मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012


बुझती उम्मीदों के बीच दमकता हुनर

रतनपुर के लोक कलाकार काशीराम को 9 अक्टूबर 2012 को राष्ट्रपति ने फोक थियेटर में योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी अवार्ड दिया। काशीराम से बातचीत करना सुकून देता है।  उन्होंने अपनी कविताओं पर किताबें भी प्रकाशित कराई है। दक्षिण -मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने उन्हें रहस गुरु का ख़िताब भी दिया और रहस पर एक किताब भी उनसे लिखाई है।
पदकों से सजा काशीराम का बैठक-कक्ष।


काशीराम ने पूरा जीवन लोक कला के लिए समर्पित कर दिया। गम्मत उनके नस-नस में बह रहा है, लेकिन उन्हें यह साफ पता है कि इस हुनर को आगे बढ़ाने की रफ्तार थमने वाली है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों नौ अक्टूबर 2012 को वे संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित हुए। पुरस्कार को लेकर वे उल्सास से लबालब तो हैं, पर यह पीड़ा छिपाए नहीं छिपती कि गम्मत, रहस और लीला की जगह फूहड़ नाच-गानों के लोक मंच ने हड़प ली और रही सही कसर गांव-गांव में पहुंच गए टीवी केबल कनेक्शन ने पूरी कर दी। लेखन, संगीत, नृत्य अभिनय की विधाओं में पारंगत इस बहुआयामी कलाकार को उम्मीद है कि कोई पहल होगी और गम्मत की सिमटती लोक विधा को सहेजने के लिए संवेदनशील और सरकार के संस्कृति विभाग से जुड़े लोग सामने आएंगे और छत्तीसगढ़ की इस पहचान को खत्म होने से बचाएंगे।

राष्ट्रपति के हाथों से सम्मानित होते हुए काशीराम। 
काशीराम साहू सचमुच माटी का बेटा है। उनके भीतर कोई अहंकार नहीं और बाहर कोई आडंबर नहीं। पहनावा, गुरतुर गोठ, रहन-सहन, ठौर-ठिकाना, सब माटी की सुगंध से सराबोर। जुलाई 1949 में रतनपुर से दस किमी दूर डोंगी गांव में किसानी करने वाले परिवार में पैदा हुए। होश संभालने के बाद पाया कि घर ही नहीं पूरे कुल में सब गाने-बजाने के लिए उतावले हैं। आठ साल की उम्र में बड़े भाई रामझूल ने कहा तू तो गोरा है, सुंदर है-चल मंच पर परी का रोल कर। पहली बार में ही झूम कर नाचा। वाहवाही करने वालों की कतार में सबसे आगे बड़े पिताजी रामझूल और पिता विशंभर बैठे थे। काशी मंच पर करतब दिखाने के बाद नीचे उतरकर सबसे पहले पिता के ही पास पहुंचकर मान मांगते थे। मान यानि नजराना...। वे ददा की दाढ़ी तब तक खींचते रहते थे जब तक उन्हें मनचाहा उपहार नहीं मिल जाता था। ये कभी सिक्के होते थे तो कभी खाई.. यानि चाकलेट ..और कभी पिपरमेंट वगैरह।

खूबसूरत जोक्कड़

घर के सारे मरद गम्मत करने रतनपुर, बिलासपुर, कोरबा, रायगढ़, सरगुजा, रायपुर, जांजगीर तमाम शहरों में जाते थे। पुरुषों के बीच से ही कोई राधा बनता कोई सीता, कोई कृष्ण तो कोई राम.. कोई जोक्कड़ तो कोई नचकहर। उनकी टोली, एक साथ- एक कुनबे के मानिंद हंसी ठिठोली करते हुए इसका आनंद उठाया करते थे। जो मेहनताना मिल जाए उसे बराबर बांटा करते थे। इस मामले में न कोई धुरंधर कलाकार होता था न कोई मामूली। सौ रूपया मिला तो सबको दस-दस बांट लिया। पचास मिला तो पांच-पांच रूपए ही सही।

सफर ऐसे शुरु हुआ

महज तीसरी कक्षा तक की तालीम हासिल कर पाने वाले काशी में कोई अलग बात है यह जानना लोगों ने 16 बरस की उमर से महसूस किया जब उसकी ऊंगलियां हारमोनियम पर थिरकने लगी, आवाज रस घोलने लगी, गम्मत की पटकथा खुद लिखने लगे और लड़की बनकर स्टेज पर कमाल का डांस करने लगे। सबने महसूस किया कि गम्मत तो इसमें रचने-बसने जा रहा है। महज मनोरंजन और शौक नहीं ये तो अपनी नस-नस में इसे दौड़ाने के लिए निकल पड़ा है। बाहर की लीला मंडलियों ने भी काशी को बुलाना शुरू किया.. उन मंचनों में वे अपने खुद के लिखे भजनों पर वाहवाही बटोरने लगे।
सिलसिला चल पड़ा। काशीराम गांवों के हर जलसे में याद किए जाने लगे। व्यस्तता बढ़ गई। बीस पचीस बरस तक खूब मांजा मंचों को। टर्निंग प्वाइंट था.. नब्बे के दशक में चालू हुआ भारत ज्ञान विज्ञान समिति का साक्षरता अभियान। लोककला प्रेमी अनूप रंजन पांडे इससे जुड़े थे। काशीराम से अक्सर मिला करते थे। गांवों में नेटवर्क था। साक्षरता का संदेश पहुंचाने के लिए लोक कलाकारों को प्रशिक्षित करने की जरुरत थी। काशीराम बिलासपुर बुलाए गए, फिर जगह-जगह टोलियों को सिखाने लगे। काशीराम हो तो फिर किसी बात की कमी महसूस नहीं होती थी। न साजिंदे, न गायक, न कवि, न नर्तक और न नाटककार। काशी हर विधा में माहिर जो थे।
बात पहुंची छत्तीसगढ़ की लोक विधाओं को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चिन्हारी देने वाले पद्मश्री हबीब तनवीर तक। वे तो पारखी थे। काशीराम को ले गए अपने साथ। मोर नांव दामाद, गांव के नांव ससुराल के लिए उनसे कुछ गीत लिखवाए, स्टेज पर बड़ा रोल दिया। दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में मौका मिला। काशीराम को यह मान भाया, पर जल्दी ऊब गए। ठेकला के बासी भात और सिगड़ी की रोटी वहां नसीब नहीं हो रही थी। सब संगी साथी छूट गए थे। हबीब तनवीर मनाते रहे, नहीं माने। तकरीबन एक महीने रहकर भाग खड़े हुए। फिर शुरू हो गया देवरी, लखराम, रतनपुर, डोंगी की अपनी पुरानी टीम के साथ राम-कृष्ण लीला, गम्मत और रहस।
इसी दौरान समझ में आ गया कि यह काम माथे पर तिलक तो लगाता है पर गृहस्थी नहीं पालता। घरवाली और चार बच्चे तकलीफ में दिन बिता रहे थे। सब सोचकर डोंगी छोड़ा, रतनपुर आ बसे। जहुरिया नाम का लोक मंच बनाया और कलाकारों की टीम बनाकर घूमने लगे। दूसरी तरफ एक लकड़ी की गुमटी (ठेला) खरीदी और खोल ली पान की दुकान। दुकान तो चल पड़ी पर खुद ही बेपरवाह। खड़े ग्राहकों से हाथ जोड़कर ताला मार देते थे। कह देते कि गम्मत में जाना है।

बहुआयामी काशी

काशीराम ने जो कुछ भी अपने भीतर था उढ़ेल कर रख दिया। तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई को लेकर कोई मलाल नहीं। उसने शास्त्रीय संगीत सीखा, मुम्बई के गंधर्व महाविद्यालय से संगीत विशारद की डिग्री ले ली। करीब दो सौ छत्तीसगढ़ी, अवधी, ब्रज गीत लिखे। इन पर आधारित तीन किताबें, चुरकुट होगे रे, संगीत पुष्प पुंज, भजनामृत प्रकाशित किया। रतनपुर के साहित्यिक क्षेत्र में मील का पत्थर बने हुए बाबू रेवाराम के गुटके के यत्र-तत्र बिखरे दोहों को संकलित किया और उस पर एक किताब निकाल दी।
मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने इन्हें रहस गुरु का खिताब दिया। कई संस्थाओं में उन्होंने कार्यशाला रखी और कलाकारों को रहस, गम्मत तथा लोक संगीत का प्रशिक्षण दिया। इस समय वे रत्नदेव साहित्य व सांस्कृतिक समिति रतनपुर के अध्यक्ष हैं। लोककला से जुड़ा कोई भी आयोजन हो आगे रहते हैं।

पत्नी ने की मजदूरी

इन सबके बावजूद यह विडम्बना ही है कि गम्मत को खत्म होते हुए काशीराम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। उन्होंने अपने दोनों बच्चों नंदकिशोर व शैलेन्द्र को इस तमाशे से अलग रखा है। एक को पान की दुकान में दूसरे को जनरल स्टोर में बिठा रहे हैं। वजह यही बताते हैं कि इसका कोई भविष्य नहीं है। दुकानदारी तो घर में चार पैसे दे रही है, पर गम्मत नहीं देगा। मेरी घरवाली कमला ने तो मेरी फकीरी बर्दाश्त कर ली, मेरी जेब को खाली देखा तो मजदूरी करने चली गई पर बहू-बेटे ऐसा न करें। 

उम्मीद की रोशनी

अपने पोते अमन के साथ काशीराम साहू।

अब काशीराम व्यस्त नहीं है। उम्र के चौथेपन में वे लगभग सन्यास ले चुके हैं। बेटियों सुमन और सुशीला की शादी कर चुके हैं जो अपने-अपने घरों में खुश हैं। नंदकिशोर व शैलेन्द्र के भी बच्चे हैं। कुल 11 लोगों का परिवार घर पर है। इनमें से एक है पोता अमन.. केजी वन मे पढ़ने वाले इस बालक में उन्हें कुछ संभावना दिखती है। सा रे गा मा.. उन्हें सिखा रहे हैं। किसी दिन शास्त्रीय संगीत में पारंगत हो जाए यह लालसा रखते हैं। इसके अलावा प्रशिक्षण देने के लिए कोई बुलावा आता है तो चले जाते हैं। कोई घर पर आकर सीखना चाहे तो उन्हें भी सिखा देते हैं।

बचा लो गम्मत

काशीराम कहते हैं गम्मत, रहस जैसी लोककला को बचा लीजिए। टीवी और फूहड़ लोक मंच इसे निगलने में लगा है। कलाकारों को कुछ नहीं चाहिए। मनरेगा की सौ दिन मजदूरी के बराबर ही इन्हें रकम दिला दो वे इसे बचा लेंगे। भूख इन्हें कला से बिदकने के लिए मजबूर कर रहा है। आज हाथ में काम है तो ठीक, नहीं है तो दाने-दाने की मोहताजी।
(पत्रिका बिलासपुर में 9 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित)

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

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बीते दो अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के गारे गांव के किसानों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया। किसानों की जमीन को पावर प्लांटों को दिए जाने के विरोध में उन्होंने गांधी जी के नमक कानून की तरह कोयला कानून तोड़ा और मांग की कि उन्हें खुद उनकी जमीन का कोयला निकालने की अनुमति दी जाए, बजाय किसी उद्योगपति के। उस पर एक टिप्पणी पत्रिका के छत्तीसगढ़ संस्करण में पांच अक्टूबर को प्रकाशित हुई है।

शनिवार, 29 सितंबर 2012

गांधी और भगत सिंह

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महात्मा गांधी और भगत सिंह के बीच वैचारिक मतभेद थे, यह सब जानते हैं। प्रायः गांधी की आलोचना करने वाले लोग इस तथ्य को भी उभारते हैं कि सरदार भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन राजस्थान पत्रिका के पत्रिकायन पेज पर 29 सितंबर के अंक में प्रकाशित एक लेख यह जानकारी देता है कि महात्मा गांधी ने न केवल वाइसराय को पत्र लिखकर फांसी को रोकने की अपील की थी, वरन् फांसी दिए जाने के बाद ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना भी की।
अनुपम मिश्र के आलेख- दोनों के सम्बंधों का सच में इस बात का खुलासा किया गया है।

कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि गांधी चाहते, तो भगत सिंह को बचा सकते थे, लेकिन इस संदर्भ में इतिहास भी देख लेना चाहिए। गांधी जी ने वायसराय को एक पत्र लिखा था, जिसमें भगत सिंह को फांसी न देने का जिक्र था। पत्र इस प्रकार था, आपको यह पत्र िलखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है, पर शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सज़ा में कोई रियायत नहीं किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। डॉ. सप्रू मुझसे कल मिले और उन्होंने मुझे बताया कि आप इस मामले से चिंतित हैं और आप कोई रास्ता निकालने का विचार कर रहे हैं। यदि इस पर पुनः विचार करने की कुछ गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं। जनमत, वह सही हो या गलत, सज़ा में रियायत चाहता है। जब कोई सिध्दांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सज़ा हल्क की जाती है, तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सज़ा दी जाती गई, तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी। क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए, तो यह दल अपनी कार्रवाईयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सज़ा को, क्रांतिकािरयों द्वारा की जाने वाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक तो मुल्तवी कर देना एक लाज़मी फर्ज बन जाता है।
गांधी ने वायसराय को यह भी लिखा था, यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें। यदि मेरी उपस्थिति आवश्यक हो तो मैं आ सकता हूं। दया कभी निष्फल नहीं जाती।
जब सरकार ने भगत सिंह को फांसी दे दी, तो गांधी जी ने अपने अख़बार में लिखा था, सरकार ने भगत सिंह और उसके साथियों को फांसी देकर अपना पशु स्वभाव प्रकट किया है। लोकमत का तिरस्कार कर सत्ता के मद का ताजा प्रदर्शन किया है।...सरकार को फांसी देने का अधिकार जरूर है, पर कई अधिकारों की शोभा इसी में है कि वे सिर्फ थैली में बंद पड़े रहें।... इस वक्त अगर सरकार ने अपने अधिकार का उपयोग न किया होता, तो वह शोभा देता और शांति-रक्षा में उससे बड़ी सहायता मिलती।...हमें आशा थी सरकार उनकी और उनके साथियों की सज़ा माफ करने की शिष्टता दिखाएगी। इस आशा के पूरा न होने पर भी हम अपनी प्रतिज्ञा न तोड़ें, बल्कि इस चोट को सहकर प्रतिज्ञा का पालन करें। ... प्रतिज्ञा भंग करने से अर्थात् समझौते को तोड़ने से हमारा तेज कम होगा, शक्ति घटेगी और ध्येय तक पहुंचने में जो कठिनाईयां हमारे मार्ग में है, उनमें वृध्दि होगी। इसलिए गुस्से को पीकर समझौते पर डटे रहना और कर्तव्य का पालन करना ही हमारा धर्म है।
इसी आलेख में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि भगत सिंह से जब माफी की अर्जी की बात कही गई तो उन्होंने अर्जी देने से इनकार कर दिया।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सिकलसेल पर पत्रकार संजय दीक्षित की किताब का डा.कलाम ने किया विमोचन

कैंसर से भी ज्यादा खतरनाक है सिकलसेल

दुनिया में पत्रकारिता की भूमिका कभी पायलट की रही है तो कभी फालोगार्ड की। अनेक अवसरों पर यह देखा गया है कि पत्रकारिता ने जिस अंधेरे रास्तों पर दीये का प्रकाश बिखेरा है, वह बाद में जाकर प्रकाश स्तंभ बन गया। रायपुर के पत्रकार संजय दीक्षित की कुछ पहल ऐसी ही है। उन्होंने सिकल सेल जैसी लाइलाज बीमारी पर शोध किया है। उक्त बातें संजय दीक्षित की सिकल सेल पर लिखी गई किताब के विमोचन पर वक्ताओं ने कही।
रायपुर मेडिकल कालेज में सिकल सेल पर आयोजित अंतराष्ट्रीय सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. कलाम ने दीक्षित की शोध पुस्तक का विमोचन किया।  इस मौके पर मुख्यमंत्री रमन सिंह भी मौजूद थे. 2006 में राष्ट्रपति डॉ. कलाम के हाथों ही श्री दीक्षित को स्व.चंदूलाल चंद्राकर स्मृति पत्रकारिता फेलोशिप मिली थी। ओर इसी के तहत पत्रकारीय दृष्टिकोण से यह शोध पुस्तक लिखी गई है। सिकल सेल पर हिन्दी में लिखी गई संभवत: यह पहली पुस्तक होगी।

पुस्तक में श्री दीक्षित ने बताया है कि सिकल सेल को केंसर से भी ज्यादा खतरनाक बताया है। शुरूआती स्टेज में अगर कैंसर पकड़ में आ गया तो उसका इलाज है। मगर सिकल सेल का अब तक कोई निदान नहीं ढूंढा जा सका है। छत्तीसगढ़ में 30 लाख से अधिक लोग इस बीमारी से ग्रस्त है, इस बीमारी से राज्य की ग्रामीण अर्थव्यक्स्था पर भी बुरा असर पड़ा है। दीक्षित का कहना है कि सिकल सेल पहली ऐसी बीमारी होगी, जिससे एक साथ कई अंग प्रभावित होते हैं।
उन्होंने बताया कि सिकल सेल ग्रस्त छह राज्यों से घिरे होने की वजह से छत्तीसगढ़ में यह बीमारी मौत का तांडव मचा रही है। आलम यह है कि सिकल प्रभावित 7 फीसदी बच्चे तो छह महीने के अंदर काल के ग्रास बन जाते है। सिकल रोगी अगर 50 वर्ष जी गए तो आश्चर्य माना जाता है। सूबे में पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी के करीब हैं और सबसे अधिक पिछड़े वर्ग के लोग ही सिकल सेल से प्रभावित हैं। इनमें से कुर्मी, साहू जैसी जातियों में तो 22 प्रतिशत तक लोग सिकल सेल की चपेट में हैं। सिकल सेल से सबसे अधिक वे ही प्रभावित हैं। बच्चों की थादी में बाधा आने की आशंका से लोग इस अनुवांशिक बीमारी के बारे में बताना नहीं चाहते और इस बीमारी के लगातार फैलने की वजह भी यही है।
शादी के बाद संतान उत्पति की प्रक्रिया में यह बीमारी फैलती जाती है। दो सिकल सेल रोगी की अगर शादी हो गई तो उनकी संतान भी सिकल रोगी होगी। इसलिए शादी के पहले अगर सिकल कुंडली मिला ली जाए तो 70 फीसदी तक बीमारी को कंट्रोल किया जा सकता है। मगर इसके लिए सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। क्योंकि जनजागृति ही सिकल सेल का एकमात्र उपाय है और सामाजिक संगठनों को साथ लिए बगैर जनजागृति संभव नही है।
गौतरलब है कि संजय दीक्षित 17 साल से पत्रकारिता में हैं और दैनिक भास्कर, देशबंधु, जनसत्ता, जैसे कई अखबारों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं; वर्तमान में वे दैनिक हिन्दुस्तान के संवाददाता के तौर पर काम कर रहे हैं।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

लेह में दबी लाशों की चीत्कार, सुनो सरकार!


राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को लेह में आई भीषण प्राकृतिक आपदा में मारे गए मजदूरों ने आईना दिखा दिया है. इस हादसे ने छत्तीसगढ़ के दर्जनों परिवारों को बेसहारा कर दिया. मरने वालों का सही आंकड़ा नहीं मिल रहा है. बच गए मजदूरों की मानें तो इनकी संख्या 200 से ज्यादा हो सकती है. लेह में करीब 600 मजदूर काम कर रहे थे. दो खेप में इनमें से 110 लोग लौट पाए हैं. जो आए हैं वे बता रहे हैं कि उनके साथ गए 60-70 साथी लापता हैं. हो सकता है ये बादल फटने के बाद वहीं मिट्टी में दब गए हों.

काम की तलाश में देशभर में भटकने वाले छत्तीसगढ़िया मजदूरों, जिनमें ज्यादातर दलित वर्ग से हैं- की संख्या सरकारी आंकड़ों के मुताबिक केवल 20 हजार है, लेकिन स्वतंत्र सर्वेक्षणों के अनुसार इनकी वास्तविक संख्या 3 से 5 लाख है. इनमें से सैकड़ों मजदूर तो दुबारा लौटते ही नहीं और वहीं बस जाते हैं. ज्यादातर मजदूर खतरनाक उद्योगों में विषम परिस्थितियों के बीच काम करते हैं. श्रम विभाग के अधिकारी, कर्मचारी, जीआरपी और पुलिस की पलायन कराने वाले दलालों के साथ साठगांठ होती है. इनका आर्थिक शोषण तो होता ही है, शारीरिक उत्पीड़न भी होता है. इनके काम के घंटे तय नहीं होते, रहने के लिए कच्ची ईंट या मिट्टी की कुटिया ही होती हैं. शौचालय, स्नानघर नहीं मिलते न ही स्वास्थ्य की सुविधा होती. लौटने वाले मजदूर अपने साथ श्वास और दूसरी कई तरह की बीमारियां लेकर आते हैं, यहां तक कि यौन रोग भी. जो दलाल इन्हें झांसे में रखकर ले जाते हैं, वे मजदूरी यहां बहुत बढ़ाकर बताते हैं और वहां कम कर देते हैं. ऐसे मजदूर यदि भागना चाहते हैं तो उन्हें लठैतों के दम पर बंधक बना लिया जाता है. हर साल 10-12 बार ऐसे मजदूरों को छुड़ाने पुलिस व श्रम विभाग के प्रतिनिधि यूपी, गोवा, जम्मू, आदि जाते हैं. उन्हें बंधक बनाने वालों और ले जाने वालों के ख़िलाफ 19.02.1976 के बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन अधिनियम के तहत कार्रवाई होनी चाहिए, जिसमें 3 साल तक की सज़ा और 25 हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान है.पर बंधकों को छुड़ाकर लाने के बाद सरकार उन पर कोई कार्रवाई नहीं करती. आज तक किसी दलाल या ठेकेदार पर कानून का शिकंजा नहीं कसा गया. गरीबों का यह शर्मनाक पहलू है कि उन्हें धान का कटोरा कहा जाने वाला यह राज्य साल भर की रोजी मुहैया नहीं करा पाता. बीते चुनाव में अनेक लोक लुभावन वादों के बीच भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में यह भी कहा था कि राज्य को पूरी तरह पलायन मुक्त किया जाएगा. लेकिन लेह में दब चुकी लाशों ने सरकार के इस दावे की पोल खोलकर रख दी.
लेह हादसे के बाद प्रशासन के पास अजीबो-गरीब स्थिति थी. पता चला कि वहां बादल फटने से छत्तीसगढ़ के मजदूर हताहत हुए हैं. उसके नुमाइंदे गांव-गांव जाकर पलायन करने वालों और उनमें से लेह जाने वालों का नाम खोजने लगे. बड़ी तादात में पलायन होने की सच्चाई को नकारने वाली सरकार के पास इसका जवाब नहीं कि उसके पास पूरा आंकड़ा पहले से क्यों नहीं? दूसरी बार सरकार बनाने के बाद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा था कि पंचायत स्तर से ही मजदूरों के बाहर जाने का रिकार्ड रखेंगे, उनकी इस घोषणा पर अमल नहीं हुआ. ज्यादातर मजदूर जुलाई में पलायन करते हैं और अक्टूबर के आसपास लौट जाते हैं. कोई रिकार्ड अब तक बनना शुरू नहीं हुआ. सरकार की नीयत साफ होती तो इससे पता चलता कि वे किस दलाल के जरिये गए और यदि नहीं लौटे तो उन्हें क्या बंधक बना लिया? जिस जगह पर व जिन परिस्थितियों में वे काम कर रहे हैं वह उनके लिए सुरक्षित है भी या नहीं और सबसे बड़ी बात इन्हें पलायन से मुक्ति दिलाने के लिए स्थानीय स्तर पर उनके पास खेती से बच जाने वाले खाली दिनों में क्या उपाय किए गये कि उन्हें अपना गांव-घर छोड़ने से रोक लेते. पता लग जाता कि मनरेगा जैसे उपाय उन्हें रोकने में सफल क्यों नहीं हुए.
एक दशक पहले जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा होता था तब भी मजदूर कमाने खाने जाते थे. तब इसके पीछे इलाके का पिछड़ापन और गरीबी बड़ा कारण माना जाता रहा, लेकिन अब हमारी सरकार तो सीना फुला कर कहती है कि इन दस सालों में एक आदमी के पीछे आय 136 फीसदी तक बढ़ गई है. यह पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली जैसे राज्यों से भी ज्यादा है. सरकार दो रूपये और एक रूपये में राज्य की आधी आबादी, लगभग 37 लाख परिवारों को चावल बांटने का जश्न मना रही है. सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, 3 फीसदी ब्याज पर खेती व पशुपालन के लिए कर्ज़ जैसी अनेक योजनाएं चलाकर वह वाहवाही लूट रही है. अब तो सरकार को ही जवाब देना चाहिए कि उसकी नेक नीयत में सुराख कहां हैं.
कुछ कारण तो साफ दिख जाएंगे. राज्य बनने के बाद बजट के बढ़े आकार, (दस सालों में करीब 10 गुना इस साल का बजट 23 हजार करोड़ रूपया) का फायदा जिन्हें मिला, उनके होटल, मोटल, लाकर, शापिंग माल, काम्पलेक्स, टावर्स, एम्यूजमेन्ट पार्क और फार्म हाऊस भी देखे जा सकते हैं. इनकी बढ़ी आय को गरीबों की आय के साथ जोड़ देने के चलते सरकारी सर्वेक्षणों में राज्य के लोगों की आमदनी बढ़ी दिखाई दे रही है. जबकि हक़ीकत यह है कि इन धनिकों ने राज्य बनने के बाद हजारों एकड़ खेती की जमीन खरीद ली. फार्म हाऊस अब खेती के नहीं काली कमाई छिपाने और विलास के काम आते हैं. हाल में रायपुर के नवधनाड्यों के यहां पड़े छापों से साफ हो गया कि राज्य बनने के बाद कौन फला फूला. सेल्समेन बनकर कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में ठिकाना तलाशने वाले लोग अब अरबपति हैं व सत्ता की राजनीति कर रहे हैं. गरीबों का परिवार तो बढा़ लेकिन जमीन बढ़े हुए परिवार में बंट जाने तथा उद्योग व्यापार के लिए हड़प लेने के बाद सिमटती गई. मनरेगा के काम ठेकेदार और सरपंच मिल कर कर रहे हैं. मजदूर बस फर्जी मस्टर रोल में दिखते हैं. नौकरशाहों, ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों में ऐसी साठगांठ हो तो छत्तीसगढ़ को पलायन और गरीबी से छुटकारा आखिर कौन दिला पाएगा?
कुछ साल पहले पुंछ में छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन मजदूर आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गए थे. अब लेह में उन पर बादल फट पड़ा. वे ऐसे जोखिम भरे जगहों पर आगे भी मिलेंगे और हादसे का शिकार होते पाए जाएंगे. लेह के बाद तो थोथी बयानबाजी बंद हो जानी चाहिए. एक मंत्री जी जांजगीर गए, संवेदना के कुछ शब्द मजदूरों से कह भी गए, पर उससे क्या होना है. अब पलायन रोकने के लिए कोई ठोस और ईमानदार कोशिश होनी चाहिए.

शनिवार, 14 अगस्त 2010

चोला छत्तीसगढ़ के माटी के राम...

ससुराल गेंदा फूल के बाद अब चोला माटी के राम...छत्तीसगढ़ के लोक-गीत अब बालीवुड के रास्ते दुनिया भर में धूम मचा रहे हैं. दूरदर्शन में समृध्द लोक नाटकों, प्रहसनों का और आकाशवाणी में ऐसे मशहूर गीतों का खज़ाना भरा पड़ा है. वक्त आ गया है कि अब इन महान रचनाओं को लोगों को सामने लाने के लिए प्रसार-भारती अपना व्यावसायिक दायित्व निभाए, वरना भद्दे वीडियो एलबम और बेतुके छत्तीसगढ़ी फिल्म, यहां के महान कलाकारों का योगदान धूल-धुरसित करके रख देंगे.
चोला माटी के राम के जरिये, साल भर के भीतर ही बालीवुड के धुरंधरों ने दूसरी बार छत्तीसगढ़ के कला व संगीत प्रेमियों को उनके घर में उन्हीं का सामान बेचकर चौंका दिया है. दिल्ली-6 में जब प्रसून जोशी ने ससुराल गेंदा फूल का इस्तेमाल किया तो छत्तीसगढ़ी साहित्य और संस्कृति को लेकर चौकन्ना होने का दम भरने वाले बुध्दिजीवी वर्ग ने उनके इस प्रयास की सराहना कम और आलोचना ज्यादा की. ससुराल गोंदा फूल गाने की पृष्ठभूमि खोज निकाली गई और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि फिल्म के गीतकार व संगीतकार ने छत्तीसगढ़ के मूल गीतकार व गायकों का जिक्र नहीं करके उनके साथ धोखाधड़ी की, अन्याय किया. गीत के बोल व धुन के साथ छेड़छाड़ का आरोप भी लगा. हालांकि संगीत प्रेमियों का एक बड़ा वर्ग इस बात से कभी सहमत नहीं हुआ और उन्होंने दिल्ली-6 में पारम्परिक ददरिया लोकगीत पर किए गये प्रयोग के लिए प्रसून जोशी व एआर रहमान की भूरि-भूरि प्रशंसा की. पूरे देश के अलावा छत्तीसगढ़ के संगीत प्रेमी इस गीत पर अब भी झूम उठते हैं और उन्हें अपनी माटी की सुगंध देश-विदेश में फैलते देखकर खुशी होती है.
अब छत्तीसगढ़ के साथ-साथ पूरी दुनिया में पद्मभूषण हबीब तनवीर की बेटी नगीन तनवीर की आवाज में, इसी माटी के संगीत का एक बार फिर डंका बज रहा है. कल 13 अगस्त को रिलीज़ हुई आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म पीपली लाइव का लोक-गीत चोला माटी के राम हर किसी की ज़ुबान पर है. मांदर की थाप में, करमा के धुन पर तैयार इस तात्विक गीत को करीब 3 दशकों से छत्तीसगढ़ के लोग जानते हैं. हबीब के नाटक बहादुर कलारिन में भी इसे सुना जाता है. आमिर खान को इस साहस के लिए बधाई देनी होगी कि उन्होंने गीत को उसी मौलिक स्वरूप में मूल लोक वाद्य-यंत्रों के साथ परोसा. यूं तो सालों साल गाए जाने के बाद लोकगीत पारम्परिक मान लिए जाते हैं, लेकिन इस गीत के बोल लिखने वाले गंगाराम साकेत का नाम भी ईमानदारी से डाल दिया गया है. ससुराल गेंदा फूल गीत के गीतकार प्रसून जोशी और संगीतकार एआर रहमान ने मूल गीत व धुन में कुछ फेरबदल कर दिए थे. गीत को तब भी खूब सराहना मिली, इतनी कि इस नाम का एक टीवी सीरियल भी चल रहा है. ससुराल गेंदा फूल के आने पर छत्तीसगढ़ और यहां के कलाकारों की उपेक्षा की जो बात की गई, चोला माटी के राम.. गीत में वह भी नहीं है.
अब तो झेंपने की बारी थोक के भाव में छत्तीसगढ़ी फिल्म और गीत बनाने वालों की है, जो आज तक ऐसा कोई प्रयोग दिखाने का साहस नहीं कर पाए. सिर उन नौकरशाहों, नेताओं भी पीटना चाहिए जो करोड़ों का बजट लेकर राज्य की कला और संस्कृति का उत्थान करने में लगे हैं.
एक तरफ आमिर और प्रसून जैसी प्रख्यात हस्तियां बेधड़क छत्तीसगढ़ के सालों पुराने गीतों को हाथों-हाथ ले रही हैं और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की फिल्मों और वीडियो एलबम में बालीवुड के ठुमके, लटके-झटके, पहनावे आदि की भौंडी नकल हो रही है. रायपुर में जिस दिन पीपली लाइव रिलीज़ हुई उसी दिन गोविन्दा की एक फिल्म के नकल पर रखे गए नाम वाली एक छत्तीसगढ़ी फिल्म भी प्रदर्शित हुई. एक तरफ देशभर के चैनलों में दर्शक मंहगाई डायन और चोला माटी के राम सुन रहे थे, तो रीज़नल चैनल में चल रहे इस छत्तीसगढ़ी फिल्म के प्रोमो में नहाती, साड़ी गिराती एक नायिका बालीवुड बालाओं से होड़ करने के चक्कर में नाच रही थी.
एक समय था जब पद्मभूषण हबीब तनवीर का चरणदास चोर नाटक दूरदर्शन पर आता था, तो आधी रात तक जागकर लोग उसे देखते थे. तीजन बाई की पंडवानी को भी दम साधकर सुनने वाले दर्शक मिलते थे. गली-गली में आकाशवाणी के लोकप्रिय गीत लोगों के ज़ुबान पर होते थे. शुक्रवार की शाम बांस गीत का बेसब्री से इंतजार होता था.
लेकिन अब न दूरदर्शन के वैसे दर्शक रह गये न आकाशवाणी के श्रोता. बालीवुड के गीतों को आज मोबाइल पर लोड किया जा सकता है, इंटरनेट पर सुन सकते हैं, फिल्मों व सीडी के अलावा दिन भर टीवी पर आने वाले प्रोमो के जरिये हमारे कानों में ये गीत बार-बार झनक रहे हैं. लेकिन उन पुराने गीतों व लोकनाट्यों का क्या हो, जो आकाशवाणी व दूरदर्शन की लाइब्रेरी में तो हैं, पर कला प्रेमी उसे देख-सुन नहीं पा रहे हैं. कई दशक पहले जब आकाशवाणी मनोरंजन का प्राथमिक व एकमात्र साधन होता था, राज्य के दबे-छिपे कलाकारों को उसने उभरने का मौका दिया, अब कलाकार इसके मोहताज नहीं रह गए. वे अपना वीडियो एलबम खुद निकाल रहे हैं. उन्हें लगता है कि आकाशवाणी ने उसे ले भी लिया तो उसे पहचान भी क्या मिलेगी. अब तो डीवीडी में गाने सुने व देखे जाते हैं. बिना किसी प्रशिक्षण के, छत्तीसगढ़ के लोक-धुनों के साथ वे प्रयोग करते हैं और बाजार में आ जाते हैं. इन गीतों में छत्तीसगढ़ की मिठास मिलेगी न अभिनय व नृत्यों में लोक तत्वों की मौजूदगी, लेकिन छत्तीसगढ़ को आज उनके इन्हीं उत्पादों के जरिए पहचाना जा रहा है. दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि छत्तीसगढ़ को असल पहचान देने वाले सैकड़ो गाने आकाशवाणी की लाइब्रेरी में मौजूद हैं. पर संगीत में रूचि रखने वाले आज के युवाओं को इनके बारे में कुछ पता ही नहीं. टीवी पर क्या आप लक्ष्मण मस्तूरिया या केदार यादव के मधुर गीत सुन या देख पाते हैं? मोर संग चलव रे.. का रिंगटोन कोई उपलब्ध करा देगा आपको. टूरा नई जानय रे का रिंग टोन तो मिल सकता है पर तपत गुरू भई तपत गुरू सुनने के लिए आप कहां जाएंगे? छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस उम्मीद को गहरा धक्का लगा है कि राज्य के लोक संस्कृति को नई ऊंचाई मिलेगी. तोर मन कइसे लागे राजा..जैसे एक दो गीतों व फिल्मांकनों को छोड़ दिया जाए तो छत्तीसगढ़ के हर पंडाल पर, हर उत्सव और त्यौहार में राज्य की लोक कला को लहूलुहान होते देखा जा सकता है. यदि आज वीडियो एलबमों व छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अश्लीलता, मार-धाड़, संवाद में बालीवुड से रेस लगाने की कोशिश दिखाई दे रही है तो इसकी बड़ी वजह आकाशवाणी की वह दकियानूसी नीति भी है, जिसके चलते वह अपने खजाने को आज के लोकप्रिय इलेक्ट्रानिक माध्यमों के जरिये लोगों तक पहुंचाने में परहेज कर रही है. इन गीतों के रि-रिकार्डिंग की जरूरत भी महसूस नहीं की गई, जबकि तब और आज की तकनीक और वाद्य-यंत्रों में काफी परिष्कार हो चुका है. आज तो छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के प्रेमी सालों से उन मधुर गीतों को सुनने के लिए तरस गए हैं, जो उन्हें आकाशवाणी से तब सुनाई देते थे जब वह मंनोरंजन का इकलौता साधन हुआ करता था. दिल्ली-6 और पीपली लाइव में छत्तीसगढ़ी की जय-जयकार के बाद अब तो आकाशवाणी को अपनी गठरी खोल ही देनी चाहिए. इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कि व्यापक श्रोता समुदाय तक अपनी दुर्लभ कृतियों को पहुंचाना अकेले उसके सामर्थ्य की बात नहीं है. इस तरह के फैसले में कोई दिक्कत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि प्रसार भारती बन जाने के बाद तो उस पर अपने स्तर से संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी है. आकाशवाणी व दूरदर्शन दोनों में ही विज्ञापन लिए जा रहे हैं, स्टूडियो किराये पर दिए जा रहे हैं और अनेक स्तरहीन कार्यक्रम भी प्रायोजित इसलिए किये जा रहे हैं क्योंकि उससे इन्हें पैसे मिलते हैं. छत्तीसगढ़ी गीतों को भी वे पैसे लेकर संगीत प्रेमियों को उपलब्ध कराएं तो क्या बुरा है. आकाशवाणी के सालाना जलसे में सीडी के स्टाल भी लगे देखे जा सकते हैं. इनमें वे भारतीय व अन्य क्षेत्रीय संगीत की सीडी बेचते हैं, लेकिन अफसोस कि इनमें छत्तीसगढ़ी गीत आपको नहीं मिलेंगे. प्रसार-भारती को न केवल छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए बल्कि अपने मुनाफे के लिए भी, इस विषय में जल्द फैसला लेना चाहिए..क्योंकि अभी छत्तीसगढ़ी संगीत का जादू न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि देश भर के संगीत प्रेमियों में सर चढ़ कर बोल रहा है. ससुराल गेंदा फूल और चोला माटी के राम के बीच करीब डेढ़ साल का अंतराल रहा है. उम्मीद करनी चाहिए कि ये अंतर अब कम हो जाएगा. ठीक समय पर आकाशवाणी भी अपने दायित्व के लिए सजग हो जाए तो फिर बात ही क्या है? ये प्रयास एक दिन छत्तीसगढ़ की गुम होती नैसर्गिक लोक विधाओं को बचा लेंगे वरना छत्तीसगढ़ के लोक-संगीत का कबाड़ा करने के फिल्मकारों व वीडियो एलबम के निर्माताओं के साथ उसे भी जिम्मेदार माना जाएगा.
पढ़े-पिपली में छत्तीसगढ़
सुनें-यू-ट्यूब पर चोला माटी के राम

बुधवार, 27 जनवरी 2010

प्रेस क्लब का बैन का फैसला सही

छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति को अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीक
ऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं.
बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी. इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजे की खेती करा रहे हैं.
पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया.
बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति-पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इससे निपटने का ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं सौंपा जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं?
बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है. दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी.
मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये, उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.
क्या हम पुलिस और सरकार को अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान, योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं?
दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों को खदेड़ने की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है.
छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें.
रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?