सरकार ने 50 रूपये बोनस अपनी तरफ से भी देने की घोषणा कर दी और 3 मंत्रियों की एक समिति किसानों के हित में क्या निर्णय लिए जाए, यह तय करने के लिए बना दी. इसके अलावा बीते 3 माह के सिंचाई पम्पों के बिजली बिल भी रद्द कर दिए गये और कहा गया कि आगे से जो बिल आएगा व फ्लैट रेट 65 रूपया प्रति हार्सपावर के हिसाब से होगा. लेकिन किसानों ने सरकार का डाला हुआ चारा पसंद नहीं किया. उन्होंने इसे नाकाफी बताया और अपना आंदोलन जारी रखने की घोषणा की. इसके बाद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार से मिलने भी गया. उन्हें एक ज्ञापन सौंपा गया, किसानों को संदेश देने के लिए मांग की गई कि राज्य में सूखे के गंभीर हालात और धान के उत्पादन लागत में वृध्दि को देखते हुए समर्थन मूल्य कम से कम 1300 रूपये किया जाए. समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव न हो तो इसी के बराबर बोनस कीराशि दी जाए. मुख्यमंत्री डा. सिंह ने वक्तव्य दिया, राज्य सरकार केन्द्र के लिए धान खरीदती है अतः इसका मूल्य निर्धारण केन्द्र सरकार को ही करना होगा. वे सिर्फ केन्द्र से इसके लिए मांग कर सकते हैं. बोनस का बोझ उठाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है. लेकिन ऐसा कहते वक़्त सरकार यह साफ नहीं करती कि चुनावी साल में ही 270 रूपये बोनस का प्रलोभन किसानों को क्यों दिया गया और चुनावी घोषणा पत्र में क्यों नहीं बताया गया कि यह बोनस लोकसभा की वोटिंग के बाद नहीं मिलेगा.
बहरहाल, 25 नवंबर के बंद को मिलते समर्थन को देखकर सरकार चिन्ता में पड़ गई. डेमेज कंट्रोल के लिए भाजपा किसान मोर्चा को सामने किया गया. इससे जुड़े कुछ लोग संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल थे, उन्होंने मुख्यमंत्री से मुलाकात की और उनके आश्वासन पर आंदोलन वापस करने की एकतरफा घोषणा कर दी. किसान इससे टूटे नहीं, उस पदाधिकारी को ही मोर्चे से बाहर कर दिया गया और 25 नवंबर का महाबंद यथावत रखने का फैसला लिया गया. इधर बाज़ार का समर्थन जुटाने निकले किसानों को तब एक नया पैंतरा नजर आया- जब छत्तीसगढ़ चेम्बर आफ कामर्स ने उनके बंद को समर्थन देने से मना कर दिया. ऐसा फैसला चेम्बर ने खुद से लिया या सरकार के दबाव में आकर, ये वे ही बता सकते हैं. लेकिन यह सच है कि चेम्बर के बड़े पदाधिकारी भाजपा से जुड़े हैं और वे मुख्यमंत्री- मंत्रियों के करीबी भी हैं. किसान इससे भी नहीं हताश नहीं हुए. जब दिल्ली में गन्ना किसानों के मार्च के कारण संसद की कार्रवाई ठप पड़ गई थी, उसी के आसपास धान के लिए किसानों ने महाबंद कराया.
विपक्ष ने किसानों के असंतोष को हाथों-हाथ लिया है. कांग्रेस समेत प्रायः सभी दल किसानों के साथ हो लिए हैं. अब राज्य सरकार की तरफ से यह बताया जा रहा है कि मजदूरों किसानों के हित में सरकार ने जो फैसले लिए हैं, वे अनूठे हैं. उसे देश के दूसरे राज्य भी अपने यहां लागू करने जा रहे हैं. मसलन, खेती के लिए 3 प्रतिशत में ऋण उपलब्ध कराना. यहां पर भाजपा भूल गई कि उसने घोषणा-पत्र में ब्याज मुक्त ऋण देने की घोषणा कर रखी है.
बहरहाल, 25 नवंबर के आंदोलन के बाद किसानों ने अब असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है. वे अब गांधीगिरी करेंगे. तय किया गया है कि अब वे सरकार का कोई कर पटाएंगे और न ही बिजली का बिल.
छत्तीसगढ़ बनने का नेता, व्यापारी, ठेकेदार, अफसर सभी ने फायदा महसूस किया है और इसे जमकर भोगा भी है. लखपति-करोड़पति हो चुके हैं और करोड़पति-अरबपति. शायद किसानों को अपना वाजिब हिस्सा छीन-झपटकर ही लेना पड़ेगा.

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