बुझती उम्मीदों के बीच दमकता हुनर
पदकों से सजा काशीराम का बैठक-कक्ष। |
काशीराम ने पूरा जीवन लोक कला के लिए समर्पित कर
दिया। गम्मत उनके नस-नस में बह रहा है, लेकिन उन्हें यह साफ पता है कि इस हुनर को आगे बढ़ाने की रफ्तार थमने वाली है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों नौ अक्टूबर 2012 को वे संगीत नाटक
अकादमी अवार्ड से सम्मानित हुए। पुरस्कार को लेकर वे उल्सास से लबालब तो हैं, पर
यह पीड़ा छिपाए नहीं छिपती कि गम्मत, रहस और लीला की जगह फूहड़ नाच-गानों के लोक
मंच ने हड़प ली और रही सही कसर गांव-गांव में पहुंच गए टीवी केबल कनेक्शन ने पूरी
कर दी। लेखन, संगीत, नृत्य अभिनय की विधाओं में पारंगत इस बहुआयामी कलाकार को
उम्मीद है कि कोई पहल होगी और गम्मत की सिमटती लोक विधा को सहेजने के लिए
संवेदनशील और सरकार के संस्कृति विभाग से जुड़े लोग सामने आएंगे और छत्तीसगढ़ की
इस पहचान को खत्म होने से बचाएंगे।
राष्ट्रपति के हाथों से सम्मानित होते हुए काशीराम। |
काशीराम साहू सचमुच माटी का बेटा है। उनके भीतर कोई अहंकार
नहीं और बाहर कोई आडंबर नहीं। पहनावा, गुरतुर गोठ, रहन-सहन, ठौर-ठिकाना, सब माटी
की सुगंध से सराबोर। जुलाई 1949 में रतनपुर से दस किमी दूर डोंगी गांव में किसानी
करने वाले परिवार में पैदा हुए। होश संभालने के बाद पाया कि घर ही नहीं पूरे कुल में
सब गाने-बजाने के लिए उतावले हैं। आठ साल की उम्र में बड़े भाई रामझूल ने कहा तू
तो गोरा है, सुंदर है-चल मंच पर परी का रोल कर। पहली बार में ही झूम कर नाचा।
वाहवाही करने वालों की कतार में सबसे आगे बड़े पिताजी रामझूल और पिता विशंभर बैठे
थे। काशी मंच पर करतब दिखाने के बाद नीचे उतरकर सबसे पहले पिता के ही पास पहुंचकर
मान मांगते थे। मान यानि नजराना...। वे ददा की दाढ़ी तब तक खींचते रहते थे जब तक
उन्हें मनचाहा उपहार नहीं मिल जाता था। ये कभी सिक्के होते थे तो कभी खाई.. यानि
चाकलेट ..और कभी पिपरमेंट वगैरह।
खूबसूरत जोक्कड़
घर के सारे मरद गम्मत करने रतनपुर, बिलासपुर, कोरबा,
रायगढ़, सरगुजा, रायपुर, जांजगीर तमाम शहरों में जाते थे। पुरुषों के बीच से ही
कोई राधा बनता कोई सीता, कोई कृष्ण तो कोई राम.. कोई जोक्कड़ तो कोई नचकहर। उनकी
टोली, एक साथ- एक कुनबे के मानिंद हंसी ठिठोली करते हुए इसका आनंद उठाया करते थे।
जो मेहनताना मिल जाए उसे बराबर बांटा करते थे। इस मामले में न कोई धुरंधर कलाकार
होता था न कोई मामूली। सौ रूपया मिला तो सबको दस-दस बांट लिया। पचास मिला तो
पांच-पांच रूपए ही सही।
सफर ऐसे शुरु हुआ
महज तीसरी कक्षा तक की तालीम हासिल कर पाने वाले काशी में
कोई अलग बात है यह जानना लोगों ने 16 बरस की उमर से महसूस किया जब उसकी ऊंगलियां
हारमोनियम पर थिरकने लगी, आवाज रस घोलने लगी, गम्मत की पटकथा खुद लिखने लगे और
लड़की बनकर स्टेज पर कमाल का डांस करने लगे। सबने महसूस किया कि गम्मत तो इसमें
रचने-बसने जा रहा है। महज मनोरंजन और शौक नहीं ये तो अपनी नस-नस में इसे दौड़ाने
के लिए निकल पड़ा है। बाहर की लीला मंडलियों ने भी काशी को बुलाना शुरू किया.. उन
मंचनों में वे अपने खुद के लिखे भजनों पर वाहवाही बटोरने लगे।
सिलसिला चल पड़ा। काशीराम गांवों के हर जलसे में याद किए
जाने लगे। व्यस्तता बढ़ गई। बीस पचीस बरस तक खूब मांजा मंचों को। टर्निंग प्वाइंट
था.. नब्बे के दशक में चालू हुआ भारत ज्ञान विज्ञान समिति का साक्षरता अभियान।
लोककला प्रेमी अनूप रंजन पांडे इससे जुड़े थे। काशीराम से अक्सर मिला करते थे।
गांवों में नेटवर्क था। साक्षरता का संदेश पहुंचाने के लिए लोक कलाकारों को
प्रशिक्षित करने की जरुरत थी। काशीराम बिलासपुर बुलाए गए, फिर जगह-जगह टोलियों को
सिखाने लगे। काशीराम हो तो फिर किसी बात की कमी महसूस नहीं होती थी। न साजिंदे, न
गायक, न कवि, न नर्तक और न नाटककार। काशी हर विधा में माहिर जो थे।
बात पहुंची छत्तीसगढ़ की लोक विधाओं को अंतर्राष्ट्रीय
मंचों पर चिन्हारी देने वाले पद्मश्री हबीब तनवीर तक। वे तो पारखी थे। काशीराम को
ले गए अपने साथ। मोर नांव दामाद, गांव के नांव ससुराल के लिए उनसे कुछ गीत लिखवाए,
स्टेज पर बड़ा रोल दिया। दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में मौका मिला। काशीराम को
यह मान भाया, पर जल्दी ऊब गए। ठेकला के बासी भात और सिगड़ी की रोटी वहां नसीब नहीं
हो रही थी। सब संगी साथी छूट गए थे। हबीब तनवीर मनाते रहे, नहीं माने। तकरीबन एक
महीने रहकर भाग खड़े हुए। फिर शुरू हो गया देवरी, लखराम, रतनपुर, डोंगी की अपनी
पुरानी टीम के साथ राम-कृष्ण लीला, गम्मत और रहस।
इसी दौरान समझ में आ गया कि यह काम माथे पर तिलक तो लगाता
है पर गृहस्थी नहीं पालता। घरवाली और चार बच्चे तकलीफ में दिन बिता रहे थे। सब
सोचकर डोंगी छोड़ा, रतनपुर आ बसे। जहुरिया नाम का लोक मंच बनाया और कलाकारों की
टीम बनाकर घूमने लगे। दूसरी तरफ एक लकड़ी की गुमटी (ठेला) खरीदी और खोल ली पान की
दुकान। दुकान तो चल पड़ी पर खुद ही बेपरवाह। खड़े ग्राहकों से हाथ जोड़कर ताला मार
देते थे। कह देते कि गम्मत में जाना है।
बहुआयामी काशी
काशीराम ने जो कुछ भी अपने भीतर था उढ़ेल कर रख दिया। तीसरी
कक्षा तक की पढ़ाई को लेकर कोई मलाल नहीं। उसने शास्त्रीय संगीत सीखा, मुम्बई के
गंधर्व महाविद्यालय से संगीत विशारद की डिग्री ले ली। करीब दो सौ छत्तीसगढ़ी,
अवधी, ब्रज गीत लिखे। इन पर आधारित तीन किताबें, चुरकुट होगे रे, संगीत पुष्प
पुंज, भजनामृत प्रकाशित किया। रतनपुर के साहित्यिक क्षेत्र में मील का पत्थर बने
हुए बाबू रेवाराम के गुटके के यत्र-तत्र बिखरे दोहों को संकलित किया और उस पर एक
किताब निकाल दी।
मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने इन्हें रहस गुरु का
खिताब दिया। कई संस्थाओं में उन्होंने कार्यशाला रखी और कलाकारों को रहस, गम्मत
तथा लोक संगीत का प्रशिक्षण दिया। इस समय वे रत्नदेव साहित्य व सांस्कृतिक समिति
रतनपुर के अध्यक्ष हैं। लोककला से जुड़ा कोई भी आयोजन हो आगे रहते हैं।
पत्नी ने की मजदूरी
इन सबके बावजूद यह विडम्बना ही है कि गम्मत को खत्म होते
हुए काशीराम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। उन्होंने अपने दोनों बच्चों नंदकिशोर
व शैलेन्द्र को इस तमाशे से अलग रखा है। एक को पान की दुकान में दूसरे को जनरल
स्टोर में बिठा रहे हैं। वजह यही बताते हैं कि इसका कोई भविष्य नहीं है। दुकानदारी
तो घर में चार पैसे दे रही है, पर गम्मत नहीं देगा। मेरी घरवाली कमला ने तो मेरी
फकीरी बर्दाश्त कर ली, मेरी जेब को खाली देखा तो मजदूरी करने चली गई पर बहू-बेटे
ऐसा न करें।
उम्मीद की रोशनी
अपने पोते अमन के साथ काशीराम साहू। |
अब काशीराम व्यस्त नहीं है। उम्र के चौथेपन में वे लगभग
सन्यास ले चुके हैं। बेटियों सुमन और सुशीला की शादी कर चुके हैं जो अपने-अपने
घरों में खुश हैं। नंदकिशोर व शैलेन्द्र के भी बच्चे हैं। कुल 11 लोगों का परिवार
घर पर है। इनमें से एक है पोता अमन.. केजी वन मे पढ़ने वाले इस बालक में उन्हें
कुछ संभावना दिखती है। सा रे गा मा.. उन्हें सिखा रहे हैं। किसी दिन शास्त्रीय
संगीत में पारंगत हो जाए यह लालसा रखते हैं। इसके अलावा प्रशिक्षण देने के लिए कोई
बुलावा आता है तो चले जाते हैं। कोई घर पर आकर सीखना चाहे तो उन्हें भी सिखा देते
हैं।
बचा लो गम्मत
काशीराम कहते हैं – गम्मत,
रहस जैसी लोककला को बचा लीजिए। टीवी और फूहड़ लोक मंच इसे निगलने में लगा है।
कलाकारों को कुछ नहीं चाहिए। मनरेगा की सौ दिन मजदूरी के बराबर ही इन्हें रकम दिला
दो वे इसे बचा लेंगे। भूख इन्हें कला से बिदकने के लिए मजबूर कर रहा है। आज हाथ
में काम है तो ठीक, नहीं है तो दाने-दाने की मोहताजी।
(पत्रिका बिलासपुर में 9 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित)