मंगलवार, 17 अगस्त 2010

लेह में दबी लाशों की चीत्कार, सुनो सरकार!


राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को लेह में आई भीषण प्राकृतिक आपदा में मारे गए मजदूरों ने आईना दिखा दिया है. इस हादसे ने छत्तीसगढ़ के दर्जनों परिवारों को बेसहारा कर दिया. मरने वालों का सही आंकड़ा नहीं मिल रहा है. बच गए मजदूरों की मानें तो इनकी संख्या 200 से ज्यादा हो सकती है. लेह में करीब 600 मजदूर काम कर रहे थे. दो खेप में इनमें से 110 लोग लौट पाए हैं. जो आए हैं वे बता रहे हैं कि उनके साथ गए 60-70 साथी लापता हैं. हो सकता है ये बादल फटने के बाद वहीं मिट्टी में दब गए हों.

काम की तलाश में देशभर में भटकने वाले छत्तीसगढ़िया मजदूरों, जिनमें ज्यादातर दलित वर्ग से हैं- की संख्या सरकारी आंकड़ों के मुताबिक केवल 20 हजार है, लेकिन स्वतंत्र सर्वेक्षणों के अनुसार इनकी वास्तविक संख्या 3 से 5 लाख है. इनमें से सैकड़ों मजदूर तो दुबारा लौटते ही नहीं और वहीं बस जाते हैं. ज्यादातर मजदूर खतरनाक उद्योगों में विषम परिस्थितियों के बीच काम करते हैं. श्रम विभाग के अधिकारी, कर्मचारी, जीआरपी और पुलिस की पलायन कराने वाले दलालों के साथ साठगांठ होती है. इनका आर्थिक शोषण तो होता ही है, शारीरिक उत्पीड़न भी होता है. इनके काम के घंटे तय नहीं होते, रहने के लिए कच्ची ईंट या मिट्टी की कुटिया ही होती हैं. शौचालय, स्नानघर नहीं मिलते न ही स्वास्थ्य की सुविधा होती. लौटने वाले मजदूर अपने साथ श्वास और दूसरी कई तरह की बीमारियां लेकर आते हैं, यहां तक कि यौन रोग भी. जो दलाल इन्हें झांसे में रखकर ले जाते हैं, वे मजदूरी यहां बहुत बढ़ाकर बताते हैं और वहां कम कर देते हैं. ऐसे मजदूर यदि भागना चाहते हैं तो उन्हें लठैतों के दम पर बंधक बना लिया जाता है. हर साल 10-12 बार ऐसे मजदूरों को छुड़ाने पुलिस व श्रम विभाग के प्रतिनिधि यूपी, गोवा, जम्मू, आदि जाते हैं. उन्हें बंधक बनाने वालों और ले जाने वालों के ख़िलाफ 19.02.1976 के बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन अधिनियम के तहत कार्रवाई होनी चाहिए, जिसमें 3 साल तक की सज़ा और 25 हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान है.पर बंधकों को छुड़ाकर लाने के बाद सरकार उन पर कोई कार्रवाई नहीं करती. आज तक किसी दलाल या ठेकेदार पर कानून का शिकंजा नहीं कसा गया. गरीबों का यह शर्मनाक पहलू है कि उन्हें धान का कटोरा कहा जाने वाला यह राज्य साल भर की रोजी मुहैया नहीं करा पाता. बीते चुनाव में अनेक लोक लुभावन वादों के बीच भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में यह भी कहा था कि राज्य को पूरी तरह पलायन मुक्त किया जाएगा. लेकिन लेह में दब चुकी लाशों ने सरकार के इस दावे की पोल खोलकर रख दी.
लेह हादसे के बाद प्रशासन के पास अजीबो-गरीब स्थिति थी. पता चला कि वहां बादल फटने से छत्तीसगढ़ के मजदूर हताहत हुए हैं. उसके नुमाइंदे गांव-गांव जाकर पलायन करने वालों और उनमें से लेह जाने वालों का नाम खोजने लगे. बड़ी तादात में पलायन होने की सच्चाई को नकारने वाली सरकार के पास इसका जवाब नहीं कि उसके पास पूरा आंकड़ा पहले से क्यों नहीं? दूसरी बार सरकार बनाने के बाद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा था कि पंचायत स्तर से ही मजदूरों के बाहर जाने का रिकार्ड रखेंगे, उनकी इस घोषणा पर अमल नहीं हुआ. ज्यादातर मजदूर जुलाई में पलायन करते हैं और अक्टूबर के आसपास लौट जाते हैं. कोई रिकार्ड अब तक बनना शुरू नहीं हुआ. सरकार की नीयत साफ होती तो इससे पता चलता कि वे किस दलाल के जरिये गए और यदि नहीं लौटे तो उन्हें क्या बंधक बना लिया? जिस जगह पर व जिन परिस्थितियों में वे काम कर रहे हैं वह उनके लिए सुरक्षित है भी या नहीं और सबसे बड़ी बात इन्हें पलायन से मुक्ति दिलाने के लिए स्थानीय स्तर पर उनके पास खेती से बच जाने वाले खाली दिनों में क्या उपाय किए गये कि उन्हें अपना गांव-घर छोड़ने से रोक लेते. पता लग जाता कि मनरेगा जैसे उपाय उन्हें रोकने में सफल क्यों नहीं हुए.
एक दशक पहले जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा होता था तब भी मजदूर कमाने खाने जाते थे. तब इसके पीछे इलाके का पिछड़ापन और गरीबी बड़ा कारण माना जाता रहा, लेकिन अब हमारी सरकार तो सीना फुला कर कहती है कि इन दस सालों में एक आदमी के पीछे आय 136 फीसदी तक बढ़ गई है. यह पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली जैसे राज्यों से भी ज्यादा है. सरकार दो रूपये और एक रूपये में राज्य की आधी आबादी, लगभग 37 लाख परिवारों को चावल बांटने का जश्न मना रही है. सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, 3 फीसदी ब्याज पर खेती व पशुपालन के लिए कर्ज़ जैसी अनेक योजनाएं चलाकर वह वाहवाही लूट रही है. अब तो सरकार को ही जवाब देना चाहिए कि उसकी नेक नीयत में सुराख कहां हैं.
कुछ कारण तो साफ दिख जाएंगे. राज्य बनने के बाद बजट के बढ़े आकार, (दस सालों में करीब 10 गुना इस साल का बजट 23 हजार करोड़ रूपया) का फायदा जिन्हें मिला, उनके होटल, मोटल, लाकर, शापिंग माल, काम्पलेक्स, टावर्स, एम्यूजमेन्ट पार्क और फार्म हाऊस भी देखे जा सकते हैं. इनकी बढ़ी आय को गरीबों की आय के साथ जोड़ देने के चलते सरकारी सर्वेक्षणों में राज्य के लोगों की आमदनी बढ़ी दिखाई दे रही है. जबकि हक़ीकत यह है कि इन धनिकों ने राज्य बनने के बाद हजारों एकड़ खेती की जमीन खरीद ली. फार्म हाऊस अब खेती के नहीं काली कमाई छिपाने और विलास के काम आते हैं. हाल में रायपुर के नवधनाड्यों के यहां पड़े छापों से साफ हो गया कि राज्य बनने के बाद कौन फला फूला. सेल्समेन बनकर कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में ठिकाना तलाशने वाले लोग अब अरबपति हैं व सत्ता की राजनीति कर रहे हैं. गरीबों का परिवार तो बढा़ लेकिन जमीन बढ़े हुए परिवार में बंट जाने तथा उद्योग व्यापार के लिए हड़प लेने के बाद सिमटती गई. मनरेगा के काम ठेकेदार और सरपंच मिल कर कर रहे हैं. मजदूर बस फर्जी मस्टर रोल में दिखते हैं. नौकरशाहों, ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों में ऐसी साठगांठ हो तो छत्तीसगढ़ को पलायन और गरीबी से छुटकारा आखिर कौन दिला पाएगा?
कुछ साल पहले पुंछ में छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन मजदूर आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गए थे. अब लेह में उन पर बादल फट पड़ा. वे ऐसे जोखिम भरे जगहों पर आगे भी मिलेंगे और हादसे का शिकार होते पाए जाएंगे. लेह के बाद तो थोथी बयानबाजी बंद हो जानी चाहिए. एक मंत्री जी जांजगीर गए, संवेदना के कुछ शब्द मजदूरों से कह भी गए, पर उससे क्या होना है. अब पलायन रोकने के लिए कोई ठोस और ईमानदार कोशिश होनी चाहिए.