छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति को अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीक
ऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं.
बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी. इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजे की खेती करा रहे हैं.
पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया.
बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति-पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इससे निपटने का ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं सौंपा जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं?
बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है. दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी.
मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये, उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.
क्या हम पुलिस और सरकार को अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान, योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं?
दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों को खदेड़ने की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है.
छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें.
रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?
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6 टिप्पणियां:
राजे्श भाई-प्रेस क्लब ने काफ़ी वि्चार मंथन करके यह निर्णय लिया होगा। इसलिए सही ही होगा।
सारगर्भित आलेख के लिए शुभकामनाएं स्वीकार किजिए।
सारगर्भित आलेख
bahut sahi.
राजेंद्र जी
धन्यवाद
रायपुर में क्या चल रहा है इसकी जानकारी आपके ब्लौग से हुई. पहले इसके लिए अपने पास तीन ठीकाने थे- अनिल पुसदकर जी का ब्लौग, अलोक पुतुल जी का रविवार डौट कॉम और सी जी नेट. अब चौथा ठीकाना आपने उपलब्ध कराया. आभार
ये मानव अधिकार वाले नहीं, बल्कि मानव धिक्कार वाले लोग हैं। जरा इनसे पूछो तो इनके कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारी को क्या वे उचित वेतन देते हैं? उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। मैंने मानव अधिकार आयोग के कर्मचारी को बहुत ही कम वेतन में काम करते देखा हे। मानव अधिकार की बात करने वाले खुद कितना जानते हैं मानव अधिकार को। इस आयोग को अब कानव धिक्कार आयोग का नाम दे दिया जाना चाहिए।
डॉ महेश परिमल
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