बुधवार, 27 जनवरी 2010

प्रेस क्लब का बैन का फैसला सही

छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल कहने वाले मानवाधिकारवादियों को नक्सलियों का हमदर्द मानते हुए रायपुर प्रेस-क्लब ने ऐसे किसी संस्था और व्यक्ति को अपने यहां नहीं बुलाने का निर्णय लिया है. बैन के इस फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती. महानगरों के पत्रकार लगातार छत्तीसगढ़ की मीडिया पर दलाली के आरोप लगाते रहे हैं. वे यह भी कहते हैं कि ये कुछ नहीं लिखने-यानि सच छिपाने के पैसे लेते हैं. बुध्दिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक वर्ग पर नक्सलियों का समर्थक होने का आरोप इसलिए लग रहा है कि ठीक
ऐसे समय पर जब बस्तर से हिंसा खत्म करने की अब तक की सबसे बड़ी मुहिम चल रही है, वे पुलिस और सरकार पर, आदिवासियों के दमन और अत्याचार को लेकर अभियान की दिशा को रैलियों, सत्याग्रह के बहाने से मोड़ने की कोशिश में हैं.
बीते 22 जनवरी को दो नौजवानों का गला रेतकर नक्सलियों ने सड़क पर फेंक दिया, ये एसपीओ में बनना चाहते थे-क्या इसकी इतनी क्रूर सज़ा मुकर्रर की जाएगी. इनमें एक तो 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र था. तालिबानियों व इनमें क्या फ़र्क है? मुझे समझाएं कि क्या नक्सली उनसे कम दहशत फैला रहे हैं? तालिबानी ड्रग्स बेचकर पैसे बनाते हैं. ये बस्तर में गांजे की खेती करा रहे हैं.
पुलिस व सुरक्षा बल के अभियान में कई ख़ामियां हो सकती हैं, पर इसके मूल में नक्सली हिंसा ही हैं. यदि सचमुच मानवाधिकारवादी- गांधीवादी आदिवासियों का हित चाहते हैं तो पहले नक्सलियों को समझाएं, उन्हें बातचीत के लिए बिठाएं. यह कई बार देखा गया है कि वे बस्तर के जंगलों में वहां तक पहुंच सकते हैं, जहां प्रशासन अब तक नहीं पहुंच पाया.
बस्तर के टूर पर आने वाले मानवाधिकारवादियों को अपनी क्षमता, सम्पर्कों का इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ की भलाई और यहां की शांति के लिए सरकार से सहयोग करना चाहिए. जल, जंगल, जमीन से जुड़ी उनकी आशंकाओं और इन्हें नष्ट करने के विरोध में सभी प्रकृति-पर्यावरण प्रेमी, छत्तीसगढ़ की बोली, संस्कृति, सभ्यता, आदिवासियों की अपनी जीवन शैली का संरक्षण करने की मंशा रखने वाले- एक साथ हैं. बस्तर की जमीन से आदिवासियों को बेदखल कर इसे मल्टीनेशनल्स को सौंपने जैसी आशंकाओं से भी सब चिंतित हैं. लेकिन इससे निपटने का ठेका बंदूक से प्रत्येक विरोध को ठिकाने लगाने वाले नक्सलियों को नहीं सौंपा जा सकता, क्या लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा रखने वाले मर गए हैं?
बस्तर में भरपूर हरियाली होते हुए भी, छत्तीसगढ़ियों के लिए पीड़ा व अभावों का बंजर है. दूसरी तरफ यह दुनिया भर के लिए एक मनोरंजन और कौतूहल का इलाका है. क्या मानवाधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता इसलिए इसी के पीछे पड़े हैं? छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी बाहुल्य सरगुजा, जशपुर, रायगढ़ जाएं. वहां ग्रामीणों को बेदखल करने की समस्या कुछ कम नहीं है. बस्तर को नक्सलियों से खाली कराने के बाद तो अज्ञात भविष्य में कार्पोरेट को सौंपा जाएगा, जैसी उनकी आशंका है, पर इन तीनों इलाकों में अभी-इसी वक्त यही सब हो रहा है. मानवाधिकारवादियों के मापदंड में सटीक बैठने वाला दमन, इतना ही अत्याचार वहां आदिवासियों के साथ हो रहा है. ये सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यस्तता की धुरी उधर क्यों नहीं मोड़ लेते. क्या इनको आशंका है कि वहां काम करने पर इन्हें राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल पाएगी.
मेधा पाटकर व संदीप पांडेय जी को दंतेवाड़ा में अंडे, पत्थरों से स्वागत के बाद थोड़ी हक़ीकत समझ में आई. रायपुर में पत्रकारों के बीच उन्हें कबूल करना पड़ा कि वे नक्सल समर्थक नहीं है, उनकी हिंसा के ख़िलाफ हैं. लेकिन बदनियती देखिये, उन्होंने साथ में यह भी जोड़ दिया कि सरकार प्रायोजित हिंसा ज्यादा खतरनाक है. मौजूदा सरकार के किसी प्रवक्ता से मत पूछिये, भरोसा न हो तो मीडिया से भी नहीं पूछें, छत्तीसगढ़ की चिंता करने वाले दूसरे लोगों से, तटस्थ लोगों से भी पूछ लें-क्या सरकार वहां हिंसा को प्रायोजित कर रही है? नक्सली- खंदक, एम्बुस, बारूदी सुरंग लगाकर बैठे हैं. कई बार फोर्स को पता होता है, कई बार नहीं होता. वहां जवान मारे जाते हैं. एसपी विनोद चौबे और उनके 30 साथियों की मौत पर किसी मानवाधिकारवादी ने अफसोस जताया? इसी तरह के रवैये ने उनकी नीयत पर सवाल खड़े होते रहे हैं. दर्जनों बार साप्ताहिक बाज़ारों में तैनात पुलिस अफसरों व सिपाहियों को नक्सलियों ने अचानक पहुंच कर गोलियों से भून डाला, उनके गर्दन काट दिए. क्या किसी मानवाधिकार समर्थक ने सोचा कि उनका भी परिवार, बीवी बच्चे हैं. क्या इन मरने वालों की सिर्फ यही गलती है कि वे इसी व्यवस्था, जिसकी अकर्मण्यता और नाकामी से, ज़ाहिर है, सब त्रस्त भी हैं- के हिस्से हैं. सरकारी हिंसा यदि है भी, यह तो नक्सलियों की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है. जिनमें ग़लतियां तो स्वाभाविक हैं.
क्या हम पुलिस और सरकार को अदालतों में, राष्ट्रीय अन्तर्राष्टीय मंचों पर इसलिए घसीटते हैं कि वे इस व्यवस्था के अंग हैं और सबको उत्तर देने के लिए प्रतिबध्द हैं? एक ऐसे भयावह दृश्य की कल्पना की जाए, जिसमें पुलिस और यही मशीनरी नक्सलियों को किसी भी कीमत पर ख़त्म करने की ठान ले. इस बात की तहकीकात करने में वक्त ख़राब न करे कि सामने खड़ा व्यक्ति निर्दोष आदिवासी है या दुर्दांत नक्सली. फोर्स पर किसी भी को अपने अभियान, योजना, कार्रवाईयों के लिए जवाब देने की जिम्मेदारी भी न रहे, बताएं तब क्या होगा? हर दिन, हर वक्त फोर्स को आप कटघरे में लाकर खड़ा करते हैं, जिसके चलते जान जोखिम में डालकर, फूंक-फूंक कर उन्हें कदम उठाना पड़ता है, सफाई देनी पड़ती है. नक्सली तो छिपकर हमला करने वाले लोग हैं जिनके पास पावर विदाऊट रिसपांसबिलिटी है. वे जो करें- किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं. मानवाधिकारवादी बताएं कि क्या उन्हें खत्म कर डालने की जरूरत नहीं?
दिल्ली से लेकर चेन्नई में गृह मंत्री के गांव तक पुलिस अत्याचार के ख़िलाफ तमाम प्रदर्शन व साइकल रैलियां निकालने वाले इन मानवाधिकार समर्थकों की ताक़त बहुत ज्यादा है. इसीलिए इनसे उम्मीद भी अधिक है. वे जरा समझ लें कि सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं होने के बावजूद, बस्तर में भयंकर भ्रष्टाचार और लूट के बाद भी- सबसे पहली जरूरत नक्सलियों को खदेड़ने की है. दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद में बैठे लोग इसे समझ सकें, यह छत्तीसगढ़ की चिंता करने वालों की अपेक्षा है.
छत्तीसगढ़ की मीडिया पर आरोप मढ़ना तो आसान है, लेकिन यही मीडिया कोल ब्लाक के आबंटन में धांधली, जन सुनवाईयों में की जाने वाली जबरदस्ती, सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक की प्रदूषण के ख़िलाफ आवाज़, धान-चावल घोटाले, स्वास्थ्य, राशन कार्ड, बिजली घोटाले को लगातार उठा रहा है. छत्तीसगढ़ का मीडिया दलाल या सरकार का अंधानुकरण करने वाला नहीं है. बस्तर के सिंगारम में हुई हत्याओं के ख़िलाफ यहीं के अख़बारों ने पहले पन्ने पर बड़ी-बड़ी ख़बरें छापी, जिसे लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ता भी अदालत गए. मानवाधिकार की बात करने वाले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं. जब बस्तर से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, तभी हम शिक्षकों को स्कूल जाने के लिए बाध्य कर सकेंगे. अपनी जड़ से कटकर कर सलवा जुड़ूम कैम्पों में शरण लेने वाले आदिवासियों को उनके गांव भेज सकेंगे. स्वास्थ्य, पानी, सड़क की सुविधाएं पहुंचाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकेंगे, क्योंकि तब हमें वहां मौजूद रहने और अधिक पारदर्शी आंदोलन करने का मौका मिलेगा. रही बस्तर के आदिवासियों को बेदखल करने और वहां की बहुमूल्य सम्पदा को लुटाने की साजिश से आप चिंतित हैं, तो आइये आप आज ही छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों में जहां आदिवासी समान प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं और नक्सलियों की वहां पकड़ भी नहीं है-पहुंचकर सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ख़िलाफ मोर्चा खोल लें.
रायपुर प्रेस क्लब के फैसले की आलोचना करने वाले मानवाधिकारवादी बंधुओं से एक और सवाल. आप तो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में छाए हुए हैं, वे बहुत गंभीरता से आपकी बात सुनते हैं. दिल्ली की सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय मंच भी उन्हें पूरा-पूरा सच मानकर पढ़ता है. फिर रायपुर प्रेस क्लब के विरोध को लेकर आप चिंतित क्यों रहें? रायपुर प्रेस क्लब कोई सरकारी संस्था नहीं है. कोई खास समूह तय नहीं कर सकता कि उनकी किसके प्रति जवाबदेही है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे सच के साथ और अत्याचार के ख़िलाफ नहीं है. यह तो रिपोर्टरों का एक संगठन है. आपके पास भी एक संगठित राष्ट्रीय स्तर के मीडिया रिपोर्टर्स है. आपको लगता है कि अदालतें और सरकार इनकी आवाज़ ज्यादा ठीक तरह से सुनती समझती है.एक सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार सिर से ऊपर चला गया है, न्याय में देरी हो रही है, सरकारी अमला मुफ़्तखोर हो गया है तो हमें मौजूदा व्यवस्था सुधारने की कोशिश करने की बजाय क्या नक्सलियों की सत्ता को स्वीकार कर लेना चाहिए?

रविवार, 24 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी मौसेरी बहनें

बीते 23-24 जनवरी को बिलासपुर में भोजपुरी साहित्यकारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल भोजपुरी बल्कि छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई. दोनों ही भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए ठोस तर्क दिए गये. इस सम्मेलन में कई ख़ास मुद्दे उठाए गये. प्रस्तुत रिपोर्ट छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी ही नहीं बल्कि सभी स्थानीय बोलियों के जीवंत बने रहने की अपरिहार्यता क्यों है, इस पर भी प्रकाश डालती है. बोलियों का विकसित होना, फलना फूलना न सिर्फ भिन्न-भिन्न संस्कृतियों व रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए जरूरी है, बल्कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास भी इसमें अन्तर्निहित है.
भोजपुरी- छत्तीसगढ़ी के साहित्यसेवियों का मानना है कि दोनों बोलियों में अद् भुत समानताएं हैं. छत्तीसगढ़ी बोलने वाला भोजपुरी भी समझता है और भोजपुरी बोलने वाले को छत्तीसगढ़ी समझने में कोई कसरत नहीं करनी पड़ती. विन्ध्यांचल के दोनों छोर पर बसे इन लोगों का जीवन संघर्ष, रीति-रिवाज, परम्पराएं, संस्कृति और आचार-विचार इतने मिलते हैं कि इनकी ये दोनों बोलियां आपस में बहनें मानी जाती हैं. वक्ताओं का मानना था कि राजनैतिक उदासीनता व नौकरशाही के चलते भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पाई है, जबकि इससे भी कम व्यापक बोलियां 8वीं अनुसूची में जगह बना चुकी हैं. इन दोनों भाषाओं के लगातार विकास की वजह राजाश्रय नहीं बल्कि लोकाश्रय है.
शहीद विनोद चौबे नगर, ई राघवेन्द्र राव सभा भवन में दूसरे दिन के पहले सत्र में भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी के बीच के अन्तर्सम्बन्धों पर अनेक भाषा विशेषज्ञों व साहित्यकारों ने अपने सारगर्भित विचार रखे. विनोद चौबे बिलासपुर में पैदा हुए पुलिस अधिकारी थे, जो राजनांदगांव के एसपी रहते हुए बीते साल जुलाई में नक्सली हमले में शहीद हो गए. उनके पिता बिलासपुर प्रेस क्लब के प्रथम अध्यक्ष डीपी चौबे बिलासपुर भोजपुरी समाज के संस्थापक थे.
विषय प्रवर्तन करते हुए जयकांत सिहं 'जय' ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में सिर्फ क्रिया और भेद का अंतर है, जबकि संज्ञा और सर्वनाम एक ही तरह है. छत्तीसगढ़ी में मैं शब्द का इस्तेमाल होता है, भोजपुरी में इसकी जगह हम कहा जाता है. प्रत्यय और जोड़ भी समानता लेकर चलते हैं. भोजपुरी में यदि कहा जाता है- लड़िक मन के, तो छत्तीसगढ़ी में यही बात कही जाती है- लइकन के. हमार, तोर, तुहार, कहत हौं, रहत हौं जैसे शब्द हू-ब-हू भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में इस्तेमाल किए जाते हैं. भोजपुरी में कहते हैं आसरा देहल, छत्तीसगढ़ी में कहते हैं आसरा देन. अनेक उदाहरणों के माध्यम से जय ने बताया कि कर्म, क्रिया, कारक इत्यादि छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी में एक ही तरह से हैं. उन्होंने कई लोकोक्तियों, कहावतों इत्यादि से भी स्पष्ट किया कि इनका भी समान रूप से इस्तेमाल किया जाना स्थापित करता है कि दोनों इलाकों की भौगोलिक सामाजिक परिस्थितियां, विशेषताएं, विषमताएं और समस्याएं एक ही तरह की हैं. छत्तीसगढ़ी में यदि उड़ीसा व पश्चिम बंगाल का असर दिखाई देता है तो भोजपुरी में नेपाल, अवध इलाके का पर्याप्त मिश्रण मिलता है. दोनों ही भाषाएं संवाद, समझ, सहयोग करते हुए अपनी बोली और संस्कृति की रक्षा करने में सक्षम रहे हैं. संचार व्यवसाय व समझ के माध्यम से दोनों बोलियां एक दूसरे के और नजदीक आ रही हैं.
इस मौके पर कार्यक्रम के अध्यक्ष मंडल के सदस्य भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि क्रिया व पद को छोड़ दें तो दोनों बोलियों में कोई भिन्नता नहीं. शब्द व उनके तात्पर्य जीवटता, जीवंतता, जीवन स्तर, परिस्थितियों में समानता की ओर इंगित करते हैं. भले ही दोनों ही भाषाओं को सियासी वजहों से मान्यता मिलने में दिक्कत जा रही है लेकिन एक न एक दिन इनकी ताक़त पहचानी जाएगी और इसके प्रभावों को सरकार स्वीकार करेगी. भोजपुरी का अब विश्व स्तर पर सम्मान हो रहा है. नेपाल व मारीशस में इसे मान्यता मिल चुकी है. भोजपुरी विश्व सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है. लेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते 20 करोड़ लोगों की इस भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए लोगों को जनान्दोलन के लिए मजबूर किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दुर्भाग्य से अभी तक शिक्षा का माध्यम नहीं बन पाई हैं. द्विवेदी ने आव्हान किया कि अगले साल शुरू हो रही जनगणना में लोग छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी को अपनी मातृभाषा दर्ज कराएं. इससे दोनों भाषाओं को संविधान में दर्जा दिलाने में मदद मिलेगी. कुछ लोगों का यह भय व्यर्थ है कि स्थानीय बोलियों को संविधान में जगह देने से, इसे शिक्षा व कामकाज में इस्तेमाल किए जाने से हिन्दी का नुकसान होगा. हिन्दी का निर्माण लोकभाषाओं से ही हुआ है जिनमें भोजपुरी, अवधी व मध्यक्षेत्र की तमाम भाषाएं शामिल हैं.
सम्मेलन के महामंत्री जौहर साफियावादी ने कहा कि पानी, बानी और जिन्दगानी से ही कोई संस्कृति पनपती है. इसके संवर्धन के लिए हमें हर स्तर पर प्रयास करना चाहिए.
डा. गुरूचरण सिंह ने कहा कि अवधी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषी अपनी बोलियों का आदान-प्रदान करते रहे हैं. उन्होंने कुछ उदाहरणों के जरिये बताया कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जिन दोहों में मैं शब्द लिए हैं वे छत्तीसगढ़ी से ही हैं, क्योंकि अवधी व भोजपुरी में मैं की जगह हम इस्तेमाल होता है. छत्तीसगढ़ी व भोजपुरी दोनों में कट्टरता, चेतना, आत्मविश्वास एक ही तरह है, जो बोलते समय दिखाई देता है. विन्ध्य पर्वत के इस पार छत्तीसगढ़ है तो उस पार भोजपुरी. भोजपुर में बिरसा मुण्डा हैं, तो छत्तीसगढ़ में गुण्डा धूर. दोनों ही इलाकों ने अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया है, यह दोनों साहित्यों के वीर गीतों में दिखाई देता है. श्रृंगार गीतों में यह समानता दिखाई देती है. आम जनता को चाहिए कि वे सरकार को बाध्य करे इन दोनों समृध्द भाषाओं मान्यता दे. भोजपुरी समाज के एक सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार खुलकर स्वीकार कर चुकी हैं, इसे 8वीं अनुसूची में जगह दी जानी चाहिए. क्षेत्र के सांसदों ने भी लोकसभा में यह मांग उठाई है, इसके बाद भी सरकार का रूख सकारात्मक नहीं है. हम भीख नहीं मांग रहे हैं बल्कि हमें अपनी संस्कृति की सुरक्षा का साधन चाहिए. सैकड़ों वर्षों के संघर्ष से शब्दों का निर्माण होता है. 1908 में जब दक्षिण अफ्रीका ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी तो उन्होंने हिन्दुस्तानी हिन्दी की बात की थी, जो सारी भारतीय बोलियों को लेकर बनी हैं. केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, नामवर सिंह इत्यादि को हटा दिया जाए तो हिन्दी साहित्य में क्या बचेगा? इन सबकी रचनाओँ में उनकी स्थानीय बोलियों और संस्कृति का प्रभाव दिखता है, जो एक समृध्द हिन्दी तैयार करती है. राष्ट्रभाषा से यदि सभ्यता मिलती है तो मातृभाषा से संस्कृति का पता चलता है. इसलिए इसे बचाया जाना जरूरी है.
वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय पाठक ने कहा कि भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं राजाश्रय से नहीं लोकाश्रय से जीवंत बनी हैं. इन दोनों के साथ इतनी मजबूत संस्कृति है कि इनके अस्तित्व पर कोई ख़तरा नहीं है. छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के रेलवे को रेलगाड़ी, रेफ्रिजरेटर को फ्रिज, बाइसिकल को साइकिल कहकर अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल में लाया जाता है. उन्होंने फटफटी व कनसुनिया (स्टेथोस्कोप) जैसे शब्दों का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारी भाषा, जिसे अंग्रेज गंवारू भाषा कहते हैं उन्हें अंग्रेजी या दूसरी विदेशी भाषाओं से घबराना नहीं चाहिए. हमारी लोक बोलियां इतनी समृध्द हैं कि अंग्रेजी के जिन शब्दों का हिन्दी में अर्थ नहीं मिलेगा, इन बोलियों में मिल जाएगा. उन्होंने उदाहणों के जरिए बताया कि मेढ़क की विभिन्न प्रजातियों के जर्मन व लेटिन नाम हिन्दी में जितने स्पष्ट नहीं है, उसके कहीं ज्यादा साफ-साफ छत्तीसगढ़ी में मिल जाते हैं. लोरिक चंदा व अनेक लोकगाथाएं थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, बुंदेलखंड इत्यादि में मिल जाएंगे.
आज सम्मेलन के समापन दिवस पर बोलियों की संघर्ष यात्रा व भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी में अध्ययन की समस्या आदि पर विचार के लिए अलग से सत्र रखे गए. इसमें चितरंजन कर, प्रो. नंदकिशोर तिवारी, डा. अशोक द्विवेदी, डा. जीतेन्द्र वर्मा, डा. गदाधर सिंह, रघुबर दयाल सिंह, डा. रविन्द्र शाहावादी, विनोद सिंह सेंगर, कृष्णानंद कृष्ण आदि ने विचार व्यक्त किया. सायंकाल हिन्दी, भोजपुरी व छत्तीसगढ़ी कवियों ने रसविभोर किया, जिसका उद् घाटन डा. अजय पाठक ने किया. अध्यक्ष मंडल में सूर्यदेव पाठक पराग, सनत कुमार तिवारी, बुधराम यादव थे. संचालन डा. गुरूचरण सिंह ने किया, जबकि बी.बी. सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन दिया.
सम्मेलन के पहले दिन राष्ट्रीय साप्ताहिक द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण के नये अंक का भी लोकार्पण किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के विशेष संवाददाता अनिल द्विवेदी भी पहुंचे. उन्होंने पूरे दो दिन सम्मेलन में शिरकत की, उम्मीद है अगले अंक में ही इसकी रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी, जिससे भोजपुरी के अलावा छत्तीसगढ़ी बोली की जरूरतों को भी देश-दुनिया तक पहुंचाया जा सकेगा.

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

खेत-बाड़ी रौंदने के लिए सिर फुटौव्वल

सरगुजा जिले के मुड़गांव में तीर-धनुष से लैस आदिवासियों ने चमचमाती जीपों में सवार होकर पहुंचे दो दर्जन लठैतों को घेर लिया
और उन्हें करीब 18 घंटे तक बंधक बना कर रखा. बाद में पुलिस के गांव वालों को समझाया और उनके चंगुल से उन्हें छुड़ाया. पर इसके बाद ग्रामीणों पर बलवा और मारपीट का मुकदमा दर्ज कर लिया गया. मुड़गांव के ग्रामीणों का आरोप है कि यहां के सरपंच के भाई नारायण सिंह की इफको वालों से मिलीभगत है. उसने एक फर्जी ग्राम-सभा करा ली और बिना गांव वालों की मंजूरी के ही तय किया कि इफको को जमीन देनी हैं. गांव के लोग अपनी खेत-बाड़ी छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि वह उनकी उपजाऊ जमीन है और पुरखों से वहां खेती करते हुए आ रहे हैं. दरअसल, इफको को सरगुजा इलाके में एक कोल ब्लाक आबंटित हुआ है और यहीं पर उसे पावर प्लांट भी लगाना है. हालांकि इफको के प्रोजेक्ट मैनेजर यूपी सिंह का कहना है कि अधिकांश ग्रामीणों ने जमीन छोड़ने की सहमति दी है और ज्यादातर ने मुआवजा भी ले लिया है. लेकिन सच्चाई यही है कि जिन ग्रामीणों के नाम चेक काट दिये गए हैं वे इससे वाकिफ ही नहीं.
घने जंगलों, प्राकृतिक और वन्य सम्पदा से भरपूर सरगुजा और कोरबा के बीच 5 कोल ब्लाक आबंटित किए गये हैं. प्रेमनगर में इफको तो सरगुजा व कोरबा के बीच राज्य सरकार का पावर प्लांट लगाया जाना है. उदयपुर में अदानी ग्रुप गुजरात का प्लांट लगने जा रहा है. इन प्लांटों से करीब 100 गांव बेदखल होने जा रहे हैं. अकेले इफको को 750 हेक्टेयर जमीन चाहिए. राज्य सरकार व दूसरी बिजली कम्पनियों को भी 3300 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है. एक एनजीओ ने सर्वेक्षण के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इन परियोजनाओं से कटने वाले पेड़ो की संख्या 1.5 करोड़ से ज्यादा होगी. इतने पेड़ों के कटने के बाद यहां कोयला खदानों व बिजली परियोजनाओं से जबरदस्त प्रदूषण भी फैलेगा. उदयपुर, प्रेमनगर के ग्रामीणों को अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई दे रहा है, गोन्डवाना गणतंत्र पार्टी ग्रामीणों के साथ खड़ी है. इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम कहते हैं कि इफको को यदि जमीन चाहिए तो पहले वास्तविक ग्राम-सभा बुलाकर ग्रामीणों की सहमति ले. वे क्या मुआवजा देंगे और पुनर्वास तथा राहत के लिए क्या करने वाले हैं. दरअसल, यही वह बिन्दु है जहां से उद्योगपतियों व ग्रामीणों के बीच सहमति नहीं बन पाती.
बीते 4-5 सालों से जमीन हथियाने के लिए फर्जी ग्राम सभाएं करना, ग्राम के प्रमुखों का अपहरण कर उनसे बलात् सहमति लेना, पुलिस में झूठे मुकदमे दर्ज कर जेल भिजवा देना, लाठी चार्ज करा देना-यही सब चल रहा है. बस्तर में टाटा व एस्सार की बड़ी स्टील परियोजनाएं इतने सालों में आकार नहीं ले पाई है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह कहते हैं कि लोहड़ीगुड़ा व आसपास के प्रभावित गांवों के 80 फीसदी किसान अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन 20 फीसदी लोगों को तथाकथित स्वयंसेवी संगठनों ने बरगला दिया है और परियोजना शुरू ही नहीं हो पा रही है. टाटा की परियोजना में 19 हजार करोड़ रूपये खर्च होने जा रहे हैं. एस्सार करीब 70 अरब रूपये खर्च करने जा रही है.
कोन्टा के पूर्व विधायक व आदिवासी महासभा के मनीष कुंजाम कहते हैं कि बस्तर में जनजातियों को नक्सलियों का समर्थन है, जिसके चलते वे लौह अयस्क के खदानों में काम बंद करा सकते हैं. टाटा-एस्सार जैसी कम्पनियों के लिए रास्ता खोलने के लिए आदिवासी अपने जंगल और जमीन से बेदखल किये जा रहे हैं. इसे रोकने में नक्सली मददगार साबित हो रहे हैं. इसलिए आसानी से आदिवासियों की सहानुभूति नक्सलियों के साथ हो गई है. टाटा को यहां करीब 5000 एकड़ जमीन चाहिए, जिसमें 1700 परिवारों को विस्थापित होना पड़ेगा. एस्सार को 1500 एकड़ भूमि की ज़रूरत है और इससे 500 परिवार बेदखल होंगे. दोनों ही परियोजनाओं में विरोध इतना जबरदस्त है और नक्सली उपद्रव की आशंका है कि 5 साल से दोनों ही कम्पनियां काम शुरू नहीं कर पा रही हैं.
नक्सल प्रभावित इलाकों में यदि यह मान भी लिया जाए कि नक्सलियों के प्रभाव के चलते अधिग्रहण खटाई में पड़ा है तो फिर प्रदेश के दूसरे इलाकों में हो रहे विरोध को क्या माना जाए.
राज्य के उद्योग विभाग के अधिकारियों का ही मानना है कि प्रदेश की लम्बित परियोजनाओं के लिए सरकार को करीब 30000 एकड़ जमीन की जरूरत है, लेकिन इनमें से केवल 5 फीसदी का ही अधिग्रहण किया जा सका है. अधिग्रहण की यह बाधा बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर, कोरबा जैसे इलाकों में हैं, जहां पर नक्सलियों का प्रभाव नहीं है बल्कि सरकारी नीति और उद्योगपतियों के रवैये के लिए ख़िलाफ ग्रामीण खुद सामने आकर संघर्ष कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ में किसानों की जमीन को मिट्टी के मोल ही खरीदने का प्रावधान है और जो वादे पुनर्वास व राहत के लिए किये जाते हैं वे दशकों बीत जाने के बाद भी पूरे नहीं किए जाते.
भू-अर्जन अधिनियम के अनुसार बंजर जमीन के लिए केवल 50 हजार रूपये, एक फसली जमीन के लिए 75 हजार रूपये व दो फसल वाली भूमि के लिए 1 लाख रूपये का मुआवजा देना तय किया गया है. लेकिन बाजार दर वास्तव में इससे कई गुना ज्यादा है. फिर बेघर और भूमिहीन होने के बाद केवल खेती जानने वाले किसान कहां भटकेंगे, यह सवाल भी उनको खाया जाता है.
लोहड़ीगुड़ा में 3 साल पहले ग्राम सभा आयोजित कर ग्रामीणों की सहमति लेने की कोशिश की गई थी. ग्रामीण ठीक मुआवजे के अलावा टाटा व एस्सार की परियोजनाओं में अपना शेयर भी चाहते थे. जब ग्रामीणों को राजी करने में जिला प्रशासन नाकाम रहा तो पुलिस बल की मौजूदगी में 150 से ज्यादा लोगों के ख़िलाफ मुकदमा दर्ज कर और प्रभावित गांवों में धारा 144 लागू कर ग्राम सभा कराई गई और इस तरह से अधिग्रहण किया गया आसपास के 10 गावों में जमीन का. इसे साबित की गई ग्रामीणों की सहमति. श्री कुंजाम का तो कहना है कि 7 करोड़ रूपयों से ज्यादा का मुआवजा फर्जी लोगों को बांट दिया गया है, जिसकी सीबीआई जांच कराई जानी चाहिए. ग्रामीणों ने इसे धोखाधड़ी मानते हुए पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी है. जगदलपुर कलेक्टर एमएस परस्ते इसके उलट कहते हैं कि मुआवजा बांटने के लिए पंचायत स्तर पर ही समिति बनाई गई है और गांव के प्रतिनिधियों ने ही हितग्राहियों की पहचान की है.
रायपुर से 20 किलोमीटर दूर बन रही नई राजधानी में जमीन गंवाने वाले किसान आज अपने आपको ठगा महसूस कर रहे हैं. उन्हें 5 लाख रूपये की दर पर मुआवजा दिया गया है. लेकिन अब इन रूपयों को लिए वे दूसरी जमीन तलाश कर रहे हैं तो उनके चेहरे से हवाईयां उड़ रही है. राजधानी की वृहद परियोजना के कारण 50 किलोमीटर के दायरे तक उन्हें खेती के लायक जमीन ही नहीं मिल रही है. अब एकड़ या डिसमिल में नहीं बल्कि वर्गफीट के दर से जमीन का सौदा हो रहा है. अब किसान आंदोलन कर रहे हैं कि उन्हें 50 लाख रूपये से लेकर एक करोड़ रूपये तक का मुआवजा मिले, लेकिन सरकार कहती है कि मुआवजा दिया जा चुका है अब कोई बात नहीं होगी. रायगढ़ शहर से बमुश्किल 7 किलोमीटर दूर वीसा स्टील को स्टील व पावर प्लांट लगाने के लिए 146 एकड़ जमीन ग्रामीणों की सहमति के बगैर ही हस्तांतरित कर दी गई और शहर की सीमा से जुड़ते जा रहे इस गांव के लोगों को मुआवजा केवल 80 हजार रूपये दिया गया. किसान बदकिस्मत रहे कि इस मामले को लेकर वे अदालतों तक भी चले गए लेकिन मुकदमा हार गए. सरकार ने उन्हें इस जगह पर करीब 1000 एकड़ जमीन उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है.
छत्तीसगढ़ का कोई जिला- ब्लाक अछूता नहीं है, जहां ग्रामीण सरकारी मदद से हथियाए जा रहे खेत व झोपड़ी के ख़िलाफ सड़क पर न उतर रहे हों. हालांकि अब राज्य सरकार ने नई उद्योग नीति बनाई है, जिसमें जमीन का मुआवजा 10 लाख रूपये तक देने का प्रावधान किया गया है. यह भी कहा गया है कि अब उद्योगपति किसानों से सीधे जमीन खरीदेंगे, सरकार इसमें कम से कम हस्तक्षेप करेगी. ग्रामीण अब भी उद्योगों, उद्योगपतियों व सरकार की नीयत पर संदेह से घिरे हुए हैं.कांग्रेस नेता भूपेश बघेल की मानें तो सरकार ने नई उद्योग नीति अदालतों में चल रहे मामलों से बचाव के लिए ही बनाई है.

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

किसानों के गुस्से से हिली छत्तीसगढ़ सरकार

गन्ना किसानों ने जिन दिनों दिल्ली में प्रदर्शन कर संसद की कार्रवाई रूकवा दी थी, तकरीबन उसी समय देश के प्रमुख धान उत्पादक राज्य छत्तीसगढ़ के किसानों ने राज्य की भाजपा सरकार को धान पर बोनस देने के वादे से पीछे हटने पर अपनी ताकत दिखाई. गन्ना उत्पादकों की तरह छत्तीसगढ़ के धान उगाने वाले किसानों की लड़ाई अभी जारी है.
छत्तीसगढ़ के किसानों में ऐसा आक्रोश हाल के वर्षों में देखा नहीं गया. मीडिया में हाशिये पर रहने वाले व नौकरशाहों के बीच कोई हैसियतनहीं रखने वाले इस असंगठित व गरीब तबके ने अपनी हुंकार से पुलिस प्रशासन और सरकार को झकझोरा और अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर दिया. 9 नवंबर को जगह-जगह राजमार्गों पर लाखों किसान इकट्ठा हुए और कम से कम 30 स्थानों पर उन्होंने चक्काजाम किया. गुस्से से फट पड़े किसान धमतरी में हिंसा पर उतारू हो गए और पुलिस वालों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. सरकार को चेतावनी दी कि धान पर बोनस व मुफ़्त बिजली के मामले में वह वादाख़िलाफी से बाज आए. सरकार ने आंदोलन तोड़ने की भरसक कोशिश की और कुछ नेताओं को अपनी तरफ मिला लिया, व्यापारियों ने भी शादी-ब्याह का हवाला देते हुए आंदोलन में साथ देने से मना कर दिया, बावजूद इसके किसान नाइंसाफी को लेकर दम-खम से मैदान पर उतार आए.
दरअसल, डा. रमन सिंह के नेतृत्व में पिछले साल भाजपा सरकार दुबारा बनी, उसकी वजह सस्ते चावल की योजना के अलावा किसानों के लिए किए गये लुभावने वादे भी हैं. घोषणा पत्र में धान पर 270 रूपये बोनस तथा 5 हार्सपावर तक के सिंचाई पम्पों को मुफ़्त बिजली देने की बात थी. भाजपा नेताओं के लिए यह चुनाव जीतने का जरिया रहा हो, लेकिन खेती की बढ़ती लागत और लगातार अवर्षा की मार झेलते किसानों के लिए तो ये आश्वासन वरदान सरीखे थे. विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव था, लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सरकार बनाने प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा भाजपा के सांसदों को भेजा जाना जरूरी था. लिहाजा, सरकार घोषणा पत्र पर डटी रही. उसने हाय-तौबा मचाकर ही सही दो किश्तों में धान पर 220 रूपये का बोनस दिया. 50 रूपये केन्द्र से मिले बोनस को जोड़कर क्विंटल पीछे कुल अतिरिक्त राशि 270 रूपये तक पहुंचा दी गई. लोकसभा चुनाव में आचार संहिता लगने से पहले राज्य भर में मुख्यमंत्री व बाकी नेताओं की अगुवाई में किसान महोत्सवों का आयोजन कर बोनस की आधी राशि बांटी गई. मंत्रियों का सरकारी खर्च पर जगह-जगह वंदन-अभिनंदन हुआ. लेकिन जैसे ही इस साल अक्टूबर में फिर नये फसल की खरीदी शुरू हुई, किसानों से छल हो गया. शायद किसान संतुष्ट भी रह जाते या उन्हें एकजुट करना कठिन हो सकता था, यदि सरकार 220 रूपये के ही बोनस को पिछले साल की तरह जारी रखती. लेकिन घोषणा पत्र के वादे से पीछा छुड़ाने के बाद तो उनके आक्रोश का ठिकाना नहीं रहा. राज्य सरकार बिजली मुफ़्त देने के वादे से भी पीछे हट गई. पांच हार्सपावर तक के पम्पों को मुफ़्त बिजली देने के बजाय खपत की सीमा तय कर दी गई. इस विसंगति का नतीजा यह हुआ कि मुफ़्त सिंचाई के भरोसे बैठे किसानों को हजारों रूपयों का बिल थमा दिया गया. नये बिजली बिलों से तो जैसे आग ही लग गई.
इन सबने अरसे से बिखरे पड़े, अपने वाज़िब हक़ के लिए नेताओं के पीछे घूमते- उनका झंडा उठाते-जयकारा लगाते रहने वाले किसानों ने बग़ावत कर दी. किसानों के एक संयुक्त मोर्चे ने आकार ले लिया. कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू व खुद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से इन्होंने मुलाकात कर अपनी मांग रखी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई. मोर्चे ने सड़क पर उतरने का फैसला लिया. कई धरना-प्रदर्शनों के बाद किसानों ने राज्य में जगह-जगह चक्काजाम कर दिया. राजमार्गों पर वाहनों का आवागमन घंटो ठप पड़ा रहा. धमतरी में तो आंदोलन हिंसक हो उठा. सड़क घेरकर बैठे किसान नेताओं से एक पुलिस अधिकारी ने कथित रूप से मारपीट कर दी. इसके बाद आंदोलनकारी पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गए. भीड़ ने पुलिस कर्मियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. कम से कम 5 सरकारी वाहन जला दिए गये. उन दुकानों में पथराव-लूटपाट की गई, जहां पुलिस जाकर छिपी. हालांकि किसान नेताओं व कांग्रेस का कहना है कि इन सबमें किसानों का हाथ नहीं है. इसमे वे असामाजिक तत्व शामिल हैं, जो भीड़ में शामिल हो गए थे.
इसके बाद पुलिस व प्रशासन की जो प्रतिक्रिया होनी थी उसका अनुमान लगाया जा सकता है. अगले ही दिन धमतरी में भारी फोर्स पहुंची, दो दर्जन से ज्यादा किसान नेता गिरफ़्तार कर लिये गए. प्रतिक्रिया तीखी हुई, किसान नेताओं की बैठक रायपुर में हुई, कहा गया कि जिन्हें गिरफ़्तार किया गया, उन्हें बिना शर्त रिहा किया जाए. किसान आंदोलन से घबराई सरकार ने 50 रूपये बोनस अपनी तरफ से भी देने की घोषणा कर दी और 3 मंत्रियों की एक समिति किसानों के हित में क्या निर्णय लिए जाए, यह तय करने के लिए बना दी. इसके अलावा बीते 3 माह के सिंचाई पम्पों के बिजली बिल भी रद्द कर दिए गये और कहा गया कि आगे से जो बिल आएगा व फ्लैट रेट 65 रूपया प्रति हार्सपावर के हिसाब से होगा. लेकिन किसानों ने सरकार का डाला हुआ चारा पसंद नहीं किया. उन्होंने इसे नाकाफी बताया और अपना आंदोलन जारी रखने की घोषणा की. इसके बाद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार से मिलने भी गया. उन्हें एक ज्ञापन सौंपा गया, किसानों को संदेश देने के लिए मांग की गई कि राज्य में सूखे के गंभीर हालात और धान के उत्पादन लागत में वृध्दि को देखते हुए समर्थन मूल्य कम से कम 1300 रूपये किया जाए. समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव न हो तो इसी के बराबर बोनस कीराशि दी जाए. मुख्यमंत्री डा. सिंह ने वक्तव्य दिया, राज्य सरकार केन्द्र के लिए धान खरीदती है अतः इसका मूल्य निर्धारण केन्द्र सरकार को ही करना होगा. वे सिर्फ केन्द्र से इसके लिए मांग कर सकते हैं. बोनस का बोझ उठाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है. लेकिन ऐसा कहते वक़्त सरकार यह साफ नहीं करती कि चुनावी साल में ही 270 रूपये बोनस का प्रलोभन किसानों को क्यों दिया गया और चुनावी घोषणा पत्र में क्यों नहीं बताया गया कि यह बोनस लोकसभा की वोटिंग के बाद नहीं मिलेगा.
बहरहाल, 25 नवंबर के बंद को मिलते समर्थन को देखकर सरकार चिन्ता में पड़ गई. डेमेज कंट्रोल के लिए भाजपा किसान मोर्चा को सामने किया गया. इससे जुड़े कुछ लोग संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल थे, उन्होंने मुख्यमंत्री से मुलाकात की और उनके आश्वासन पर आंदोलन वापस करने की एकतरफा घोषणा कर दी. किसान इससे टूटे नहीं, उस पदाधिकारी को ही मोर्चे से बाहर कर दिया गया और 25 नवंबर का महाबंद यथावत रखने का फैसला लिया गया. इधर बाज़ार का समर्थन जुटाने निकले किसानों को तब एक नया पैंतरा नजर आया- जब छत्तीसगढ़ चेम्बर आफ कामर्स ने उनके बंद को समर्थन देने से मना कर दिया. ऐसा फैसला चेम्बर ने खुद से लिया या सरकार के दबाव में आकर, ये वे ही बता सकते हैं. लेकिन यह सच है कि चेम्बर के बड़े पदाधिकारी भाजपा से जुड़े हैं और वे मुख्यमंत्री- मंत्रियों के करीबी भी हैं. किसान इससे भी नहीं हताश नहीं हुए. जब दिल्ली में गन्ना किसानों के मार्च के कारण संसद की कार्रवाई ठप पड़ गई थी, उसी के आसपास धान के लिए किसानों ने महाबंद कराया.
विपक्ष ने किसानों के असंतोष को हाथों-हाथ लिया है. कांग्रेस समेत प्रायः सभी दल किसानों के साथ हो लिए हैं. अब राज्य सरकार की तरफ से यह बताया जा रहा है कि मजदूरों किसानों के हित में सरकार ने जो फैसले लिए हैं, वे अनूठे हैं. उसे देश के दूसरे राज्य भी अपने यहां लागू करने जा रहे हैं. मसलन, खेती के लिए 3 प्रतिशत में ऋण उपलब्ध कराना. यहां पर भाजपा भूल गई कि उसने घोषणा-पत्र में ब्याज मुक्त ऋण देने की घोषणा कर रखी है.
बहरहाल, 25 नवंबर के आंदोलन के बाद किसानों ने अब असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है. वे अब गांधीगिरी करेंगे. तय किया गया है कि अब वे सरकार का कोई कर पटाएंगे और न ही बिजली का बिल.
छत्तीसगढ़ बनने का नेता, व्यापारी, ठेकेदार, अफसर सभी ने फायदा महसूस किया है और इसे जमकर भोगा भी है. लखपति-करोड़पति हो चुके हैं और करोड़पति-अरबपति. शायद किसानों को अपना वाजिब हिस्सा छीन-झपटकर ही लेना पड़ेगा.

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

कस्बाई पत्रकारों ने खूब सीखा प्रभाष जी से

अनेक मायनों में छत्तीसगढ़ आज भी पिछड़ा हुआ है, लेकिन अलग राज्य बनने के पहले तो इसकी बड़ी-बड़ी घटनाएं देश के टीवी व अख़बारों में सुर्खियां नहीं बन पाती थी. दिल्ली, मुम्बई के सम्पादकों-पत्रकारों के साथ राज्य के दूसरे सबसे बड़े शहरबिलासपुर के पत्रकारों का रिश्ता बने यह तो कोशिश न तो आम तौर पर होती थी न ही इसे आसान माना जा सकता था. ऐसे दौर में जब पहली बार 1991 में प्रभाष जोशी से बिलासपुर के पत्रकार रू-ब-रू हुए तो न केवल कौतूहल से भर गए बल्कि धोती कुरते का लिबास लेकर चलने वाले इस विभूति के सहज और आत्मीय वार्तालाप से अनेक भ्रांतियां दूर हो गई.
दरअसल, कोरबा जिले के करतला में उस साल सूचना के अधिकार के पक्ष में बड़ी बात हुई. देश के अनेक बुध्दिजीवियों व सामाजिक संगठनों के साथ प्रभाष जी भी इस कार्यक्रम में पहुंचे. पता नहीं दिल्ली से करतला पहुंचने में उन्हें कितने साधनों का इस्तेमाल करना पड़ा होगा और वे कितने घंटे बाद वहां तक पहुंच पाए होंगे, लेकिन इस सम्मेलन का महत्व उन्होंने दिल्ली में, अपनी व्यस्तता के बीच भी समझ लिया.
सूचना के अधिकार के तहत पूरे देश में आयोजित की गई यह पहली जन सुनवाई थी, जिसमें तब के कमिश्नर हर्षमंदर की पहल पर कानून बनने के 15 साल पहले अफसरों ने ग्रामीणों को वह सब सूचना उपलब्ध कराई, जो आज आरटीआई के तहत मांगी जा सकती हैं. इसके बाद प्रभाष जी ने सूचना के अधिकार की मांग को दिल्ली के न केवल हिन्दी बल्कि अंग्रेजी अख़बारों की सुर्खियों में ला दिया. क्षेत्रीय दैनिक अख़बारों व छिट-पुट छपने वाले साप्ताहिक पत्रों के पत्रकारों के लिए प्रभाष जी का बिलासपुर आगमन प्रसन्नता, आश्चर्य और कौतूहल का मामला था. जिस पत्रकार ने अंग्रेजी मीडिया के आगे हिन्दी को सीना तान कर खड़ा करना सिखाया हो व जो देसी लिबास पहने, सहज तरीके से मिलने-जुलने वाला हो, ऐसा तो उनके बारे में सुनकर उनसे मिलने वाला सोच भी नहीं सकता था.
प्रभाष जी का आखिरी और प्रतिक्रियाओं के लिहाज से विवादास्पद भी- सबसे बड़ा इंटरव्यू हाल ही में रविवार डाट काम पर प्रकाशित हुआ है. इसे कव्हर करने वाले बिलासपुर के पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की सुनें-
रायपुर के मयूरा होटल में ठहरे प्रभाष जी ने कमरे का दरवाजा काफी देर तक नहीं खोला. बाद में आधे कपड़ों में वे बाहर आए. उन्होंने इस बात के लिए खेद जताया कि वे बाथरूम में थे.
पुतुल ने झिझकते हुए कहा- थोड़ी देर में आता हूं. प्रभाष जी बोले नहीं-नहीं बैठो.
‘आप धोती वगैरह तो पहन लीजिए.’
प्रभाष जी बोले- अरे धोती पहनने में क्या रखा है, यह तो उनके लिए मुश्किल है जो पहनना नहीं जानते. हम तो चौक पर भी आराम से बांध लें.
इसके बाद दो घंटे तक उन्होंने इत्मीनान से बातें की.
पुतुल बताते हैं- मेरे साथ गए कैमरामैन ने उनके मिलकर नीचे उतरते हुए कहा- आप तो कह रहे थे कि दिल्ली के किसी बहुत बड़े पत्रकार से मिलाने जा रहे है. मुझे लगा कि वे कोट और टाई पहने मिलेंगे, लेकिन मुझे तो उनकी बनियाइन में छेद दर छेद देखकर समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस एंगल से शाट लूं.
करतला में हुई आरटीआई सुनवाई का मामला अकेला नहीं है, वे लगातार बिलासपुर रायपुर की विभिन्न गोष्ठियों में आते रहे और हर बार पत्रकार उनसे एक मीडिया कर्मी की प्रतिबध्दता व सामाजिक मुद्दों पर उनकी अवधारणा को समझते हुए अपने ज्ञान को समृध्द करते रहे.
वे तो थे शुध्द अहिंसक गांधी और विनोबा के दर्शन से प्रभावित और जेपी के आंदोलन में उनके सहयोगी, लेकिन नक्सलियों से तार जुड़े होने का आरोप झेलने वाले मानवाधिकार संगठन- पीयूसीएल के बुलावे पर वे उनके बिलासपुर सम्मेलन में भी पहुंचे, क्योंकि पीयूसीएल ने जिस मुद्दे को लेकर दिन भर का सम्मेलन रखा था, वह उन्हें जंच गया. वस्तुतः, यह आयोजन छत्तीसगढ़ सरकार के जनसुरक्षा कानून 2005 का विरोध करने के लिए था. प्रभाष जी सहमत थे कि इस कानून से अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार का हनन होगा. यह बताना ठीक होगा कि इस कानून के जरिये छत्तीसगढ़ सरकार उन सभी लोगों को 2 साल के लिए जेल भेज सकती है, जिनके बारे में संदेह है कि वे नक्सलियों से किसी न किसी तरीके से सम्पर्क में रहते हैं अथवा उनसे बातचीत कर लेते हैं. यह कानून सच को सामने लाने के लिए जुटी मीडिया के ख़िलाफ भी हो सकता है.
इसी सम्मेलन से जुड़ा एक मीठा संस्मरण रायपुर-बिलासपुर से छपने वाले सांध्य दैनिक इवनिंग टाइम्स के सम्पादक नथमल शर्मा के साथ हैं- सम्मेलन में कुछ देर बैठने के बाद प्रभाष जी बेचैन लगे. उन्होंने कहा कि मुझे होटल चलना है. नथमल उन्हें लेकर बाहर निकलने लगे तो आयोजकों ने प्रभाष जी को रोका. कहां जा रहे हैं, अभी तो आपको भाषण देना है.
प्रभाष जी ने कहा- मुझे पता है, मेरा भाषण शाम को होगा और मुझे क्या बोलना है यह भी पता है.
होटल के कमरे में घुसते ही उन्होंने पूछा- नथमल, क्या आप क्रिकेट में रूचि हैं?
नथमल ने कहा- क्रिकेट पसंद है, पर बहुत ज्यादा नहीं.
प्रभाष जी ने कहा- अरे तब तो आपका समय ख़राब होगा. आप अभी विदा लें और मुझे शाम 5 बजे आकर ले जाएं.
दरअसल, उस दिन कोई क्रिकेट मैच चल रहा था, प्रभाष जी के लिए सम्मेलन में भाग लेना जितना जरूरी था, उतना ही उस मैच को देखना भी.
नथमल बताते हैं कि शाम को जब वे उन्हें लेने पहुंचे तो वे फ्रेश लग रहे थे, मानो मन मांगी मुराद पूरी हो गई.
समय की पाबंदी और दैनिक अख़बार से जुड़े काम के महत्व को रेखांकित करने वाली एक और बात दिखी. होटल के कमरे में उन्होंने कागद कारे भी लिख डाला. इसे उन्होंने खुद जब तक फैक्स नहीं कर लिया, उन्हें तसल्ली नहीं हुई. पीयूसीएल के कार्यक्रम में भी समय पर भाषण देने लौट चुके थे.
देश के कई बड़े शहरों में काम कर चुके बिलासपुर के पत्रकार दिनेश ठक्कर ने जनसत्ता कोलकाता संस्करण में काम किया. उनके हाथों का लिखा नियुक्ति-पत्र उन्होंने आज तक संभाल कर रखा हैं. ठक्कर कहते हैं कि मेरी तरह उन्होंने सभी सम्पादकीय सहयोगियों को सादे कागज पर अपने हाथ का लिखा नियुक्ति- पत्र दिया और शायद मेरी तरह सभी ने इसे महत्व का दस्तावेज मान रखा है. ठक्कर बताते हैं कि जनसत्ता की कोलकाता में शुरूआत थी, ज्यादा मेहनत होनी थी. प्रभाष जी, आख़िरी संस्करण के निकलते तक दफ़्तर में ही काम देखते थे. सहयोगी कहते कि आप निकलिये- सब ठीक होगा, पर ऐसा करीब 3 माह तक नहीं हुआ. देर हो जाने पर रात में वे अखबार बिछाकर दफ़्तर में ही सो जाते थे, जबकि मालिकों ने उनके लिए किसी पांच सितारा होटल का कमरा बुक कर रखा था, वे सुबह फ्रेश होने वहां जाते थे. जिम्मेदारी के साथ काम करना उनके साथ काम करने वाले हर पत्रकार ने सीखी.
बिलासपुर और छत्तीसगढ़ के दूसरे शहरों में वे लगातार आते रहे हे. मेरी (लेखक) की अनेक मुलाकातें हैं. आखिरी भेंट दिल्ली में तब हुई जब 2007 में उदयन शर्मा पत्रकारिता सम्मान मिला. मंच पर बैठे प्रभाष जी से आशीर्वाद मिला. नीचे उतरने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों के बारे में जानकारी ली. यह बताते हुए प्रसन्नता महसूस करता हूं कि उनका एक वाक्य मुझे पत्रकारिता के अलावा छत्तीसगढ़ी रचनाएं लिखने के लिए भी लगातार प्रेरणा देता है. दरअसल, बिलासपुर में एक कार्यक्रम के बाद समय बचा. उसके बाद हम कुछ पत्रकार साथी उन्हें लेकर अचानकमार अभयारण्य घूमने के लिए निकले. वहां स्थानीय पत्रकार साथियों के अनुरोध पर मैंने अपनी छत्तीसगढ़ी रचना सुनाई. रचना लम्बी थी. प्रभाष जी ने ख़ामोशी के साथ पूरा सुना- फिर प्रतिक्रिया दी- राजेश, तुमने इसके अलावा क्या लिखा है, यह मुझे नहीं पता लेकिन एक इसी रचना को सुनकर मैं तुम्हें एक मंझा हुआ गीतकार कह सकता हूं.
सचमुच, गांव टोले तक चौथा पाये का कदर है, यह समझने वाला दिल्ली में कोई दूसरा पत्रकार पैदा नहीं होगा. प्रभाष जी बरसों जेहन में रहेंगे और नई पीढ़ी को प्रेरणा देते रहेंगे.

शनिवार, 14 नवंबर 2009

दसवें साल में हाशिये पर जाते आदिवासी, ठगे जाते किसान

लगभग 9 साल पहले जब मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग बांटा गया तो उसके पीछे मंशा यही थी कि प्रचुर नैसर्गिंक संसाधनों से भरपूर इस आदिवासी बाहुल्य पिछड़े राज्य को विकास के मामले में किसी भेदभाव का शिकार होने से बचाया जाए. अब जबकि बीते एक नवंबर को यह राज्य अपने दसवें साल की ओर कदम बढ़ा चुका है तो साथ बने दो अन्य राज्यों झारखंड और उत्तराखंड के मुकाबले तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई तो देता है लेकिन विकास का मतलब एक बड़ी आबादी को आज भी नहीं समझाया जा सका है. राज्य की तरक्की के लिए बड़े फैसले लिए जा रहे हैं, लेकिन राजनैतिक स्थिरता के बावजूद इच्छाशक्ति की कमी, लापरवाह विपक्ष और बेलगाम नौकरशाही ने इसके पहिए जाम कर रखे हैं. भारी भरकम बजट वाले इस राज्य में- राजमद में डूबे लोग ज़मीनी चुनौती का खुद सामना करने के बजाय फोर्स को आगे कर रहे हैं और नक्सलियों के हाथ शहरी इलाकों के गर्दन तक पहुंच रहे हैं.
झारखंड और उत्तराखंड के लिए जिस तरह हिंसक संघर्ष हुए, छत्तीसगढ़ में वह देखने को नहीं मिला. इसकी वजह यह नहीं थी कि छत्तीसगढ़ की जरूरत को यहां के लोगों ने कम करके आंका. कारण बस इतना था कि यहां के लोग शांतिप्रिय है. छत्तीसगढ़ियों की बोली बहुत मीठी है और रहन-सहन सादा. कई दशक पहले पं. सुन्दरलाल शर्मा व खूबचंद बघेल जैसों ने गांधीवादी तरीके से अलग राज्य की मांग शुरू कर दी थी. इसी का असर था कि सर्वदलीय पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंच की अगुवाई में यहां के लोगों ने दो दशक के शांतिपूर्ण आंदोलनों के ही जरिये अपनी मांग मनवा ली. छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खूबी है यहां के 44 फीसदी हिस्से का जंगलों से ढ़का होना, जहां पर 32 प्रतिशत आदिवासियों का निवास है. विकास की धुरी में यही तबका केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था. न केवल इसलिए कि वे जनसंख्या के लिहाज से संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने का अधिकार रखते हैं बल्कि इसलिए भी कि वे ही राज्य के मूल निवासी माने जाते हैं. 18 वीं शताब्दी के हलबा आंदोलन से लेकर मुगल, मराठा व ब्रिटिश सरकारों के ख़िलाफ आदिवासियों ने जमकर लोहा लिया और यहां की प्रचुर खनिज, वन सम्पदा को बचाये रखने, अपनी मौलिक जीवन शैली, रहन-सहन व संस्कृति को संभाले रखने के लिए उन्होंने पूरे साहस के साथ खून बहाया.
सन् 2000 में राज्य बना तो छत्तीसगढ़ का बजट 5700 करोड़ रूपये था, जो आज 9 साल बाद बढ़कर 23 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है, लेकिन 66 लाख की आबादी वाले आदिवासी समुदाय का हाल जस का तस है. वे कुपोषण के शिकार हैं, शासकीय योजनाओं की रकम उन तक पहुंचने से पहले ही हड़प ली जाती है. स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, रोजगार जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा है. इस असंतोष को भुनाया है हिंसा पर भरोसा रखने वाले माओवादियों ने. सरकार कहती है कि 44 हजार वर्गकिलोमीटर में फैले बस्तर इलाके का विकास इन्होंने रोक रखा है, जबकि माओवादी आदिवासियों को यह विश्वास दिलाने में एक हद तक सफल दिखाई देते हैं कि सरकार बेशकीमती खनिज और वन सम्पदा को लूटना चाहती है. पुलिस व केन्द्रीय बलों को लगातार नक्सली छका रहे हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इनकी समानान्तर सरकारें चल रही हैं. वे बस्तर के बहुमूल्य संसाधनों को अपने हाथों में लेकर अपनी शर्तों पर इस्तेमाल करने की हद तक प्रभाव रखते हैं. सरकार के पास रिपोर्ट है कि यहां प्रवेश करने वाले व्यापारियों और ठेकेदारों से नक्सली सालाना 300 करोड़ रूपये की फिरौती वसूल रहे हैं. अर्धसैनिक बलों-पुलिस के अलावा नक्सलियों से लोहा लेने के लिए बतौर एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) आदिवासी युवकों को भी झोंक दिया गया है. बीते 2 सालों में 700 से ज्यादा नागरिक व पुलिस कर्मी इन मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं. इनमें एक पुलिस अधीक्षक व करीब दर्जन भर अधिकारी स्तर के जवान शामिल हैं. कांग्रेस व भाजपा के कई नेता शामिल हैं. भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के एक बेटे की हत्या तो हाल ही में हुई. कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा के भतीजे की भी हत्या हो चुकी है.
नक्सलियों से जूझने के लिए सन् 2005 में शुरू किये गए सलवा जुड़ूम आंदोलन को सरकार का साथ मिला, लेकिन इसके बाद नक्सली और आक्रामक हो गए. सलवा जुड़ूमियों पर भी हत्या, लूटपाट और बलात्कार के आरोप लगे. बस्तर इलाके के 600 से ज्यादा गांव खाली हो गए. इनकी आबादी करीब 3 लाख बताई जाती है. इनमें से 60 हजार लोग सरकार के बनाए गये राहत शिविरों में रहते हैं, लेकिन बाकी आदिवासी कहां गये इसकी कोई ख़बर नहीं. बड़ी संख्या में इन्होंने आंध्रप्रदेश व उड़ीसा की ओर भी पलायन किया, लेकिन उन्हें वहां से भी खदेड़ा जाता है. इन पलायन करने वालों के खेत-खलिहान उजड़ गए, बच्चों का स्कूल व पेट भर खाना छूट गया.
छत्तीसगढ़ राज्य जिन लोगों की खुशहाली की कामना करते हुए बनाया गया था, आज वे हताश और भयभीत हैं. इन दिनों बस्तर में बड़ी तादात में केन्द्रीय बलों के जवान तैनात किये जा रहे हैं. सरकार ने बस्तर में निर्णायक लड़ाई लड़ने का इरादा बना लिया है. सुरक्षा बलों व नक्सलियों के बीच संभावित बड़े संघर्ष की ख़बरों से भयभीत आदिवासी फिर पलायन करने जा रहे हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के इस आश्वासन के बावजूद भय का वातावरण गहराता जा रहा है कि आम लोगों को इस आपरेशन को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए.
रायपुर, बिलासपुर की सड़कों पर चलें और तेजी से बढ़ती नई कालोनियों और इंडस्ट्रीयल इलाकों को देखें तो राज्य की भाजपा सरकार के इस दावे में काफी दम दिखाई देता है कि प्रदेश तेजी से विकास कर रहा है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह यह बताते हुए नहीं अघाते हैं कि उनकी सरकार ने राज्य के औद्योगिक विकास के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपये का एमओयू किया है. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लोगों ने इनके जरिये अपना जीवन स्तर ऊपर उठते हुए नहीं देखा. रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसी जगहों पर तेजी से स्पंज आयरन और बिजली परियोजनाएं शुरू हुईं. लेकिन आम लोगों ने पाया तो केवल अपनी पुश्तैनी खेती से बेदखली की पीड़ा और बेशुमार प्रदूषण. राज्य के किसी न किसी छोर में विस्थापन और प्रदूषण के खिलाफ अक्सर आंदोलन चलते रहते हैं. समस्या इतनी गंभीर है कि रायपुर में प्रदूषण को लेकर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन खुद बार-बार दखल दे रहे हैं. सत्ता पक्ष के ही एक विधायक देवजी पटेल ने तो अपनी ही सरकार के ख़िलाफ मोर्चा खोल रखा है.
राज्य बनने के तत्काल बाद यहां चुनाव नहीं हुए. मध्यप्रदेश से टूटकर बनी 90 सीटों में से बहुमत कांग्रेस का था, लिहाजा अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. 3 साल बाद हुए चुनाव में वे अपने ख़िलाफ जातिवाद को बढ़ावा देने व सरकारी आतंक के आरोपों का जवाब नहीं दे पाये और इन्हीं को मुद्दा बनाकर भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी. भाजपा ने पहले कार्यकाल में औद्योगिकीकरण व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ समझौतों को खूब प्रोत्साहन दिया. लेकिन जब पांच साल बाद 2008 में चुनाव हुए तो परिस्थितियां बदल चुकी थी. प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल करने की योजना से राज्य के राजस्व में तो इजाफा हुआ, लेकिन आम लोगों को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. अधिकांश योजनाएं उन इलाकों की हैं, जहां नक्सलियों के चलते काम शुरू नहीं किए जा सके. जमीनों के अधिग्रहण के ख़िलाफ न केवल बस्तर के आदिवासी बल्कि मैदानी इलाकों में भी किसान उठ खड़े हुए. इसका नतीजा यह रहा कि विधानसभा में सरकार ने पिछले साल एक ब्योरा पेश किया, जिसमें बताया गया कि तब तक किए गये 16 एमओयू में से केवल एक पर काम शुरू किया जा सका है.
भाजपा के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि 83 फीसद खेती पर निर्भर छत्तीसगढ़ियों के बीच धान और चावल की ही सबसे ज्यादा अहमियत है. राजनीति इसी पर शुरू हुई. इसके बाद आकार लिया 3 रूपये किलो चावल की योजना ने. नवम्बर 2008 के विधानसभा चुनाव के 8 माह पहले यह योजना लागू की गई और इसे इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिली कि विपक्ष हक्का-बक्का रह गया. कांग्रेस ने 101 घोटालों की फेहरिस्त जारी की. इनमें के कई मामलों को उन्होंने लोक आयोग को भी सौंपा लेकिन सारे मुद्दे बेअसर रहे. भाजपा ने केन्द्र सरकार की गरीबी रेखा सूची में शामिल 18 लाख लोगों की सूची से पृथक एक अलग सर्वेक्षण कराया और राज्य के 30 लाख परिवारों को गरीबों की सूची में जोड़ दिया. इसके अलावा 7 लाख परिवारों को अति-गरीब माना गया. चुनावी घोषणा पत्र में चावल योजना का विस्तार किया गया. अब यहां के 30 लाख परिवारों को चावल कुछ कम कर 7 किलो गेंहूं भी दिया जा रहा है. चावल का मूल्य गरीबों के लिए 2 रूपये किया गया, अति-गरीबों को तो यह एक ही रूपये में दिया जा रहा है. यह विडम्बना ही कही जाए कि दो करोड़ 8 लाख की आबादी वाले इस राज्य में सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार 66 लाख से ज्यादा गरीब निवास करते हैं. केन्द्र सरकार की योजना का खाका तैयार होने से पहले ही राज्य सरकार ने अपने बजट से ही राज्य में भोजन का अधिकार योजना लागू करने की घोषणा कर दी है. नमक का पैकेट मुफ़्त दिया जा रहा है.
किसानों को चुनावी साल में धान पर प्रति क्विंटल 270 रूपये का बोनस दिया गया. पर 2009 की खरीफ फसल आने पर किसान अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है क्योंकि इस साल यह बोनस देने से सरकार ने मना कर दिया है. न केवल विधानसभा चुनाव में बल्कि लोकसभा में धान चावल का असर रहा. विधानसभा में भाजपा ने अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखते हुए 50 सीटें हासिल की, जबकि लोकसभा की 11 में से 10 सीटें उसकी झोली में आ गिरीं.
राज्य की रमन सरकार को अपनी पार्टी की ओर से कोई चुनौती नहीं है. गाहे-बगाहे विरोध के स्वर उठते हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इनसे निपटने का पर्याप्त अनुभव हासिल हो चुका है. केन्द्रीय नेतृत्व विशेषकर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री के मधुर सम्बन्ध हैं. इसलिए जब दूसरी पारी में भी मुख्यमंत्री के तौर पर उनके अलावा कोई नाम नहीं उभरा. इस लिहाज से देखा जाए तो सन् 2000 में बने तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा राजनैतिक स्थिरता है. झारखंड में अब तक 9 बार मुख्यमंत्री तथा उत्तराखंड में 5 मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं, जबकि छत्तीसगढ़ में दो ही मुख्यमंत्री हुए और दूसरी बार चुने जाने के बाद डा. सिंह अपना कार्यकाल सफलता पूर्वक लगभग एक साल पूरा करने जा रहे हैं.
यदि राजनैतिक अस्थिरता विकास में बाधा मानी जाती है, तो अधिक स्थिरता सरकार को निश्चिन्त भी कर देती है. छत्तीसगढ़ में यह दिखाई देता है. सबसे ज्यादा राहत नौकरशाहों में दिखाई देता है. धान खरीदी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, प्रधानमंत्री सड़क योजना, उर्जा विभाग, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आये दिन भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं. बड़े बजट वाला राज्य है, लिहाजा घोटाले की राशि भी करोड़ों में होती है. विधानसभा में जांच और कार्रवाईयों का भरोसा दिलाए जाने के बाद ऐसे दर्जनों मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं करते हुए राज्य सरका ने यह संदेश दे दिया है कि वे इन्हें बचाने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती.
इन 9 सालों में राज्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि वह बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. राज्य बनने के बाद जहां केवल 1300 मेगावाट बिजली छत्तीसगढ़ में उपलब्ध थी वहीं अब 2100 मेगावाट है, जिसे अगले साल तक बढ़ाकर 2600 मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है. राज्य ने करीब 4000 करोड़ रूपये बिजली बेचकर कमाये. प्रदूषण और पानी की समस्या के बावजूद राज्य सरकार ने इस दिशा में काफी आगे जाने का विचार किया है. अगले एक दशक में निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों की मदद से इस दिशा में 44000 करोड़ रूपये के निवेश की योजना बनाई गई है.
प्रदेश में राज्य बनने के समय 100 वर्ग किमी के दायरे में 17 किलोमीटर ही सड़कें थी, जिसे अब 20 किलोमीटर तक पहुंचाया जा चुका है. खाद्य विभाग के बाद सबसे ज्यादा बजट 2100 करोड़ रूपये का पीडब्ल्यूडी के लिए ही रखा गया है. राज्य में इतने अधिक इंजीनियरिंग कालेज खोले जा चुके हैं कि पीईटी दिलाने वाले सारे छात्रों को जगह मिल जा रही है. तेजी से नये औद्योगिक संयंत्र खुलने के बाद भी यहां के इंजीनियरों को रोजगार की तलाश में बाहर भटकना पड़ता है. 4 नये मेडिकल कालेज खुलने के बाद भी राज्य में करीब 3500 डाक्टरों की कमी है. इनमें से भी अधिकांश शहरों में जमे हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है. यहां कुपोषण की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. राज्य की औसत साक्षरता 64 प्रतिशत से अधिक है लेकिन आदिवासी इलाकों में यह 50 फीसदी तक ही सिमटी हुई है. स्कूली शिक्षा का बजट 9 सालों में 345 करोड़ से बढ़कर 2555 करोड़ हो गया पर हजारों स्कूल अभी भी शिक्षक विहीन हैं और स्कूल भवन जर्जर हैं. राज्य सरकार कहती है कि राज्य बनने के बाद अब 13 लाख हेक्टेयर के बजाय 17 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. लेकिन इन्हीं आंकड़ों एक सच यह भी है कि कुल खेती के रकबे का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा सिंचित है. खेती के जानकार तो कहते हैं कि वास्तविक सिंचित रकबा 16-17 फीसद ही है. सरगुजा-बस्तर जैसे इलाके में सिंचाई सुविधा केवल 3 और 6 प्रतिशत किसानों को उपलब्ध है. इस बार 20 फीसदी वर्षा कम होने के कारण राज्य की 146 में से 66 तहसीलों में भयंकर सूखा पड़ा हुआ है. कई तहसीलों को सूखाग्रस्त होने के बावजूद उसे सरकार ने अपनी राहत योजना में शामिल करने से मना कर दिया है.
छत्तीसगढ़ में वे सब साधन मौजूद हैं जिनकी बदौलत इसे एक विकसित राज्य बनाया जा सकता है. अकेले देवभोग की धरती पर ऊंचे दर्जे का इतना हीरा दबा है कि इससे होने वाली अकेली आय ही इसे कर-मुक्त राज्य बना सकता है. मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद विकास के लिए आबंटन बढ़ा, राज्य का राजस्व बढ़ा लेकिन राज्य की आम जनता की आकांक्षाओं को सस्ता चावल देने तक ही सिमटाकर राज्य के प्रचुर संसाधनों के इस्तेमाल के मामले में नौकरशाह और राजनेता मनमाने फैसले ले रहे हैं. उन्हें विरोधों की परवाह इसलिए भी नहीं है कि ये विरोध उनके ख़िलाफ वोट में नहीं बदलेंगे. गरीबों के हिस्से में सस्ता चावल आया है और सम्पन्न राज्य के राजस्व की शक्ति को सत्ता से जुड़े लोग अपना हक समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं.
-राजेश अग्रवाल

बुधवार, 9 सितंबर 2009

नक्सल से निपटने फिजूल की पंचायत

आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए केन्द्रीय गृह मंत्री पी.चिदम्बरम् के नये पुनर्वास पैकेज से उत्साहित होने की कोई वजह नहीं दिखती. यह छत्तीसगढ़ सरकार की पिछले 10 साल से चल रही पुनर्वास नीति का ही विस्तार है, जो बुरी तरह से असफल रही है. भरोसे व सुरक्षा के अभाव में छत्तीसगढ़ में केवल गिनती के नक्सलियों ने हथियार डाले, जबकि इससे कई गुना ज्यादा नये लोग बीते सालों में संघम और दलम् में शामिल हो चुके हैं. केन्द्रीय गृह मंत्री से तो उम्मीद की जा रही थी कि राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे के मारे जाने के बाद बस्तर से नक्सलियों को खदेड़ने के लिए वे आर्थिक, राजनैतिक व रणनीतिक मोर्चे पर किसी ठोस रणनीति की घोषणा करते, लेकिन ताज़ा घोषणा किसी पुरानी फाइल पर चढ़ाई गई एक नई नोटशीट से ज्यादा कुछ नहीं है.
देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में सबसे खतरनाक स्थिति छत्तीसगढ़ की है. बस्तर संभाग के जगदलपुर, नारायणपुर, कांकेर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, बलरामपुर और इससे लगे जिलों राजनांदगांव, धमतरी में नक्सली तमाम मुठभेड़ों के बाद अचानक आ धमकते हैं. ये बारूदी सुरंग बिछाकर हमला करते हैं और अपना बिना कोई नुकसान उठाए एक साथ दर्जनों जवानों को मार गिराते हैं. बीते जुलाई माह में जब राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे समेत 30 से ज्यादा जवानों को 3 किलोमीटर लम्बा एम्बुस लगाकर नक्सलियों ने मार डाला, तो उनकी बढ़ी हुई ताकत ने देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री तक को चिंता में डाल दिया. विपक्ष ने छत्तीसगढ़ सरकार की नाक में दम कर डाला. पूरे राज्य में शोक व सन्नाटा था. लग रहा था कि तीन दशक पुरानी इस समस्या से छुटकारा पाने जल्द ही कोई निर्णायक कार्रवाई शुरू होगी. लेकिन हुआ क्या? नक्सलियों ने अभी भी सुरक्षा बलों को चकमा देकर घेरना और पुलिस के मुख़बिरों तथा विशेष पुलिस अधिकारी बनाए गए आदिवासी युवकों को गोलियों से उड़ाना, उनका गला रेतना जारी रखा है. मदनवाड़ा मुठभेड़ में चौबे की मौत के बाद से केन्द्रीय बलों व राज्य पुलिस के बीच टकराव व मतभेद बढ़े हैं. इनके बीच सुलह कराने के लिए मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को भी पंचायत बुलानी पड़ी. विषम परिस्थितियों के चलते जवानों ने मोर्चे पर जाने से इंकार किया, इनमें से 13 जवानों की मनाही को उनकी कायरता समझी गई और उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. दो बड़ी जन-अदालतें लगाकर नक्सलियों ने पुलिस के 4 मुखबिरों की गला रेतकर हत्या कर दी. पुलिस फोर्स उन गांवों तक मामले की जांच करने के लिए नहीं पहुंचने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुद ग्रामीण उनकी लाशें लेकर थाने तक पहुंचे तब जांच की खानापूर्ति की गई. उस हर जगह पर नक्सली हमले कर रहे हैं जहां नये टावर लगाए जा रहे हैं, नई सड़कें बनाई जा रही है, नई चौकियों के लिए ईंट पत्थर भेजे जा रहे हैं और उन लोगों की हत्या की जा रही है जो इन कामों में मजदूरी कर रहे हैं. जवानों को बस में बिठाने वाले चालकों को मार डालने की धमकी दी जा रही है. नक्सलियों ने पुलिस को घेरने के लिए एक ही परिवार के 7 लोगों को जिंदा जलाने की घटना होने की एक फर्जी सूचना भी थाने तक भेजी, लेकिन पुलिस अपनी सतर्कता से उनके जाल में फंसने से बच गई. ये सब वे घटनाएं हैं जो 13 जुलाई 2009 को मदनवाड़ा हमले के बाद राजधानी तक पहुंची. बहुत सी ख़बरें तो दण्डकारण्य के बीहड़ों से बाहर निकल भी नहीं पातीं.
अब सर्चिंग आपरेशनों में काफी सतर्कता बरती जा रही है. सीआरपीएफ जवान तलाशी मानदंडों का कड़ाई से पालन कर रहे हैं. उन्होंने गश्त के लिए 4 किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं जाने का फैसला किया है. मतलब यह कि हालिया दिनों में नक्सली बस्तर के अंदरूनी इलाकों में अपना तेजी से अपना पैर पसारने में लगे हुए हैं. धमतरी और राजनांदगांव में बड़ी वारदातें कर उन्होंने नये क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति का सबूत तो दे ही दिया है. यह वह दौर है जब नक्सलियों के सफाये के लिए ठोस काम बस्तर में होने चाहिए थे, क्योंकि एक आला अफसर को जान से हाथ धोना पड़ा, और मौके का फायदा उठाकर पूरे बस्तर में नक्सली अपनी दहशत कायम करने में सफल दिखाई दे रहे हैं.
दरअसल, जब-जब नक्सली हमला नहीं होता, सरकार और सुरक्षा बलों को यह भ्रम हो जाता है कि वे कमजोर पड़ गए हैं और ग्रामीण अब सरकार के पुनर्वास पैकेज की तरफ आकर्षित होकर सामने आएंगे. जबकि बड़ी वारदातें कर नक्सलियों का खामोश दिखना, दबाव बढ़ने पर वार्ता का प्रस्ताव रख देना, मुठभेड़ में मात खाने की आशंका होने पर पीछे हटना, यह सब उनकी रणनीति का हिस्सा है. बस्तर में हालात खराब है और जरूरत जमीनी कार्रवाई की है. साथ ही जरूरत है बस्तर के लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनके बीच सरकार के पहुंचने का, उनका विश्वास जीतने का. इनके बगैर तो नक्सलियों के ख़िलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ी जा सकेगी. लेकिन उल्टे दूरी बनाई जा रही है और केन्द्र सरकार को सूझ गया कि वह पुनर्वास योजना घोषित करे, जो न केवल भ्रमित करने वाला है, ध्यान बंटाने वाला और वक्त बर्बाद करने वाला है बल्कि बस्तर में काम करने वाले चुनिंदा परिश्रमी अधिकारियों को इस धोखे में रखने वाला है कि नक्सलियों को अब पकड़ने की जरूरत नहीं वे खुद उनके पास आएंगे. राहत पैकेज लागू करना सरकार की उदारता का परिचय देता है, या फैसले को दिल्ली से ही बैठकर निपटाने का रास्ता दिखा रहा है? क्या पुनर्वास की गारंटी उन्हें मिल जाना मुख्य धारा में लौटने वाले लोगों को सुरक्षा की गारंटी भी दिलाएगा?
अब जरा ध्यान दिया जाए कि केन्द्र सरकार के राहत पैकेज में क्या है. आत्मसमर्पण करने वाले हर नक्सली को व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा तीन वर्ष तक प्रति माह दो हजार रूपये दिए जाएंगे. इसके अलावा नक्सली के आत्मसमर्पण करते ही डेढ लाख की राशि उसके नाम से बैंक में सावधि जमा खाते में रख दी जायेगी, जिसे वह तीन वर्ष बाद निकाल सकेगा. गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार यदि कोई नक्सली आत्मसमर्पण करते समय हथियार भी सौंपता है तो उसे अलग से प्रोत्साहन राशि दी जाएगी. जनरल परपज मशीनगन आरपीजीयूएमजी या स्निफर राइफल सौंपने पर 25 हजार रूपये तथा ए के श्रृंखला की किसी भी राइफल के लिए 15 हजार रू दिए जायेंगे. पिस्तौल या रिवाल्वर या बारूदी सुरंग के लिए 3 हजार रूपये दिये जायेंगे. जमीन से हवा पर मार करने वाली मिसाइलें सौंपने पर 20 हजार रू. तथा किसी भी तरह के कारतूस के लिए तीन रपये प्रति कारतूस दिये जायेंगे. एक सेटेलाइट फोन के लिए 10 हजार रू. तथा कम दूरी तक काम करने वाले वायरलेस सेट के लिए एक हजार रूपए और लंबी दूरी के सेट के लिए 5 हजार रू. दिये जायेंगे. कुछ अन्य हथियारों के लिए भी राशि तय की गई है.
केन्द्र सरकार की ओर से घोषित यह पैकेज छत्तीसगढ़ में सन् 2000 से लागू पुनर्वास पैकेज का ही विस्तारित स्वरूप है. छत्तीसगढ़ में भी समर्पण करने वाले नक्सलियों के प्रति कम उदारता नहीं रही है. पहले ही छत्तीसगढ़ में समर्पण करने वाले नक्सलियों के अपराधिक मामले समाप्त कर दिये जाते हैं. एमएलजी जैसे घातक हथियार के साथ समर्पण करने वालों को 3 लाख रूपये दिए जाते हैं, एके 47 के साथ समर्पण करने वालों को दो लाख, एसएलआर के साथ समर्पण करने वालों को एक लाख, थ्री नाट थ्री लाने वालों को 75 हजार तथा बंदूक के साथ समर्पण करने वालों को 50 हजार रूपये नगद दिए जाते हैं. राज्य सरकार ने कृषि भूमि देने तथा सरकारी नौकरी में प्राथमिकता देने की व्यवस्था भी कर रखी है. केन्द्र सरकार की नीति में अतिरिक्त आकर्षण यह है कि इसमें नक्सलियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाएगा और प्रतिमाह दो हजार रूपये भी दिए जाएंगे. इसके अलावा उनके नाम पर डेढ़ लाख रूपये की एफ डी कराई जाएगी, जिसे वे अच्छे चालचलन के बाद बाद 3 साल के बाद निकाल सकेंगे.
आशय यह है कि सरकार की ओर से आर्थिक प्रलोभन न तो अनोखा है, न ही ऐसा पहली बार किया गया है. यदि गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने चिदम्बरम् को अंधेरे में रखा होगा कि इसका दूरगामी असर पड़ने वाला है तो वे जरा छत्तीसगढ़ में लागू पिछले 10 साल के पुनर्वास पैकेज का ही आंकड़ा देख लें. अब तक 140 शातिर नक्सलियों ने ही आत्मसमर्पण किया है. और करीब 2400 ऐसे आदिवासियों ने समर्पण किया है, जिन्हें नक्सली अपने साथ बहला- फुसलाकर ले गए थे और संघम-दलम इत्यादि में उन्हें शामिल कर लिया था. बस्तर में ही छोटे बड़े दलों और उनके समर्थकों की मानें तो इनकी संख्या 35 हजार के आसपास है. यह चम्बल के डाकुओं से समर्पण कराने जैसा मामला नहीं है, जिनकी संख्या दो चार सौ हो. ढाई हजार से ज्यादा लोगों के हथियार सौंपने के बाद भी छत्तीसगढ़ में नक्सली देश के सबसे ज्यादा ताकतवर उग्रवादी समूह हैं. बस्तर में आदिवासियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनको सरकार की तरफ से कोई भी अनुदान, कृपा, राशि, अनाज, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधा ग्रहण करना मुश्किल है. ऐसा कर लेने पर वे नक्सलियों के निशाने पर आ जाते हैं. इन्हें किसी भी पुनर्वास पैकेज का लाभ दिलाने के पहले उन्हें नक्सलियों के प्रकोप से बचाना जरूरी है. सरकार बस्तर के युवकों को विशेष पुलिस अधिकारी बनाती है- लेकिन ये पुलिस अधिकारी गांव जाते हैं तो नक्सली इनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर लाश सड़क पर फेंक रहे हैं. यही हाल पुलिस के मुखबिरों का हो रहा है. जन-अदालतों में इनका गला रेता जा रहा है.ये सब किसी न किसी रूप में सरकारी मदद पाते रहे हैं पर ये सब नक्सलवाद खत्म करने में असफल रहे हैं. बस्तर में सबसे बड़ी समस्या सरकारी मशीनरी के पहुंचने और उसकी विश्वसनीयता कायम करने की है.
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह स्वीकार करते हैं कि नक्सली ठेकेदार और अफसरों से 300 करोड़ रूपये सालाना वसूली कर रहे हैं. जाहिर है कि 300 करोड़ वे नक्सलियों को देते हैं तो 600 करोड़ खुद भी अंदर कर रहे होंगे. मान लेना चाहिए कि इतना सब कुछ वे अपना घर बेचकर नहीं करते होंगे. सरकारी खजाने से इतना गोलमाल. फिर क्या अफसर और ठेकेदार इतनी मनमानी करें और हमारे शरीफ राजनीतिज्ञ खामोश बैठे रहेंगे? इसका जवाब हमारे हारे हुए नेता जवाब दें और उनसे पहले वे नेता जवाब दें जो बार-बार नक्सलियों के गढ़ से चुनाव जीतकर आ जाते हैं. नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में काफी पेंच हैं.
इस ताजा पुनर्वास पैकेज से एक रास्ता और खुल गया है, कुछ नकली नक्सली तैयार होंगे. कुछ असली हथियार जमा होंगे और समस्या अपनी जगह पर बनी रहेगी. कुछ ईमानदार पुलिस अफसर जो नक्सलियों के ख़िलाफ मुहिम चला रहे होंगे इस पैकेज के बाद शायद अब जंगलों में भटकने के बजाय शांत होकर बैठ जाएं. इस उम्मीद के साथ कि अब कुछ बड़े-बड़े हथियार लेकर कुछ खूंखार नक्सली उनके थाने तक खुद ही पहुंच जाएंगे और उन्हें किसी दिन स्वतंत्रता दिवस समारोह में सम्मानित किया जाएगा.