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महात्मा गांधी और भगत सिंह के बीच वैचारिक मतभेद थे, यह सब जानते हैं। प्रायः
गांधी की आलोचना करने वाले लोग इस तथ्य को भी उभारते हैं कि सरदार भगत सिंह की
फांसी रुकवाने के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन राजस्थान पत्रिका के
पत्रिकायन पेज पर 29 सितंबर के अंक में प्रकाशित एक लेख यह जानकारी देता है कि महात्मा गांधी ने न केवल वाइसराय को पत्र लिखकर फांसी को रोकने की अपील की थी,
वरन् फांसी दिए जाने के बाद ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना भी की।
अनुपम मिश्र के आलेख- दोनों के सम्बंधों का सच में इस बात का खुलासा किया गया
है।
“ कुछ
लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि गांधी चाहते, तो भगत सिंह को बचा सकते थे, लेकिन इस
संदर्भ में इतिहास भी देख लेना चाहिए। गांधी जी ने वायसराय को एक पत्र लिखा था,
जिसमें भगत सिंह को फांसी न देने का जिक्र था। पत्र इस प्रकार था, ‘आपको यह पत्र िलखना आपके प्रति
क्रूरता करने जैसा लगता है, पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है।
यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की
सज़ा में कोई रियायत नहीं किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के
निवेदन पर विचार करने को कहा था। डॉ. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया
कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि
इस पर पुनः विचार करने की कुछ गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर
दिलाना चाहता हूं। जनमत, वह सही हो या गलत, सज़ा में रियायत चाहता है। जब कोई
सिध्दांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत
मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सज़ा हल्क की जाती है, तो बहुत संभव है कि आंतरिक
शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सज़ा दी जाती गई, तो निःसंदेह शांति
खतरे में पड़ जाएगी। क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों
की जान बख्श दी जाए, तो यह दल अपनी कार्रवाईयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी
राय में मौत की सज़ा को, क्रांतिकािरयों द्वारा की जाने वाली हत्याएं जब तक बंद
रहती हैं, तब तक तो मुल्तवी कर देना एक लाज़मी फर्ज बन जाता है।‘
गांधी ने वायसराय को यह भी लिखा था, ‘यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो
मैं आपसे प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। दया कभी निष्फल नहीं जाती।‘
जब सरकार ने भगत सिंह को फांसी दे दी, तो गांधी जी ने अपने अख़बार में लिखा
था, ‘सरकार ने भगत सिंह और
उसके साथियों को फांसी देकर अपना पशु स्वभाव प्रकट किया है। लोकमत का तिरस्कार कर
सत्ता के मद का ताजा प्रदर्शन किया है।...सरकार को फांसी देने का अधिकार जरूर है,
पर कई अधिकारों की शोभा इसी में है कि वे सिर्फ थैली में बंद पड़े रहें।... इस
वक्त अगर सरकार ने अपने अधिकार का उपयोग न किया होता, तो वह शोभा देता और
शांति-रक्षा में उससे बड़ी सहायता मिलती।...हमें आशा थी सरकार उनकी और उनके
साथियों की सज़ा माफ करने की शिष्टता दिखाएगी। इस आशा के पूरा न होने पर भी हम
अपनी प्रतिज्ञा न तोड़ें, बल्कि इस चोट को सहकर प्रतिज्ञा का पालन करें। ...
प्रतिज्ञा भंग करने से अर्थात् समझौते को तोड़ने से हमारा तेज कम होगा, शक्ति
घटेगी और ध्येय तक पहुंचने में जो कठिनाईयां हमारे मार्ग में है, उनमें वृध्दि
होगी। इसलिए गुस्से को पीकर समझौते पर डटे रहना और कर्तव्य का पालन करना ही हमारा
धर्म है।
इसी आलेख में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि भगत सिंह से जब माफी की
अर्जी की बात कही गई तो उन्होंने अर्जी देने से इनकार कर दिया।
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