सोमवार, 4 अगस्त 2008

जशपुर का अपजश

जशपुर की सैकड़ों बेटियां न जाने किस नर्क में होंगी. एक बार बहकावे में निर्जन के अपने झोपड़े से संसार सागर में उतरी तो देह की किस मंडी में चली गयीं कुछ पता नहीं.
जशपुर जिले का लुड़ेग बीते कुछ दशकों में टमाटर की खूब फसल के कारण प्रसिध्द था. मिट्टी और मौसम अनुकूल होने के कारण यहां के आदिवासियों ने इसे खूब उगाया. कई बार तो ऐसी नौबत आई कि टमाटर खेतों में ही सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था, क्योंकि बाजार तक लेकर जाने में परिवहन का खर्च भी निकल नहीं पाता था. यहां कई बार मांग हुई कि टमाटर पर आधारित उद्योग लगा दिये जाएं जिससे आदिवासी किसानों का जीवन स्तर ऊपर उठ जाएगा. लेकिन इस पिछड़े इलाके के लिए कुछ नहीं सोचा गया.
पिछले कुछ वर्षों से जशपुर और सरगुजा जिले में एक नई तरह की फसल तैयार हो रही है. उसे बाजार भी खूब मिल रहा है. ये फसल हैं इस इलाके के निर्धन आदिवासी उरांव परिवारों की नाबालिग लड़कियां और बाजार बने हुए हैं दिल्ली गोवा जैसे देश के महानगर. इस फसल को खाद-बीज दे रहे हैं उनके अपने निकट सम्बन्धी और बिचौलिये का काम कर रही हैं, दिल्ली में काम कर रही 200 से ज्यादा प्लेसमेन्ट एजेंसियां. लड़कियां टमाटर तो होती नहीं. उनकी धमनियों में रक्त का संचार होता है. मन है, जो पंख लगाकर आकाश में उड़ना चाहता हैं. ह्रदय है जिसमें सुख-दुख मान,अपमान, स्वाभिवान कष्ट और प्रसन्नता महसूस कर सकती हैं. पर सरगुजा और जशपुर इलाके के गांवों में 3 दिन भटकने के बाद महसूस हुआ कि इन सब भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार केवल उनको है, जिनके पेट भरे हों.

इनकी आंखों में आंसू भी आते हैं तो रोककर रखना होगा, बाप को बेटी से बिछुड़ने और बेटी को घर की याद आने पर भी दोनों विवश हैं. पुलिस व प्रशासन की मदद नहीं मिलने की आशंका से अभिभावकों के पैरों में बेड़ियां लग गई हैं और बेटियां तो पता नहीं कहां नजरबंद हैं या घुटन भरी कोठियों में बीमार पड़ गई या मार डाली गई. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए ऐसी लड़कियों की संख्या सैकड़ों में है, जो एक बार निर्जन जंगल में बनी अपनी झोपड़ी से महानगरों की भूल-भुलैया में अपना भविष्य संवारने का सपना लिए निकल पड़ी और फिर उनका कुछ पता नहीं चला. सीतापुर ब्लाक के बेलगांव की ललिता एक्का पिछले सात साल से दिल्ली के एक मीडिया हाऊस में झाड़ू पोछे का काम कर रही है. 6ठवीं तक पढ़ी 19 साल की ललिता से जब हम मिले तो वह संकोच झिझक उसकी आंखों व हाव-भाव व पहनावे में नहीं थे, जो अक्सर इस गांव की लड़कियों में दिखाई देती है.

जशपुर जिले के दुलदुला थाना के अंतर्गत आने वाले चटकपुर गांव की शशिकांता किण्डो को जुलाई 2006 में गांव की ही अनिता और विमला अच्छी नौकरी दिलाने का आश्वासन देकर ले गये थे. वहां पहुंचने के बाद चिराग, दिल्ली के एक प्लेसमेंट एजेंट राजू अगाथा ने हिमांशु बख्शी के यहां नौकरी दिलाई. वहां मालकिन नमिता ने कुछ दिनों तक तो ठीक रखा पर बाद में उसे घर से निकलने भी नहीं दिया जाता था. जब भी शशिकांता गांव वापस लौटने की जिद करती थी, उसे जल्द ही छोड़ देने का भरोसा दिलाया जाता था. इधर गांव में शशि की मां प्रमिला और पिता विन्सेन्ट लकड़ा परेशान हो रहे थे. जब भी वे अपनी बेटी से फोन पर बात करने की कोशिश करते थे, मकान मालकिन उन्हें बात कराने से कोई न कोई बहाना बना देती थी. परेशान होकर उन्होंने दुलदुला थाने में शिकायत कर दी. मालकिन ने तब शशिकांता को धमकाया और उसकी शादी जबरदस्ती उसी अपार्टमेन्ट में वाचमैन का काम करने वाले रविन्द्र कुमार यादव से करा दी. रविन्द्र उसे अपने कमरे में लेकर रहने लगा.

इधर मालकिन से जब शशिकांता से बात कराने कहा जाता था तो उन्होंने कह दिया कि लड़की शादी कर चुकी है और अब उसके पास नहीं है. बहदवास मां अपनी भाई की पत्नी थेलमा के साथ दिल्ली पहुंची. थेलमा 10 साल से दिल्ली में ही रहती थी. रविन्द्र से शशिकांता के बारे में बात की जाती थी तो वह धमकियां देता था, झूठ बोलता था. बाद में उसने यह भी सफाई दी कि वह शशिकांता से शादी करना नहीं चाहता था, उसकी शादी तो पहले ही हो चुकी है और उत्तरप्रदेश के गांव में बीवी बच्चे रहते हैं. यह सब तो शशि की मालकिन के दबाव में उसे करना पड़ा. शशि अपनी जान बचाकर गांव लौट गई है. उनके मां-बाप कहते हैं कि अब किसी सूरत में इसे दिल्ली या और कहीं नहीं भेजेंगे. इकलौती बेटी की शादी यहीं किसी अच्छे लड़के से कर देंगे.

हैरत की बात है कि कई बार छोटी उम्र की लड़कियां मां-बाप या भाईयों से नाराज होकर भी घर छोड़कर भागती हैं तो बहुत दूर निकल जाती हैं और कई साल तक घरों की ओर दुबारा नहीं झांकती. पर जब लगातार प्रता़ड़ित हो जाती हैं और कैद होकर रह जाती हैं तो हर तरह का जोखिम उठाकर गांव वापस भाग आती हैं. लुड़ेग के पास घुरूआम्बा की रमिला टोप्पो के साथ ऐसा ही हुआ. गांव वालों ने बताया कि इस लड़की को गुजरात में किसी घर में नजरबंद कर लिया गया था. उसे घर से निकलने नहीं दिया जाता था और उसके हाथ में कोई पैसा नहीं दिया जाता था. किसी तरह एक सहेली से उसने टिकट के पैसे का प्रबंध किया और जिस कपड़े को पहने हुए थी, उसी में भाग निकली.

दो दिन बाद कुनकुरी पहुंची और 11 किलोमीटर पैदल चलकर रात के 9 बजे घर पहुंची. 6 साल बाद अपनी बेटी को घर पर बहदवास, बीमार हालत में देखकर अनपढ़ मां-बाप की आंखों में आंसू आ गए. वे अपनी बेटी के वापस मिलने की उम्मीद ही खो चुके थे. दूसरी तरफ रमिला जो कहानी बताती है उसके अनुसार वह अपने भाई ने मारपीट की तो नाराज होकर वह भाग गई. गांव से वह सीधे रायगढ़ में मदर टेरेसा अनाथ आश्रम में चली गई और वहां से इंदौर के एक अनाथाश्रम में भेज दिया गया. फिर वहां से सूरत के एक मिशनरी संचालित अनाथाश्रम में रख दिया गया. लगातार वहीं रह रही थी. रमिला की मानें तो इन अनाथाश्रमों में उसे कोई तकलीफ नहीं थी. खाने और कपड़े दिये जाते थे और पढ़ाई कराई जा रही थी. वह अपनी कहानी बताते वक्त कई बार ठिठकती रही तथा बीच-बीच में अपनी ही कई बातों को झुठला रही थी. जब वहां कोई तकलीफ नहीं थी तो भागकर क्यों आना पड़ा, पूछने पर वह कहने लगी कि घर की याद आ रही थी.

इतने सालों तक सम्पर्क क्यों नहीं किया? वह कहती है कि चूंकि उसने सभी जगहों पर खुद को अनाथ बताया था इसलिये किसी से कहते नहीं बना कि वह घर के लोगों को चिट्ठी लिखना चाहती है या उनसे फोन पर बात करना चाहती है. रमिला जब घर से अकेले निकली तो उसकी उम्र 9 साल के करीब थी. 6 साल बाद लौटने के बाद वह जसपुरिया बोली लगभग भूल गई है और अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में बात कर रही है. वह कम्प्यूटर सीखने और पढ़ाई करने की इच्छा रखती है, इसके लिये रायगढ़ या रांची के किसी बड़े स्कूल में दाखिला लेना चाहती है.

जो लौट के घर न आए

अब उनके गरीब मां-बाप इतने साल बाद मिले अपनी बच्ची को बाहर नहीं भेजना चाहते. साथ ही गरीबी के कारण बहुत बड़े स्कूल में बाहर पढ़ाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं. लेकिन रमिला ने उन्हें साफ कह दिया है कि वह गांव में नहीं रहना चाहती. दिल्ली से गये मीडिया के कुछ लोगों ने रमिला को टटोला तो वह तुरंत उनके साथ दिल्ली निकल चलने के लिए तैयार हो गई.

सरगुजा जिले के बतौली गांव की 14 साल की तारिणी घर से तो निकली थी, पड़ोस में सरसों की भाजी छोड़ने के लिये, लेकिन वह निकल गई दिल्ली. पिता भण्डारी और मां मुनारो किन्डो कुछ दिन बाद यह जानकर कुछ राहत महसूस कर सके कि वह अपने मामा की लड़की प्रमिला के साथ निकली है, जो पहले से ही दिल्ली आती जाती रहती है. बतौली ब्लाक मुख्यालय और उसके आसपास के गांवों से प्रमिला की तरह ही कई नजदीकी रिश्तेदारों ने लड़कियों को घरेलू नौकरानी के लिए काम पर पहुंचाया है, जिनमें से तारिणी समेत कम से कम 7 लड़कियों का आज पता नहीं है कि वे कहां हैं.
तारिणी जैसी लड़कियों को बचाने के लिए असल में जब लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा तो ही इलाके में कैंसर की तरह फैल चुके मानव-व्यापार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी. अभी तो उरांव आदिवासी परिवारों के भाई, पिता के हाथ खाली हैं, बेटियों को पढ़ाई और शादी करने के दिनों में बाहर भेज देना, उन्हें बिल्कुल नहीं भाता, पर असहाय हैं. इनके हाथ में काम हो, कुछ आय बढ़े तो हिम्मत के साथ वे इन लड़कियों को भी रोकेंगे और लड़कियों का भी भरोसा अपने परिवार व समाज पर बढ़ेगा.

4 टिप्‍पणियां:

DEEPAK NARESH ने कहा…

आपकी कोशिशों के लिए साधुवाद...बुराई के खिलाफ लड़नेवालों के लिए आप एक आवाज हैं.

Udan Tashtari ने कहा…

शिक्षा और गरीबी उन्मूलन ही अब इस समस्या का समाधान है. अच्छा आलेख.

दीपक ने कहा…

छ्त्तीसगढ के लिये यह कडुवा सत्य है !! आभार

बेनामी ने कहा…

भाई राजेश, अच्छा लिखा है-जसपुर का दर्द. लिखिए और लिखते रहिए. शायद व्यवस्था कुछ सुने. मैंने कुछ काल दुर्ग में गुजारा है-अमर किरण में राजनारायण मिश्र जी के साथ शुरुआती दिनों में. छत्तीसगढ़ में मेरे कई मित्र हैं.
मुकुंद. चंडीगढ़
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