बीते 23-24 जनवरी को बिलासपुर में भोजपुरी साहित्यकारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल भोजपुरी बल्कि छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई. दोनों ही भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए ठोस तर्क दिए गये. इस सम्मेलन में कई ख़ास मुद्दे उठाए गये. प्रस्तुत रिपोर्ट छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी ही नहीं बल्कि सभी स्थानीय बोलियों के जीवंत बने रहने की अपरिहार्यता क्यों है, इस पर भी प्रकाश डालती है. बोलियों का विकसित होना, फलना फूलना न सिर्फ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए जरूरी है, बल्कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास भी इसमें अन्तर्निहित है.
भोजपुरी- छत्तीसगढ़ी के साहित्यसेवियों का मानना है कि दोनों बोलियों में अद् भुत समानताएं हैं. छत्तीसगढ़ी बोलने वाला भोजपुरी भी समझता है और भोजपुरी बोलने वाले को छत्तीसगढ़ी समझने में कोई कसरत नहीं करनी पड़ती. विन्ध्यांचल के दोनों छोर पर बसे इन लोगों का जीवन संघर्ष, रीति-रिवाज, परम्पराएं, संस्कृति और आचार-विचार इतने मिलते हैं कि इनकी ये दोनों बोलियां आपस में बहनें मानी जाती हैं. वक्ताओं का मानना था कि राजनैतिक उदासीनता व नौकरशाही के चलते भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पाई है, जबकि इससे भी कम व्यापक बोलियां 8वीं अनुसूची में जगह बना चुकी हैं. इन दोनों भाषाओं के लगातार विकास की वजह राजाश्रय नहीं बल्कि लोकाश्रय है.
शहीद विनोद चौबे नगर, ई राघवेन्द्र राव सभा भवन में दूसरे दिन के पहले सत्र में भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर अनेक भाषा विशेषज्ञों व साहित्यकारों ने अपने सारगर्भित विचार रखे. विनोद चौबे बिलासपुर में पैदा हुए पुलिस अधिकारी थे, जो राजनांदगांव के एसपी रहते हुए बीते साल जुलाई में नक्सली हमले में शहीद हो गए. उनके पिता बिलासपुर प्रेस क्लब के प्रथम अध्यक्ष डीपी चौबे बिलासपुर भोजपुरी समाज के संस्थापक थे.
विषय प्रवर्तन करते हुए जयकांत सिहं 'जय' ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में सिर्फ क्रिया और भेद का अंतर है, जबकि संज्ञा और सर्वनाम एक ही तरह है. छत्तीसगढ़ी में मैं शब्द का इस्तेमाल होता है, भोजपुरी में इसकी जगह हम कहा जाता है. प्रत्यय और जोड़ भी समानता लेकर चलते हैं. भोजपुरी में यदि कहा जाता है- लड़िक मन के, तो छत्तीसगढ़ी में यही बात कही जाती है- लइकन के. हमार, तोर, तुहार, कहत हौं, रहत हौं जैसे शब्द हू-ब-हू भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में इस्तेमाल किए जाते हैं. भोजपुरी में कहते हैं आसरा देहल, छत्तीसगढ़ी में कहते हैं आसरा देन. अनेक उदाहरणों के माध्यम से जय ने बताया कि कर्म, क्रिया, कारक इत्यादि छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में एक ही तरह से हैं. उन्होंने कई लोकोक्तियों, कहावतों इत्यादि से भी स्पष्ट किया कि इनका भी समान रूप से इस्तेमाल किया जाना स्थापित करता है कि दोनों इलाकों की भौगोलिक सामाजिक परिस्थितियां, विशेषताएं, विषमताएं और समस्याएं एक ही तरह की हैं. छत्तीसगढ़ी में यदि उड़ीसा व पश्चिम बंगाल का असर दिखाई देता है तो भोजपुरी में नेपाल, अवध इलाके का पर्याप्त मिश्रण मिलता है. दोनों ही भाषाएं संवाद, समझ, सहयोग करते हुए अपनी बोली और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम रहे हैं. संचार व्यवसाय व समझ के माध्यम से दोनों बोलियां एक दूसरे के और नजदीक आ रही हैं.
इस मौके पर कार्यक्रम के अध्यक्ष मंडल के सदस्य भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि क्रिया व पद को छोड़ दें तो दोनों बोलियों में कोई भिन्नता नहीं. शब्द व उनके तात्पर्य जीवटता, जीवंतता, जीवन स्तर, परिस्थितियों में समानता की ओर इंगित करते हैं. भले ही दोनों ही भाषाओं को सियासी वजहों से मान्यता मिलने में दिक्कत जा रही है लेकिन एक न एक दिन इनकी ताक़त पहचानी जाएगी और इसके प्रभावों को सरकार स्वीकार करेगी. भोजपुरी का अब विश्व स्तर पर सम्मान हो रहा है. नेपाल व मारीशस में इसे मान्यता मिल चुकी है. भोजपुरी विश्व सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है. लेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते 20 करोड़ लोगों की इस भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए लोगों को जनान्दोलन के लिए मजबूर किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दुर्भाग्य से अभी तक शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई हैं. द्विवेदी ने आव्हान किया कि अगले साल शुरू हो रही जनगणना में लोग छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी को अपनी मातृभाषा दर्ज कराएं. इससे दोनों भाषाओं को संविधान में दर्जा दिलाने में मदद मिलेगी. कुछ लोगों का यह भय व्यर्थ है कि स्थानीय बोलियों को संविधान में जगह देने से, इसे शिक्षा व कामकाज में इस्तेमाल किए जाने से हिन्दी का नुकसान होगा. हिन्दी का निर्माण लोकभाषाओं से ही हुआ है जिनमें भोजपुरी, अवधी व मध्यक्षेत्र की तमाम भाषाएं शामिल हैं.
सम्मेलन के महामंत्री जौहर साफियावादी ने कहा कि पानी, बानी और जिन्दगानी से ही कोई संस्कृति पनपती है. इसके संवर्धन के लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करना चाहिए.
डा. गुरूचरण सिंह ने कहा कि अवधी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषी अपनी बोलियों का आदान-प्रदान करते रहे हैं. उन्होंने कुछ उदाहरणों के जरिये बताया कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जिन दोहों में मैं शब्द लिए हैं वे छत्तीसगढ़ी से ही हैं, क्योंकि अवधी व भोजपुरी में मैं की जगह हम इस्तेमाल होता है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दोनों में कट्टरता, चेतना, आत्मविश्वास एक ही तरह है, जो बोलते समय दिखाई देता है. विन्ध्य पर्वत के इस पार छत्तीसगढ़ है तो उस पार भोजपुरी. भोजपुर में बिरसा मुण्डा हैं, तो छत्तीसगढ़ में गुण्डा धूर. दोनों ही इलाकों ने अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया है, यह दोनों साहित्यों के वीर गीतों में दिखाई देता है. श्रृंगार गीतों में यह समानता दिखाई देती है. आम जनता को चाहिए कि वे सरकार को बाध्य करे इन दोनों समृध्द भाषाओं मान्यता दे. भोजपुरी समाज के एक सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार खुलकर स्वीकार कर चुकी हैं, इसे 8वीं अनुसूची में जगह दी जानी चाहिए. क्षेत्र के सांसदों ने भी लोकसभा में यह मांग उठाई है, इसके बाद भी सरकार का रूख सकारात्मक नहीं है. हम भीख नहीं मांग रहे हैं बल्कि हमें अपनी संस्कृति की सुरक्षा का साधन चाहिए. सैकड़ों वर्षों के संघर्ष से शब्दों का निर्माण होता है. 1908 में जब दक्षिण अफ्रीका ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी तो उन्होंने हिन्दुस्तानी हिन्दी की बात की थी, जो सारी भारतीय बोलियों को लेकर बनी हैं. केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, नामवर सिंह इत्यादि को हटा दिया जाए तो हिन्दी साहित्य में क्या बचेगा? इन सबकी रचनाओँ में उनकी स्थानीय बोलियों और संस्कृति का प्रभाव दिखता है, जो एक समृध्द हिन्दी तैयार करती है. राष्ट्रभाषा से यदि सभ्यता मिलती है तो मातृभाषा से संस्कृति का पता चलता है. इसलिए इसे बचाया जाना जरूरी है.
वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय पाठक ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं राजाश्रय से नहीं लोकाश्रय से जीवंत बनी हैं. इन दोनों के साथ इतनी मजबूत संस्कृति है कि इनके अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं है. छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के रेलवे को रेलगाड़ी, रेफ्रिजरेटर को फ्रिज, बाइसिकल को साइकिल कहकर अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल में लाया जाता है. उन्होंने फटफटी व कनसुनिया (स्टेथोस्कोप) जैसे शब्दों का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भाषा, जिसे अंग्रेज गंवारू भाषा कहते हैं उन्हें अंग्रेजी या दूसरी विदेशी भाषाओं से घबराना नहीं चाहिए. हमारी लोक बोलियां इतनी समृध्द हैं कि अंग्रेजी के जिन शब्दों का हिन्दी में अर्थ नहीं मिलेगा, इन बोलियों में मिल जाएगा. उन्होंने उदाहणों के जरिए बताया कि मेढ़क की विभिन्न प्रजातियों के जर्मन व लेटिन नाम हिन्दी में जितने स्पष्ट नहीं है, उसके कहीं ज्यादा साफ-साफ छत्तीसगढ़ी में मिल जाते हैं. लोरिक चंदा व अनेक लोकगाथाएं थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, बुंदेलखंड इत्यादि में मिल जाएंगे.
आज सम्मेलन के समापन दिवस पर बोलियों की संघर्ष यात्रा व भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में अध्ययन की समस्या आदि पर विचार के लिए अलग से सत्र रखे गए. इसमें चितरंजन कर, प्रो. नंदकिशोर तिवारी, डा. अशोक द्विवेदी, डा. जीतेन्द्र वर्मा, डा. गदाधर सिंह, रघुबर दयाल सिंह, डा. रविन्द्र शाहावादी, विनोद सिंह सेंगर, कृष्णानंद कृष्ण आदि ने विचार व्यक्त किया. सायंकाल हिन्दी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी कवियों ने रसविभोर किया, जिसका उद् घाटन डा. अजय पाठक ने किया. अध्यक्ष मंडल में सूर्यदेव पाठक पराग, सनत कुमार तिवारी, बुधराम यादव थे. संचालन डा. गुरूचरण सिंह ने किया, जबकि बी.बी. सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन दिया.
सम्मेलन के पहले दिन राष्ट्रीय साप्ताहिक द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण के नये अंक का भी लोकार्पण किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के विशेष संवाददाता अनिल द्विवेदी भी पहुंचे. उन्होंने पूरे दो दिन सम्मेलन में शिरकत की, उम्मीद है अगले अंक में ही इसकी रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी, जिससे भोजपुरी के अलावा छत्तीसगढ़ी बोली की जरूरतों को भी देश-दुनिया तक पहुंचाया जा सकेगा.
रविवार, 24 जनवरी 2010
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5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर जानकारी दिया आपने राजेश भईया; आशा है सरोकार में पोस्टों की निरंतरता बनी रहेगी.
संजीव भाई बने लागिस के इतना लम्बा आलेख ल पढ़े. महूं हर ठाने हवं के अब इतना देरी देरी मं नई लिखवं. तहुं हर तुतारी लगावत रइबे.
रइपुर मं 24 तारीक के का होइस तेला बताते नहीं जी.
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!!
छात्तिस्गाडिया सबले बढ़िया""" क्या ये बस कुछ शब्द बनकर रह जायेंगे?
क्या राजनेता और जनप्रतिनिधि गन इस श्लोक को गाते गाते अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे ?
आज इतने सालो बाद भी छातिस्गरी और भोजपुरी भाषाएँ रास्ट्रीय सम्मान और उदारता से उफेषित ही रहे हैं...
क्या छात्तिस्गरी और भोजपुरी भाषा के सम्मान और प्रतिष्ट केंद्र मैं आराम करते नेताओं को तब तक समझ नहीं आएगी जब तक हम भी एस भाषा के लिए महारास्त्र M.N.S. की निति नहीं अपना ले?????
बहुत सुन्दर लगा आप का ब्लॉग . थोडा बिलासपुर के बारे में भी कुछ ऐसे लेख हो जिसमे विकास की झलक दिखे
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